मुंबई का आतंकी हमला और मीडिया
मुंबई शांत और सामान्य है। भारत-पाक संबंध गरम और नरम हैं। 26 नबम्वर 2008 की घटना को लोग भूलने लगे हैं। शहर अपनी धुन में लौट आया है। शहर शांत है किंतु देश की राजनीति अशांत है। आतंक की खूबी है वह सत्ता को अशांत रखता है। सत्ता के सामने दो ही रास्ते छोड़ता है समर्पण या मुकाबला । भारत सरकार ने आतंक के खिलाफ संघर्ष का रास्ता चुना और इसके अच्छे परिणाम निकले। आतंकी कार्रवाई में शामिल सभी आतंकवादी मारे गए। उनकी किसी भी मांग को सुनने से इंकार किया। उल्लेखनीय है 26 नबम्बर को आतंकियों ने 'इंडिया टीवी' चैनल को दिए साक्षात्कार में अपने साथियों की रिहाई की मांग रखी थी और सरकार ने उनकी बात पर कान तक नहीं दिया।
आतंक को सत्ता यदि सख्ती से ढील करती है तो उसके सही परिणाम निकलते हैं। सत्ता के प्रति जनता की आस्थाएं मजबूत होती हैं। आतंक के खिलाफ कार्रवाई के दौरान अनेक निर्दोष लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। समूची प्रक्रिया में कितने लोग आतंकियों के हाथों मारे गए और कितने कमाण्डो ऑपरेशन में मारे गए, इसके बारे में प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव अभी तक बना हुआ है। लेकिन यह सच है कि सरकारी कार्रवाई से कम से कम क्षति हुई और ज्यादातर लोगों को बचाने और समस्त आतंकियों को मारने में कमाण्डो आपरेशन सफल रहा।यह आपरेशन 59 घंटे चला और इसमें 265 लोगों की मौत हुई। आतंकवाद के मीडिया कवरेज के लिहाज से यह सबसे लंबी अवधि तक दिखाया गया लाइव टीवी कवरेज था।
टीवी कवरेज देखते हुए दर्शक इमेज के इर्दगिर्द एकत्रित होता है। सतह पर जो देखता है उसके अंदर छिपे यथार्थ से जुड़ता है। इमेज में निहित तथ्य,प्रस्तुति,प्रभाव,विचार,भावना,अतीत और वर्तमान के साथ जुड़ता है। टीवी इमेज का कोई केन्द्र नहीं होता बल्कि यह अंतरिक्ष जगत ( कास्मोलॉजिकल वर्ल्ड) से जुड़ी होती है। फलत: इस इमेज का अतीत,वर्तमान और भविष्य से जुड़ा संदर्भसूत्र भी नहीं होता। यह इमेज फ्लो में आती है। समय का इसमें चौतरफा प्रवाह होता है। यह इमेज इस कदर चिकनी होती है कि इसे समय का गुलाम नहीं बना सकते।
टीवी इमेज किसी के मातहत नहीं होती। मजेदार बात यह है कि प्रत्येक चीज का समय का संबंध होता है किंतु टीवी इमेज का समय के साथ संबंध नहीं होता। यही वजह है कि टीवी इमेज में दर्शक क्षण में देख रहा होता है। यह क्षण ही वर्तमान में खण्ड-खण्ड रूप में सामने आता है। इमेज की क्षण में प्रस्तुति अतीत को वर्तमान और वर्तमान को अतीत में ले जाती है।
जिस तरह भगवान को देख नहीं सकते किंतु वह है। उसी तरह टीवी इमेज को वास्तव में पकड़ नहीं सकते। वह होती है। भगवान जिस तरह अनंत है टीवी इमेज भी अनंत है। इमेज की अनंतता ही उसके सार को निर्धारित करती है। उसके विचार को तय करती है। टीवी इमेज के तीन धरातल हैं। पहला ,इमेज की अंतर्वस्तु में संभावनाएं निहित होती हैं। दूसरा , इमेज की अंतर्वस्तु का वास्तव में अस्तित्व होता है। तीसरा ,इमेज का किसी घटना से संबंध होता है। ये तीनों स्तर मिलकर इमेज का निर्माण करते हैं।
टीवी इमेज के साथ 'अभिव्यक्ति' का गहरा संबंध है। इमेज की अभिव्यक्ति उपलब्ध चीजों के जरिए ही होती है। उससे ही उसकी सारवस्तु बनती है। उससे ही विचार बनते हैं। टीवी इमेज की अभिव्यक्ति शरीर,पेड़,पहाड़,सैनिक,आतंकी आदि चीजों के जरिए होती है। इमेज की अभिव्यक्ति एक तरह से इमेज का विस्तार और विकास भी है। जब टीवी इमेज विस्तार और विकास करती है तो अनेक चीजें अप्रकाशित रहती हैं,अप्रत्यक्ष रहती हैं। भिन्न रूप में सामने आती हैं। अभिव्यक्ति के दौरान भिन्नता व्यक्त होती है। मसलन् जब टीवी पर ऋत्विक रोशन का शरीर देखते हैं तो सतह पर उसका शरीर ही देखते हैं। किंतु दूसरी ओर यह भी देखते हैं कि उसके शरीर के साथ किसी की तुलना संभव नहीं है। उसका जैसा शरीर बनाना संभव नहीं है। यानी इमेज में सार को देखते हुए सार को अतुलनीय पाते हैं। दूसरी बात यह कि ऋत्विक रोशन का शरीर अतुलनीय है किंतु सारत: शरीर को देखते हैं। टीवी इमेज में सार्वभौम और अपरिहार्य को देखते हैं। इनकी ज्ञानात्मक अभिव्यक्ति देखते हैं। रूपान्तरणकारी इमेज को देखते हैं। फलत: संदेश जाता है कि जीवन रूपान्तरणकारी होता है।
