आर्थिकमंदी का मीडिया खेल
मौजूदा आर्थिक मंदी दौर की खबरें जुलाई 2008 से आनी शुरू हो गई थीं। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक सन् 30 की मंदी के बाद की यह सबसे बड़ी आर्थिक मंदी है। मंदी के क्या प्रभाव हैं और मंदी से उबरने के लिए किस तरह के आर्थिक पैकेज आने चाहिए और इन पैकेज का किसे लाभ होगा। इसका बार-बार जिक्र आ रहा है। मंदी के प्रभावों को बहुराष्ट्रीय मीडिया भयरहित रूप में पेश कर रहा है।
मीडिया का मूल रवैयया है आर्थिकमंदी से घबड़ाने की जरूरत नहीं है। जीवन में जैसे और बहुत सारी घटनाएं घट रही हैं वैसे ही आर्थिकमंदी भी एक घटना है। यह सामान्य है। सहज रूप में स्वीकार करें। 'भयभीत' होने की जरूरत नहीं है। मजेदार बात यह है कि सामान्य मौत से होने वाले खतरों और असुरक्षा को बार-बार 'भय' के वातावरण के साथ पेश करने वाला मीडिया अचानक आर्थिकमंदी की खबर को 'भय' के बिना प्रस्तुत कर रहा है। आर्थिकमंदी को सामान्य घटना बनाना और समाज को भय के वातावरण के बाहर रखना समग्रता में सकारात्मक और खतरनाक दोनों है।
आर्थिकमंदी के आते ही कहा जाने लगा मंदी जल्दी जाने वाली नहीं है विभिन्ना देश की सरकारों ने (खासकर अमरीका और भारत) ने यह आभास दिया कि वे तुरंत ऐसे कदम उठाने जा रहे हैं जिससे आर्थिकमंदी से बचा जा सके। उसके दुष्प्रभावों को कम किया जा सके। आर्थिकमंदी में मुनाफा तेजी से नीचे गिरता है। बेकारी में तेजी से इजाफा होता है। बाजार में चीजों के दाम कम होने लगते हैं। बैंकों में जमा धन की कीमत कम हो जाती है। शेयरों के दाम गिरने लगते हैं। जीवनस्तर में गिरावट आनी शुरू हो जाती है। कारखाने और कंपनियां बंद होने लगते हैं। छंटनी बढ़ जाती है।
आर्थिकमंदी से बचाने के लिए सरकारी स्तर पर विशेष सलाहकार अथवा निगरानी कमेटियों का गठन कर दिया जाता है। आर्थिक सलाहकारों की टीम तेजी से काम करने लगती है। आर्थिक सुविधाओं के पैकेज दनादन घोषित होने लगते हैं। बाजार में मुद्रा की कमी को पूरा करने के लिए विभिन्ना उपायों के जरिए मुद्रा को बैंकों से निकाला जाता है। सरकार की तरफ से आर्थिकमंदी से निकलने के लिए सतर्क मशीनरी का निर्माण कर दिया जाता है। संकटमोचक ग्रुप बार-बार यही संदेश देते हैं 'घबड़ाने की जरूरत नहीं है।' 'मौजूदा कानूनों को और भी ज्यादा चुस्त-दुरूस्त करने की जरूरत है।'
संकटमोचक ग्रुपों का विचारधारात्मक काम होता है सरकारी नीतियों की साख को बनाए रखना। वित्तीय संस्थानों की प्रभावशीलता, नियमबध्दता और बाजार की प्रतिस्पर्धा में इजाफा करना। जिससे निवेशकों का राष्ट्रीय बाजार में विश्वास बना रहे। सरकारी मशीनरी पूरी तरह युध्द की अवस्था में आ जाती है। सरकार गुप्त और प्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में बाजार में हस्तक्षेप करती है।
भारत में आर्थिकमंदी का असर आने के साथ ही अर्थव्यवस्था की कमान प्रधानमंत्री ने सीधे अपने हाथों में ले ली। संकट से उबरने के क्या-क्या उपाय हो सकते हैं इसके बारे में सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से फैसले आने लगे। विशेष आर्थिक सलाहकारों की टीम का गठन कर दिया गया जो अहर्निश अर्थव्यवस्था पर नजर रखे हुए हैं और तुरंत फैसले ले रहे हैं। इसके बावजूद अर्थव्यवस्था में गिरावट का रूझान बना हुआ है। केन्द्र सरकार की ओर से उद्योग जगत के लिए दो आर्थिक पैकेज की घोषणा की जा चुकी है। किंतु संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा। अमरीका में भी उद्योग जगत को मुँह मांगी आर्थिक सहायता सरकारी पैकेजों के जरिए जारी की गयी है किंतु संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा। बाजार में गिरावट का रूख बना हुआ है। बाजार से बार-बार असफलता की खबरें आ रही हैं। आए दिन नए-नए आर्थिक घोटाले सामने आ रहे हैं। नामी-गिरामी कंपनियां आर्थिक घोटालों में लिप्त पायी जा रही हैं। कल तक जो कंपनियां आदर्श उदाहरण थीं, जिन्हें परवर्ती पूंजीवाद की कारपोरेट तरक्की का आदर्श माना जाता रहा था वे ही कंपनियां धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार की आदर्श प्रतीक के रूप में सामने हैं। सत्यम्,विप्रो,माइक्रोसॉफ्ट यदि भारत में परवर्ती पूंजीवाद की कलंकगाथा का आख्यान लिख रही हैं तो अमरीका,ब्रिटेन आदि विकसित पूंजीवादी मुल्कों में तथाकथित आदर्श कंपनियों की सूची का अभाव नहीं है।
आर्थिकमंदी के दौर में नामी-गिरामी कंपनियों,वित्तीय संस्थानों,बैंक आदि परवर्ती पूंजीवाद की काली करतूतों में सामने आना,बैंकों से लेकर वित्तीय बाजार की गतिविधियों का नियमन करने वाली संस्थाओं का अपने ही बनाए नियमों को गुप्त रूप से तोड़ना और घोटालेबाजों को खुल्लमखुल्ला दुरूपयोग करने देना यह दरशाता है कि परवर्ती पूंजीवाद में बाजार की ताकतें बाजार के नियमों का दुरूपयोग कर रही हैं। 'अबाध कारपोरेट लूट' और 'नियमभंग' का परिणाम है आर्थिकमंदी। बाजार के नियमों का सिर्फ निजी क्षेत्र ही दुरूपयोग नहीं कर रहा बल्कि सरकार भी दुरूपयोग कर रही है। सत्यम और एनरॉन के मामले में इसे साफ देखा जा सकता है। परवर्ती पूंजीवाद का मूलमंत्र है 'दुरूपयोग' और 'नियमभंग'। यही परवर्ती पूंजीवादी अराजकता का स्रोत है।
नव्य उदारतावादी मुक्त बाजार के लिए पहले सरकारी नियमों को बदला गया। नियमों को बाजार की शक्तियों के अनुकूल बनाया गया। यह भी सुविधाजनक नहीं लगा तो नियमभंग शुरू हो गया। बैंकों ने धड़ाधड़ दिवालिया घोषित कर दिया। सत्यम् और विप्रो जैसी कंपनियों को विश्वबैंक ने काली सूची में डाल दिया। क्योंकि उन्होंने नियमभंग किया।
परवर्ती पूंजीवाद के विकास के लिए जब नियम बदले जा रहे थे तो बार-बार बाजार की पवित्रता की सौगंध ली जा रही थी आज उसी बाजार की गंगा को आदर्श पूंजीपतियों,बैंकों,वित्तीय संस्थानों और बहुराष्ट्रीय निगमों ने प्रदूषित कर दिया है। आज बाजार जितना प्रदूषित है और बाजार की खुली प्रतिस्पर्धा जितनी सडांध से भरी है वैसी गंदगी पूंजीवाद के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गयी।
परवर्ती पूंजीवाद के आगमन के साथ 'पारदर्शिता' का वायदा किया गया। 'कारपोरेट प्रशासन' को आदर्श प्रशासन घोषित किया गया। किंतु विगत पांच सालों का अनुभव इन सभी वायदों को पुष्ट नहीं करता। आज पहले की तुलना में कम 'पारदर्शिता' है। आम लोगों पर कर्जा बढ़ा है। आज प्रत्येक मध्यवर्ग का आदमी कर्ज में डूबा है। पूंजीपति कर्ज में डूबा है। किसान कर्ज में डूबा है। मजदूर पामाली और कर्ज में डूबा है। देश की अर्थव्यवस्था कर्ज में डूबी है। इसके बावजूद कहा जा रहा है परवर्ती पूंजीवाद समाज में बहार ,मस्ती और आनंद लेकर आया है। सवाल उठता है इतने व्यापक कर्ज के बावजूद आम आदमी इतनी गहरी नींद में क्यों सोया हुआ है ? आखिरकार क्या वजह है कि आर्थिक तबाही में फंसे होने के बावजूद लोगों में गुस्सा नहीं है ?
