ज़ाक देरिदा का न होना
(जन्म 15जुलाई 1930और मृत्यु 8 अक्टूबर 2004)
देरिदा नहीं रहे। उनका मरना एक घटना मात्र बनकर रह गया। दुनिया के सभी बड़े माध्यमों ने उनकी मौत को सिर्फ एक घटना बना दिया। देरिदा महान् विचारों के सर्जक थे।बीसवीं सदी के संकटग्रस्त बुर्जुआ के सबसे अच्छे तार्किक सिध्दान्तकार थे।खासकर उपग्रह युग और कम्प्यूटर संस्कृति के गर्भ से पैदा होने वाले सवालों के गंभीर और विलक्षण दार्शनिक थे।समूची दार्शनिक परंपरा और साहित्य सैध्दान्तिकी को उन्होंने हाइपर टेक्स्ट के संदर्भ में विखंडित करके पढ़ा।वे नए के हिमायती थे।नए की हिमायत में बगैर किसी पक्षपात के खड़े होते थे।
देरिदा ने संकटग्रस्त बुर्जुआ विचारधारा को नया जीवन दिया। हेगेल के बाद के वे सबसे बड़े बुर्जुआ विचारक थे। देरिदा के विचारों में पारदर्शिता थी। उनके विचारों ने समस्त दार्शनिक स्कूलों और विचारधाराओं को प्रभावित किया।देरिदा के विचारों की शक्ति का ही असर था कि प्रत्येक स्कूल ने अपने बारे में नए सिरे से मंथन किया।आज दुनिया में समाजविज्ञान,मानविकी आदि में शयद ही कोई ऐसा अनुसंधान हो जिसमें देरिदा उध्दृत न किए जाते हों। देरिदा आज प्रत्येक विचारक के सामने चुनौती हैं।वे परंपरागत दलीय प्रणाली की राजनीति के विरोधी थे।उसमें उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया।किंतु वियतनाम युध्द का विरोध किया।अफ्रीका के नस्लवादी शासन के खिलाफ और अफ्रीकी जनता की आजादी के पक्ष में अग्रणी पंक्ति में रहे। फिलिस्तीनियों के मुक्ति संग्राम का उन्होंने समर्थन किया।सारी दुनिया में शरणार्थियों की समस्या को उठाया। सारी दुनिया में फांसी की सजा दिए जाने का विरोध किया। सन् 1981 में चैकोस्लोवाकिया बागी चेक लेखकों से मिलने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें लांछित करने के लिए कम्युनिस्ट शासन ने उन पर नशीले मादक पदार्थों की तस्करी का आरोप लगा दिया।बाद में फ्रांस सरकार के हस्तक्षेप के कारण उन्हें रिहा किया गया। देरिदा ने ग्यारह सितम्बर को अमेरिका में आतंकवादी संगठनों ने जो ध्वंस लीला मचायी,उसका विरोध किया और अमेरिका का पक्ष लिया। साथ ही इराक पर अमेरिकी हमले का भी विरोध किया।
अल्जीरिया के अल ब्लेयर में सन् 1949 तक उनका किशोर जीवन गुजरा।यहीं पर रहकर उन्होंने अपनी उच्च माध्यमिक तक की पढ़ाई पूरी की।देरिदा स्वयं को 'थोड़ा काला और थोड़ा अरब' मानते थे।सन् 1952 में उन्होंने ' इकोल नारमाले सुपीरियर' में दाखिला लिया। यहां उन्हें फूको और अल्थूजर जैसे महान् शिक्षक और विचारकों से पढ़ने का मौका मिला।बाद में बेल्जियम के हर्शेल आर्काइव से अध्ययन किया। अल्जीरिया में सैन्य सेवा में काम करना अनिवार्य था जिसके कारण उन्हें सेना के बच्चों के स्कूल में अंग्रेजी और फ्रेंच पढ़ाने के लिए जाना पड़ा।