- जेएनयू के महाख्यान की स्मृतियां -
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छात्र राजनीति का महाख्यान है जेएनयू। छात्र अस्मिता की राजनीति का आरंभ सन् 65-66 में बीएचयू में समाजवादियों ने किया और जेएनयू ने उसे सन् 1972-73के बाद से नई बुलंदियों तक पहुँचाया। देश में छात्र अस्मिता और छात्र राजनीति को लोकतांत्रिक बोध देने में एसएफआई की बड़ी भूमिका रही है, खासकर जेएनयू में। जेएनयू लोकतांत्रिक छात्र राजनीति की प्रयोगशाला है। इस प्रयोगशाला के निर्माण में माक्र्सवादियों, समाजवादियों और फ्री थिंकरों की केन्द्रीय भूमिका रही है।
आमतौर पर शिक्षा का देश में जो वातावरण है वह छात्रों को सामाजिक जड़ताओं और रूढियों से मुक्त नहीं करता। इसके विपरीत जेएनयू के संस्थापकों का सपना था शिक्षा को रूढियों और सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का अस्त्र बनाया जाए। शिक्षा केन्द्र वर्जनाओं से मुक्ति के तीर्थ बनें। जेएनयू के वातावरण में सभी किस्म की वर्जनाओं से मुक्ति का संदेश छिपा है। जेएनयू में पढ़ने वाला छात्र सामान्य प्रयत्न से सामाजिक रूढियों और वर्जनाओं से मुक्त होता है । जेएनयू की संरचना में वर्जना और अछूतभाव के लिए जगह नहीं है।
भारतीय समाज की सबसे बड़ी बाधा है वर्जनाएं ,अछूतभाव और भेदभाव की सभ्यता। जेएनयू का इसी सभ्यता के साथ विचारधारात्मक संघर्ष है। जेएनयू का वातावरण निषेधों और वर्जनाओं के वातावरण का विकल्प देता और इस विकल्प को तैयार करने में जेएनयू के छात्रों और छात्र राजनीति की केन्द्रीय भूमिका रही है। यह वातावरण किसी एक नेता, प्रशासक, संगठन आदि की देन नहीं है बल्कि सामुदायिक प्रयासों की देन है। सामुदायिक प्रयासों ने जाने-अनजाने जेएनयू की धुरी बायनरी अपोजीशन को बना दिया। यहां पर छोटा बड़ा और बड़ा छोटा बन जाता है। भेदों की अनुभूति गायब है।
भारतीय समाज में तरह-तरह के भेद हैं किंतु जेएनयू में अभेद का वैभव है। जेएनयू भेदों को समझता है किंतु मानता नहीं है। बाकी विश्वविद्यालय भेदों को समझने के साथ भेदों में जीते हैं। शिक्षा के लिए भेद और वर्जनाएं सबसे बुरी चीजें हैं। इन्हीं दोनों चीजों को जेएनयू ने निशाना बनाया है। जेएनयू वास्तव अर्थों में संस्थान है यहां प्रत्येक स्तर पर सभी वर्ग शिरकत करते हैं। खासकर छात्रों की शिरकत अभूतपूर्व है। देश के किसी भी विश्वविद्यालय में प्रत्येक स्तर पर छात्रों की शिरकत, सम्मान और साख वैसी नहीं है जैसी जेएनयू में है। फैसलेकुन कमेटियों में सभी स्तरों पर छात्रों की शिरकत और छात्रों की राय का सम्मान जेएनयू की सबसे बड़ी पूंजी है।
जेएनयू का कोई भी आख्यान छात्रों के बिना नहीं बनता। जेएनयू छात्रों की पहचान ज्ञान ,राजनीति और लोकतांत्रिक नजरिए से बनी है। लोकतंत्र की महानता का जैसा आख्यान जेएनयू ने तैयार किया है वैसा दुनिया के किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता। जेएनयू के छात्रों के पास दुनिया को देखने का एक विशिष्ट नजरिया है,जीवनशैली और स्वायत्ताता बोध है। यही वजह है जेएनयू का छात्र भिन्न नजर आता है।
जेएनयू के वातावरण में व्यक्तित्व रूपान्तरण की अद्भुत शक्ति है। आप किसी भी पृष्ठभूमि के हों जेएनयू में दाखिला लेने के बाद बदले बिना नहीं रह सकते। व्यक्तित्व रूपान्तरण की इतनी जबर्दस्त स्वाभाविक शक्ति अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती। आखिरकार परिवर्तन की यह शक्ति आती कहां से है ?
