स्वातन्त्रयोत्तार हिन्दी साहित्य को लेकर काफी लिखा गया है। खासकर कविता, कहानी,उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कृतियां हैं जो किसी न किसी रूप में साहित्यिक परिदृश्य पर रोशनी डालती हैं। हम खुश हैं कि हमारे पास रामविलास शर्मा हैं,नामवरसिंह हैं,शिवकुमार मिश्र हैं,रमेशकुंतलमेघ हैं, अशोकबाजपेयी हैं। जाहिरा तौर पर इन आचोचकों की उपस्थिति को अस्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि ये हैं और रहेंगे। इनके नाम अमर हैं। सवाल उठता है आलोचना कहां गुम हो गयी। आज आलोचक हैं किंतु आलोचना नदारत है। अध्यक्षता करने वाले उद्धाटन करने वाले विद्वान हैं किंतु चीजों को उद्धाटित करने वाले विचारों का दूर-दूर तक पता नहीं है। कहने के लिए आलोचना के नाम पर टनों लिखा जा रहा है किंतु आलोचकीय विचार और आलोचना पध्दति का अभी तक निर्माण नहीं कर पाए। हम नहीं जानते कि रामविलास शर्मा के साथ आलोचना का कौन सा विचार जुड़ा है अथवा उन्होंने कौन सी ऐसी धारणा दी जिसके साथ उनकी पहचान बनती हो,आलोचना की पहचान बनती हो। आलोचना का यह शून्य आखिरकार कब और क्यों पैदा हुआ ?
आलोचना शून्य तब पैदा होता है जब आलोचक ग्रहण करना बंद कर देता है। सामाजिक संरचनाओं पर से उसकी पकड़ छूट जाती है। हिन्दी आलोचक की मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं। उसे मालूम ही नहीं है कि स्वातंयोत्तर समाज का ढांचा किन आधारों पर टिका है। वह सीधे कृति के संदर्भ से शुरू होता है और संदर्भ के जरिए अभीप्सित व्याख्या पेश करता है। यह आलोचना नहीं है बल्कि छात्रोपयोगी व्याख्या है,इसे करके ही वह अपने आलोचकीय कर्म की इतिश्री कर लेता है।
साहित्य शिक्षा जगत की मांग और पूर्ति का बहुत गहरा संबंध आलोचना से है। हिन्दी आलोचना का सारा दारोमदार शिक्षा की जरूरतों की पूर्त्ति से जुड़ा है। आलोचना का काम शिक्षा की जरूरतें पूरी करना नहीं है। हिन्दी में रामचन्द्र शुक्ल,हजारीप्रसाद द्विवेदी,नंददुलारे बाजपेयी, रामविलास शर्मा से लेकर आज तक के नवोदित आलोचकों तक में अधिकांश आलोचना किताबें शिक्षा की मांग- पूर्ति के सिध्दान्त के अनुसार लिखी गयी हैं।
आलोचना को हमने मूलत: गैसपेपर का परिष्कृत रूप दे दिया है। यही वजह है कि हिन्दी में आलोचना के द्वारा कोई आलोचकीय ढांचा नहीं बन पाया और न आलोचना की नयी धारणाओं का ही निर्माण हो पाया। हम नहीं जानते कि रामचन्द्रशुक्ल या हजारीप्रसाद द्विवेदी या रामविलास शर्मा को आलोचना की किस मौलिक धारणा के निर्माण के लिए याद करें ?
