विज्ञापन को पूंजीवाद की संजीवनी भी कह सकते हैं। विश्व की एक प्रमुख विज्ञापन कंपनी ने 1995 में विश्वव्यापी विज्ञापन खर्च का अनुमान 261 विलियन डॉलर लगाया। विश्व में सबसे ज्यादा विज्ञापनों पर खर्चा प्रोक्टर एंड गैम्बल एवं यूनीलीवर नामक कंपनी करती है। एक अनुमान के अनुसार विज्ञापन पर आने वाले दिनों में सात गुना खर्चा बढ़ जाएगा। ज्यादातर खर्चा पूर्वी एशियाई देशों में बढ़ने की संभावना है। मेकनान के वरिष्ठ उपाध्यक्ष के अनुसार सन् 2020 तक उत्तरी अमेरिका में प्रति व्यक्ति 2,200 डॉलर खर्चा होने की संभावना है। इसी तरह यूरोप में प्रति व्यक्ति 1,100 डॉलर और पूर्वी यूरोप में प्रति व्यक्ति 600 डॉलर खर्चा होने की संभावना है। इसका अर्थ यह है कि आने वाले दिनों में उपभोक्तावादी संस्कृति का तेजी से प्रसार होगा।साथ ही इजारेदारी में भी वृध्दि होगी। सूचना दरिद्र और सूचना समृध्द के बीच का अंतराल बढ़ेगा। बिन बागदिकीन ने ''मीडिया मोनोपोली''में लिखा कि ''अमेरिकी समाज में माध्यमों का बाहुल्य होने के बावजूद 29 माध्यम कंपनियां ऐसी हैं जो आधे से ज्यादा समाचार पत्रों की मालिक हैं।ये ही कंपनियां अधिकांश पत्रिकाओं ,ब्रॉडकास्टिंग ,पुस्तक प्रकाशन ,सिनेमा आदि की बिक्री देखती हैं।ये कंपनियां सूचना और संस्कृति के नए मंत्रालय को निर्मित करती हैं और राष्ट्र्ीय एजेण्डा तय करती हैं।''अमरीकी माध्यम कंपनियों के मालिकों में दो -तिहाई मालिक सटोरिए हैं। अमरीका में सट्टा बाजार और माध्यमों के बीच अटूट रिश्ता है। यही स्थिति भारत में भी है। अनेक बड़ी माध्यम कंपनियां सटोरिए चला रहे हैं। संसार की आबादी को लगभग 150 बड़ी समाचार एजेन्सियों ,30,000रेडियो और टेलीविजन केन्द्रों और 4,400 लाख प्रतियों में मुद्रित 8,200 दैनिकों से सूचनाएं प्राप्त हो रही हैं। इनमें से एशिया ,अफ्रीका और लैटिन अमरीका में टेलीविजन साधनों का सिर्फ 5 प्रतिशत ,टेलीविजन सेटों का 15 प्रतिशत और समाचार पत्रों का 12.5 प्रतिशत हिस्सा ही आता है।इसी तरह रेडियो ,टेलीविजन ,मुद्रण सामग्री ,अखबार आदि के प्रति व्यक्ति आंकड़े देखें तो पाएंगे कि इस क्षेत्र में विषमता और भी बढ़ी है। इस विषमता का प्रधान कारण है अमरीका की माध्यम नीति। फिनलैंड के तांपेरे विश्वविद्यालय के शोर्धकत्ताओं तापीओ वारीस और कार्ले नोर्देन स्तेंग ने 50 देशों के टेलीविजन कार्यक्रमों का विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि 1.विदेशों में वितरण के लिए अभीष्ट टेलीविजन कार्यक्रमों का निर्माण कुछेक देशों में संकेन्द्रित लाभोन्मुख व्यवसाय है। 2.समृध्द पश्चिमी राष्ट्ों सर्वोपरि अमरीका द्वारा सर्जित वितरण प्रणाली विकासमान देशों के लिए घटी कीमतों पर टेलीविजन कार्यक्रम खरीदना संभव बना देती है। 3.आयातित टेलीविजन कार्यक्रम अधिकांश विकासमान देशों में प्रसारण काल के अधिकांश समय को घेर लेते हैं। 4. टेलीविजन समाचारों का निर्यात और विनिमय तीन पश्चिमी एजेन्सियों विज न्यूज , यू.पी.आई.टी.एन. और सीबीएस न्यूज के हाथों संकेन्द्रित है। 5. फ्रंास और ब्रिटेन के द्वारा विकासशील देशों को प्रति वर्ष 20 हजार घंटे के कार्यक्रमों का निर्यात होता है।पश्चिम जर्मनी 7 हजार घंटे और अमरीका 3लाख घंटे के टेलीविजन कार्यक्रमों का निर्यात करता है। इ. काट्ज और जी. बेबेल ने '' ब्रॉडकास्टिंग इन दि थर्ड वर्ल्ड''(1978)में लिखा है कि तीसरी दुनिया के देशों में आयातित टेलीविजन कार्यक्रम कुल समय का 30.75 फीसदी हिस्सा घेरते हैं। इन देशों में कुल प्रसारण का औसतन 55 फीसदी हिस्सा बहुराष्ट्रीय कंपनियां के कार्यक्रमों से घिरा रहता है। जब कि खबरों में एशियाई देशों में 87 फीसदी खबरें शहरों या राजधानी की होती हैं।
