बुध्दिजीवी सत्य भक्त होता है। राष्ट्र,राष्ट्रीयता, दल,विचारधारा आदि का भक्त नहीं होता। सत्य के प्रति आग्रह उसे ज्यादा से ज्यादा मानवीय और संवेदनशील बनाता है। सत्य और मानवता की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में तपकर ही बुध्दिजीवी अपने सामाजिक अनुभवों को सृजित करता है। कालजयी रचनाएं दे पाता है। जनता के बृहत्तार तबकों की सेवा कर पाता है,सारे समाज का सिरमौर बनता है।
बुध्दिजीवी गतिशील और सर्जक होता है। वह मानवीय चेतना का रचयिता है। बुध्दिजीवी स्वभावत: लोकतांत्रिक होता है, लोकतंत्र ही उसकी आत्मा है। लोकतंत्र की आत्मा के बिना बुध्दिजीवी होना संभव नहीं है। लोकतंत्र के उसूलों के साथ समझौता करना उसकी प्रकृति के विरूध्द है। लोकतांत्रिक,मूल्य, लोकतांत्रिक संविधान,लोकतांत्रिक संरचनाओं में उसकी आस्था और विश्वास ही उसकी सम्पदा है यदि वह इनमें से किसी के भी साथ दगाबाजी करता है अथवा लोकतंत्र के रास्ते से जरा भी विचलित होता है तो उसे गंभीर कष्ट उठाने पड़ते हैं। साथ ही समाज को भी कष्ट उठाने पड़ते हैं। बुध्दिजीवी का सत्य के साथ किया गया समझौता सामाजिक दगाबाजी है।
यह दुर्भाग्य है हम दगाबाज बुध्दिजीवी और ईमानदार बुध्दिजीवी में अंतर भूल गए हैं। ईमानदार बुध्दिजीवी वह है जो अपने अंदर के सत्य और न्यायबोध को बेधड़क,निस्संकोच भाव से व्यक्त करता है। यह ऐसा बुध्दिजीवी है जो अपने सत्य को अर्जित करने के लिए किसी भी किस्म के भौतिक लाभ के जंजाल में नहीं फंसता। किसी भी किस्म का प्रलोभन उसे सत्य की अभिव्यक्ति से रोकता नहीं है, वह निडर भाव से न्याय के पक्ष में खड़ा रहता है। अपने जीवन के व्यवहारिक कार्यों कीर् पूत्तिा के लिए सत्य का दुरूपयोग नहीं करता। सत्य के लिए जोखिम उठाता है,सत्य पर दांव लगाता है,यहां तक कि सत्य के लिए बलि चढ़ जाता है। तरह-तरह के उत्पीड़न और उपेक्षाओं को सहता है। वह हमेशा राज्य के विपक्ष में रहता है और यथास्थितिवाद का विरोध करता है।
यह सच है कि किसी भी किस्म का बड़ा परिवर्तन अथवा क्रांति बगैर बुध्दिजीवियों के हस्तक्षेप के नहीं हुई है। यह भी सच है कि किसी भी किस्म की प्रतिक्रांति भी बगैर बुध्दिजीवियों की भूमिका के नहीं हुई है। बुध्दिजीवीवर्ग ही किसी आंदोलन के माता-पिता ,और बेटी -बेटा ,पड़ोसी और मित्र होता है।
बुध्दिजीवी की समाज में विशिष्ट भूमिका होती है उसे शक्लविहीन पेशेवराना रूपों में संकुचित करने जरूरत नहीं है। वह अपने वर्ग का सक्षम सदस्य होता है,अपने कार्य-व्यापार में समर्थ होता है। व्यक्ति के तौर पर बुध्दिजीवी संदेश को अभिव्यक्त करता है,संदेश को बनाने या धारण करने की उसके पास फैकल्टी होती है जिसे वह अभिव्यक्ति देता है। यह अभिव्यक्ति उसके एटीट्यूटस,दार्शनिक नजरिए अथवा नजरिए के साथ-साथ जनता में व्यक्त होती है।