आलोचना की दूसरी मुश्किल यह है कि उसके पास इच्छित समाज,इच्छित अवधारणा ,इच्छित लक्ष्य और इच्छित प्रभाव का बना -बनाया ढांचा उपलब्ध है। आलोचना ने अभी तक आलोचक की इच्छा के दायरे के बाहर जाकर सोचा ही नहीं है। आलोचक का अपनी इच्छा के दायरे में बंद होकर सोचना इस बात का प्रतीक है कि आलोचक कुछ भी नया अथवा मौलिक लिखना नहीं चाहता। तयशुदा के दायरे के बाहर निकलना नहीं चाहता।
आलोचना की तीसरी बुनियादी मुश्किल है कि उसने सार्वजनिक और निजी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से कभी परिभाषित ही नहीं किया। सार्वजनिक और निजी परिवेश के सवालों को लेकर उसने कोई बहस नहीं की। आधुनिक आलोचना के नाम पर हमने जितना आत्मसात् किया है उससे कई गुना ज्यादा बहिष्कार किया है। आलोचना में बहिष्कार के तत्व का फिनोमिना के तौर पर विकास हुआ है। बहिष्कार का तत्व आधुकिता का अंश है इसे आधुनिक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। बहिष्कार के आधार पर हमने पहले माक्र्सवाद को आधार बनाया और माक्र्सवाद के आधार पर गैर माक्र्सवादी दृष्टियों का बहिष्कार किया, उनके प्रति घृणा का प्रचार किया और अंत में माक्र्सवाद से भी दामन छुड़ा लिया। प्रगतिवाद में जो माक्र्सवादी थे एक अर्सा बाद उन्होंने आलोचना में माक्र्सवाद को तिलांजलि दे दी। दुर्भाग्य की बात यह है कि माक्र्सवादी आलोचना माक्र्स-एंगेल्स ,प्लेखानोव और लेनिन के उध्दरणों के इस्तेमाल के आगे विकास ही नहीं कर पायी।
आलोचना और उसके पध्दतिशास्त्र के प्रमुख आधार के आधार क्या हैं ? इनकी तात्कालिक तौर पर एक सूची तैयार इस तरह बन सकती है ,हमारी आलोचना बताती है- राष्ट्र का चरित्र,गुलामी का वातावरण, ब्रिटिश साम्राज्यवाद। नवोदित पूंजीपतिवर्ग,मजदूरवर्ग और मध्यवर्ग इन तीन नए वर्गों का उदय। अनेक विचारधाराओं के संगठनों की स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी। विचारधारात्मक और सामाजिक बहुलतावाद का विकास। नयी सामाजिक संरचनाओं और संबंधों का उदय। एकल परिवार का उदय। किंतु संयुक्त परिवार का वर्चस्व । मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग का देश के विभिन्न इलाकों में असमान विकास। खासकर हिन्दीभाषी इलाकों में मजदूरवर्ग और पूंजीपतिवर्ग का देर से विकास। आजादी और लोकतंत्र का अभाव। ब्रिटिशसत्ताा का जबर्दस्त दमनचक्र। अकाल और महामारी का ताण्डव। दो महायुध्दों की विभीषिका और उसके गहरे असर। इन सारे तत्वों में से आलोचना ने मूलत: ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोध का मौटे तौर व्यापक विवेचन किया और दूसरा स्त्री के प्रति स्वतंत्रभावों की अभिव्यक्ति को व्यक्त किया। बाकी सभी अवधारणाओं का हिन्दी आलोचना विकास ही नहीं कर पायी।
दिल्ली सल्तनत के जमाने में राजसत्ताा का जनता से दूर का संबंध था। किंतु अंग्रेजों के जमाने में राजसत्ताा का आम जनता के साथ नाभिनालबध्द संबंध स्थापित हुआ। संस्थानगत आधार पर सामाजिक जीवन के विकास की शुरूआत हुई। सार्वजनिक और निजी वातावरण में विभाजनरेखा खींची गयी। अब संस्थानों का दायित्व था सार्वजनिक और निजी वातावरण तैयार करना। निजी वातावरण परंपरा और आधुनिक के सम्मिश्रण से बना हुआ था। इसमें परंपरा व्यापक और आधुनिक सीमित स्थान घेरता था। सार्वजनिक वातावरण के तौर पर राजनीतिक शिरकत,बहस,रायशुमारी,अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में प्रेस का उदय हुआ। यह सारी प्रक्रिया किसी न किसी रूप में राजसत्ता और वर्चस्वशाली वर्ग के हितों से निर्देशित थी।
आधुनिकाल के आगमन के साथ विभिन्न किस्म के विनिमय रूपों का व्यापक विकास हुआ। परिवारों के बीच में विनिमय। वस्तुओं का विनिमय। वफादारी,आज्ञाकारिता और करवसूली आदि प्रशासन की नीतियों के परिणाम थे। राज्य और जनता के बीच में भी व्यापक विनिमय की प्रक्रिया शुरू हुई। एकल परिवार अच्छा परिवार था, सकारात्मक कदम था, किंतु भारत में इसका असमान ढ़ंग से विकास हुआ। एकल परिवार को हिन्दी क्षेत्र में आजादी के बाद ही विकास का मौका मिला। उसे संदेह और घृणा की नजर से देखा गया। सार्वजनिक व्यवस्था राज्य नियंत्रित थी । इसके विपरीत निजी व्यवस्था और निजी वातावरण का नियंत्रण राज्य नहीं करता था। निजी वातावरण और निजता का नियंत्रण पुराने मूल्यों के हवाले था। निजता पर प्राचीनता हावी थी। बड़ा ही सुंदर दायित्व विभाजन आजादी पूर्व के दौर में मिलता है सार्वजनिक वातावरण आधुनिक सत्ताा की शक्तियों के जिम्मे था तो निजी वातावरण प्राचीनतापंथियों के जिम्मे था। यह सार्वजनिक और निजी का 'व्यवस्था' के स्तर पर किया गया विभाजन था।