परवर्ती पूंजीवाद का पहले वाले पूंजीवाद के साथ मीडिया के संदर्भ में केन्द्रीय अंतर क्या है ? पहले वाला पूंजीवाद अपनी आलोचना को मीडिया में स्थान देता था। ऐसे लेखकों को छापता था जो पूंजीवाद की निर्मम आलोचना करते थे। किंतु परवर्ती पूंजीवाद ऐसा नहीं करता मीडिया में पूंजीवाद के कटु आलोचकों के लिए कोई जगह नहीं है। मीडिया में परवर्ती पूंजीवाद की आलोचना लिखने वाले नियमित पत्रकारों, संवाददाताओं और अर्थशास्त्रियों के लिए कोई जगह नहीं है। परवर्ती पूंजीवाद का अपनी आलोचना से डरना सबसे बड़ी बाधा है। इसके कारण पता नहीं चलता क्या हो रहा है।
अमूमन मीडिया में अति साधारण किस्म की आलोचनाएं प्रकाशित -प्रसारित हो रही हैं। परवर्ती पूंजीवाद को आलोचना के परे ले जाने का ही दुष्परिणाम है कि आज अचानक आर्थिक क्षेत्र के घोटाले बम के गोले की तरह गिर रहे हैं। मीडिया ने रिपोर्टिंग करते समय व्यक्तिगत हितों का तो ख्याल रखा किंतु सामूहिक हितों की अभिव्यक्ति और संरक्षण के काम को त्याग दिया। व्यक्तिगत और सामूहिक हितों के बीच संतुलन बनाए रखने में मीडिया पूरी तरह असफल रहा।
परवर्ती पूंजीवाद के पहले मीडिया ने यथार्थ के उद्धाटन पर जोर दिया, यथार्थ ज्ञान पर जोर दिया। भारत में यह प्रेस का दौर था। परवर्ती पूंजीवाद के आगमन के साथ भारत इलैक्ट्रनिक मीडिया क्रांति में दाखिल होता है। नव्य आर्थिक उदारीकरण के साथ इलैक्ट्रोनिक मीडिया में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का पूंजी निवेश होता है। यह प्रक्रिया सन् 1990 के बाद गति पकड़ती है। सन् 1995 के बाद परवान चढ़ती है।
मोटेतौर पर सन् 1995 के बाद से मीडिया ने यथार्थ का ज्ञान कराने का कार्य छोड़ दिया। यथार्थ ज्ञान के नाम छोटे भ्रष्टाचार, घूसखोरी ,उत्पीडन खूब आए। किंतु भ्रष्टाचार,उत्पीड़न के बड़े यथार्थ को मीडिया ने उद्धाटित करना बंद कर दिया। अब कोई भी घोटाला मीडिया में तब ही आता है जब घोटालेबाज बताए। मीडिया की खोजी प्रतिभाएं अब खबर नहीं देतीं। सत्यम का घोटाला हो या संसद में घूसखोरी का मामला हो। इन सबके बारे में तब ही पता चला जब अपराधी तत्वों ने स्वयं बताया। कहने का अर्थ है मीडिया में यथार्थ स्वयं चलकर जाता है तो मीडिया बता देता है वरना मीडिया ने यथार्थ के पास चलकर जाना बंद कर दिया है।
नव्य अर्थशास्त्री मानते हैं कौन सी वस्तु समाज के लिए अच्छी है यह बताना बेहद मुश्किल है। समाज के लिए क्या अच्छा है यह बात समाज को बाजार में जाकर सीखनी चाहिए। पहले मीडिया का काम था यथार्थ का ज्ञान कराना। आज मीडिया का काम है बाजार का ज्ञान कराना। पहले यथार्थ में हस्तक्षेप करना मीडिया का लक्ष्य था इन दिनों बाजार में हस्तक्षेप करना लक्ष्य है। यथार्थ में हस्तक्षेप के क्रम में मीडिया बताता था समाज के लिए क्या सही है और क्या गलत है। किंतु इन दिनों मीडिया यह सब नहीं बताता। बल्कि बताता है बाजार में क्या आया ,कहां से खरीदें और कैसे खरीदें। मीडिया यह नहीं बताता कि क्या नहीं खरीदें।
मीडिया की हस्तक्षेपकारी भूमिका के कारण यथार्थबोध में इजाफा होता है। ज्ञान में वृध्दि होती है। सामाजिक अनुभव समृध्द होता है। ज्ञान अनंतता और ज्ञान अपरिहार्यता का बोध पैदा होता है। परवर्ती पूंजीवाद ने यथार्थ ज्ञान को बाजार ज्ञान बना दिया। बाजार की वस्तुओं को बिठा दिया। अब हम वस्तुओं को जानते हैं उनके प्रयोजनमूलक आयाम को जानते हैं। इसके अलावा ज्ञान के सभी रूपों को मीडिया ने अप्रासंगिक बनाया है। अब हमारे पास वस्तुओं का संचय है ,ज्ञान का नहीं। हमारे घर वस्तुओं से भरे हैं और मन यथार्थ ज्ञान से शून्य है। मीडिया में अहर्निश प्रसारण हो रहे हैं किंतु यथार्थ जीवन से इन प्रसारणों को जोड़ नहीं पा रहे हैं।
नव्य उदारतावादी मीडिया के तानेबाने में 'ब्रेकिंग' न्यूज अथवा स्वर्त:स्फूत्त समाचार प्रस्तुति ने पैर जमा लिए हैं। खबर की स्वर्त:स्फूत्तता को अपरिहार्य और अनिवार्य बना दिया है। स्वर्त:स्फूत्त खबर पर ही विवेचन आते हैं। खबर की स्वर्त:स्फूत्तता के पीछे दर्शन है कि मानवीय एक्शन के पीछे कोई सुचिंतित बोध नहीं होता। मनुष्य की स्वर्त:स्फूत्त भूमिका में सरकारी एजेंसी की निर्णायक भूमिका नहीं होती। नैतिकता और कानून के क्षेत्र में सरकारी एजेंसी की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती। सब कुछ स्वर्त:स्फूत्त है। बाजार भी स्वर्त:स्फूत्त है।
मीडिया ने स्वर्त:स्फूत्तता का हर क्षेत्र में महिमामंडन किया है। स्वर्त:स्फूत्तता की भाषा को संप्रेषण का औजार बनाया है। स्वर्त:स्फूत्तता पर निर्भर होने के कारण खबर को किसी नीति,निर्देश,लक्ष्य आदि की जरूरत नहीं होती अथवा ये चीजें अप्रासंगिक हैं। अब प्रासंगिक है किसी भी तरह खबर प्रसारित करना।
पहले अभिव्यक्ति की आजादी को व्यक्त करते समय उसकी चुनौतियां नजर आती थीं। खबर को पेश करते समय खबर में निहित चुनौतियां दिखाई देती थीं। खबर हासिल करना चुनौतीभरा काम था। इन दिनों खबर में चुनौती नजर नहीं आती। स्वर्त:स्फूत्तता ने खबर में निहित अन्तर्विरोधों और चुनौतियों को दफन कर दिया है। 'ब्रेकिंग' न्यूज में स्वर्त:स्फूत्तता ही महान है।