टीवी इमेज को रूपान्तरणकारी परिप्रेक्ष्य में देखने का अर्थ है कि व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के लिए चीजों, जिंदगी और विश्व का सही और पर्याप्त ज्ञान होना जरूरी है। स्वयं की कल्पना के दायरे में कैद होकर नहीं रहना चाहिए। बल्कि रूपान्तरणकारी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। इससे ज्ञान के श्रेष्ठतम धरातल का स्पर्श करने में मदद मिलती है।
यथार्थ ही भाषा है। इमेज में जो यथार्थ है वही इसकी भाषा भी है। इमेज की भाषा उसके साथ ही अन्तर्ग्रथित होती है। इमेज में जो पहले से मौजूद है उसी को अभिव्यक्त किया जाता है। कोई ऐसी चीज अभिव्यक्त नहीं होती जो पहले से मौजूद न हो। भिन्नता उसकी प्रस्तुति के जरिए पैदा की जाती है। भाषागत लगाव, भूमिका और संबंध इन तीन चीजों को टीवी इमेज एक ही साथ व्यक्त करती है। बगैर लगाव के कोई भी इमेज संप्रेषित नहीं होती। उसकी भूमिका और संबंध बताए बिना संचार पूरा नहीं होता। टीवी इमेज हमेशा बासी होती है पुरानी होती है। मूलत: वीडियो के माध्यम से संप्रेषित होती है।
टीवी इमेज संकेतों,प्रतीकों,चिन्हों के जरिए व्यक्त करती है। कलात्मक संकेतों के जरिए मर्म को संप्रेषित करती है,मर्म की अभिव्यक्ति में सारी दुनिया इकसार नहीं दिखती। बल्कि भिन्न-भिन्न रूप में दिखती है। मसलन् मुंबई के आतंकी हमले को भारत में विभिन्न समुदाय के लोग एक ही तरीके से अथवा पाक या अमरीका के लोग वैसे ही नहीं देखेंगे जैसे भारत के दर्शक देखेंगे। टीवी इमेज का मर्म अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में दर्शकों में भिन्न -भिन्न रूपों में संप्रेषित होता है। इसके कारण ही एक ही इमेज भिन्न भिन्न स्थानों पर अलग रूप में ग्रहण की जाती है।
टीवी इमेज के संकेत पूरी तरह मर्म पर ही निर्भर नहीं हैं। सभी किस्म के संकेत या प्रतीक अपने सिध्दान्तों के अर्थ को अपने अंदर समेटे होते हैं। भाषा जब भी संकेतों या इमेज को व्यक्त करती है तो परंपरागत अभिव्यक्ति के रूपों में उलटफेर या गड़बड़ी पैदा करती है। परंपरागत प्रस्तुति को अस्तव्यस्त करती है। ऐसे में भाषिक दुर्घटना का होना अनिवार्य है। दैनन्दिन जीवन में चीजें जिस भाषा में व्यक्त होती हैं उससे भिन्न रूप में टीवी में व्यक्त होती हैं। प्रस्तुति के दौरान जो भाषिक दुर्घटना टीवी में नजर आती है वह असल में दैनन्दिन जिंदगी की अभिव्यक्ति है।
टीवी में जब भी कोई इमेज देखते हैं तो वह हमेशा किसी न किसी भाषिक प्रस्तुति के जरिए पेश की जाती है। फलत: भाषा के परंपरागत नियमों और अर्थ संरचनाओं में दाखिल होते हैं। किंतु इसकी अभिव्यक्ति हमेशा विकसनशील बुध्दिमत्ता को सामने लाती है। संकेत अथवा चिन्ह हमेशा परंपरागत होते हैं। वे किसी ठोस वस्तु से जुड़े होते हैं। जबकि भाषिक संकेत भिन्न किस्म के अर्थ को व्यक्त करते हैं। वे कभी मर्म को व्यक्त नहीं करते। मसलन् भाषा में प्रेम की अभिव्यक्ति भिन्न रूप में होती है, दृश्य माध्यमों में अलग रूप में होती है।
इसी तरह आतंकी हमले की इमेज जब प्रस्तुत की जाती है तो देखना होगा कि क्या पेश किया जा रहा है और किस भाषा में पेश किया ज रहा है और लोग किस रूप में ग्रहण कर रहे हैं। मुंबई की आतंकी घटना के 59 घंटे के कवरेज में आरंभ किसी इमेज से नहीं होता है बल्कि सबसे पहले भाषा में खबर पेश की जाती है। शीर्षक था'दो गुटों में फायरिंग'। इसके कुछ समय बाद इमेजों का प्रक्षेपण आरंभ होता है जो 59 घंटे तक चलता है। इसमें सबसे पहली इमेज 'टाइम्स-नाउ' चैनल पर आती है। जिसमें आतंकी हमलावरों को भागते,फायरिंग करते, पुलिस कास्टेबिलों के साथ मुठभेड़ करते, पुलिस गाड़ी को हाईजैक करते दिखाया गया।
आतंकी घटना के तथाकथित लाइव कवरेज ने दो सवालों को जन्म दिया है। पहला बुनियादी सवाल यह उठा है कि क्या मुंबई की आतंकी घटना के लाइव प्रसारण ने प्रसारण के एथिक्स का उल्लंघन किया है ? दूसरा सवाल यह है क्या टीवी से प्रत्यक्ष आतंकी हिंसा का प्रसारण दिखाया जाना चाहिए ? इन दोनों सवालों पर विचार करने पहले यह ध्यान में रखना बेहद जरूरी है कि आतंकी हमला क्यों हुआ ? आतंकियों की मंशा क्या थी ?