मैं अपने छोटे से तजुर्बे के आधार पर कह सकता हूँ कि जेएनयू की स्वाभाविक धारा में शामिल होने के बाद कोई भी छात्र और अध्यापक अपने को बदले बिना नहीं रह सकता। जो बदल नहीं पाते थे वे संग्रहालय की धरोहर नजर आते थे। बदलो या धरोहर बनो। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से जेएनयू का वातावरण किसी भी छात्र की जीवनशैली और नजरिए को प्रभावित करता है।
जेएनयू में सन् 1979 में जब प्रवेश परीक्षा देने आया तो सबसे पहले गंगा ढाबे पर अनिल चौधरी से परिचय हुआ। वह उस समय एसएफआई के और छात्र संघ के महासचिव थे। उनसे मिलने का प्रधान कारण था वह मथुरा के थे। मैं भी मथुरा का था। उन्होंने बड़े ही आत्मीयभाव से स्वागत किया और अनौपचारिक ढ़ंग से व्यवहार किया। अनिल के अंदाज में खासकिस्म का गर्वीला ठेठ देसी भाव था जो अपनी चाल-ढाल और बातचीत की भाषा में अभिजात्य भावबोध को चुनौती देता था। वह तीक्ष्णबुध्दि और तेजतर्रार छात्रनेता था। अनेक विलायत पलट नेता उसके नजरिए के सामने बौने नजर आते थे। समस्याओं को सुलझाने की उसकी अपनी देशी शैली थी और भाषण का स्थानीय मथुरिया अंदाज था।
मथुरिया अंदाज की विशेषता है बेबाकी मुखरता। अंग्रेजी भाषी अभिजात्य पृष्ठभूमि के लोग उसकी पारदर्शी बुध्दि की दाद देते थे। अनेक बार छात्र आन्दोलन के संकट के क्षणों में अनिल की मेधा बिजली की चमक की तरह दिखती थी, अनिल की हमदर्दी और संवेदनशीलता के सारे कॉमरेड कायल थे और अपने सुख-दुख का उसे साथी मानते थे।
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जेएनयू के दाखिले की प्रक्रिया बड़ी ही दिलचस्प हुआ करती थी, पहले टेस्ट और बाद में इंटरव्यू ,इन दोनों के आधार पर ही दाखिला होता था। मैंने जब फार्मभरा तो अनेक मिथ, भय, दुविधा और विभ्रम थे। पहला मिथ था जिसके ज्यादा अच्छे नम्बर होते हैं उसका ही दाखिला होता है। खैर मेरा दाखिला होते ही यह भ्रम टूट गया क्योंकि शास्त्री में मेरे मात्र पचास फीसद नम्बर थे। दूसरा मिथ था जेएनयू मेधावियों का केन्द्र है ,दाखिले के बाद बड़ी मात्रा में औसत दर्जे के छात्रों को देखकर यह मिथ भी खत्म हो गया। यह मिथ भी टूटा कि जेएनयू में सभी शिक्षक बड़े ज्ञानी होते हैं। हिंदी में कई औसत शिक्षक भी थे और जीनियस शिक्षकों में नामवरसिंह, मैनेजर पाण्डेय और केदारनाथसिंह प्रमुख थे। जेएनयू के बारे में एक अन्य मिथ था नामवरसिंह ऐसे किसी भी छात्र को हिन्दी में दाखिला नहीं देते जहां के किसी छात्र का एसएफआई या सीपीएम से संबंध हो। मेरे मामा कविवर मनमोहन और अनिल चौधरी दोनों का एसएफआई और मथुरा से संबंध था अत: यह भय था कि मथुरा का पता दोगे तो दाखिला नहीं होगा। काफी बुध्दि खर्च करने के बाद अपने ज्योतिष गुरू संकटाप्रसाद उपाध्याय के बनारस के घर का पता दिया। चूंकि मैं अंग्रेजी नहीं जानता था अत: फार्म भरने का काम मनमोहन और हरिवंश ने मिलकर किया। जेएनयू का प्रवेश फार्म भी मजेदार था उसमें अनेक रोचक कॉलम थे ,उनमें एक कॉलम था कि आप किस शहर के वाशिंदा हैं और उसमें कितनी तहसील हैं। तकलीफ तब हुई जब बनारस में कितनी तहसील हैं इस कॉलम को मुश्किल से इधर-उधर से पूछकर भरा गया। मैं साक्षात्कार के समय डरा हुआ था कहीं नामवरजी बनारस के बारे कुछ पूछ न लें। खैर उन्होंने परेशान नहीं किया उलटे वे खुश थे कि कोई सिध्दान्त ज्योतिष से प्रथमश्रेणी में आचार्य करके हिंदी पढ़ने आया है।