परवर्ती पूंजीवाद मूलत: राज्य की आलोचना पर केन्द्रित है। साथ ही राज्य की मदद पर टिका है। हाल ही में आर्थिकमंदी आयी और अनेक वित्तीय संस्थान और कंपनियां आर्थिक पामाली के कगार पर चले गये उन्हें आर्थिक मदद का पैकेज किसी कंपनी से नहीं आया बल्कि सरकारी आर्थिक पैकेज दिया गया तब ही वे संकट से उबरने की स्थिति में आए हैं। परवर्ती पूंजीवाद का नारा है '' राज्य की आलोचना और राज्य पर निर्भरता।'' राज्य के हस्तक्षेप के बिना परवर्ती पूंजीवाद अपने पैंरों पर खड़ा नहीं होता। राज्य की मदद पर ही उसकी प्रभावशीलता नजर आती है।
परवर्ती पूंजीवाद के सारे होहल्ला के बावजूद आज भी सार्वजनिक सुविधाएं और सार्वजनिक प्रसारण की बड़ी भूमिका है। सार्वजनिक सुविधाओं की संरचनाओं का परवर्ती पूंजीवाद तरह-तरह से दोहन कर रहा है। मसलन् संचार के जितने भी रूप आज निजी क्षेत्र में दिखाई दे रहे हैं वे सार्वजनिक संपदा पर आधारित हैं। रेडियो तरंगों से लेकर संचार नेटवर्क तक सभी क्षेत्र में सरकारी सुविधाओं का निजी कंपनियां लाभ उठा रही हैं। संचार के क्षेत्र के अलावा बैंकों से बड़ी मात्रा में सरकारी धन का इस्तेमाल आम बात है।
परवर्ती पूंजीवाद की केन्द्रीय विशेषता है बाजार के पैराडाइम का केन्द्र में आ जाना और लोकतंत्र के पैराडाइम का गौण हो जाना। सब कुछ बाजार और बाजार की शक्तियों से संचालित होता है। पहले लोकतंत्र से संचालित होता था। बाजार के स्थानीय और ग्लोबल अन्तस्संबंध पर जोर है। लोकतंत्र के स्थानीय और ग्लोबल अन्तस्संबंध की अनदेखी की जा रही है। लोकतंत्र को कारपोरेट लोकतंत्र के जरिए अपदस्थ कर दिया गया है।
परवर्ती पूंजीवाद सार्वजनिक संपत्ति के बल पर किस तरह समृध्दों की सृष्टि करता है इसका आदर्श नमूना है चीन। चीन में लंबे समय तक कोई अमीर नहीं था। सन् 2007 की 'फोर्बिस' पत्रिका की अमीरों की सूची में चीन के चालीस अरबपतियों के नाम हैं। ये अरबपति मात्र सत्ताईस साल में पैदा हुए हैं। अमरीका से प्रकाशित 'फोर्बिस' पत्रिका के अनुसार चीन के चालीस अरबपतियों के पास 38 बिलियन (अमेरिकी डालर) की संपत्ति है। कल तक चीन गरीबों का देश था आज हठात् अरबपतियों का देश बन गया। कल तक 'कम्युनिस्ट' देश था आज धनियों का देश है।
'फोर्बिस' की धनी सूची जारी होने बाद पांच दिन बाद जारी वार्षिक 'हारून धनिक सूची' के अनुसार चीन में 120 अरबपतियों के नाम थे। सन् 2006 में चीन में मात्र 15 अरबपति थे,सन् 2002 में एक भी अरबपति नहीं था। किंतु सन् 2007 में अरबपतियों की संख्या बढ़कर 120 हो गयी। उल्लेखनीय है अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा अरबपति चीन में हैं।
अमेरिका में सन् 2007 में 410 अरबपति थे। जिस कंपनी ने इस हारून रिपोर्ट को तैयार किया उसके ब्रिटिश एकाउंटेंट रूपर्ट हॉगबर्फ के अनुसार चीन में 200 से ज्यादा अरबपति हैं। अनेक अरबपति ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी संपदा का खुलासा नहीं किया है। 'हारून' रिपोर्ट में चीन के 800 समृध्दों के नाम शामिल हैं। इनमें वे लोग शामिल हैं जिनके पास औसत 562 मिलियन डालर की संपत्ति है। कुल मिलाकर चीनी अरबपतियों के पास 459.3 बिलियन डालर की संपत्ति है जो सन् 2006 के सकल घरेलू उत्पाद का 16 फीसद है। इस सूची में उन लोगों के नाम शामिल नहीं हैं जिन्होंने शेयर बाजार और सट्टे से दौलत कमायी है।
उल्लेखनीय है चीन के शेयर बाजार में टोक्यो के शेयर बाजार से ज्यादा पूंजी का निवेश और कारोबार होता है। रिपोर्ट के अनुसार 800 चीनी अरबपतियों में एक-तिहाई कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं और 38 नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के सदस्य हैं। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं में अभिजनवाद का वर्चस्व है। राष्ट्रपति हू जिन ताओ की बेटी का ब्याह चीन की इंटरनेट कंपनी 'सीना' के भू.पू. अध्यक्ष के साथ हुआ। यह व्यक्ति महाधनाढ्य है। चीन के प्रधानमंत्री का दामाद चीन की सबसे कीमती फुटबाल टीम का मालिक है। चीन के भू.पू. प्रधानमंत्री और महान् कम्युनिस्ट नेता ली पेंग का बेटा चीन की सबसे बड़ी ऊर्जा उत्पादन कंपनी को नियंत्रित करता है। यही स्थिति देंग जियाओ पिंग के नाते-रिश्तेदारों की भी है। सार्वजनिक संपदा का इसी तरह भू.पू.सोवियत संघ में कम्युनिस्ट के सदस्यों के बीच निजीकरण किया गया और रातों-रात सोवियत संघ में अनेक महाधनाढ्य पैदा हो गए।
परवर्ती पूंजीवाद का महाख्यान ''गौरव से संकट'' तक फैला हुआ है। इस प्रक्रिया में अभिजन समाज को कैसे बचाया जाए और कैसे उसके हितों की रक्षा की जाए इसी पर जोर है। भूमंडलीकरण की नव्य उदारतावाद जितना व्यक्त है उससे ज्यादा अव्यक्त है। यह कहना ज्यादा सही है कि 'व्यक्त और अव्यक्त में अदला-बदली हो गयी है।' इन दिनों तथ्यों की कोई परवाह नहीं करता। तथ्यों की वैधता की पुष्टि कोई नहीं करता। आपको उपयुक्त न लगे तो किसी भी राय को तुरंत अवैध बना सकते हैं,खारिज कर सकते हैं। मीडिया में तथ्यों का बगैर जांच-पड़ताल के प्रसारण और प्रकाशन हो रहा है। तथ्यों को आलोचनात्मक ढ़ंग से देखना मीडिया ने बंद कर दिया है। 'गप्प' का 'तथ्य' की तरह इस्तेमाल हो रहा है। अब 'गप्प' ही खबर है, 'गप्प' ही 'तथ्य' है।