आतंकी हमला राष्ट्रद्रोह है। किसी भी तर्क से इसे वैध नहीं ठहराया जा सकता। 'इकनॉमिक टाइम्स',(हिन्दी, 30 नबम्बर 2009) में प्रकाशित एसोचैम के सचिव डी.एस. रावत के अनुसार आतंकी हमले से तकरीबन चार हजार करोड़ रूपये का नुकसान हुआ।
अनेक मीडिया पंडितों का मानना है मुंबई के आतंकी हमले का लाइव कवरेज मूलत: टीवी के अभिजनवादी नजरिए की अभिव्यक्ति है।[1] लाइव कवरेज के संदर्भ में यह तर्क एकसिरे से बेहूदा और बोगस है। यह संयोग की बात है कि मुंबई के हमले के निशाने पर अभिजन थे। किंतु यह हमला अभिजनों पर नहीं किया गया था। यह हमला भारत पर हुआ था। इस हमले का व्यापक कवरेज इसलिए हो पाया क्योंकि यह घटना मुंबई में घटी थी और टीवी चैनलों के लिए प्रसारण्ा के फलो को बनाए रखना संभव था। यही घटना कहीं दूर-दराज के इलाके में घटी होती तो इतना व्यापक कवरेज नहीं आता। मीडिया की घटना तक सहज पहुँच ने इसके कवरेज को संभव बनाया।
यह भी कहा गया कि मीडिया ने छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के रेलवे स्टेशन की आतंकी-पुलिस मुठभेड़ और उसके बाद की परिस्थितियों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित न करके पांच सितारा होटलों पर हो रही मुठभेड़ पर ज्यादा ध्यान दिया। रेलवे स्टेशन पर साधारण लोग थे और पांच सितारा में अभिजन थे। रेलवे स्टेशन पर मारे जाने वाले लोग साधारण मध्यवर्ग के थे और पांचसितारा में जो लोग थे वे अभिजन थे। अपने अभिजनवादी नजरिए के कारण मीडिया ने पांचसितारा की मुठभेड़ को ज्यादा कवरेज दिया।
इस तरह के तर्कों के संदर्भ में पहली बात यह है कि आतंकियों के निशाने पर कभी कोई सामाजिक वर्ग या धर्म नहीं होता। आतंकी हमले का मूल लक्ष्य है 'भय' पैदा करना और ज्यादा से ज्यादा हत्या करके व्यापक कवरेज हासिल करना। आतंकी हमले के निशाने पर हमेशा राष्ट्र होता है। इस प्रसंग में सिर्फ जम्मू-कश्मीर का ही उदाहरण काफी होगा। जिन इलाकों में आतंकी कार्रवाई जारी है वे इलाके किसी भी दृष्टि से अभिजन इलाके नहीं हैं। यही स्थिति उत्तर-पूर्व के राज्यों में चल रही आतंकी कार्रवाई के संदर्भ में देख सकते हैं। यहां तक कि नक्सल आतंक से वे ही इलाके प्रभावित हैं जो किसी भी रूप में धनी नहीं हैं। आतंकी कभी जाति,दौलत,और धर्म देखकर हमला नहीं करते। आतंकियों का मूल निशाना राष्ट्र होता है। राष्ट्र को तबाह करने के लिए किसी का भी खून बहाया जा सकता है,कहीं पर भी हमला किया जा सकता है। किसी को भी बंधक बनाया जा सकता है और कहीं पर भी मुठभेड़ हो सकती है।
दूसरी बात यह कि टीवी कवरेज खासकर आतंकी कवरेज कितना होगा और कहां पर कैमरा होगा यह कभी दर्शक की स्थिति के अनुसार तय नहीं किया जाता। टीवी पर जब लाइव कवरेज आता है अथवा जब खबरें आती हैं तो उन्हें अभिजन ही नहीं देखते बल्कि साधारण लोग भी देखते हैं। अखबार में जब खबर छपती है तो उसे अमीर ही नहीं साधारण लोग भी पढ़ते हैं। आतंकी हमले के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा अगर कहीं नजर आता है तो साधारण आदमी में नजर आता है। क्योंकि सबसे ज्यादा उसे ही क्षति उठानी पड़ती है।
आतंक की खबरों का सबसे ज्यादा उपभोग अमीरों में नहीं होता। अभिजन में नहीं होता। टीवी कवरेज के बारे में यह मिथ है कि टीआरपी बढ़ाने के लिहाज से लाइव कवरेज का इस्तेमाल किया गया। यह संभव है टीआरपी बढ़े और यह भी संभव है टीआरपी घटे। किंतु यह निर्णय तुरंत नहीं लिया जा सकता। किसी भी घटना के कवरेज से मीडिया की टीआरपी बढ़ी है या घटी है यह इससे तय नहीं होग कि कितने लोगों ने देखा। बल्कि इससे तय होगा कि मीडिया की साख बढ़ी है या घटी है। जब भी कोई लाइव कवरेज आता है आम खबरों की तुलना में उसकी दर्शक संख्या हमेशा ज्यादा ही रहती है। यह बात क्रिकेट-फुटबाल मैच से लेकर मुंबई कवरेज तक सब पर लागू होती है। किंतु कवरेज का असर किसी समुदाय विशेष पर नहीं होता। समूचे समाज पर होता है। समाचार या लाइव कवरेज या क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण अथवा विज्ञापन का प्रसारण या सीरियल या फिल्म का प्रसारण हो ,यह प्रसारण सिर्फ दर्शकों को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि उन्हें भी प्रभावित करता है जो लोग इसे नहीं देखते। जो लोग नीति निर्धारक हैं।