मेरे पिता जेएनयू में दाखिले के सख्त खिलाफ थे क्योंकि मेरे मामा मनमोहन ने अंतर्जाजीय विवाह जेएनयू की एक छात्रा शुभा शर्मा से किया था। चौबों के लिए यह विवाह सामाजिक धक्के की तरह था। टेस्ट के बाद जब इंटरव्यू हुआ तो मुझे पहलीबार नामवरसिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पाण्डेय, सावित्री चन्द्र शोभा, चिन्तामणि, डा.सुधेशजी आदि के दर्शन का मौका मिला। 50 मिनट के करीब सवाल जबाव हुए और ज्योंही मैं इण्टरव्यू खत्म करके कमरे से निकल रहा था कि अचानक मेरे प्रवेश फार्म में आंखे गड़ाए बैठे डा. चिन्तामणिजी ने मजेदार कमजोरी खोज निकाली , तुरंत लौटने को कहा और सवाल किया कि आपकी शिक्षा मथुरा की है ,घर भी मथुरा में है, किंतु संपर्क का पता बनारस का क्यों है ? मेरे पास इसका कोई सटीक जबाव नहीं था अचानक मैंने कहानी बनायी कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली और विमाता के कारण मुझे अपने ज्योतिष गुरू के घर बनारस रहना पड़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि मैं कभी बनारस में नहीं रहा और मेरे पिता ने दूसरी शादी नहीं की। उसी समय नामवरजी ने मार्के का दूसरा सवाल किया आपने सिध्दान्त ज्योतिष से आचार्य किया है आप पीएचडी में दाखिल ले सकते हैं। मैंने तुरंत कहा मुझे एमए में दाखिला चाहिए, नामवरजी का सवाल था क्यों ? मैंने कहा कि मैं हजारीप्रसाद द्विवेदीजी की तरह हिंदी पढ़ाना चाहता हूँ। संभवत: मेरा यह उत्तर डूबे को तिनके के सहारे की तरह मददगार साबित हुआ और मैं जेएनयू पहुँच गया।
हिन्दी विभाग के दो छात्रों का व्यक्तित्व मुझे बड़ा ही दिलचस्प लगता था इनमें एक थे घनश्याम मिश्र और दूसरे थे चौधरी रामबीर सिंह। इन दोनों के व्यक्तित्व के साथ जेएनयू के हिंदी विभाग की पहचान भी जुड़ी थी। ये दोनों ही मस्त पहलवान किस्म के छात्र थे। जेएनयू के इकहरे बदन के छात्रों में इन्हें विलक्षण माना जाता था। एक बार मजेदार वाकया भी हुआ जब काशी वि.वि. में अन्तर्विश्वविद्यालय कुश्ती प्रतियोगिता के लिए चौधरी रामबीर सिंह को भेज दिया गया, जेएनयू के इतिहास में यह अद्भुत क्षण था क्योंकि जेएनयू के छात्रों में खेलों के प्रति कभी गहरी दिलचस्पी नहीं थी। खेल को वे बेकार मानते थे, ऊर्जा का अपव्यय मानते थे। चौधरी रामबीर सिंह का कुश्ती प्रतियोगिता में काशी जाना और वहां से हार के आना भी एक खबर बन गया। हिंदी विभाग जिस केन्द्र के तहत था उसे भारतीय भाषा केन्द्र कहते थे, यह भाषा संस्थान का हिस्सा था। उन दिनों विभाग में सबसे दिलचस्प और धाकड़ छात्र था कुलदीपकुमार वह घोषित तौर पर कम से कम कक्षाएं करता था और कभी समय पर अपने टर्मपेपर ,टयूटोरियल वगैरह जमा नहीं करता था। हर बार उसका एक ग्रेड नामवरजी काटते थे। नामवरजी का नियम था जो छात्र देर से टर्मपेपर वगैरह देगा उसका एक ग्रेड काट लिया जाएगा। कुलदीप ग्रेड कटवाता था और उसके बावजूद 'ए माइनस ' ग्रेड पाता था। मैंने ग्रेड कटवाने वाला छात्र अपने जीवन में नहीं देखा। भारतीय भाषा केन्द्र में दूसरे दो बड़े ही अच्छे दोस्त थे राजेन्द्र शर्मा और असद जैदी। राजेन्द्र हिंदी में था,असद उर्दू में था। दोनों के गुण अलग थे। राजेन्द्र की खूबी थी जिसे एसएफआई की राय से सहमत करने के लिए जाता था उसे विपक्ष में करके आता था। असद के पोस्टर स्वयं में उसकी कला के प्रदर्शन का केन्द्र थे।