आर्थिकमंदी के नाम पर जो आर्थिक पैकेज दिए जा रहे हैं और आर्थिक विकास के नाम पर जो सब्सीडी खत्म की गयी थीं उनके बीच में भी तुलना करने की जरूरत है। संभवत: आर्थिक सब्सीडी पर इतना खर्चा नहीं आता जितना आर्थिक पैकेज देने पर आ रहा है। आर्थिक सब्सीडी काटने पर जितना जोर दिया गया उससे कई गुना ज्यादा धन 'बुरी अर्थव्यवस्था' को दुरूस्त करने के नाम पर खर्च किया जा रहा है। कहने के लिए किसानों की ऋण माफी का ढोल खूब पीटा गया किंतु किसानों के लिए मात्र 71 हजार करोड़ रूपये के कर्ज माफ किए गए। इसके विपरीत विभिन्ना मदों में कंपनियों के लिए आर्थिक मदद के जिन दो आर्थिक पैकेज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषित किए हैं उनसे उद्योग जगत को कई लाख करोड़ रूपये का लाभ मिलेगा और सरकार को पचास हजार करोड़ के राजस्व की हानि उठानी पड़ेगी। गुजरात में सिर्फ 'नानो' कार के कारखाने के लिए गुजरात सरकार ने अकेले टाटा गु्रप को 40 हजार करोड़ रूपये का लाभ दिया है। यह राशि कई दशकों तक टाटा ग्रुप को मिलेगी। जबकि इसका दशांश भी किसानों को राज्य सरकार नहीं दे पायी है।
मीडिया में अमीर ही प्रमुख आख्यान है। खाते-पीते लोग,सुखी लोग, सुखियों के नाते-रिश्तेदार, सुखियों की आराम-तलब जिंदगी ही बहुराष्ट्रीय मीडिया आख्यान की प्रमुख विषयवस्तु है। सुखियों की जीवनशैली को आदर्श जीवनशैली के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। डेविडर् कोत्तिन ने लिखा है पूंजीवाद ने हमारे ऊपर कैंसर की तरह कब्जा जमा लिया है। कैंसर जैसे शरीर के सभी हिस्सों को अधीन कर लेता है और धीरे-धीरे नष्ट कर देता है। वही स्थिति पूंजीवाद ने की है।
मीडिया में आर्थिकमंदी की खबर न तो सचेत करती है और न भय पैदा करती है।बल्कि यह आभास दिया जाता है कि 'संकट' है। 'संकट' को विशिष्ट संकट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जाहिर है 'विशिष्ट संकट' है तो विशेष समाधान भी होना चाहिए। आर्थिकमंदी की खबर आते ही समाधान भी आने लगते हैं। सरकारी एक्शन भी आने लगते हैं। जबकि किसानों की कर्ज से होने वाली मौत को मीडिया में आने में कई साल लग गए और कर्ज माफी का समाधान आने में कई दशक लग गए।
मीडिया में 'आर्थिकसंकट' और 'आर्थिकमंदी' बहुत सीमित रूप में आख्यान आ रहा है। इसकी प्रस्तुतियों बयान ज्यादा होते हैं यथार्थपूर्ण ,तथ्यपूर्ण वैध रिपोर्ट नहीं होतीं। आर्थिकमंदी के जीवंत दृश्य आख्यान प्रस्तुत नहीं किए जाते। आर्थिकमंदी है तो एक ही समाधान है कि 'विशेष आर्थिक पैकेज' के रूप में सरकारी सहायता की घोषणा। मीडिया और सरकार दोनों ही यह जानने की कोशिश नहीं कर रहे कि इस प्रसंग में सच और झूठ क्या है। मीडिया प्रस्तुतियों में पैकेज की वैधता को लेकर को विवाद नजर नहीं आता। मान लिया गया है कि आर्थिकमंदी का एक ही समाधान है 'विशेष आर्थिक पैकेज' की घोषणा।
सबसे अच्छा यह होता कि आर्थिकमंदी की जड़ों में जाकर कारण खोजने की कोशिश की जाती और उन्हें सामने लाया जाता । अनेक अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि विशेष आर्थिक पैकेज से मंदी के संकट से कुछ समय के लिए राहत मिल सकती है किंतु खतरा टला नहीं है। शेयरधारक लगातार तबाह हो रहे हैं। उनकी अरबों की संपत्ति डूब चुकी है। यह संपत्ति आखिरकार कहां गयी ? अचानक बैंकों में मुद्रा का अकाल क्यों पड़ा ? बैंक और बीमा कंपनियां दिवालिया क्यों हो रही हैं ? जिस क्षेत्र में जाओ वहां पर मंदी का असर है । प्रत्येक क्षेत्र के लोग विशेष आर्थिक पैकेज की मांग कर रहे हैं। अमेरिका में तो पोर्न उद्योग ने भी विशेष आर्थिक पैकेज की मांग की है। पोर्न उद्योग के मालिकों का तर्क है कि मंदी की वजह से पोर्न बेवसाइट पर आने वालों की कमी हो गयी है ,फलत: पोर्न का व्यापार तेजी से गिरा है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक क्षेत्र सरकार से राहत की अपील कर रहा है। मंदी के टीवी दृश्यों में सरकार के सामने अमीर भीख मांग रहे हैं। 'बचाओ-बचाओ' की अपील कर रहे हैं।
आर्थिक मंदी के आते ही यह आभास दिया जा रहा है कि यह संकट अचानक पैदा हुआ है। यह सच नहीं है। 'पारदर्शिता' के नाम पर 'तथ्य' और 'सत्य' दोनों पर पर्दादारी है। पूंजीवाद में 'तथ्य' और 'सत्य' की धाधंली आम बात है। यह धांधली उस समय और भी बढ़ गयी जबसे वर्चुअल पैराडाइम को आधार बनाकर कम्प्यूटर ,इंटरनेट आदि का विशाल तंत्र खड़ा किया गया। सुनने में यह बात अटपटी लग सकती है किंतु वास्तविकता है कि साइबर संस्कृति के मौजूदा दौर में यथार्थ के साथ जितनी धांधलियां हुई हैं उतनी पहले कभी नहीं हुई।
ग्लोबल वर्चुअल संस्कृति की भाषा भी विशिष्ट है। आर्थिकमंदी के बारे में कुछ इस तरह बताया जा रहा है कि लोगों को तकलीफ जैसी चीज महसूस ही न हो। बल्कि 'स्वास्थ्यप्रद भय' की अनुभूति हो। सब कुछ कह बताने के नाम पर सतह को ही गहराई बताया जा रहा है। इसके लिए ग्लोबल भाषा और ग्लोबल पदबधों का प्रयोग हो रहा है। यह ऐसी भाषा है जो किसी एक देश तक सीमित नहीं है । एक देश से दूसरे देश में भ्रमण कर रही है। यह पेशेवर लोगों की कोडभाषा है। आर्थिक संकट को कोडभाषा में प्रस्तुत करने के कारण इस संकट के बारे में साधारण लोग तकरीबन अनभिज्ञ हैं। कोडभाषा साधारण लोगों को प्रभावित नहीं करती।
कोडभाषा भाषा में समस्या पर कम आर्थिक पैकेज प्राप्त करने पर तोर है। प्रधानमंत्री के द्वारा दो आर्थिक पैकेज घोषित कर दिए जाने के बाद से चैनलों और अखबारों से मंदी की खबर मुखपृष्ठ से गायब हो गयी है। गोया सरकार से आर्थिक पैकज हासिल करना ही प्रधान लक्ष्य था। आर्थिकमंदी के बारे में जब मीडिया बताता है तो उसकी उत्पत्ति के कारणों को नहीं बताता । हठात् घटित घटना के रूप में पेश करता है। किन कारणों से आर्थिकमंदी आयी है उन पर मीडिया में एकदम चर्चा नहीं हो रही । आर्थिकमंदी मूलत: नव्य-उदारतावाद की असफलता का संकेत है। पूंजीवाद की असफलता को युध्द के बहाने कम करने की कोशिश होती रही है किंतु इस बार यह हथकंडा भी काम नहीं आया।
