वेब का जन्म ऐसे समय में हुआ है जब सारी दुनिया ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया में धकेल दी गई थी। इससे विभिन्न देशों की जनता के बीच संपर्क -सबंध सुदृढ़ हुए हैं। मूल्यों,विचारों और जीवन शैली का आदान-प्रदान बढ़ा है। ग्लोबल टेलीविजन राष्ट्र की सरहदों को पार करके हमारे घरों में पहुँचा है।दुनिया की वस्तुओं को हम आसानी से हासिल कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में स्थानीय संस्कृति और राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए संकट पैदा हुआ है। ग्लोबलाइजेशन अनिवार्य है। उससे बचना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या करें ? ग्लोबलाइजेशन के दुष्प्रभावों से बचने के लिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता पर जोर दिया जाना चाहिए। देसी लोगों के विकास , अतिरिक्त तौर पर सक्रिय उद्योग और परंपरागत ज्ञान के बीच आदान-प्रदान बढ़ाया जाना चाहिए। ग्लोबलाइजेशन के दौर में नई किस्म की मिश्रित संस्कृति जन्म ले रही है। इसके हानि और लाभ दोनों हैं। अनेक देश यह सोच रहे हैं कि नई ग्लोबल संस्कृति से उनके देश विखंडित हो जाएंगे। नए किस्म के बौध्दिक विस्थापन और ब्रेन ड्रेन से उनके जीवन मूल्य समाप्त हो जाएंगे। आधुनिक मीडिया के रूपों ने आक्रामक ढ़ंग से दुनिया के प्रत्येक कोने पर हमला बोला है। स्थानीय संस्कृति को अपदस्थ किया है। कुछ लोग इस प्रक्रिया के गर्भ से सांस्कृतिक एकरसता होते देख रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया को लेकर अतिवादी रवैयये से बचने की जरूरत है। हमें इस संदर्भ में ग्लोबलाइजेशन के खिलाफ उठ रहे प्रतिगामी राष्ट्रवादी रूझानों और उन्मादी संकीर्णतावादियों से सावधान रहना होगा। ये तत्व परंपरा को बचाने के नाम पर बाहरी हवा आने देना नहीं चाहते। इस दृष्टिकोण के कारण मानव विकास को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। अतिवादी दृष्टिकोण से स्थानीय संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। इस संदर्भ में हमें बहुसांस्कृतिक नीति अपनानी होगी। इस नीति का लक्ष्य सिर्फ परंपरा की रक्षा करना नहीं हो सकता। बल्कि इसका लक्ष्य होना चाहिए सांस्कृतिक स्वतंत्रता की रक्षा करना। जनता के बीच सांस्कृतिक विकल्पों का विस्तार करना,जनता को विकल्पों में से चुनने का हक देना। जनता को चुनने के अधिकार से किसी भी रूप में वंचित न करना। चुनने के कारण दण्डित न करना। बल्कि जनता की मदद करना कि परंपरा की सेवा करते हुए उसके सामने सांस्कृतिक विकल्प खुले रहें। 'संस्कृति' कोई बंद डिब्बा नहीं है। जिसमें बाहर से कुछ भी आ नहीं सकता। ग्लोबलाइजेशन के दौर में बहुसांस्कृतिकवाद की रणनीति है उन तत्वों और मूल्यों का विरोध जिनसे मानव विकास बाधित हो। भिन्नता और वैविध्य का सम्मान करना । विश्वव्यापी निर्भरता के युग में वैविध्य हमेशा विस्तार पाता है। एक-दूसरे की पूरक पहचान होती है।इस दौर में पहचान स्थानीय और देश की ही नहीं होती अपितु पूरी मानवता की पहचान बन जाती है। हमें कोशिश करनी चाहिए कि राजनीतिक और आर्थिक असंतुलन किस तरह कम हो सकता है। यह ऐसा दौर है जब हम स्थानीय और ग्लोबल दोनों स्तरों पर एक ही साथ जीते हैं। ग्लोबल संस्कृति का अर्थ अंग्रेजी या किसी ब्रॉण्ड का नाम नहीं है। बल्कि यह सार्वभौम एथिक्स है। इसका आधार हैं सार्वभौम मानवाधिकार। सभी व्यक्तियों के लिए स्वतंत्रता, समानता और सम्मान इसका मूलाधार हैं। आज के दौर में संपर्क के लिए जरूरी है कि हम वैविध्य को स्वीकार करें। दुनिया की हजारों साल पुरानी सैंकडों सांस्कृतिक समूहों की विरासत के वैविध्य को सम्मान की नजर से देखें,स्वीकार करें। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि संस्कृति के क्षेत्र में कोई भी सांस्कृतिक रूप श्रेष्ठ और हेय नहीं है। कोई संस्कृति छोटी और बड़ी नहीं है।