मनमोहन के बारे में चर्चा किए बिना भारतीय भाषा केन्द्र की चर्चा खत्म नहीं हो सकती। मनमोहन अपनी मेधा, सरलता, सहजता और बेबाकी के कारण भारतीय भाषा केन्द्र के विद्याार्थियों में प्रसिध्द था। उसे बचपन से ही कविताएं लिखने का शौक था। विचारों की दुनिया में रमण करने में उसे मजा आता था। माक्र्सवाद की बारीकियों, साहित्य की कल्पनाशीलता को वह आज भी साक्षात अपने जीवन में जीता है। कवि और साहित्यकार होने के बावजूद उसकी समूची व्यवहारिक जिंदगी कवि के तामझाम के बाहर है। कविरूप में जेएनयू के अंदर ही नहीं समूचे देश में उसने प्रसिध्दि अर्जित की। खासकर आपात्काल के दौरान मनमोहन की लिखी कविताएं बेहद लोकप्रिय हुईं। इनमें जिस कविता ने सभी को आकर्षित किया वह थी 'आ राजा का बाजा बजा।'
जेएनयू में पढ़ते हुए छात्रों में मनमोहन की जनप्रियता उस समय देखने लायक थी जब एसएफआई का पैनल एसएफसी चुनावों में भारतीय भाषा केन्द्र में पांचों सीटों पर सन् 1979 में एसएफआई विरोधी हवा होने के बावजूद जीत गया। मैंने दाखिला लिया ही था और समूचे कैम्पस में खासकर भारतीय भाषा केन्द्र में एसएफआई के खिलाफ नामवरजी से दर्ुव्यवहार करने के कारण तनावपूर्ण वातावरण था उसमें एआईएसएफ के समूचे पैनल का हारना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी। उस साल (1979) छात्रसंघ चुनाव में डी.रघुनंदन ने अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की थी और दिग्विजय सिंह ने महासचिव पद पर जीत दर्ज की थी। दिग्विजय सिंह को सभी छात्र दादा कहकर पुकारते थे, दादा का व्यवहार भी सचमुच दादा जैसा था, वे सभी छात्रों से बेहद स्नेह करते थे, बिहार से आने वाले छात्रों को तुलनात्मक तौर पर ज्यादा प्यार करते थे। दिग्विजय सिंह ने समाजवादी युवजनसभा की ओर से चुनाव जीता था और उनकी लोकतांत्रिक मूल्यों और लोहिया के विचारों के प्रति गहरी निष्ठा सभी को प्रभावित करती थी। भाषा संस्थान से छात्रसंघ की राजनीति में मुख्यपद पर जीतने वाले दादा पहले नेता थे। दादा के पहले छात्रसंघ में भाषा संस्थान का मुख्यपदों (अध्यक्ष और महासचिव पद) पर कभी भी कोई उम्मीदवार नहीं जीता था, बाद में सन् 1983 में रूसी भाषा केन्द्र की रश्मि दोराईस्वामी अध्यक्ष बनी और उसके बाद मैं अध्यक्ष पद पर सन् 1984 में चुना गया। इसके बाद तो भाषा संस्थान से अनेक नेता पैदा हुए जो छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गए। छात्रसंघ के इतिहास में मैं पहला अध्यक्ष था जिसने अपनी पीएचडी समय पर जमा की, मैंने मात्र साढ़े छह साल में एम.ए,एम.फिल् और पीएचडी का कोर्स पूरा किया। जेएनयू की सारी डिग्रियों (एमए,एमफिल् और पीएचडी) की पढ़ाई निर्धारित समय में मुझसे पहले किसी भी छात्रसंघ अध्यक्ष ने पूरा नहीं किया।