मंदी से निकलने के नाम पर बार-बार ऐसी नीतियां और मॉडल बनाए और लागू किए जाते हैं जो यह वायदा करते हैं कि अब मंदी नहीं आएगी। मजेदार बात यह है इस तरह के सारे प्रयास बार-बार असफल हुए हैं। सवाल यह है कि प्रत्येक बार मंदी किस तरह की सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक तबाही छोड़कर जाती है। किस तरह के यथार्थ को छोड़कर जाती है। हम किस तरह के यथार्थ में पहुँच जाते हैं ? किस तरह का यथार्थ कला और साहित्य विधाओं में व्यक्त होता है ?
आर्थिकमंदी की कहानी यथार्थ का एक नया संसार पैदा करती है। यह कथासंसार पहले कभी व्यापक रूप में उपलब्ध नहीं था। सन् 30 की मंदी ने प्रेमचंद जैसा महान् लेखक दिया। छायावाद और प्रगतिवाद जैसा आन्दोलन दिया। स्वाधीनता और त्रासदी को साहित्य में व्यापक अभिव्यक्ति मिली। युध्दजनित अलगाव और अजनबीपन ने अज्ञेय का श्रेष्ठतम कथासंसार दिया। हमने कभी आर्थिकमंदी के संदर्भ में साहित्य और भाषा में आए परिवर्तनों को विश्लेषित नहीं किया है। हमने आर्थिकमंदी के आर्थिक और राजनीतिक आयाम पर चर्चा की है किंतु संस्कृति और कलाओं पर इसका क्या असर होता है इसके बारे में कभी नहीं सोचा।
आर्थिकमंदी मूलत: उत्तर आधुनिक वैचारिक 'खेल' है। इसमें 'खेल' के सभी लक्षण मौजूद हैं। प्रत्येक खेल के नियम,भाषा आदि अलग होते हैं। उसी तरह आर्थिकमंदी के 'खेल' के भी नियम,भाषा ,चरित्र और कहानी अलग है। पहले की आर्थिकमंदी से यह आज की मंदी भिन्न है। आर्थिकमंदी का 'खेल' उदार और अतिरंजित है। उदारता और अतिरंजना के बिना कोई 'खेल' संभव नहीं होता। उदार और अतिरंजना के आधार पर आर्थिकमंदी के बारे में समझ बना रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप देशों और संस्कृतियों की बाधाओं का 'मंदी' अतिक्रमण करती है।
उदारता और अतिरंजना ही 'मंदी' में शिरकत का माहौल बनाते हैं। मजेदार बात यह है मंदी का अनुभव समाज को तब हुआ जब नव्य-उदारतावादी विचारधारा के वायदे असफल हुए। 'मंदी' तब आती है जब पूंजीवाद नियमों को ताकपर रख दे। सिस्टम को असमर्थ बना दे। आर्थिकमंदी हमारे किसी एक क्षेत्र को प्रभावित नहीं करती बल्कि समग्र जगत को प्रभावित करती है।
'मंदी' का स्वाद कडुवा होता है। 'मंदी' में चीजों को आलोचनात्मक ढ़ंग से देखने में असमर्थ होते हैं। अमूमन मंदी पर बातें उसकी जटिलता को ताक पर रखकर की जाती हैं। जिसके कारण मंदी के अर्थ की गंभीरता को पकड़ नहीं पाते। मंदी यदि 'खेल' है तो सकारात्मक है। 'मंदी' के गर्भ से अनेक अच्छी-बुरी चीजें पैदा हुई हैं। किंतु मंदी का सबसे बड़ा परिणाम सकारात्मक ही होगा।
सन् 1930 की आर्थिकमंदी के सकारात्मक परिणाम के तौर पर आज हमारे सामने स्वचालितीकरण और सूचनातंत्र का बृहत्तम तंत्र है।यह सच है कि मंदी के गर्भ से फासीवाद के अनेक दैत्य पैदा हुए,दूसरा विश्वयुध्द हुआ । उससे भी बड़ी चीज यह हुई कि पुराना उपनिवेशवादी तंत्र नष्ट हुआ। आज भी आर्थिकमंदी के खेल में से किसी बड़े सकारात्मक तत्व के पैदा होने की संभावनाएं हैं। सन्30 की मंदी ने पुराने किस्म के अनेक पैराडाइम नष्ट किए और मौजूदा मंदी भी भविष्य में अनेक पैराडाइम नष्ट करेगी।
आर्थिकमंदी का मौजूदा रूप विश्वव्यापी है। रीयल टाइम में सब कुछ घटित हो रहा है। आर्थिकमंदी का स्रोत विकसित पूंजीवादी मुल्क हैं। पहली वाली मंदी के भी जनक ये ही देश थे। विकासशील देशों को यह मंदी ब्याज में झेलनी पड़ रही है। 'मंदी' का खेल प्रतिस्पर्धा और अन्तर्विरोधों को तेज करता है। इस खेल में जिसका भाग्य अच्छा है वहीं बच पाएगा वरना दुर्भाग्य तो सबका पीछा तो किसी तरह विकास की दौड़ में टिके रहेंगे और जो देश तेज दौड़ में भाग नहीं सकते उन्हें मंदी का खेल अपाहिज बन देगा। '
मंदी' के खेल में हम एक-दूसरे की नकल कर रहे हैं। तेज दौड़ और नकल के आधार पर भरोसा पैदा करना चाहते हैं हम दूसरों जैसे हैं। अमरीका में मंदी आयी तो सारी दुनिया में मंदी आयी। मंदी के खेल में उस देश का तो नुकसान होता ही है जो मंदी का स्रोत है किंतु उसके अलावा देशों को ज्यादा नुकसान होता है। मंदी का खेल आर्थिक अराजकता के गर्भ से पैदा हुआ है और पूरी तरह नियोजित है। मंदी का कभी असंगठित ढ़ंग से मुकाबला करना संभव नहीं है। मंदी के नायक भी वही हैं जो मंदी के बहाने सबसे ज्यादा आर्थिक पैकेज से राहत पा रहे हैं। आर्थिकमंदी की प्रक्रिया लंबी और प्रच्छन्न होती है। फलत: इसके मुख्य खिलाडियों को कभी जनता पकड़ ही नहीं पाती है। मंदी के जो मुख्य खिलाड़ी हैं वे ही मंदी के सबसे ज्यादा फल खा रहे हैं। आम आदमी मंदी को जल्दी ही भूल जाता है। मंदी की सनसनी ही कुछ समय तक याद रहती है। निजी तौर पर जो चीजें खोयी होती हैं वही याद रहती है। कुछ समय के बाद बाहरी जगत सामान्य लगने लगता है। चारों ओर मंदी के मारे लोग दिखते हैं उनके कष्ट दिखते हैं और यह सब हमें सामान्य लगने लगता है।