ग्लोबल एथिक्स का अर्थ सारी दुनिया पर पश्चिमी मूल्यों को थोपना नहीं है। यदि ऐसा होता है तो यह कृत्रिम ढ़ंग से ग्लोबल मूल्यों के विकास को रोकना होगा। अन्य संस्कृतियों, धर्मों और समुदायों का अपमान करना होगा। ग्लोबल एथिक्स का लक्ष्य है प्रत्येक मनुष्य को जहां तक संभव हो वहां तक असंरक्षित अवस्था और कष्टों से मुक्ति दिलाना। नैतिक रूप से सभी मनुष्यों को समान मानना। इन्हीं बातों के आधार पर सार्वभौम मानवाधिकारों की घोषणा की गई है। ग्लोबल एथिक्स के पांच बुनियादी तत्व हैं, 1.समानता, 2.मानवाधिकार और जिम्मेदारी, 3. जनतंत्र, 4. अल्पसंख्यकों का संरक्षण और 5. शांतिपूर्ण तरीकों से समस्या का समाधान और भेदभावरहित संवाद।
आज स्थिति यह है कि ' ओईसीडी' के सदस्य राष्ट्रों में विश्व जनसंख्या का मात्र 19 प्रतिशत हिस्सा रहता है। किन्तु माल और सेवा क्षेत्र में इनका 71 प्रतिशत बाजार पर कब्जा है। 58 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश इनके पास है। 91 प्रतिशत इंटरनेट उपभोक्ता इन देशों में हैं। दुनिया में सबसे समृध्द दो सौ लोगों ने 1984 से लेकर 1998 के बीच अपनी आमदनी दुगुनी कर ली। तीन सबसे बडे ख़रबपतियों के पास इतनी संपत्ति है जो समस्त अविकसित राष्ट्रों और उनकी 60 करोड़ आबादी के पास भी नहीं है। 262 अरब डॉलर के दूरसंचार व्यापार के 86 फीसदी हिस्से पर दस बहुराष्ट्र्ीय कंपनियों का कब्जा है।सन् 1993में विश्व में होने वाले अनुसंधान और विकास का चार फीसदी हिस्सा 10 देशों से आया। विकासशील देशों के स्वीकृत किए गए 80 फिसदी पेटेण्ट औद्योगिक देशों के बाशिन्दाें के नाम हैं।दुनिया के 90 फीसदी पेटेण्टों को अमरीका नियंत्रित करता है।हॉलीवुड उद्योग ने 1997 विश्व में 30 अरब डॉलर का व्यापार किया। इस सबके कारण विश्व में असंतुलन बढ़ा है। उपग्रह संचार प्रणाली और कम्प्यूटर व्यवस्था के विकास ने बहुराष्ट््रीय कम्पनियों के हमलों को तेज किया है। संस्कृति उद्योग के माध्यम से सांस्कृतिक मालों की खरीद-फरोख्त बढ़ी है।सांस्कृतिक वैविध्य और जातीय पहचान को खतरा बढ़ा है। नशीले पदार्थों की तस्करी,औरतों की बिक्री एवं जिस्म फरोशी,हथियारों की अवैध बिक्री, अपराध, हिंसा एवं विभाजनकारी ताकतों की गतिविधियों में इजाफा हुआ है। आज विश्व में 20 करोड़ लोग हैं जो विभिन्न किस्म के नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। विगत एक दशक में अफीम का उत्पादन दुगुना हो गया। कोका के पत्तों का उत्पादन दुगुने से भी ज्यादा हो गया। सन् 1995 में नशीले पदार्थों की बिक्री 400 अरब डॉलर आंकी गयी। यह सकल विश्व व्यापार का आठ प्रतिशत है। अकेले पूर्वी यूरोप से पाँच लाख औरतों की बिक्री दर्ज की गयी। अपराध जगत ने 1500 अरब डॉलर का कारोबार किया। काले-धंधे में इतनी तेजी आने का प्रधान कारण है बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, सिंडीकेट माफिया गिरोहों की सक्रिय भागीदारी।
प्रसिध्द मार्क्सवादी माध्यम विशेषज्ञ अर्माण्ड मेतलार्त ने ''कम्युनिकेशन एण्ड क्लास स्ट््रगल ''सीरिज के प्रथम खण्ड ''कैपीटलिज्म इम्पीरियलिज्म ''में लिखा कि 'मासमीडिया ','मीडिया कल्चर' , और 'मीन्स ऑफ कम्युनिकेशन' ये तीनों पदबंध एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं।'मीन्स ऑफ कम्युनिकेशन में साधारणत: 'मास' को जोड़ लिया जाता है। इससे भ्रम बढ़ता है। बुर्जुआ समाजशास्त्री इसका यदा कदा प्रयोग करते हैं। वे 'कम्युनिकेशन मीडिया ', 'मास कम्युनिकेशन मीडिया' या 'मासमीडिया' पदबंध का प्रयोग करते हैं।वे यह दर्शाने की चेष्टा करते हैं कि ये पदबंध राजनीतिक और आर्थिक तौर पर तटस्थ हैं। इस तरह वे 'मीन्स ऑफ कम्युनिकेशन ' में निहित भौतिकता को छिपाने की कोशिश करते हैं।उसके गैर - भौतिक पहलुओं पर ज्यादा जोर देते हैं।
माध्यम उत्पाद को संचार उत्पादन की प्रक्रिया के रुप में पेश करते हैं। पहलीबार जब इस पदबंध का प्रयोग शुरु हुआ तो इससे संस्कृति की भौतिकवादी व्याख्या की उर्वर भूमि तैयार हुई। विगत 19वी ंशताब्दी के अंत से इसका उपयोग चला आ रहा है। उत्तरी अमरीका के समाजविज्ञान के पितामह हर्टन कुली ने विभिन्न तकनीकी विकासों,रेल एवं टेलीग्राफ में प्रयुक्त धारणाओं को मिलाकर एक कॉमन अवधारणा के तौर पर 'मीन्स ऑफ कम्युनिकेशन्स' की धारणा बनायी।बाद में उत्तरी अमरीकी समाजविज्ञान ने इसे भुला दिया।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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