इसके अलावा उन्होंने सॉरबोन,इकोल नारमाले सुपीरियर,जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय,कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय,पेरिस स्थित सामाजिक अध्ययन संस्थान आदि में दर्शनशास्त्र का अध्यापन कार्य किया।देरिदा ने सारी दुनिया की यात्रा की और अपने विचारोत्तेजक व्याख्यानों से जबर्दस्त शोहरत हासिल की।सन् 2003 से वे कैसर से पीडित थे।इसके कारण उनका भ्रमण और बोलना कम हो गया था। आखिरकार आठ अक्टूबर 2004 को पेरिसन हॉस्पीटल में उनकी कैंसर के कारण मौत हो गई।
देरिदा का आरंभिक कार्य फिनोमिनोलॉजी को लेकर था। जबकि आरंभिक शोधकार्य एडमंड हुर्सेल पर था। 1954 में यह कृति 'दि प्राब्लम ऑफ जेनेसिस इन हुर्सेल्स फिनोमिनोलॉजी' के नाम से प्रकाशित हुई। सन् 1962 में देरिदा ने हुर्सेल की चर्चित कृति 'फाउण्डेशन ऑफ ज्यॉमेट्री' का अनुवाद किया और उसकी विस्तृत भूमिका लिखी। जिसका शीर्षक था 'दि ऑरिजन ऑफ ज्यॉमेट्री।' सन् 1967 में उनकी तीन महत्वपूर्ण कृतियां प्रकाषित हुईं। ये हैं-ऑफ ग्रामोटोलॉजी, राइटिंग एण्ड डिफरेंस,स्पीच एंड फिनोमिना। इसके पांच साल बाद 1972 में 'डिसिमिनेशन एंड मारजिंस ऑफ फिलॉसफी' का प्रकाशन हुआ।इसी वर्ष उनके साक्षात्कारों का संकलन 'पोजीशन' नाम से आया।इसके बाद देरिदा की प्रति वर्ष एक से ज्यादा कृतियां प्रकाशित होती रही हैं।उनकी जितनी कृतियां प्रकाशित हैं उससे ज्यादा अप्रकाशित हैं। देरिदा को सबसे ज्यादा जनप्रियता 'डिकंस्ट्रक्शन' की धारणा ने दिलायी।इसकी सैध्दान्तिकी के निर्माण में देरिदा ने जिन बातों को आधार बनाया है उन्हें पहले हाइडेगर ने 'बीइंग एंड टाइम' में उठाया था।यह मूलत: नीत्शे की 'डिमोलिशन' की धारणा से ली गई है।
देरिदा के अनुसार विरचनावाद,पाठ के अध्ययन की पध्दति है।यह परंपरागत अर्थ में जिसे रीडिंग कहते हैं,उससे भिन्न है। विरचनावाद पाठ के निर्धारित अर्थ को अपदस्थ करता है। उसके अर्थगत अद्वितीयत्व को विखंडित करता है। विरचनावाद पहले से तय अर्थ को नष्ट करता है।पाठ के एकाधिक अर्थ हो सकते हैं,इस धारणा पर जोर देता है।वह पाठ के श्रेणीबध्द-अर्थगतक्रम को प्रतिवर्तित कर देता है। देरिदा ने वाचन बनाम लेखन के विवाद में किसी एक मत का पक्षधर होने की बजाय वाचन और लेखन दोनों को एक-दूसरा का पूरक माना। देरिदा ने पाठ के अर्थ के 'केन्द्र' होने की धारणा का खण्डन किया।
विरचना उस समय आरंभ होती है,जब हम उस क्षण पर पहुँचते हैं,जब कोई पाठ स्वयं के लिए बनाए नियमों का उल्लंघन करने लगे।पाठ इस बिन्दु से विखंडित होना शुरू होता है। देरिदा ने विरचनावादी पध्दति को दोहरी रीडिंग या पठन के रूप में व्याख्यायित किया है। भारतीय परंपरा में यह विशेषता संस्कृत काव्यशास्त्र में ध्वनि सिध्दान्त में है। खासकर अभिनवगुप्त ने पाठ के अनेकार्थी रूप और पठन के तत्व पर विस्तार से विचार किया है।