रूढ़ियों और कठमुल्लेपन से लड़े बिना बुध्दिजीवी अपनी भूमिका नहीं निभा सकता। ये रूढ़ियां और कठमुल्लापन किसी भी तरह का हो, बुध्दिजीवी कभी भी इन्हें चुनौती दिए बगैर अपनी सामाजिक भूमिका अदा नहीं कर सकता। नंदीग्राम के संदर्भ में बुध्दिजीवियों का प्रतिवाद इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि पहलीबार वामपंथी बुध्दिजीवियों ने व्यापक स्तर पर वामपंथी कठमुल्लेपन और रूढिबध्दता को चुनौती दी है। पहलीबार वामपंथी चिन्तन के सर्वसत्ताावादी रूझानों को निशाना बनाकर सवाल किए गए हैं, इससे बुध्दिजीवीवर्ग में वामपंथी कठमुल्लापन कमजोर होगा। इससे स्वतंत्रता और न्याय के लक्ष्य को अर्जित करने, उसके लिए संघर्ष की भावना नए सिरे से जन्म लेगी। पुरानी वामपंथी प्रतिबध्दता के मानक टूटेंगे और प्रतिबध्दता के मानक के तौर पर मानवाधिकारों की स्वीकृति पैदा होगी। स्वतंत्रता और न्याय को प्रतिष्ठा मिलेगी। पुराने किस्म की वामपंथी प्रतिबध्दता विचारधारा और वर्ग विशेष के हितों से बंधी थी, यह बंधन और प्रतिबध्दता संकुचित और एकायामी थी। इसमें मानवता और मानवाधिकारों का बोध नहीं था। वह पार्टी बोध से संचालित प्रतिबध्दता थी। जबकि नए किस्म की प्रतिबध्दता का आधार स्वतंत्रता और न्याय है। यह बहुआयामी प्रतिबध्दता है। स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर जब लिखेंगे अथवा संघर्ष करेंगे तो पुराने सभी विमर्श उलट-पलट जाएंगे। पुरानी वामपंथी प्रतिबध्दता जिन्दगी की अधूरी सच्चाई को सामने लाती है। जबकि स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर निर्मित यथार्थ ज्यादा व्यापक,वैविध्यपूर्ण,जटिल और मानवीय होता है।
वामपंथी बुध्दिजीवियों की प्रतिबध्दता की मुश्किल यह है कि वे अंदर कुछ बोलते हैं और बाहर कुछ बोलते हैं। प्राइवेट जीवन में,पार्टी के अंदर बुध्दिजीवी कुछ बोलता है और बाहर कुछ बोलता है। उसके प्राइवेट और सार्वजनिक में भेद रहता है। यह उसके जीवन और विचार का दुरंगापन है। बुध्दिजीवी के विचारों और नजरिए में दुरंगापन नहीं पारदर्शिता होनी चाहिए। बुध्दिजीवी को पारदर्शी होना चाहिए। जब आप सार्वजनिक जीवन में सार्वजनिक सवालों से दो चार होते हैं तो उस समय प्राइवेट जैसी कोई चीज नहीं होती। उस समय बुध्दिजीवी पब्लिक या जनता का बुध्दिजीवी होता है, जनता के बुध्दिजीवी की भूमिका अदा करता है। नंदीग्राम के प्रतिवाद में खड़े बुध्दिजीवी इसी अर्थ में जनता के बुध्दिजीवी हैं। बुध्दिजीवी का काम यह नहीं है कि अपनी ऑडिएंस को संतुष्ट करने वाली,आनंद देने,मजा देने वाली बातें कहे। इसके विपरीत बुध्दिजीवी का काम है अप्रिय सत्य का उद्धाटन करना, ऐसी बात को कहना जिसे ऑडिएंस नापसंद करती है। इसी अर्थ में बुध्दिजीवी किसी न किसी नजरिए का समाज में प्रतिनिधित्व करता है। सभी किस्म की बाधाओं के बावजूद अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करता है। बुध्दिजीवी जब सामाजिक प्रतिनिधित्व करता है तो उसे प्रतिबध्दता ,जोखिम ,साहस से काम लेना होता है और असुरक्षा का सामना करना होता है।
बुध्दिजीवी कभी भी घरेलूपन के साथ सामंजस्य नहीं बिठाता। भाईचारे और मित्रता के नाते स्वतंत्रता और न्याय के प्रति अपनी प्रतिबध्दता को त्यागता नहीं है। बुध्दिजीवी का सामान्य स्वभाव यही होता है कि वह साफतौर पर कहता है वह क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता। बुध्दिजीवी अपने कर्म के जरिए स्वतंत्रता पैदा करता है। वह मैलोड्रामा के जरिए स्वतंत्रता पैदा नहीं कर सकता। नंदीग्राम के उत्पीड़न के पक्ष में खड़े बुध्दिजीवी मैलोड्र्रामा कर रहे हैं। बुध्दिजीवी वह है जिसके चिन्तन,विश्वास और यथार्थ जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति में फांक नहीं है। बौध्दिक गतिविधि का चरम लक्ष्य है मानवीय स्वतंत्रता और ज्ञान में इजाफा करना। जो लोग सोच रहे थे कि महाख्यान का अंत हो गया और बुध्दिजीवी छोटे-छोटे भाषायी खेलों में फंस गया है। उन लोगों से सवाल किया जाना चाहिए क्या नंदीग्राम के सवाल पर बुध्दिजीवियों का प्रतिवाद रैनेसांकालीन स्वतंत्रता और न्यायप्रियता की अभिव्यक्ति है या नहीं ?