इसके अलावा माध्यम साम्राज्यवाद जनहित प्रसारण संस्थाओं को तेजी से व्यावसायिकता की ओर ठेल रहा है।मनोरंजन केन्द्रित कार्यक्रमों के प्रसारण के लिए दबाब पैदा कर रहा है। इसमें भी सिनेमाई मनोरंजन पर जोर दिया जा रहा है।इससे जनमाध्यमों की विकासमूलक भूमिका खत्म हो रही है। राष्ट्र्ीय संप्रभुता ,स्वायत्तता ,जातीय संस्कृतियों ,जातीय भाषाओं और देशी जीवन शैली को खतरा पैदा हो गया है। माध्यम साम्राज्यवाद के दबाब के कारण देशी माध्यमों में व्यावसायिकता का रुझान पैदा हुआ है। व्यावसायिकता के कारण अधिकांश कार्यक्रम प्रायोजित होते हैं।जो प्रायोजित नहीं है उसके प्रसारण की व्यवस्था नहीं है। इसके कारण जनमाध्यमों में बड़ी पूंजी का दखल बढ़ा है।बड़ी कंपनियां प्रसारण नीति बदलने के लिए दबाब ड़ाल रही हैं, विज्ञापन नीति बदलने के लिए दबाब ड़ाल रही हैं। यहां तक कि कार्यक्रमों की अंतर्वस्तु भी सुझा रही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बड़ी कंपनियां प्रायोजक मात्र नहीं हैं बल्कि नीति निर्धारक हैं ,माध्यमों की नियंता हैं। दूसरी ओर इन कार्यक्रमों से बड़ी कंपनियां बेशुमार मुनाफा कमा रही हैं और आम जनता को उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए मजबूर कर रही हैं।आम आदमी को जिन वस्तुओं की जरुरत नहीं है उनकी कृत्रिम मांग पैदा कर रही हैं। जो व्यक्ति संबंधित वस्तु को खरीद नहीं पाता वह अपने को हीन महसूस करता है।इस प्रक्रिया में वैचारिक तौर पर पूंजीपति वर्ग आम जनता के दिलो-दिमाग पर नियंत्रण स्थापित करने में सफल हो जाता है। आम जनता को पूंजीवादी मूल्यों के अनुकूल ढ़ालने में सफल हो जाता है। इस तरह पूंजीपति वर्ग सिर्फ अतिरिक्त पूंजी का सृजन ही नहीं करता अपितु उसकी रक्षा के लिए अतिरिक्त वैचारिक तत्वों और मूल्यों का भी सृजन करता है।साथ ही दर्शकों का उपनिवेश निर्मित करता है। इस सबका नव-औपनिवेशिकता से गहरा संबंध है। आज अधिकतर मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय घरों में टेलीविजन और उपग्रह टेलीविजन के कार्यक्रम देखे जा रहे हैं। इससे जो सांस्कृतिकबोध और राजनीतिकबोध पैदा हो रहा है उसका जमीनी वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। इससे जो विश्वदृष्टि बन रही है उससे अपने समाज को समझना संभव नहीं है।
रिचर्ड बून्स ने ''टेलीविजन इन दि कारपोरेट इंटरेस्ट''(1976) में लिखा कि सन् 1970 तक आते -आते अमरीकी माध्यमों में सार्वजनिक हित के प्रश्नों के कार्यक्रमों को कुल प्रसारण समय का दो फीसदी से भी कम मिलता था। स्थिति इतनी खराब थी कि कनाड़ा,ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी देशों में सार्वजनिक हित के कार्यक्रमों को जो समय दिया जाता था यह उससे भी कम था। उल्लेखनीय है कि अमरीका में व्यवसायिक प्रसारणों के विस्तार के साथ-साथ सरकारी प्रसारणों में तेजी से गिरावट आई है। निजी प्रसारण सेवाओं के मुनाफों में तेजी से वृध्दि हुई है।प्रसारण के क्षेत्र में निजी पूंजी के निवेश के कारण माध्यमों को ज्यादा से ज्यादा दर्शक जुटाने के काम में लगा दिया गया। मनोरंजन और सूचना का अबाध प्रवाह के साथ प्रक्षेपण किया गया।