प्रसारण हुआ है तो प्रभाव भी होगा यह बात दावे के साथ कहना संभव नहीं है। प्रभाव हो सकता है और नहीं भी हो सकता। आमतौर पर आतंकी कवरेज का प्रभाव क्षणिक होता है। कवरेज का प्रभाव स्थायी तब ही होता है जब उस प्रभाव को लागू करने वाली सांगठनिक संरचनाएं निचले स्तर तक मौजूद हों। सामाजिक स्तर पर यदि आतंकी संगठनों का नैटवर्क नहीं है तो प्रभाव अस्थायी होगा। संगठन स्थानीय स्तर पर सक्रिय है तो प्रभाव दीर्घकालिक होगा। जैसा कि पंजाब के आतंकी माहौल में देखा गया। उत्तर-पूर्व के आतंकी-पृथकतावादी संगठनों के कवरेज के संदर्भ में देखा गया।
मीडिया का प्रभाव तब ही होता है जब प्रभाव को लागू करने वाले संगठन सक्रिय हों। यह सच है कि मीडिया का लक्ष्य हमेशा अभिजन का कवरेज होता है किंतु सारी चीजें मीडिया के अनुसार नहीं चलतीं। मीडिया प्रवाह के अपने नियम हैं और ये नियम वर्गीय सीमाओं के परे काम करते हैं। मीडिया सिर्फ लक्ष्य के अनुसार ही प्रभाव नहीं छोड़ता। बल्कि अनेक ऐसी चीजें आ जाती हैं जिनकी मीडिया ने कल्पना तक नहीं की होता। मीडिया प्रवाह स्वयं में प्रधान कारक कभी नहीं रहा। प्रधान प्रेरक भी नहीं रहा। मीडिया हमेशा तब ही भूमिका अदा करता है,तब ही प्रभावित करता है जब उसे लागू करने वाली संरचनाएं निचले स्तर तक सक्रिय हों। मीडिया सहयोगी होता है निर्णायक नहीं आमलोग हों या अभिजन हों। कोई भी मीडिया से निर्णायक तौर पर संचालित नहीं होता। इनके संचालन और नियमन के नियमों की जड़ें समाज में हैं। सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-आर्थिक प्रक्रियाओं में हैं।
कवरेज कैसा होगा ? यह इस बात पर निर्भर करता है कि दांव पर क्या लगा है ? दांव पर यदि निर्दोष लोगों की जिंदगी लगी है तो कवरेज भिन्न किस्म का होगा। यदि दांव पर आतंकी लगे हैं तो भिन्न होगा। दांव पर कुछ भी नहीं लगा है तो कवरेज की शक्ल अलग होगी।
विभिन्न टीवी चैनलों के लाइव कवरेज में सूचनाएं बहुत कम थीं। न्यूनतम सूचनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति हो रही थी। सारवान खबरें एकसिरे से गायब थीं। इसका प्रधान कारण था टीवी चैनलों के पास संसाधनों की कमी। चैनलों के पास जितने भी संवाददाता थे वे सब के सब एक ही स्थान पर विभिन्न दिशाओं में लगे हुए थे वे घटनास्थल पर खड़े थे और बाहर खबर के आने का इंतजार कर रहे थे।
खबर स्वयं चलकर नहीं आती। खबर को लाना होता है, बनाना होता है। अर्णव गोस्वामी,बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई आदि जितने भी टीवी पत्रकार थे वे न्यूनतम सूचनाएं संप्रेषित कर रहे थे। घंटों एक ही सूचना को दोहरा रहे थे। डीएनए अखबार ( 29 नबम्वर 2008) में वी .गंगाधर ने लिखा 43 घंटे गुजर जाने के बाद भी दर्शक यह नहीं जानते थे कि होटल में कितने आतंकी हैं, कितने लोग मारे गए हैं। चैनल बार-बार कह रहे थे कि आतंकियों से मुठभेड़ अंतिम चरण में है। किंतु अंत दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था। ज्योंही बंदूक की आवाज सुनाई देती थी अथवा विस्फोट की आवाज सुनाई देती थी चैनल पर बताया जाता था कि जंग तेज हो गई है। गंगाधर ने सवाल उठाया है कि ऐसा कहकर चैनलों ने दर्शकों को भ्रमित क्यों किया ?