देरिदा के यहाँ रीडिंग के पहले चरण में पाठ में निहित सामान्य अर्थों को खोला जाता है।उनसे बहस चलायी जाती है।रीडिंग के दूसरे चरण में पाठ में निहित विभेद (डिफरेंस) या अन्तर्विरोधों का उद्धाटन किया जाता है।इसी बिन्दु पर आकर अर्थ का एकत्व लुप्त हो जाता है।अर्थगत अनिश्चयात्मकता पूरी तरह सामने आ जाती है। कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक पाठ स्वयं को विस्थापित करने की संभावना अपने अंदर समेटे होता है और विरचनावादी अध्ययन उन अंतर्विरोधों अथवा अर्थ की अनिश्चयात्मकता को अनावृत्त करता है।इस समूची प्रक्रिया में शब्द का केन्द्रत्व बचा रहता है। सवाल किया जाना चाहिए कि विरचनावाद इस शब्द-केन्द्रत्व का विखंडन क्यों नहीं करता ? विरचनावाद शब्द को तहस-नहस नहीं करता,मात्र अर्थ की केन्द्रहीनता को प्रकट करता है।
देरिदा का मानना है भाषा पर तो वश नहीं है,किंतु रीडिंग तो वश में है।वह पाठ को 'बंदी पाठ' के रूप में पढ़ने के विरूध्द है। देरिदा के अनुसार पाठ की रीडिंग के दौरान अर्थ के सकल छोर खुले रहने चाहिए।देरिदा के विरचनावाद का पहला धरातल है अर्थ बाहुल्य और दूसरा धरातल है अनिश्चयात्मकता।ये दोनों परस्पर विन्यस्त हैं,अन्योन्याश्रित हैं।
लेखन को वक्तृत्व से विशिष्ट मानते हुए देरिदा ने लेखन की तीन विशेषताएं बताई हैं-
''1.लिखित संकेत: अक्षर है,जो न केवल संबोधनकर्त्ता की अनुपस्थिति एवं उस विशिष्ट परिप्रेक्ष्य की अनुपस्थिति में दोहराया जा सकता है,जिसमें वह लिखा गया था,अपितु जिसके लिए लिखा गया था। 2.लिखित संकेत अपने मूल परिप्रेक्ष्य के परिसीमन को तोड़ सकता है,इससे अनपेक्ष कि कृतिकार का अभिप्राय क्या था। संकेतों की कोई भी लड़ी किसी भी विमर्श में पिरोई जा सकती है।(जैसा कि उध्दरणों में होता है) ।3.लिखित संकेत विशेष प्रकार के अंतराल (स्पेसिंग) का वशवर्ती है।अर्थात् शब्दों और वाक्यों में अंतराल के नियम निश्चित हैं।शब्दों और वाक्यों में अंतराल आवश्यक है।फिर यह भी कि लेखन अपने संदर्भ से दूरत्व रखता है, यानी जिस वस्तु का उल्लेख हो,वह यथार्थत: लेखन में नहीं होती।''(गोपीचंद नारंग ,संरचनावाद, उत्तर- संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यषास्त्र,पृ.165)
देरिदा ने 'दि इस्ट्रेंज इन्स्टीटयूसन कॉल्ड लिटरेचर''(1989)नामक साक्षात्कार में साहित्य की नई धारणा दी।उसने लिखा साहित्य एक ऐतिहासिक संस्थान है। इसकी परंपरा,नियम आदि हैं।साथ ही यह फिक्शन का भी संस्थान है। यह सब कुछ कहने की शक्ति देता है।यह नियमों को तोड़ता है,उन्हें अपदस्थ करता है, नियमों को बनाता है,उनकी खोज करता है,यहां तक कि प्रकृति और संस्थान, प्रकृति और इतिहास के बीच के परंपरागत भेदों पर संदेह करता है,यहीं पर हमें न्यायिक और राजनीतिक सवाल उठाने चाहिए।