नए उपभोक्तावर्ग का उदय हुआ। पहलीबार औरतों के निजी और सार्वजनिक वातावरण के बारे में विस्तार के साथ आमजीवन में बहस शुरू हुई। मध्यकाल में औरतों के सार्वजनिक और निजी में भेद नहीं था। उसे लेकर बहस भी नहीं थी। रैनेसां में औरतों की सामाजिक शिरकत को लेकर बहस शुरू हुई, औरतों के सवालों को सार्वजनिक तौर पर उठाया गया। मजदूरवर्ग का उदय हुआ। मजदूरवर्ग की भूमिका परिभाषित की गई। निजी अर्थव्यवस्था और सार्वजनिक अर्थव्यवस्था में अंतर किया गया। मजदूरवर्ग के उदय का अर्थ है मर्दानगी के नए युग का उदय।मर्दानगी पहले घरेलू जीवन में वर्चस्व बनाए हुए थी अब यह मजदूरवर्ग और पूंजीपतिवर्ग के रूप में सार्वजनिक जीवन में वर्चस्व बनाए हुए है। पूंजीवादी व्यवस्था मजदूरवर्ग को आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर पामाल करती है। मनोवैज्ञानिक तबाही लेकर आती है।
मजदूरवर्ग की मर्दानगी के कारण औरतों को श्रम के लिए समान वेतन और सुविधाएं नहीं मिलीं। सहयोगी कार्यों के तौर पर औरतों के श्रम को देखा गया। औरतों के कार्य का स्त्रीकरण किया गया और स्त्री के काम को सेवाक्षेत्र के रूप में देखा गया। स्त्रीसेवा कार्यों में सचिव,घरेलू नौकरानी, सेल्सगर्ल, वेश्या,हाल ही में हवाई यात्राओं और दूरसंचार के क्षेत्र में भी औरत को देख सकते हैं। साथ ही औरतों के सहयोगीकर्म के रूप में स्त्री के मातृत्ववाले गुणों से जुड़े कार्यों को रखा गया। जैसे नर्स,सामाजिक कार्यकत्तर्ाा, आया, प्राइमरी स्कूल शिक्षिका आदि। औरतों के उत्पीड़न के भी क्षेत्र तय रहे हैं जैसे शारीरिक उत्पीडन, कम मजदूरी, कम कौशल का काम,पार्टटाइम नौकरानी, दो शिफ्टों में काम करने वाले मजदूर ,दोनों शिफ्टों में काम करने वालों में बंधुआ घरेलू नौकर, वेतनभोगी घरेलू नौकर दोनों ही शामिल हैं। मजदूरों में मजदूरनी को दोयमदर्जा दिया गया। इसके अलावा लिंगाधारित कार्यक्षेत्र आ गए जिनमें कामकाजी माँ, कामकाजी पत्नी आदि पदबंधों का प्रयोग चल निकला इन पदबंधों का अर्थ है कि जो औरत काम कर रही है वह प्राथमिकतौर पर मॉ है और कमाई के लिए घर से बाहर निकली है। जिससे पूरक के रूप में कुछ कमाई कर सके। ये सारी चीजें मिलकर आजादी के पहले का सार्वजनिक वातावरण बनाती हैं।
आजादी के बाद भारत विभाजन,साम्प्रदायिक हिंसाचार, लाखों लोगों का कत्ल। लोकतंत्र का आगमन। लोकतांत्रिक संरचनाओं का निर्माण। लोकतांत्रिक मूल्यों,नियमों आदि के प्रति वचनवध्दता। नए वर्ग के तौर पर क्षेत्रीय पूंजीपतिवर्ग का उदय,ठेकेदार,इंजीनियर,डाक्टर,राजनीतिज्ञ आदि पेशेवर तबकों का व्यापक रूप में उदय और विस्तार। संरचनाओं में नए और पुराने का द्वंद्व। न्यायपालिका और कार्यपालिका में पुराने मूल्यों और रूढियों के प्रति गहरी आस्था, संविधान में पर्सनल लॉ के रूप में 750 से ज्यादा समुदायों के निजी कानूनों का बने रहना। सामाजिक जीवन में पुराने मूल्यों,रीति-रिवाजों,मान्यताओं आदि को संविधान के द्वारा खुला संरक्षण। इसका समूचे सार्वजनिक और निजी जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ा। संविधान में पितृसत्ता और मर्दानगी को सर्वोच्च दर्जा और उसका महिमामंडन किया गया। इसने सार्वजनिक और निजी को नए सिरे से नियमित किया और निजता को विकसित ही नहीं होने दिया। निजता का व्यापक विकास तब ही हो पाया जब हम भूमंडलीकरण के दौर में दाखिल होते हैं। सार्वजनिक वातावरण् के नाम पर उपभोक्तावादी वातावरण बनाने पर ज्यादा जोर दिया गया इसके कारण पितृसत्ता को नयी ऊर्जा मिली।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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