दोनों पांच सितारा होटलों से लपटें उठती हुई नजर आ रही थी। ये लपटें कभी उठती थीं। कभी बुझ जाती थी। कभी सिर्फ धुंआ नजर आता था। कभी फायरिंग की आवाज आती थी। कभी होटल में फंसे लोग बाहर आते नजर आते थे। कभी कोई खिड़की खुली नजर आती थी। कभी किसी खिड़की से झांकता कोई चेहरा नजर आता था। कभी किसी आतंकी का शरीर झांकता था। कभी किसी आतंकी की लाश खिड़की से लुढ़कती नजर आ रही थी।
सड़कों पर झुंड बनाकर रिपोर्टर खड़े थे। कभी जमीन पर लेटकर रिपोर्टिंग कर रहे थे। कभी पुलिस बैन नजर आ रही थी। कभी कमाण्डो आपरेशन करते नजर आ रहे थे। कभी पोजीशन लेते नजर आ रहे थे। कभी हेलीकॉप्टर से होटल के पास की छत पर उतरते कमाण्डो नजर आ रहे थे। कभी टीवी पर आतंकियों के साक्षात्कार सुनाई दे रहे थे। कभी दर्शकों का हुजूम दिखाई देता था। कभी आतंकवादियों के चश्मदीदों के बयान दिखाए जा रहे थे तो कभी होटल से निकाले गए लोगों के बाइट्स दिखाए जा रहे थे। कभी पुराने फोटो दिखाए जा रहे थे। इस सारी प्रक्रिया में विभिन्न चैनलों पर पाक का आतंकी आख्यान चल रहा था।
दोनों होटलों से उठती हुई लपटें दिखाई दे रही थीं किंतु न्यूनतम सूचनाएं आ रही थीं। एनडीटीवी की बरखादत्त सांस रोके बिना अहर्निश बोल रही थी,किंतु कोई भी सारवान बात नहीं कह रही थी। राजदीप सरदसाई सीएसटी टर्मिनस में फायरिंग की अफवाहों में व्यस्त थे। सरदेसाई जैसे गंभीर पत्रकार भी चूक कर रहे थे। सरदेसाई ने पहले अफवाह को खबर बनाया। बाद में कहा यह अफवाह थी। सवाल यह है अफवाह थी तो पहले ही क्यों नहीं रोका ? यदि अफवाह थी तो दर्जनों बार पुनरावृत्ति क्यों दिखाई गयी ?
अर्णव गोस्वामी पाक की आतंकवाद के संदर्भ में क्या भूमिका रही है इसके आख्यान में व्यस्त थे। हिन्दी चैनलों में सबसे खतरनाक प्रसारण 'इण्डिया टीवी' का था। इस चैनल ने प्रसारण के दौरान दो आतंकियों का सीधे साक्षात्कार सुनाया। चश्मदीद गवाह पेश किया। ये चीजें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे खतरनाक थीं। खबरों को प्रसारित करने की दौड़ में यह चैनल सभी चैनलों से आगे था। इस चैनल में अनेक चीजें पहलीबार दिखाई गयीं जो अन्य चैनलों पर बाद में आयीं। जैसे आतंकियों को सबसे पहले समुद्री तट पर जिन धोबियों-मछुआरों ने देखा था उनमें से पहले जिस महिला ने देखा उसका साक्षात्कार दिखाया। कैसे हेलीकोप्टर से कमाण्डो उतर रहे हैं कितने कमाण्डो हैं, दो आतंकवादियों का होटल से सीधे साक्षात्कार आदि।
टीवी कवरेज से कई बातें सामने आयी हैं। पहली बात यह सामने आयी है कि हमारा टीवी जगत अभी तक पेशेवर रिपोर्टिंग में सक्षम नहीं है। खासकर आतंकवाद जैसी आपदा की रिपोर्टिंग के मामले में इसका नौसिखियापन पूरी तरह सामने आ चुका है। भारत-पाक संबंधों को बनाने से ज्यादा बिगाड़ने पर इतना जोर दिया गया कि उससे यह पता चलता है पाक-भारत रिश्ते, पाक में आतंकी संगठनों की नैटवर्किंग आदि का भारत के चैनल रिपोर्टरों को न्यूनतम ज्ञान तक नहीं है।
अपने ज्ञान के अभाव को पूरा करने केलिए चैनलों पर विदेश मंत्रालय के वर्तमान और भू.पू. अधिकारियों,पुलिस अफसरों और नेताओं के बयानों से ज्यादा कोई सामग्री चैनलों में नजर नहीं आयी। सरकारी लोगों को बिठाकर बातें करने से पेशेवर पत्रकारिता अपनी भूमिका अदा नहीं करती। हमारे चैनलों पर अभी तक आतंकवाद और आतंकी संगठनों के बारे में पेशेवर पत्रकारों और गैर सरकारी लोग तकरीबन नजर ही नहीं आते। जनता के प्रतिनिधि के नाम पर बेतुकी बातें करने वाले राजनीति,आतंकवाद आदि के न्यूनतम ज्ञान से शून्य सैलेबरेटी बैठे हुए थे। ये लोग कॉमनसेंस की अनर्गल बातें कर रहे थे। आतंकवादी प्रभाव को कॉमनसेंस ,अर्नगल और सरकारी सेंस के आधार पर पछाड़ना संभव नहीं है। चैनलों के पास खबरों का प्रधान स्रोत था पुलिस। इसके अलावा चैनल किसी भी स्रोत से खबर नहीं जुटा पा रहे थे।