यह सच है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी बुध्दिजीवी अपने आलस्य, अक्षमता और उपेक्षाभाव के कारण स्वतंत्रता और न्यायप्रियता के मार्ग से भटक गए थे,किंतु नंदीग्राम की घटना ने उनके आलसी अक्षम भाव को तोड़ा है। 'इनडिफरेंस' को खत्म किया है। अपने आलसी अक्षम और इंडिफरेंस के कारण ही वे लंबे समय से चुप थे ,गलत को देखकर भी नहीं बोलते थे, सह रहे थे। किंतु नंदीग्राम के घटनाक्रम ने उनके आलस्य और इंडिफरेंस को खत्म कर दिया है। वे कभी वाम सरकार के अन्यायों के खिलाफ नहीं बोलते थे। वे कभी-कभार बुर्जुआ सरकारों के अन्याय का प्रतिवाद कर देते थे किंतु वाम सरकार का प्रतिवाद नहीं करते थे। किंतु नंदीग्राम ने उनको अंदर से झकझोरा है बदलने को मजबूर किया है। आज नंदीग्राम के वामपंथी प्रतिवादी अपना तयशुदा नजरिया बदलने को मजबूर हैं। अपने ही विचारों और धारणाओं से दगा कर रहे हैं। क्योंकि उनकी जिंदगी के ठोस अनुभव उन्हें चुनौती दे रहे हैं,उद्वेलित कर रहे हैं। जिंदगी के ठोस अनुभव जब आधुनिक जीवन को चुनौती देते हैं तो बौध्दिकों में भी परिवर्तन की लहर चलती है।
वामपंथी बुध्दिजीवियों में ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो किसी न किसी रूप में सरकारी संस्थानों से जुड़े रहे हैं। राज्य और केन्द्र सरकार के सत्ताा प्रतिष्ठानों से जुड़े हैं। उनकी इस अवस्था के कारण उनमें खास किस्म की अधिकारहीनता की स्थिति भी पैदा हुई है। वे जनता के बीच में हाशिए पर चले गए हैं। ये ऐसे बुध्दिजीवी हैं जिनको सरकार,कारपोरेट घरानों,मीडिया उद्योग आदि ने किसी न किसी रूप में बांधा हुआ है। ये सत्ताा के प्रतिष्ठानों के सबसे करीबी समुदाय का हिस्सा हैं। इसी अर्थ में ये जनता के साथ प्रभावशाली ढ़ंग से संवाद और संप्रेषण करने में समर्थ भी हैं। यहीं से वामपंथी बुध्दिजीवियों की मुश्किलें शुरू होती हैं।
सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ अपने नाभिनालबध्द संबंध के कारण कलात्मक और बौध्दिक स्वतंत्रता को वे बरकरार नहीं रख पाए हैं। संभवत: चंद ही बुध्दिजीवी ऐसे हैं जो सत्ता के दबावों का प्रतिवाद करते हों,स्टीरियोटाईप लेखन से बचते हों, वास्तव अर्थों में चीजों में रमण करते हों, वास्तविकता के साथ जिनका जेनुइन संबंध हो। बुध्दिजीवी में ईमानदारी का भाव पैदा करने के लिए उसका स्टीरियोटाईप से बचना, उसका उद्धाटन या नंगा करना जरूरी है। बुध्दिजीवी वह है जो स्टीरियोटाईप विजन के मुखौटे उतार दे और जिसके पास आधुनिक संप्रेषण के तरीके हों। राजनीतिक संघर्ष को सत्य के साथ जोड़ना आधुनिक बुध्दिजीवी का काम है, राजनीतिक संघर्ष का लक्ष्य सत्य को ढंकना नहीं है बल्कि सत्य और राजनीति के रिश्ते को मजबूत बनाना है।