प्रायोजकों का वर्चस्व बढ़ा।उनकी जरुरतों के अनुसार कार्यक्रम बनने लगे।बाजार की प्रतिस्पर्धा तेज हुई। माध्यमों की सामाजिक भूमिका का क्षय हुआ।भौतिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण बढ़ा,सुख और प्रसन्नता का आधार मानवीय सुख न होकर वस्तुओं का उपयोग हो गया।प्रायोजक नहीं चाहते थे कि प्रोग्राम आलोचनात्मक रवैय्या पैदा करें ,व्यापार को खतरा पैदा करें और गैर-परंपरागत विचारों को लेकर उपभोक्ताओं को परेशानी में ड़ालें। अब सीरियलों में परिवार केन्द्रित कहानियों के प्लाट आने लगे।इनकी समस्याएं अकेले हल की जाने लगीं। पारिवारिक समस्याओं के सामाजिक समाधान सुझाने की बजाय व्यक्तिगत समाधान सुझाए जाने लगे।खबरों के ढ़ांचे को भी बदला गया।अब खबरों में नाटकीय तत्वों,व्यक्तित्वों और रोचक खबरों पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा।सारवान राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक खबरों की जगह व्यक्तिगत हिंसा,अपराध,अंध विश्वास,मनोरंजन की खबरों ने ले ली ।इसी तरह पत्र - पत्रिकाओं की भी प्रकृति में बदलाव आया।अब जीवन शैली और फैशन के बारे में ज्यादा सामग्री आने लगी।इसके अलावा घर,संचार तकनीक,कम्प्यूटर,पुरुषों के वस्त्रों ,जमीन- जायदाद , फिटनेस,डायटिंग, आम बीमारियों की जानकारियों एवं कैरियर आदि के बारे में ज्यादा से ज्यादा सामग्री आने लगी।तकरीबन यही पध्दति विगत बीस वर्षों में भारतीय पत्र-पत्रिकाओं ने अपनाई है। आज अमरीका का माध्यम जगत विज्ञापनों पर पूरी तरह निर्भर है।सालाना 190 विलियन डॉलर विज्ञापनों पर खर्च होता है।अकेले ब्रॉडकास्टिंग में विज्ञापनों पर 36 विलियन डॉलर खर्च होता है।इसके विपरीत कलाओं एवं तत्संबंधित क्षेत्रों पर मात्र 193 मिलियन डॉलर खर्च होता है।जो ब्रॉडकास्टिंग के विज्ञापनों पर होने वाले खर्चे का एक फीसदी से भी कम है।अमरीका में विज्ञापन दाताओं ने जीवन का कोई क्षेत्र नहीं छोड़ा जहां विज्ञापन न हों।यहां तक कि छोटे बच्चों की देखभाल करने वाले 'डे केयर' सेन्टरों से लेकर एयरबैग तक विज्ञापन छाए हुए हैं।माध्यम विशेषज्ञों की राय है कि अमरीकी माध्यम ज्यों-ज्यों परिपक्व होते गए,कार्यक्रमों का स्तर गिरता गया।विविधता का क्षय हुआ।वैविध्यपूर्ण विचारों की प्रस्तुति घटी।बच्चों के कार्यक्रमों को विज्ञापनों से घेर लिया गया। बच्चों के कार्यक्रमों का स्तर लगातार गिरता चला गया। आज खिलौने बनाने वाली कंपनियों ने बाल कार्यक्रमों को घेर लिया है।अब कंपनियों के खिलौनों पर ही सारे कार्यक्रम बनते हैं।अथवा हिंसा की विषयवस्तु पर कार्यक्रम बनते हैं। प्रोफेसर जॉर्ज गर्बनर ने (जिन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर 1967 से अमरीकी टेलीविजन कार्यक्रमों की ''वायलेंस प्रोफाइल और वायलेंस इंडेक्स'' तैयार की है।) ''वायलेंस प्रोफाइल्स 1967 थ्रू 1988-89:इन्ड्योरिंग पैटर्न''(1990) में लिखा कि प्राइम टाइम में होने वाले औसत दस कार्यक्रमों में से सात में हिंसा होती है और हिंसा की दर पांच से छह घंटे तक होती है। प्राइम टाइम के आधे से ज्यादा नाटकीय चरित्र हिंसा में लगे रहते हैं और इनमें से 10 फीसदी मारे जाते हैं।गर्बनर के अनुसार सप्ताहांत में आने वाले कार्यक्रम हिंसा से भरे होते हैं।औसतन प्रति घंटे 25 हिंसा की घटनाएं होती हैं।यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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