चैनलों के कवरेज का एक सबसे बड़ा सकारात्मक तत्व था आतंकी खबरों का मुसलमान विरोधी खबर में तब्दील न होना। आतंक की खबर को आतंकियों तक सीमित रखने में इन्हें सफलता जरूर मिली। इसके कारण मुसलमान विरोधी भावनाएं पैदा नहीं हो पायीं। जबकि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय ऐसा नहीं हो पाया था, मुसलमान विरोधी भावनाओं को भड़काने में मीडिया सबसे आगे था।
पंजाब में सन् 80 के आतंकी दौर में हिन्दू और सिख विरोधी भावनाओं को भड़काने में पंजाब का प्रेस सबसे आगे था। अपवाद था 'ट्रिब्यून' समाचार पत्र। अन्य प्रमुख पंजाबी पत्रों में हिन्दू-सिख विरोधी वैचारिक लामबंदी चल रही थीं। यही स्थिति अन्य मौकों पर भी देखने में आयी है। अमेरिका के नाइन इलेवन कवरेज ने मुसलमान विरोधी भावनाओं को व्यक्त किया।
सन् 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी उन्माद पैदा करने में सरकारी टीवी दूरदर्शन की बड़ी भूमिका थी। जिसके कारण हजारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। यह बात इंदिरा गांधी की मौत की जांच करने वाले रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित की है। यह रिपोर्ट आज तक संसद में नहीं रखी गयी। भारत-विभाजन के समय प्रेस की साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने में भूमिका थी। यह बात प्रथम प्रेस कमीशन की रिपोर्ट में रेखांकित है।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय प्रेस की साम्प्रदायिक भूमिका थी इस और प्रेस परिषद ने माना। कई समाचार पत्रों को इसके लिए सेंसर किया गया। इन सभी पिछले अनुभवों की रोशनी में कह सकते हैं कि मुंबई की आतंकी घटना का कवरेज कम से कम मुसलमान विरोधी नहीं था। पाक विरोधी भावनाओं से लबालब भरा था।
टीवी चैनलों ने बार-बार जिस चीज पर जोर दिया वह था भारत का 'लोकतंत्र'। मीडिया ने भारत के लोकतंत्र की बड़ी प्रशंसा की और आतंकी कवरेज के सत्य को गौण बनाया। कवरेज में बार-बार पाक का आना, भारत की तुलना में पाक का आना 'लोकतंत्र' को बड़ा बना रहा था। इस क्रम में आतंकी घटना से संबंधित तथ्यों की उपेक्षा हुई। 'लोकतंत्र' में आस्था के कारण ही भारत के पुलिस,अधिकारियों, अफसरों और विदेश सेवा के नौकरशाहों का कवरेज ज्यादा आया। इन सबने 'लोकतंत्र' पर ज्यादा दिया। तटस्थ किस्म के पेशेवर लोगों,सैलेबरेटी लोगों,राजनेताओं आदि के वक्तव्य ज्यादा पेश किए गए। घटना से संबंधित तथ्य कम से कम प्रस्तुत किए गए। 'लोकतंत्र' पर जोर देने के कारण ही घटना के तथ्यों को खोजने और प्रसारित करने की बजाय घटना पर विभिन्न किस्म की राय और और टॉक शो में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। चैनल मानकर चल रहे थे कि भारत को सुरक्षित रखना है तो लोकतंत्र को सुरक्षित करें। घटना के तथ्य भले ही हाथ से निकल जाएं। दुनिया लोकतंत्र के लिए है तथ्यों के लिए नहीं। इसके विपरीत नाइन इलेवन की घटना में लोकतंत्र गौण था, घटना के तथ्य मुख्य थे। अमरीकी पत्रकार मानकर चल रहे थे कि आज की दुनिया की सुरक्षा के लिहाज से 'लोकतंत्र' महत्वपूर्ण नहीं है, घटना के तथ्य महत्वपूर्ण हैं।
'लोकतंत्र' के पैराडाइम के आधार पर आतंक के खिलाफ वैचारिक प्रचार अभियान चलाया गया। पाक के झूठ का संगठित प्रत्युत्तर दिया गया। पाक के झूठ के खिलाफ पाक के मीडिया और पाक प्रशासन में असर हुआ। वहां बगावत पैदा करने में भारत के मीडिया को सफलता मिली। भारत के चैनलों के 'लोकतंत्र' पैराडाइम का ही असर था कि पाक के चैनलों का एक धड़ा और प्रशासन में भी पाक प्रशासन के असत्य के खिलाफ स्वर सुनने को मिले और अंत में पाक के अंदर और बाहर इस झूठ के खिलाफ दबाव तेज हुआ।