भारतीय भाषा केन्द्र का कोई भी आख्यान नामवरसिंह के बिना संपन्न नहीं होता। नामवरजी की कक्षा करना निश्चित रूप से एक विशिष्ट अनुभव से गुजरना था। उनकी क्लास विचारोत्तोजक और प्रेरक हुआ करती थी। नामवरजी के व्यक्तित्व को लेकर अनेक किस्म का वादविवाद हो सकता है किंतु एक चीज निर्विवाद है उनकी भाषणकला, बेहतरीन शिक्षक की इमेज और छात्रों में आलोचनात्मक विवेक पैदा करने की क्षमता। आलोचनात्मक विवेक पैदा करने का काम सबसे कठिन काम था। आयरनी यह थी कि नामवरजी अपने प्रभाव से आलोचनात्मक विवेक पैदा करते थे किंतु अंदर से आलोचना नापसंद करते थे। स्वभाव से नामवरजी को आज्ञाकारी भाव ही पसंद था किंतु अपने भाषणों और कक्षा में वक्तृता के जरिए उन्होंने सैंकड़ों विवेकवान छात्र तैयार किए हैं। संभवत: हिंदी में किसी एक शिक्षक ने उच्चशिक्षा के स्तर पर इतना व्यापक योगदान अभी तक नहीं किया है। आप नामवरजी से नफरत करते हों किंतु उनका लोहा मानने को मजबूर होंगे। नामवरजी का यह लोहा मनवाने वाला हुनर उनकी आलोचनात्मक विवेक पैदा करने वाली कला के गर्भ से पैदा हुआ है। यह कला नामवरजी ने माक्र्सवादी परंपरा से सीखी। उसे आम जीवन की आलोचना में बदला है। नामवर सिंह पढ़ाते समय जिस चीज को सबसे ज्यादा पसंद करते थे और प्रशंसा भी करते थे वह था आलोचनात्मक विवेक। नामवरजी अगर किसी चीज पर फिदा थे तो छात्रों के आलोचनात्मक विवेक पर। वे बार-बार उन छात्रों की प्रशंसा करते थे जो आलोचनात्मक विवेक की कसौटी पर खरे उतरते थे। वे ऐसे भी छात्रों की प्रशंसा करते थे जिनके बारे में प्रसिध्द था कि वे नामवरजी के कटु आलोचक हैं। छात्रों के साथ समानता और सभ्यता के धरातल पर बात करने वाले वह विरल शिक्षक हैं।
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जेएनयू की एक आयरनी है कि इसमें आइकॉन विरोधी भावबोध है। इसके बावजूद कुछ छात्रनेता ऐसे भी हुए जो अपने को जेएनयू के आइकॉन या प्रतीक पुरूष के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफल रहे। इनमें जिसने सबसे ज्यादा शोहरत और साख हासिल की है वह देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी डीपीटी। इन दिनों वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। देवी प्रसाद त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाकात सन् 1979 के अक्टूबर महिने में छात्रसंघ के चुनाव के मौके पर हुई। त्रिपाठीजी के बारे में मैं लगातार अन्तर्विरोधी बातें सुनता रहता था। खासकर जेएनयू आने के बाद अनेक एसएफआई नेता थे जो नहीं चाहते थे कि त्रिपाठी जी को कभी भी एसएफआई और उससे जुड़े मंचों पर बुलाया जाए। मजेदार बात यह थी कि ये नेतागण उनके बारे में तरह-तरह की कानाफूसी भी किया करते थे। एक अवस्था तो यह भी आयी कि माकपा के दिल्ली राज्य नेतृत्व से यह तय करा लिया गया कि त्रिपाठी को कभी जेएनयू चुनाव में प्रचार के लिए नहीं बुलाया जाएगा। सन् 1979 में डी.रघुनंदन को एसएफआई ने अध्यक्ष पद पर लड़ाने का फैसला लिया। आखिरी समय में स्थितियां एसएफआई के अनुकूल नहीं थीं। उस साल एआईएसएफ के साथ चुनावी समझौता भी नहीं हो पाया था। अंत में झक मारकर जेएनयू पार्टी ब्रांच ने निर्णय लिया कि देवीप्रसाद त्रिपाठी को प्रचार के लिए इलाहाबाद से बुलाया जाए।
