साइबर संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में यदि लेखक और लेखन को देखें तो नए किस्म की चीजें सामने नजर आएंगी। आज प्रामाण्कि अथवा ऑथेन्टिक के सवाल केन्द्रीय सवाल हैं। साइबर संस्कृति में प्रामाणिकता की पुष्टि पहले की जाती है। बाद में अन्य बातें होती हैं। पहले व्यक्ति स्वयं प्रमाण था। आज उसे प्रमाण देना होता है। आज आप जब फोन करके अपना बिल का पता करना चाहते हैं तो फोन पर बैठी साइबर कन्या प्रमाण मांगती है। जन्ततिथि पूछती है। जन्मतिथि सही है तो आपकी प्रामाणिक पहचान बन गयी और यदि जन्मतिथि ठीक नहीं बता पाते हैं तो मामला गड़बड़ा सकता है। साइबर संस्कृति का मंत्र है '' बनाओ और दो।'' इसके बीच में यथार्थपरक प्राथमिकताएं काम नहीं करतीं। आप जब अपनी प्रामाणिकता का प्रमाण दे रहे होते हैं तो यह भी बता रहे होते हैं कि आप क्या हैं और क्या करना चाहते हैं। इसी अर्थ में क्या हैं और क्या करना चाहते हैं , को अलग करके नहीं देखा जा सकता।
लेखक के नाते अथवा पत्रकार के नाते हम किसी घटना या विषय का चयन करते हैं और फिर उसे पेश करते हैं। लोग जानते हैं कि घटना घटी है तो उसका क्या अर्थ है ? हम घटना की छवि बनाते हैं। उसके बारे में लिखते हैं। हम भरसक कोशिश करते हैं कि प्रामाणिक रूप में पेश करें। प्रामाणिक प्रस्तुति मीडिया में भी करते हैं और साहित्यिक विधाओं में भी प्रामाणिक प्रस्तुति पर जोर देते हैं। लोग देखते और पढ़ते हैं। वे समझते भी हैं। किंतु ज्योंही आप अपनी बात कहकर खत्म करते हैं तो लोग उम्मीद करते हैं घटना का भिन्न रूप प्रस्तुत क्यों नहीं किया गया। क्योंकि किसी भी घटना अथवा विषयवस्तु की प्रस्तुति अनेक रूपों में हो सकती है। भिन्न रूप में चीजों को सजाया भी जा सकता है। लेखक अथवा पत्रकार से यथार्थ की भिन्न प्रस्तुति की मांग के प्रति हमेशा प्रतिरोध व्यक्त किया जाता है। यह प्रतिरोध और कोई नहीं स्वयं लेखक अथवा पत्रकार करते हैं। वे सत्ता के आख्यान और नजरिए से इस कदर बंधे होते हैं कि भिन्न प्रस्तुति कर ही नहीं पाते। यथार्थ की भिन्न प्रस्तुति के कारण ही गोदान महान रचना बन पायी। कफन कहानी क्लासिक कहानी बन पायी। एक ही घटना की प्रस्तुति में अनेक किस्म के नजरिए सक्रिय रहते हैं। घटना में शामिल सभी पक्ष अपने तरीके से यथार्थ को पेश करना चाहते हैं और अपने ही पक्ष पर बल देना चाहते हैं। किंतु यदि सीधे-सीधे घटना में शामिल वर्गों या समूहों अथवा व्यक्तियों की बातों को सीधे पेश कर दिया जाए तो इससे न तो यथार्थ के मर्म को संप्रेषित कर पाएंगे और न इससे यथार्थ का दर्जा ही ऊँचा उठा पाएंगे। यथार्थ का दर्जा ऊँचा उठाने के लिए जरूरी है कि घटना में अथवा यथार्थ में शामिल पात्रों के नजरिए से पेश करने की बजाय भिन्न नजरिए से मर्म को चित्रित किया जाए। प्रेमचंद के समूचे चित्रण की विशेषता है कि वह यथार्थ के मर्म को पात्रों से भिन्न नजरिए से उदघाटित करते हैं। यह वह मर्म है जो छिपा है। हमें कथानक कहते समय यह ध्यान रखना चहिए कि आखिरकार हम किस फ्रेमवर्क में अपनी बातें कह रहे हैं।
हमें यह भी सवाल करना चाहिए कि आखिरकार लेखन क्या है ? रोलां बार्थ ने लिखा है लेखन प्रत्येक आवाज ,प्रत्येक विचार के उदय का विध्वंस है। लेखन तटस्थ,सामंजस्यपूर्ण,विकल्प के स्थानों से भरा है, जिसमें व्यक्ति छिपा रहता है। नकारात्मक इस अर्थ में कि इसमें सभी किस्म की अस्मिताओं का लोप हो जाता है। जबकि उसका आरंभ ही अस्मिता और लेखन से होता है। लेखक जब लिखता है तो वह स्वयं का ही लोप कर बैठता है। लेखन का आरंभ लेखक की मौत है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
शुक्रवार, 10 जुलाई 2009
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