आज अमरीका,ब्रिटेन आदि से लेकर सुरक्षा परिषद तक पाक के झूठ के खिलाफ गोलबंदी दिखाई दे रही है उसमें भारतीय चैनलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत सरकार पहलीबार इस बात को विश्व जनमत को समझाने में सफल रही है कि पाक झूठ बोल रहा है। कहने का तात्पर्य यह है 'लोकतंत्र' को आधार बनाकर टीवी चैनलों ने जो विचार वर्षा की थी उसने पाक के झूठ को तबाह कर दिया। पाक बार-बार घटना के तथ्यों तक सीमित रखना चाहता था चैनलों ने इस सीमा को मानने से इंकार किया और व्यापक लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में घटना पर रोशनी डाली।
यह सच है चैनलों के पास तथ्य कम थे वे ही तथ्य थे जो सरकारी स्रोतों से आ रहे थे। 'पाक प्रशासन लंबे समय से झूठ बोल रहा है' इस एक नारे के इर्दगिर्द लोकतंत्र का जिस तरह से वातावरण बनाया गया उस वातावरण को पाक तोड़ नहीं पाया और यह कूटनीति,राजनीति के लिहाज से भारत की सबसे बड़ी जीत थी। पाक को अंतत: मानना पड़ा पाकिस्तान के गैर सरकारी लोगों का मुंबई की आतंकी घटना में हाथ है।
एक बार जब विश्व जनमत को यह बात समझाने में सफलता मिल गयी कि पाक प्रशासन लंबे समय से झूठ बोल रहा है तो पाक प्रशासन को भी स्वीकार करना पड़ा आतंकियों के प्रशिक्षण कैंप पाक में हैं और कुछ कैंप बंद करा दिए गए हैं। अब तक पाकिस्तान यह मानने को तैयार नहीं था कि पाक में आतंकियों के प्रशिक्षण शिविर हैं। चैनलों की वैचारिक बमबारी का यह सीधा परिणाम था। पाक प्रशासन को मजबूर होकर कैंप बंद कराने पड़े। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। कुछ को गिरफतार किया कुछ को घरों में नजरबंद किया। पाक प्रशासन कल तक आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने से गुरेज करता था उसे भी आतंकियों के खिलाफ सक्रिय होना पड़ा। यह भारतीय चैनलों की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। पहलीबार पाक प्रशासन ने आतंकियों से पृथक् करके अपने को प्रस्तुत किया।
टीवी चैनलों की दूसरी बड़ी उपलब्धि है कि उन्हें जो कुछ मिलता गया उसे दिखाते गए। इस क्रम में कुछ गलत और ज्यादातर सही हुआ है। जो गलत हुआ है ,वह पेशेवर अकुशलता के कारण हुआ है। चैनल यदि झूठ बोलते तो खबरें छिपाते। चैनलों ने झूठ नहीं बोला इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि उनके पास जो भी खबर,अफवाह,रिपोर्ट,बयान आदि आया उसे दिखाते गए,इस क्रम में पुनरावृत्ति भी हुई। चैनलों का लगातार दिखाते रहना स्वयं में झूठ को नष्ट करने का औजार बन गया। चूंकि वे घटना के तथ्य कम और विचार अथवा अन्य चीजें ज्यादा दिखा रहे थे फलत: इससे कोई खास नुकसान नहीं हुआ बल्कि लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रचार ज्यादा हुआ। तात्कालिक खबर, तात्कालिक विचार पर उसके प्रभाव के बारे में सोचे बगैर जोर दिया गया। इससे न तो राष्ट्र की कोई क्षति हुई और न आम जनता की। चैनलों के मालिक बड़े कारपोरेट घराने हैं अत: उन्होंने आतंकी घटना को तेजी से मुनाफे में तब्दील किया। रेटिंग बढ़ायी, ज्यादा विज्ञापन हासिल किए।
टीवी की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि थी कि इसने मुंबई की आतंकी घटना को लेकर 'डिसइनफॉर्मेशन' फैलाने का काम नहीं किया। प्रस्तुति में उत्तेजना,अतिरंजना और बोगस चीजें थीं। किंतु 'डिस इनफॉर्मेशन' नहीं था। चैनलों ने जिन सूचनाओं को संप्रेषित किया उनका सबसे बड़ा स्रोत सरकारी एजेंसियां थीं। जो थोड़ी बहुत सूचनाएं निजी प्रयासों से एकत्रित की थीं उनको भी बाद में पुष्टि का मौका मिला। टीवी से प्रसारित ज्यादातर खबरें बाद में पुष्ट हुई हैं। खबर सही है तो उसकी अन्य स्रोत से पुष्टि जरूर होगी।