मंदी का खेल 'स्व' को केन्द्र में रखकर संचालित होता है। वास्तव में मंदी 'हम' को प्रभावित करती है। 'हम' को प्रभावित करने के कारण सब कुछ सामान्य लगता है। मीडिया के प्रचार ने यह अनुभूति पैदा की है कि अमरीका का कष्ट और भारत का कष्ट एक जैसा है। अमरीका में जो राहत दी जा रही है वही यहां पर भी दी जा रही है। जिन सांस्कृतिक और आर्थिक 'कोड' के जरिए वहां बातें हो रही हैं उसी तरह यहां पर भी हो रही हैं। उनके अर्थ और हमारे अर्थ में कोई अंतर नहीं है। यह एक तरह की 'स्वचालित उत्पत्तिमूलकता' है। यह 'स्व-प्रेरित' मानसिकता है।
मंदी का खेल सिस्टम से बांधे रखता है। सिस्टम की प्रासंगिकता और अपरिहार्यता को संप्रेषित करता है। सिस्टम से बंधे रहकर ही सिस्टम के खेल को आगे बढ़ाते हैं। सिस्टम के मूड और सिस्टम की सहयोगी शक्तियों के साथ सहमेल और संतुलन बनाकर चलते हैं। मंदी के खेल का सामान्य संप्रेषण नहीं होता बल्कि महासंप्रेषण होता है। इसी महासंप्रेषण के लिए आम लोगों के जीवन व्यवहार को निर्देशित और नियमित किया जाता है।
मंदी का खेल जोखिमों से भरा है। पग-पग पर जोखिम है। इन जोखिमों को पारकर करके ही मंदी के परे जाकर समाज का विकास हुआ है। यथार्थ जगत का निर्माण हुआ है। सन् 30 की मंदी के बाद सारी दुनिया में इतनी ज्यादा संपदा का सृजन हुआ है उतना विगत सैंकड़ों वर्षों में नहीं हुआ। मंदी का खेल मंदी में नहीं रखता बल्कि मंदी के परे विकास की ओर ले जाता है। नयी विश्वव्यापी संरचनाओं की ओर ले जाता है। मंदी के खेल में वे ही आगे जाते हैं जो शक्तिशाली हैं।
मंदी से उबरने के लिए शक्तिशाली प्रयासों की जरूरत होती है। जो सक्षम हैं वे मंदी के परे चले जाते हैं जो अक्षम हैं वे तबाह हो जाते हैं। मंदी से उबरने के लिए कायिक,मानसिक,ज्ञानात्मक और भौतिक धक्के की जरूरत है। हर समय यह खतरा बना रहता है कहीं मंदी के संकट में घिरकर तबाह न हो जाएं। मंदी का यथार्थ निगल तो नहीं लेगा ? किंतु मंदी की चुनौती को जो देश स्वीकार करते हैं और उसका शक्ति के साथ मुकाबला करते हैं उन्हें सफलता भी मिलती है।
मंदी के खेल के बाहर आने के लिए मंदी के तर्क को जानना जरूरी है। मंदी में निहित हायरार्की को जानना जरूरी है। किस स्तर पर मंदी का क्या असर होगा और किस स्तर पर क्या किया जाए ये चीजें तार्किक तौर पर तय करने के बाद ही मंदी के खेल के बाहर आना संभव होता है। मंदी किसी देश विशेष तक सीमित नहीं है। यह अन्तर्निर्भर है।
मंदी का प्रधान कारण है अर्थव्यवस्था का राज्य ,समाज और नियमों की परिधि के बाहर चला जाना। मंदी तब ही कटती है जब अर्थव्यवस्था पुन: राज्य के दायरे में लौटती है, राज्य से राहत की मांग करती है, नियमन की मांग करती है। अराजकता और नियमन के बीच की रस्सा-कसी में नियमन जब कमजोर होता है तो मंदी दाखिल होता है। आर्थिक संतुलन गड़बड़ाता है, विषमता बढ़ती है।
सन् 30 की मंदी से आज की मंदी में कई बुनियादी अंतर हैं पिछली मंदी को परंपरागत आर्थिक उपायों के जरिए संभालने में सफलता मिल गयी थी किंतु इस बार की मंदी परंपरागत आर्थिक समाधानों से संभलने वाली नहीं है। मजेदार बात यह है कि उद्योग को बचाने के लिए जो आर्थिक पैकेज घोषित किए जा रहे हैं उनका अंतत: दबाव उपभोक्ता पर ही पड़ेगा। अकेले भारत सरकार को ही करीब चालीस हजार करोड़ रूपये के करों का नुकसान होगा। दूसरा सबसे बड़ा प्रभाव यह होगा कि विकास कार्यों के लिए धन की कमी होगी। बजट घाटा बढ़ेगा। कर वसूली घटेगी। व्यापार घाटा बढ़ेगा।
इस प्रक्रिया में आम शेयर धारकों को अरबों डॉलर का नुकसान हुआ है। आम नागरिक की बचत घटी है। बैंकों में जमा धन में गिरावट आयी है। बैंकों में जमा राशि से होने वाले लाभों में कमी आयी है। दूसरी ओर संस्कृति और समाज में अपराध की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। आर्थिक मंदी से बचने के लिए यदि करों में कमी की जाती है तो उसका यह भी असर होगा कि सुरक्षामद में भी खर्चे घटाने पड़ सकते हैं। यदि सुरक्षामद के खर्चे कम नहीं किए जाते तो यह भी संभव है कि आंतरिक सुरक्षा में कमी आ जाए। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अमरीका के पास युध्द उद्योग को चंगा करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। युध्द उद्योग को चंगा करने का अर्थ है विश्व स्तर पर युध्द की आग को भड़काए रखना। तनाव के क्षेत्रों का विस्तार करना।
मंदी की मीडिया में रिपोर्टिंग करते हुए आदमी और मुद्रा का अंतर खत्म हो गया है। समूचा मीडिया कवरेज इस तरीके से आ रहा है गोया मंदी का आम आदमी से कोई लेना-देना नहीं है। सिर्फ लेना-देना है तो सिर्फ उद्योग जगत का। मंदी के बारे में राजनीतिक रिपोर्टिंग एकसिरे से गायब है। मंदी के बारे में विभिन्न राजनीतिक दलों और नीतियों की क्या भूमिका है, इसके बारे में कोई चर्चा नहीं हो रही। इस तरह की प्रस्तुतियों का अर्थ है मीडिया ने साधारण आदमी को मंदी के दायरे के बाहर कर दिया है।
मीडिया नहीं चाहता आम आदमी मंदी के सवाल पर शिरकत करे। मीडिया कवरेज के केन्द्र में कारपोरेट घरानों की तकलीफें हैं। विशिष्ट क्षेत्र के लाभ और हानि के सवाल हैं। 'विशेष क्षेत्र' के नाम पर जो पैकेज लाए गए हैं वह इस बात का सबूत है कि मंदी के बहस-मुबाहिसे से आम आदमी गायब रहे। मीडिया संवाददाताओं के डिस्पैच,विशेषज्ञों, स्तम्भकारों और अर्थशास्त्रियों के केन्द्र में भी आम आदमी नहीं है। इनका लेखन भी क्षेत्र विशेष को केन्द्र में रखकर चलता है। आश्चर्य की बात है कि आर्थिक पैकेज घोषित करते हुए यह जानने की भी जरूरत महसूस नहीं की गयी कि जिन लोगों को पैकेज का लाभ मिलने वाला है वे वास्तव में इसके हकदार भी हैं ?