देवी प्रसाद त्रिपाठी उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग में अध्यापन कार्य कर रहे थे और माकपा के उ.प्र. राज्य कमेटी सदस्य थे। इलाहाबाद में पार्टी का काम मूलत: उन्हीं के जिम्मे था। उल्लेखनीय है उनके इलाहाबाद में पार्टी कार्य देखने के दौरान ही पहलीबार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यक्ष पद पर एसएफआई ने चुनाव जीता था। त्रिपाठीजी की इन सारी स्थितियों के बावजूद जेएनयू के कुछ नेताओं का उनके प्रति गुटपरस्तभाव मुझे आज तक समझ में नहीं आया। मेरी समझ है जब एक व्यक्ति पार्टी का सदस्य है तो उसके प्रति पार्टी के अंदर भेदभाव नहीं होना चाहिए।
डीपीटी के संदर्भ में माकपा के अंदर भेदभाव और गुटपरस्ती को मैंने पहलीबार जब देखा तो माथा ठनका था। कई बार इस मसले को लेकर पार्टी में गर्मागर्म बहसें भी हुईं और उसका यह सुपरिणाम था कि मैं त्रिपाठीजी को देखना चाहता था, मैंने कुलदीपकुमार से अपनी इच्छा व्यक्त की मेरी डीपीटी से मुलाकात करा दो। कुलदीप ने कहा वे रघु के चुनाव प्रचार के लिए आ रहे हैं तुम मेरे साथ रहना मुलाकात हो जाएगी और त्रिपाठी आए तो सबसे पहले उन्हें खाना खिलाने के लिए हम दोनों डाउन कैम्पस में कटवारिया सराय में एक रेस्टोरैंट में ले गए हम तीनों ने जमकर खाना खाया और खूब बातें की। अंत में खाना खाकर तकरीबन ग्यारह बजे रात को हम ऊपर कैम्पस में आए और गोदावरी होस्टल (लड़कियों का) में चुनावसभा स्थल पर पहुँचे और तकरीबन एक बजे करीब डीपीटी ने अपना भाषण शुरू किया जो तकरीबन ढाई घंटे का था । इतना लंबा धारावाहिक, आकर्षक, विचारों से भरा भाषण्ा सुनकर सभी छात्र मुग्ध थे, मेरे लिए यह विलक्षण अनुभव था। मैंने अनेक नेताओं के भाषण सुने थे, सबसे लंबे भाषण के रूप में जयप्रकाशनारायण और चन्द्रशेखर का भाषण मैं मथुरा में सुन चुका था। किंतु डीपीटी के भाषण के बाद जो अनुभूति भाषणकला के प्रति पैदा हुई वह आनंददायी थी।
डीपीटी का भाषण आकर्षक,सरस, मानवीय और विचारधारात्मक था। यह भाषण द्विभाषी था। अधिकांश समय अंग्रेजी को मिला तकरीबन आधा घंटा हिन्दी में भी बोले। अनिलचौधरी और रमेश दधीचि के अलावा त्रिपाठीजी तीसरे छात्र नेता थे जो हिन्दी में भी थोड़ा समय बोलते थे। रघु के चुनाव की यह अंतिम सभा थी और इसमें प्रकाश कारात, सीताराम येचुरी ने भी भाषण दिया और जब त्रिपाठीजी बोल रहे थे वे दोनों मुग्धभाव से सुन रहे थे और बार-बार यह संकेत भी कर रहे थे कि त्रिपाठी को सुनना एक आनंद से कम नहीं है। मजेदार बात यह थी कि उन्हें इतना मजा आ रहा था कि प्रत्येक बीस मिनट के बाद एक स्लिप डीपीटी की ओर बढ़ा देते थे कि बीस मिनट और बोलो। किसी नेता के भाषण के प्रति किसी नेता का यह आग्रह निश्चित रूप से विरल चीज थी।