पश्चिम में तुलनात्मक तौर पर साहित्य संस्थान नए रूप में आया है।इसका संबंध इस बात से है कि प्रत्येक बात कही जा सकती है। अथवा यह प्रत्येक बात कहने को वैधता प्रदान करता है।निस्संदेह इसका जनतंत्र के आधुनिक विचार से गहरा संबंध है।इसे जनतंत्र से अलग नहीं किया जा सकता।यह जनतंत्र के खुलेपन के अर्थ में एकदम खुला है। देरिदा से जब यह पूछा गया कि आप साहित्य को विलक्षण संस्थान क्यों कहते हैं ?इसके जबाव में उसने कहा इसका अर्थ है कि लेखक को सब कुछ कहने का हक है।अथवा वह जो कुछ कहना चाहता है कह सकता है।उसके ऊपर किसी भी किस्म की सेंसरशिप संभव नहीं है,चाहे धार्मिक सेंसरशिप हो या राजनीतिक सेंसरशिप हो।
ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खोमैनी ने जब सलमान रूशदी के खिलाफ मौत का फतवा जारी किया था तब यह सवाल उठा था कि साहित्य की क्या भूमिका है। उस समय रूशदी ने कहा था 'साहित्य की आलोचनात्मक' भूमिका होती है। देरिदा ने इस धारणा की आलोचना करते हुए कहा कि मैं समझता कि 'आलोचनात्मक भूमिका'सही शब्द नहीं है। पहली बात यह कि इससे साहित्य की भूमिका का एक ही मिशन तय हो जाता है। यह साहित्य को अंतिम रूप दे देता है। उसे अर्थ, प्रोग्राम, आदर्शों को नियमित करने की भूमिका दे देता है। साहित्य की अन्य भूमिकाओं को अस्वीकार करता है। इसी सीमित आधार से उसका 'अर्थ','आदर्श' , 'प्रोग्राम','भूमिका' 'आलोचनात्मकता' तय होती है।इससे ऊपर बात यह है कि साहित्य की आलोचनात्मक भूमिका की धारणा का संबंध भाषा से है।भाशा का पष्चिम की नजरों में बाह्य जगत की राजनीति, सेंसरशिप, अथवा साहित्य पर से संस्थानगत परंपरागत सेंसरशिप के उठाए जाने से कोई संबंध नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य की राजनीतिक और आलोचनात्मक भूमिका को लेकर पश्चिम आज भी दुविधा का शिकार है। उसके चिन्तन में धुंध छाया हुआ है।सब कुछ कहने की आजादी एक शक्तिशाली राजनीतिक हथियार है।किंतु कोई चाहे तो इसकी शक्ति को फिक्शन के आधार पर इसे कमजोर बना सकता है।साहित्य की क्रांतिकारी शक्ति इस तरह संकीर्ण बन जाती है। इसमें लेखक को गैर-जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में उससे कुछ जिम्मेदारियों को निबाहने की मांग की जा सकती है। खासकर जदानोव टाइप विचारधारात्मक शक्ति का सम्मान करने की मांग की जा सकती है। दृढ़ता के साथ सामाजिक-राजनीतिक जिम्मेदारी निभाने अथवा वैचारिक संस्थाओं के प्रति अपनी जिम्मेदारी अदा करने के लिए कहा जाता है। इस तरह की गैर-जिम्मेदारी,जिसमें अन्य को अपने विचारों का भी जबाव देने का अधिकार न हो, अन्य किस्म के लेखन का अधिकार न हो,इसी को शक्ति कहते हैं। इसी को सर्वोच्च किस्म की जिम्मेदारी कहते हैं।आखिरकार यह जिम्मेदारी किसके प्रति निभाई जा रही है ?किसलिए निभाई जा रही है ?यही वह मुख्य सवाल है जिसके तहत साहित्य की भावी भूमिका या भावी अनुभव के सवालों पर विचार करने की जरूरत है।