जनता के द्वारा चुने प्रतिनिधियों की जबावदेही समूचे समाज के प्रति है, वे विशिष्ट समूहों के नुमाइंदे नहीं हैं। विशिष्ट समूहों को मदद देने के नाम पर अभी तक जो आर्थिक पैकेज आए हैं उससे बड़े कारपोरेट घरानों को सीधे लाभ मिलेगा। यह बात सीधे पैकेज में ही बता दी गयी है। विशेष क्षेत्र में वे ही शामिल किए गए हैं जिनसे मुनाफा होता है। घाटे वाले क्षेत्रों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। विशेष क्षेत्र के लिए जारी किए गए पैकेज को मीडिया ने इस तरह पेश किया है गोया विशिष्ट क्षेत्र ही देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। विशेष क्षेत्रों को राहत देने का अर्थ देश को राहत देना है।
आज अमरीका में जिस आर्थिकमंदी को देख रहे हैं उसके दो आख्यान हैं जो मीडिया में मिलते हैं पहला आख्यान बताता है कि मंदी पैदा करने में बैंकरों,दलालों,सट्टेबाजों, झूठे कर्जगीरों, भ्रष्ट डेमोक्रेटों,सस्ते कर्जों और क्रेडिट कार्ड धारकों की बड़ी भूमिका है। ये ही लोग मंदी की चपेट में हैं। कर्ज लेकर आनंद करने वाली अर्थव्यवस्था के चलते मौजूदा मंदी आयी है। अब बचत कम है ,खर्चे ज्यादा हैं। आमदनी कम है खर्चे ज्यादा हैं। कर्जे पर सवार होकर अमरीकी अर्थव्यवस्था तेजी से दौड़ रही है। साधारण अमेरिकी से लेकर देश की अर्थव्यवस्था तक सभी कर्ज में आकंठ डूबे हैं।
मंदी का दूसरा आख्यान बताता है कि मंदी की जड़ है रेगूलेशन। नियमन के चलते ही बैंकों ने घरों के लिए कर्ज दिए। व्यापार के कर्जे दिए। इस आख्यान के वाचकों का सारा गुस्सा नियमन के खिलाफ है। इन लोगों का मानना है कि नियमन की बंदिश एकदम हटा देनी चाहिए। इससे साधारण लोगों की आमदनी में इजाफा होगा। बाजार चंगा होगा। इसके पक्ष में तर्क दिया जा रहा है कि विनियमन से सबको लाभ पहुँचा है, लोगों की आमदनी बढ़ी है। संपदा पैदा हुई है। यह सच है कि संपदा पैदा हुई है किंतु इस संपदा का लाभ बहुत कम लोगों तक पहुँचा है। धनी और भी धनी बने हैं।
आए दिन मध्यवर्ग-उच्चमध्यवर्ग और धनी घरानों को आदर्श मॉडल के रूप में पेश किया जाता है। मीडिया समझा रहा है कि विनियमन के कारण समृध्दि आयी है। इस क्रम में मीडिया यह भूल ही गया कि कामकाजी लोगों के काम के घंटों में इजाफा हुआ है। पालन-पोषण का खर्चा बढ़ा है। औरतों,बच्चों,खेत मजदूरों और बेकार मजदूरों की संख्या बढ़ी है। इन लोगों पर विनियमन का सीधे नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। मजदूरों की आमदनी में इजाफे का खोखला दावा किया जा रहा है।
हकीकत में मजदूरों की आमदनी घटी है। विनियमन के नाम पर पहले सरकारी कानूनों को बदला गया। वित्तीय संस्थानों को बगैर किसी नियम कायदे कानून के काम करने की अनुमति दी गयी और यह सब किया गया पारदर्शिता और नव्य उदारता के नाम पर। आज स्थिति यह है कि विनियमन की वकालत करने वाले, बाजार के तर्कों पर चलने वाले अपनी रक्षा के लिए राज्य के खजाने से मदद मांग रहे हैं। जिन लोगों ने समस्त सरकारी नियमों के तंत्र को तोड़ दिया वे ही सरकार से मदद की गुहार लगा रहे हैं। चोम्स्की ने सही कहा है कि सरकारी नियमों को खत्म करने का परिणाम है तबाही और सिर्फ तबाही। अब आम जनता से कहा जा रहा है कि वह नव्य उदारतावादियों की विचारधारा की कीमत अदा करे।
नॉम चोम्स्की के अनुसार मौजूदा आर्थिक संकट की जड़ें 35 साल पुरानी हैं। विगत 35 सालों में यह संकट क्रमश: गहरा हुआ है। संकट और तथ्य दोनों से वाकिफ हैं। पैंतीस साल पहले जिस नव्य उदारतावाद की शुरूआत की गयी थी यह संकट उसकी चरम परिणति है।
नव्य उदारतावाद के नाम पर जो नीतियां अपनायी गयी उनका 'अन्य' पर क्या असर होगा इसका ख्याल ही नहीं रखा गया। बाजार की शक्ति का गुणगान इस कदर किया गया कि हम भूल ही गए कि बाजार की सीमाएं भी हैं। बाजार को अनंत बनाने और सीमाओं को भूल जाने के कारण आज गंभीर संकट में फंसे हैं।
बाजार का तर्क सिर्फ 'स्व' को केन्द्र में रखता है, 'अन्य' को नहीं। बाजार का 'स्व' पर क्या असर होगा, 'स्व' को क्या लाभ होगा। यह तो हमें खूब बताया गया किंतु 'अन्य' पर क्या असर होगा इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया गया। कंपनियों और कारपोरेट घरानों को क्या लाभ होगा यह तो बताया गया किंतु व्यवस्थागत तौर पर क्या क्षति होगी ,इसके बारे में कभी नहीं बताया।
कल तक जो वित्तीय संस्थान अपने को सबसे शक्तिशाली बता रहे थे आज वे स्वयं का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं हैं। उन्हें अपनी रक्षा के लिए राज्य की आर्थिक मदद की जरूरत है। नव्य उदारतावाद की नीतियों में जोखिम अन्तर्निहित था। जोखिम पर पर्दादारी चलती रही आज पर्दादारी से भी जोखिम को छिपाया नहीं जा सकता। यह वैसे ही है जैसे किसी को कैंसर हो जाए और वह छिपाने की कोशिश करे। किंतु कैंसर छिपाने से छिपता नहीं है। नव्य उदारतावाद कैंसर है। उसी का परिणाम है मौजूदा आर्थिक मंदी।