डीपीटी के भाषण शुरू होने के बाद कैम्पस में और कहीं पर किसी भी संगठन को अपनी चुनावी सभा जारी रखने में जबर्दस्त मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। विपक्ष के सभी नेता और कार्यकत्तर्ाा अपनी सभा खत्म करके उनका भाषण सुनने चले आते थे ,रघु की चुनाव सभा में कहने को मंच पर प्रकाश कारात और सीताराम येचुरी बैठे थे वे पहले ही भाषण दे चुके थे उनके भाषणों के दौरान वह हलचल और सुनने की बेचैनी नहीं देखी गयी जो त्रिपाठी के भाषण के समय देखी गयी। त्रिपाठी को लंबे समय तक विपक्ष की सभाभंग करने वाले वक्ता के रूप में भी जाना जाता था। त्रिपाठी के भाषण के प्रति आम छात्रों में एक तरह का पागलपन था। मैंने अनेक छात्रों से पूछा कि भाई ऐसा क्या है जो पागल की तरह सुनने आ गए, सभी एक ही बात कहते थे कि त्रिपाठी को सुनने में मजा आता है। त्रिपाठी के भाषण के बाद जाना कि भाषण को आनंद देने वाला होना चाहिए। अमूमन नेतागण भाषणों के जरिए बोर करते हैं।
त्रिपाठी के भाषणों में रस होता था। त्रिपाठी ने अपनी भाषणकला में राजनीतिक भाषण कला में समाजवादी, कम्युनिस्ट और पंडितों की कथाशैली का सम्मिश्रण करके एक ऐसा फॉरमेट तैयार किया था जिसमें समाजवादियों की तरह विचारधारात्मक विवाद थे, कथाओं की तरह आनंद और आख्यान था साथ ही कम्युनिस्टों की समाहार शैली भी थी। त्रिपाठी की कोशिश हुआ करती थी कि श्रोताओं को कुछ देर के लिए दैनन्दिन जंजाल के बाहर ज्ञान के जंजाल में आनंद लेने को तैयार किया जाए। फलत: भाषण में विवाद ,समाहार,और आनंद की त्रिवेणी का एक अच्छी विचारोत्तोजक सुबह में मिलन होता था। त्रिपाठी का भाषण आधी रात के बाद कभी शुरू होता था और सुबह सूर्योदय के पहले तक चलता था। रघु के चुनाव के समय जो जलवा था वही जलवा अगले साल वी. भास्कर के चुनाव के समय भी था और दोनों ही मौकों पर मैन ऑफ द मैच त्रिपाठी थे। त्रिपाठी का हिन्दी का देशी ठाठ हिन्दीभाषी प्रान्तों के छात्रों को बेहद अपील करता था। डीपीटी अकेले वक्ता थे जिनकी अभिजन और गैर अभिजनों में समान अपील और सम्मान था। रघु की चुनाव सभा खत्म करने के बाद डीपीटी और मै,ं कुलदीपकुमार के पेरियार होस्टल स्थित कमरे में चले आए तब त्रिपाठीजी ने अपने हंसी-मजाक वाले अंदाज में ही मुझसे अपनी ज्योतिष संबंधी जिज्ञासाएं रखीं और इस तरह मैंने पहलीबार किसी माक्र्सवादी को ज्योतिषी से प्रश्न करते पाया।
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जेएनयू के प्रतीक पुरूषों में तीन कॉमरेडों का नाम आता है ये हैं देवीप्रसाद त्रिपाठी, प्रकाश कारात और सीताराम येचुरी। इनमें से एकमात्र देवी प्रसाद त्रिपाठी ने सबसे ज्यादा कुर्बानियां दीं। आपातकाल में 18 महीनों तक जेल में रहे। जबकि बाकी दोनों का किसी भी किस्म की कुर्बानी देने का रिकॉर्ड नहीं है। यह बात दीगर है कि प्रकाशकारात और सीताराम येचुरी को माकपा के शीर्ष नेतृत्व में जगह मिली। इन दोनों नेताओं के व्यक्तित्व की अपनी-अपनी निजी विशेषताएं हैं। किंतु कुछ साझा विशेषताएं भी हैं। दोनों माक्र्सवाद की किताबी भाषा से अच्छी तरह वाकिफ हैं। दोनों का माक्र्सवाद और हिंदुस्तान के प्रति दर्शकीय संबंध है। प्रकाश कारात ने जेएनयू में सन् 1980 में भास्कर वेंकटरमन के अध्यक्ष पद हेतु आखिरी चुनाव प्रचार सभा की। तब से प्रकाशकारात ने कभी छात्र चुनाव सभाओं में हिस्सा नहीं लिया।