देरिदा के अनुसार साहित्य और जनतंत्र के अन्तस्संबंध पर सोचने की जरूरत है।यहां कल आने वाले जनतंत्र पर नहीं,और न भावी जनतंत्र पर विचार करने की जरूरत है,बल्कि उस अनुभव के वायदे पर गौर करने की जरूरत है जिसे लेखक जी रहा है। वर्तमान के अनुभव को व्यक्त करने का सवाल है।वर्तमान के अनुभव अंतहीन हैं। तरूणावस्था में मुझे निस्संदेह हमेशा यह अनुभूति रहती थी कि हम जिस अवस्था में रह रहे हैं वह मुश्किलों से भरी है। उस समय अनिवार्य तौर पर यह महसूस होता था कि उन बातों को कहा जाए जिनकी अनुमति नहीं है। अल्जीरिया औपनिवेशिक शासन के दौर से गुजर रहा था।सत्ता का जुल्मोसितम चरमोत्कर्ष पर था। यह 1945 का जमाना था।इसके खिलाफ जबर्दस्त प्रतिरोध आंदोलन चल रहा था। उसी समय दूसरी तरफ संस्था के तौर पर परिवार के खिलाफ भी बगावत चल रही थी।साहित्य की विभिन्न विधाओं में यह अभिव्यक्त हो रहा था।मेरा नीत्शे,रूसो,यहां तक कि गीदे की रचनाओं के प्रति आकर्षण बना हुआ था।इन्हें मैं ज्यादा से ज्यादा पढ़ रहा था।साथ ही अन्य चीजें भी पढ़ रहा था।उस समय परिवार के प्रति हमारे मन में जबर्दस्त घृणा थी।कहते थे कि 'परिवार मैं तुझसे घृणा करता हॅू। 'हम सोचते थे कि साहित्य लिखने का अर्थ है परिवार का अन्त। उस समाज का अन्त जिसका परिवार प्रतिनिधित्व करता है। दूसरी ओर अल्जीरिया में चारों ओर नस्लवाद की लहर चल रही थी। यह नस्लवाद परिवार जैसी संस्था में भी आ गया था। ऐसी अवस्था में मेरे लिए साहित्य की सब कुछ कहने वाली भूमिका बेहद महत्व की हो उठी थी।इसके अलावा साहित्य असंतोष,भाग्य,बेचैनी आदि को भी व्यक्त करता है।यदि मुझसे साहित्य के बारे में दार्शनिक के रूप में जबाव देने के लिए कहा जाएगा तो मैं यही कहना चाहूँगा कि साहित्य में परिणाम की चिन्ता किए बगैर सब कुछ कहना चाहिए। लेखक को साहित्य के मर्म के बारे में सवाल नहीं उठाने चाहिए। मेरे लिए दर्शन सबसे ज्यादा राजनीतिक है। वह साहित्य के सवालों को राजनीतिक गंभीरता के साथ उठाता है, उसकी परिणतियों की ओर ध्यान खींचता है।
देरिदा ने परंपरागत अर्थ में साहित्य को देखने से इंकार ही नहीं किया बल्कि लिखा कि साहित्य एक अलग संस्थान है। यह कविता,लोकगीत आदि से अलग है। इसकी प्रकृति अलग है। साहित्य में पहले सर्जनात्मक रचनाएं शामिल की जाती थीं।किंतु आज साहित्य में सामाजिक-न्यायिक-राजनीतिक आधारों पर केन्द्रित लेखन भी आ रहा है।यह सब साहित्य का अंग है।पुराने साहित्य रूपों में यह सब गायब है।इसी अर्थ में देरिदा ने साहित्य के अंत की बात कही थी। साहित्य के पुराने रूप का खात्मा हो जाता है। साहित्य के पुराने रूप के खात्मे का अर्थ यह नहीं है कि मैं पुराने साहित्य का अपमान करना चाहता हूॅ।बल्कि यह ध्यान खींचना चाहता हूँ कि साहित्य की अवधारणा अलग है।उसे पुराने विधा रूपों के साथ एकमेक नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि साहित्य में साहित्य जैसा कुछ भी शेष नहीं रह जाएगा। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि हम साहित्य की जन्मतिथि खोजने लग जाएं कि आखिरकार साहित्य का जन्म कब हुआ ?