जो बुध्दिजीवी ऐसा नहीं कर पाते वे अपने जीवन के अनुभवों के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते। यह सच यह है आज राजनीति से किनाकशी संभव नहीं है ,चारों ओर राजनीति है। शुध्द साहित्य और शुध्द कला संभव नहीं है। यह भी संभव नहीं है कि बुध्दिजीवी मीडिया और सत्ताा के प्रतिष्ठानी दबावों से बच जाए। सत्ताा और मीडिया के आख्यान बुध्दिजीवी पर दबाव बनाए रखते हैं। मीडिया ,सत्ताा और विचारों का समूचा संसार बुध्दिजीवी पर यथास्थिति बनाए रखने के लिए दबाव पैदा करता है। उसे बार-बार यही एहसास कराया जाता है कि जो स्वीकृत है, वैध है उसे ही स्वीकार करे, माने और उसी को व्यक्त करे। यही वह बिंदु है जिसके मुखौटे उतारने की जरूरत है।
स्वीकृत और वैध के मुखौटे उतारने के क्रम में ही वैकल्पिक आख्यान सामने आता है, प्रत्येक बुध्दिजीवी अपनी क्षमता के अनुसार यह काम कर सकता है और सत्य को बता सकता है। यह बेहद मुश्किल कार्यभार है। इसी संदर्भ में एडवर्ड सईद ने लिखा है बुध्दिजीवी अकेला खड़ा होता है। सईद ने लिखा है कि मध्यपूर्व युध्द के दौरान मेरे लिए अकेले खड़े रहना कितना मुश्किलभरा काम था। बुध्दिजीवी का हमेशा समूह और व्यक्ति के बीच का अन्तर्विरोध रहेगा। यही वजह है कि बुध्दिजीवी हमेशा कमजोर और गैर- प्रस्तुत का हिमायती होता है।
कमजोर और अप्रस्तुत की हिमायत में खड़े होना नंदीग्राम के बौध्दिक प्रतिवाद की सबसे बड़ी उपलब्धि है। सईद के शब्दों में बुध्दिजीवी न तो शांत करने वाला होता है और न जागरूकता पैदा करने वाला होता है बल्कि उसके दांव तो आलोचनात्मक बोध पर लगे हैं। यह ऐसा बोध है जो किसी भी किस्म के सहज फार्मूले को स्वीकार नहीं करता, अथवा रेडीमेड क्लीचे स्वीकार नहीं करता, अथवा वह ताकतवर लोग क्या कहते हैं अथवा परंपरागत के साथ सहज संबंध नहीं बनाता ,उनके साथ अंतर्विरोधों के साथ सामंजस्य नहीं बिठाता,निष्क्रियभाव से सब कुछ स्वीकार नहीं करता बल्कि सक्रिय रूप से जनता को सम्बोधित करता है। बुध्दिजीवी का कार्य है निरंतर सजगता बनाए रखना,यह कोशिश करना कि कहीं अर्ध्द-सत्य अथवा अर्ध्दविचारों की अभिव्यक्ति तो नहीं हो रही। यही वजह है कि वह यथार्थवाद के साथ टिकाऊ रिश्ता बनाता है। अपनी खिलंदड़ी रेशनल ऊर्जा का जनसंघर्षों के पक्ष में इस्तेमाल करता है। निहितस्वार्थों से ऊपर उठकर आम जनता के बीच में अभिव्यक्त करता है।
बुध्दिजीवी की असल परीक्षा आपातकाल और संकट की घड़ी में होती है। ऐसी अवस्था में जो बुध्दिजीवी अपना रेशनल, लोकतांत्रिक विवेक नहीं खोता और सत्य के साथ खड़ा होता है ,जोखिम उठाता है वही सही अर्थों में अपने बौध्दिकधर्म को निभाता है। बौध्दिकधर्म राजधर्म से बड़ा है।संकट अथवा आपातकाल में सच को छिपाना,चुप रहना सबसे बड़ा अपराध है इससे बुध्दिजीवी को बचना चाहिए। बुध्दिजीवी का धर्म राजधर्म से भी बड़ा होता है।
इन वामपंथी बुद्धिजीवियों के खुद के जीवन में तो समाजवाद आ ही गया है, अब इन्हें जनता का पक्ष चुनने की क्या जरूरत है और समय भी कहा हैं। भई, संस्थानों की कुर्सियां, पुरस्कारों, वजीफों के लिए भी तो भागदौड़ करनी पड़ती है, उसके बाद समय ही नहीं बचता की बुद्धिजीवियों की वास्तविक भूमिका के बारे में या जनता के बारे में कोई चिंतन-मनन किया जा सके।
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