'डिसइनफॉरमेशन' का मतलब सुचिंतित झूठ। यह ज्यादा नुकसान करता है। सुचिंतित झूठ का चैनलों ने एकदम प्रचार नहीं किया। हां, 'मिसइनफॉरमेशन' को कई बार जरूर देखा गया ,'मिस-इनफॉरमेशन' का मतलब है सबके द्वारा जो चीज स्वीकृत नहीं होती। अथवा भूल से दी गयी सूचना , यह सुचिंतित नहीं होती। इसलिए उसे हमेशा बोलते नहीं हैं। इसी तरह सूचना असत्य हो सकती है साथ ही नुकसानदेह भी हो सकती है।
टीवी चैनलों ने आतंकी खबरों के संदर्भ में 'षडयंत्र सैध्दान्तिकी' का व्यापक इस्तेमाल किया। आतंकियों ने कहां-कहां योजना बनायी होगी, कैसे तैयारी की होगी। इसके बारे में जितना भी कवरेज आया वह 'षडयंत्र सैध्दान्तिकी' के नजरिए पेश किया गया।
टीवी कवरेज में 'पीड़ित समाज' कम नजर आया। आतंक की घटनाओं के संदर्भ में पीड़ितों का सामने आना बेहद जरूरी है। हम नहीं जानते कि आतंकी कार्रवाई में जो लोग मारे गए उनके नाम क्या हैं, जो घायल हुए उनके नाम क्या हैं। इनके नाते-रिश्तेदारों पर क्या गुजरी। कभी -कभार किसी बड़े अफसर का कोई रिश्तेदार टीवी में नजर जरूर आया। आम तौर पर टीवी की 'पीड़ितों के आख्यान' में दिलचस्पी नहीं होती। यह टीवी या मीडिया की संवेदनहीनता है।
'पीडितों' को दिखाना जिस तरह अमरीकी मीडिया में 'टेबू' माना जाता है वही स्थिति हमारे मीडिया में भी है। 'पीडितों के आख्यान' का अर्थ है 'हीरो' और 'हमले में जीवित बचे लोगों' का आना। इनके नाम पर राजनीति का आना। आमतौर पर पीड़ित वे हैं जो निर्दोष हैं,असमर्थ हैं। पीड़ितों में से जब किसी को प्रस्तुत किया जाता है तो राजनीतिक लक्ष्य साधन के तौर पर पेश किया जाता है। इस मामले में आदर्श उदाहरण है हेमंत करकरे की मौत ,उसकी पत्नी और परिवार का आना,उनकी पत्नी का टीवी पर लंबा काव्य वक्तव्य और साक्षात्कार, केरल के मुख्यमंत्री सी.अच्युतानंदन का प्रसंग, मोदी का हेमन्त करकरे को एक करोड़ रूपये की सहायता राशि आदि का प्रसंग।
आतंक पीड़ितों का बहुत बड़ा समाज है। यह समाज उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर जम्मू-कश्मीर तक। दिल्ली से लेकर पंजाब तक फैला हुआ है। इन पीडितों को देखने,जानने, प्रस्तुत करने का मीडिया के पास न तो समय है और न सही समझ है। पीडितों के बृहत्तर समाज ने 'पीड़ितों की राजनीति' को भी पैदा किया है। यह मूलत: संकीर्णतावादी राजनीति है।
पीड़ितों की राजनीति ने असली और नकली पीडित का अंतर पैदा किया है। बड़े शहीद और छोटे शहीद का अंतर पैदा किया है। कश्मीर में खासकर कश्मीरी हिन्दू और गैर हिन्दू पीड़ितों के बीच इस अंतर को साफतौर पर महसूस किया जा सकता है। पंजाब ,असम में यह अंतर देखा जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि टीवी अथवा मीडिया के लिए 'पीड़ित' की केटेगरी में खास दिलचस्पी नहीं है। आमतौर पर पीड़ित का आख्यान व्यक्तिगत और नैतिक आख्यान बनकर सामने आता है। उसके व्यक्तिगत समाधान को ही पेश किया जाता है।
मीडिया का पीड़ितों के प्रति जो उपेक्षाभाव है उससे यही संदेश जाता है कि समाज में पीड़ित जैसी कोई केटेगरी नहीं है। पीड़ित तब ही कवरेज पाता है जब प्रतिवाद पर उतर आए और नाटकीय मुद्रा में अपने को पेश करे। ऐसे में मीडिया पीड़तों के दुख को नाटक या नजारे में तब्दील कर देता है। उसे ढोंग बना देता है। पीड़ितों के प्रति टीवी चैनलों का क्या रवैयया है इसे पीड़ित स्त्री के आख्यान की प्रस्तुति में सहज ही देख सकते हैं।
टीवी ने मुंबई आतंकी हमले के शिकार हेमन्त करकरे आदि अफसरों को पीड़ित की केटेगरी से निकालकर हीरो की केटेगरी में पेश किया। नाइन इलेवन की घटना मेेंं मारे गए लोगों को भी पीड़ित या शिकार की केटेगरी में रखने की बजाय हीरो बनाया गया था। आतंक के पीड़ित को मीडिया और सत्ता पीड़ित न कहकर 'शहीद' या 'हीरो' के रूप में प्रस्तुत करते हैं यह पीड़ित की अवधारणा और अवस्था को झुठलाना है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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