सवाल उठाए जाते रहे हैं कि साहित्य क्या है ? कहाँ से आता है ? साहित्य का क्या करें ? इन सवालों के बारे में देरिदा ने कहा हमें थोड़ा पीछे जाना होगा। इसलिए नहीं कि साहित्य प्रतिबिम्बित करता है,अनुमान लगाता है,अथवा दृष्टि को व्यक्त करता है। अथवा किसी अन्य संदर्भ को स्थगित कर देता है। अथवा जैसाकि अमूमन कहते हैं कि मूर्खतापूर्ण है या अफवाह पर टिका है। इन सबके विपरीत साहित्य में जो घटना दिखती है वह उस चिन्तन पर निर्भर है जो लिखते समय लेखक के इर्दगिर्द घट रही है। यह भी देखना होगा कि वह किन संभावनाओं को अपने अंदर समेटे हुए है। साहित्य का पाठ साहित्य के संस्थान के इस संकट के प्रति ज्यादा संवेदनशील होता है।इसी अर्थ में देरिदा ने साहित्य के अंत की बात कही थी। यह कहा था कि मलार्मे से ब्लांचोट तक की 'एव्सोलूट पोयट्री' के युग का अंत हो गया है।अब वह नहीं है। साहित्य के दुविधापूर्ण स्वरूप को देखते हुए कहा था कि इसकी शुरूआत ही इसका अंत है। वह अपने संस्थानों के साथ खास किस्म के सांस्थानिक संबंध बनाता है।उसमें ढुलमुलपन,विशिष्टता का अभाव,वस्तु के रूप में अनुपस्थिति देख सकते हैं। साहित्य के उदय का सवाल उठते ही उसके अंत का सवाल पैदा हो जाता है। जैसे इतिहास का निर्माण किया जाता है।इतिहास का निर्माण वैसे ही है कि आप मलबे के ढ़ेर पर स्मारक बनाएं। क्योंकि वह पहले कभी नहीं था। वह तो मलबे का इतिहास है। स्मृति की कहानी जो घटना बताती है वह कभी मौजूद नहीं होती। इसमें 'ज्यादा ऐतिहासिक' जैसा कुछ भी नहीं है।बल्कि इतिहास यह सोचता है कि चीजें बदल रही हैं। इतिहास से ज्यादा और कोई क्रांतिकारी नहीं है।यह भी कह सकते हैं कि 'क्रांन्ति' भी परिवर्तनीय है।हम यह क्यों मान बैठे हैं कि क्रांति अपरिवर्तनीय है। इतिहास के अनुभव की कसौटी पर अब तक देरिदा की अनेक धारणाएं खरी उतरी हैं। सारी दुनिया के विचारधारात्मक संघर्ष को शीतयुध्दीय राजनीति के विमर्श के बाहर ले जाकर एक नए धरातल पर उन्होंने खड़ा किया है। उनके विचारों की गर्मी के ताप को उनकी मौत के बाद और भी ज्यादा महसूस किया जाएगा।
(वर्तमान साहित्य के दिसम्बर 2004 के अंक में प्रकाशित)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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आपके निबंधों को पहले भी पढा था। विरचनावाद पर अध्ययन सामग्री खोजते हुए आज फिर आपके ब्लाग पर पहुंचा। आपका प्रयास सराहनीय है। आभार।
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