प्रकाश कारात का भाषण पार्टी प्रेस विज्ञप्ति, पार्टी कक्षा और पार्टी के संपादकीय शैली का मिश्रित रूप था ,उसके भाषणों में जिंदगी की धड़कनों का अभाव खटकता था, चाहकर भी वह अंत तक इस कमजोरी से मुक्त हो पाया। प्रकाश के इस स्वभाव का जीवन और पार्टी के प्रति यांत्रिक और संवेदनाहीन समझ से गहरा संबंध है। कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर जो लोग स्टालिन टाइप व्यक्तित्व से प्रभावित हैं उन्हें प्रकाश अपील करता है। साधारण छात्रों में उसके भाषण्ाों की न्यूनतम अपील होती थी, सिर्फ एसएफआई के सदस्यों का एक हिस्सा ही उसे आदर्श वक्ता के रूप में पसंद करता था।
इसके विपरीत सीताराम येचुरी के भाषणों में पब्लिक स्कूल के डिबेटरों की शैली थी, यह शैली जेएनयू के पब्लिक स्कूल मार्का छात्रों को अपील करती थी, इसी शैली के कारण सीताराम को मीडिया में भी ज्यादा पसंद किया जाता है। पब्लिक स्कूल मार्का वक्तृता शैली मूलत: आभिजात्य पापुलिज्म को संबोधित करती है। आभिजात्य पृष्ठभूमि के छात्रों में सीताराम की जनप्रियता जबर्दस्त थी ।
उल्लेखनीय है आभिजात्य की जनप्रियता खोखली और अस्थायी होती है। यही वजह है सीता के भाषणों का क्षणिक प्रभाव होता था। वह जिस क्षण बोलता है तत्काल ही प्रभावहीन हो जाता है। आप जब तक भाषण सुनते हैं अच्छा लगता है, भाषण बंद और प्रभाव भी खत्म। इसके विपरीत डीपीटी के भाषणों में आख्यान और विचार की सम्मिश्रित पध्दति का प्रयोग था। डीपीटी का भाषण सुनते हुए छात्र आनंद लेते थे बाद में उसे स्मरण करके बहस करते थे। बहस अंतर्वस्तु और भाषणकला दोनों को लेकर होती थी।
जेएनयू की वामपंथी छात्र संस्कृति को बनाने में जिन छात्रों की भूमिका महत्वपूर्ण थी और जो आइकॉन नहीं थे किंतु अपने जमाने के जेएनयू के बेहतरीन छात्र होने के साथ बेहतरीन संगठनकत्तर्ाा थे इनमें सर्वप्रथम दो नाम आते हैं पहला रमेश दीक्षित का और दूसरा है सुनीत चोपड़ा का। इन दोनों ने अपने-अपने तरीके से जेएनयू के छात्र आंदोलन की बुनियाद का निर्माण किया। साथ ही देश में एसएफआई जैसे विशाल छात्र संगठन के संस्थापक सदस्यों में भी बने। सुनीत इन दिनों माकपा के केन्द्रीय कमेटी के सदस्य हैं जबकि रमेश दीक्षित राष्ट्रवादी कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व का अंग हैं। इन दोनों छात्रनेताओं ने लंबे समय तक जेएनयू के उदात्त मानवीय चरित्र को अपने दैनन्दिन व्यवहार और विचारधारात्मक कार्यों से प्रस्तुत किया। इनके अलावा उस जमाने में छात्र आंदोलन के अग्रणी नेताओं में दिनेश अवरोल, प्रबीर पुरकायस्थ, अशोक लता जैन, इंदु अग्निहोत्री,सुहेल हाशमी, दिलीप उपाध्याय ,सीताराम प्रसाद सिंह, कैशर शमीम, रमेश दधीचि आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
( लेखक,, सन् 1984 में जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष )
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
बहुत सटीक विश्लेषण. खास तौर से प्रकाश करात और सीताराम येचुरी के सन्दर्भ में तो बहुत ही सटीक तरीके से विवेचन हुआ है. इस लेख का ज्यादा प्रचार होना चाहिए.
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