बाजार की जय हो जय हो करने वालों को मालूम था एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि बाजार जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं होगा। बाजार में चीजें भरी पड़ी हैं। खरीददार नहीं हैं। आम लोगों के पास खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। आम आदमी अपनी तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने की स्थिति में नहीं है। आम आदमी की दीर्घकालिक जरूरतें पूरा करना सपने की तरह है।
नव्य उदारतावाद के नाम पर विकास का आख्यान चरम पर रहा है। विकास के नाम पर गरीबी की अनदेखी हुई है। गरीबी पर बातें करना बंद हो गया। गरीबी के विमर्श की जगह अचानक विकास का विमर्श आ गया। गरीबी की जगह सड़क,बिजली,पानी के मुद्दे आ गए और हमने भी यही मान लिया कि विकास ही सर्वस्व है। विकास होगा तो गरीबी अपने आप खत्म हो जाएगी। इस क्रम में हमने पलटकर देखने की कोशिश नहीं की है कि विगत पैंतीस सालों में आम जिंदगी में गरीबी बढ़ी है या घटी है ?
विकास के लंबे चौड़े आख्यान की रोशनी में मीडिया को गरीबी के अंधेरे नजर नहीं आए। नव्य उदारतावाद ने किस तरह की चौतरफा क्षति की है उसकी ओर कभी नहीं देखा ं। अचानक नव्य उदारतावाद का विकास रथ जब रूक गया तो गरीबी,बेकारी,लेऑफ,छंटनी, मुद्रा की कमी, कर्ज की अदायगी आदि समस्याएं नजर आने लगीं। ये समस्याएं मंदी के पहले भी थीं किंतु सामने नहीं आती थीं। पूंजीपतिवर्ग ने अपनी जोखिम को सामाजिक जोखिम बना दिया और मुनाफे को निजी खातों में पहुँचा दिया। बाजार और नव्य उदारतावाद के नाम पर जो खेल चल रहा था उसके पीछे राज्य की संपत्ति ही दांव पर लगी थी, राज्य की संरचनाओं का बाजार की शक्तियां दोहन कर रही थीं। आज बाजार जब संकट में हैं तो पुन: राष्ट्र की शरण में आया है।
बहुराष्ट्रीय मीडिया ने चौतरफा हताशा और किर्ंकत्तव्यविमूढ़ जैसी अवस्था पैदा की है। सूचनाओं का सचेत ढ़ंग से मेनीपुलेशन किया जा रहा है । मेनीपुलेशन को वैधता प्रदान की जा रही है। मेनीपुलेशन के पक्ष में समर्थन जुटाने की कोशिश की जा रही है। मीडिया का समूचा एजेंडा शोरगुल और हंगामे से भरा है। सतही,अर्थहीन और चर्चित चेहरों वाली संस्कृति ने खोजी पत्रकारिता को विदा कर दिया है। मीडिया में अमेरिकन आइडल से लेकर इंडियन आइडल का तांता लगा। 'आइडल' को विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
बहुराष्ट्रीय मीडिया नागरिकबोध की बजाय उपभोक्ता बोध को उभार रहा है। मीडिया में विज्ञापन के प्रभाव पर जोर है और परिवर्तनकामी राजनीतिक कार्र्यकत्ताओं के प्रति नकारात्मक रवैयया पैदा किया जा रहा है। मीडिया से जो बाइट्स प्रसारित की जा रही हैं वे जागरूक नहीं बना रहीं बल्कि मनोरंजन कर रही हैं। टीवी बाइट्स ऊर्जा पैदा नहीं कर रहीं,नयी चीजों पर रोशनी नहीं डालतीं। इसके विपरीत हताशा और निष्क्रियता पैदा कर रही हैं।
बहुराष्ट्रीय मीडिया का एक ही संदेश है 'खरीदो-खरीदो और खरीदो।' दूसरी ओर खबरों के नाम सरकारी खबरें परोसी जा रही हैं। कल तक दूरदर्शन पर यही आरोप था कि उसका सरकारी भोंपू की तरह इस्तेमाल हो रहा है। इसके विकल्प के रूप में टीवी का निजीकरण किया गया। चैनलों का निजी संसार पेश किया गया। किंतु खबरों के नाम निजी चैनलों ने सरकारी भोंपू वाला मार्ग ही पकड़ा। टीवी के स्वतंत्र स्रोत से न्यूनतम खबरें आ रही हैं। वे निरंतर सरकार के भोंपू की तरह बज रहे हैं। मीडिया का सबसे बड़ा स्रोत है सरकार और सिर्फ सरकार।
बहुराष्ट्रीय मीडिया का एक ही नारा है अमरीका अच्छा देश है, आदर्श देश है। अमरीका में आदर्श प्रशासन है। अमरीका में जिस तरह मीडिया प्रशासन के प्रौपेगैण्डा अस्त्र का काम करता है भारत में भी मीडिया ने यह संस्कृति अपना ली है अब टीवी से लेकर अखबारों तक सरकारी प्रचार अभियान की आंधी चल रही है। सरकार की किसी भी नीति के परिणामों के बारे में आलोचनात्मक आवाज एकसिरे से गायब है। सरकारी प्रचार और खबर का अंतर खत्म हो गया है। आम लोगों को सरकारी प्रचार पर विश्वास करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इसे ही कहते हैं समाचार मंदी।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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In fact, English expression 'slowdown' that has been frequently used by Indian English media, seems to have replaced the word 'recession', a harder economics term with several histories of recession in the inflated and euphoric history of capitalism. Slowdown and recession have quite different significance in media.Slowdown shows economy in a looplike structure whereas recession implies a vertically standing pipelike structure with close-ended points. ISn't it interesting to think on our economies with these metaphors?
जवाब देंहटाएंIts really interesting to read the last line of your article that hints at recession in news. Our perception of news has had a paradigm shift. We have been, as you have stated,made to stay in receding news media times deliberately .
VINOD VERMA
vrindhomespace.blogspot.com