नई संचार तकनीक के परिवर्तनों ने सांस्कृतिक मालों के व्यापार के बारे में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही बहसों पर गंभीर असर डाला है। सन् 1994 में उरुग्वे दौर की वार्ताओं के समापन के बाद कुछ देश यह चाहते थे कि इस क्षेत्र में ग्लोबल निवेश के लिए उदार कानून बनाए जाएं। इसी संदर्भ में सन् 1998 में 'मल्टीलेटरल एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेन्टस के बारे में आधार तैयार हुआ। इसी की रोशनी में सारी दुनिया में विभिन्न देशों के बीच आपस में किए गए तकरीबन 1600 दुतरफा समझौतों को खत्म किया गया और उन्हे मल्टीलेटरल एग्रीमेंट ऑन इन्वेस्टमेंट के तहत लाया गया। इस संधि में 'राष्ट्रीय हित' का अनुच्छेद भी रखा गया जिसके तहत कोई भी देश किसी विदेशी राष्ट्र के प्रति निवेश के नाम पर भेदभाव न बरते। इस संधि के बारे में ओईसीडी देशों ने अपनी आपत्तियां रखीं और बताया कि कैसे इस संधि के तहत उनके हितों को क्षति पहुँच सकती है। खासकर संस्कृति उद्योग को व्यापक पैमाने पर नुकसान होगा। इसके अलावा राष्ट्रीय उद्योग और करों के क्षेत्र में भारी क्षति होगी। फ्रांस ने संस्कृति उद्योग के संदर्भ में कई संशय व्यक्त किए और सुचिंतित ढ़ंग से आपत्तियां जतायीं। इस संधि के खिलाफ व्यापक स्तर पर स्वैच्छिक संगठनों ने भी अपनी आपत्तियां जतायीं। फलत: इस संधि का प्रस्ताव पास नहीं हो पाया। इसी क्रम में परंपरागत ज्ञान के संरक्षण और स्वामित्व के सवाल भी उठे हैं। इसी प्रक्रिया में परंपरागत ज्ञान के संरक्षण के लिए अनेक देशों में नए कानून बनाए गए हैं। यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी परंपरागत ज्ञान का दस्तावेज बनाने से उसका अधिकार हासिल नहीं हो जाता। क्योंकि भारत,चीन,अफ्रीका और लैटिन अमेरिका आदि में परंपरागत ज्ञान के अनेक रूप हैं जो अभी भी वाचिक परंपरा में हैं। अत: इनका दस्तावेजीकरण करने मात्र से किसी अन्य देश को मालिकाना हक हासिल नहीं हो सकता। हमें यह सोचना होगा कि बौध्दिक संपदा कानूनों के तहत कैसे राष्ट्रीय हितों और परंपरागत ज्ञान संपदा की रक्षा करें। आज सांस्कृतिक मालों को विश्व व्यापार समझौते के दायरे के बाहर रखा हुआ है। सांस्कृतिक मालों को विश्व व्यापार समझौते में शामिल करने के लिए अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियां निरंतर दबाव डाल रही हैं। जबकि इसके खिलाफ फ्रांस सहित अनेक राष्ट्र हैं।
सांस्कृतिक माल के बारे सारी दुनिया में विचारों का ध्रुवीकरण हो चुका है। आज सारी दुनिया दो शिविरों में बंट चुकी है। अमेरिकी शिविर यह मानता है सांस्कृतिक मालों को अन्य बाजारू मालों की तरह ही देखा जाना चाहिए। जैसे कार है। अत: बाजारू मालों के जो कानून हैं वे सांस्कृतिक मालों पर भी लागू किए जाने चाहिए। इसके विपरीत फ्रांस आदि देशों का मानना है सांस्कृतिक माल संपदा हैं। वे सिर्फ बाजारू चीज नहीं हैं। उनके जरिए मूल्यों,विचारों और जीवन के अर्थ का सम्प्रेषण होता है। अत: उनका विशेष ख्याल रखा जाना चाहिए। इस विचार को सारी दुनिया में जबर्दस्त समर्थन मिल रहा है। यही वजह है कि राजनेता जनता की राय की अवहेलना नहीं कर पा रहे हैं। साधारण जनता समझ चुकी है कि बाजार की ग्लोबल शक्तियां राष्ट्रीय सांस्कृतिक मालों को पूरी तरह खत्म कर देंगी। उनकी सांस्कृतिक पहचान को खतरा पैदा करेंगी। इस संदर्भ में सबसे ज्यादा भय फिल्म और टेलीविजन कार्यक्रमों के प्रसार को लेकर है। इनके कारण स्थानीय संस्कृतियों और परंपरागत मूल्यों का सफाया हो जाएगा।
मानव विकास रिपोर्ट 2004 के लेखकों का मानना है कि सांस्कृतिक खतरे की जो लोग बात कर रहे हैं क्या उनका चॉयज को सीमित करना न्यायसंगत है ?बल्कि सच्चाई यह है कि विदेशी मालों की अबाधित सप्लाई सांस्कृतिक चॉयस को बढाती है इससे राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति प्रतिबध्दता कम नहीं होती। सारी दुनिया में तरूण टेप सुनते हैं। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि शास्त्रीय संगीत की मौत हो जाएगी। अथवा स्थानीय लोक संगीत की परंपरा खत्म हो जाएगी ।विदेशी प्रभाव से बचाने के प्रयासों का सीमित असर होगा। सन् 1998 में जाकर रिपब्लिक ऑफ कोरिया ने जापानी संगीत और फिल्मों के ऊपर से क्रमश: पचास साल बाद जाकर पाबंदी हटायी। इस पाबंदी को हटाने के पहले कोरिया में सांस्कृतिक स्वतंत्रता की उन्नति के लिए खास प्रयास नहीं किए गए। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि सांस्कृतिक माल किसी न किसी रूप में व्यवसायिक माल से अलग नहीं होते।
सवाल यह है कि सांस्कृतिक माल भिन्न क्यों होते हैं ? सांस्कृतिक माल विचार, प्रतीक और जीवन शैली सम्प्रेषित करते हैं। वे माल के निर्माता सामाजिक समूहों की पहचान के साथ अन्तर्गृथित होते हैं। इस बात को लेकर भी मतभेद नहीं हैं कि सांस्कृतिक मालों के संवर्ध्दन के लिए आम जनता का समर्थन बेहद जरूरी है। इसीलिए संग्रहालय ,नृत्य, पुस्तकालय आदि सांस्कृतिक मालों को आर्थिक सहायता दी जाती है।उनकी सेवाएं बृहत्तर जनता तक पहुँचती हैं साथ ही उन्हें सभी किस्म की मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था स्वीकार भी करती है। मतभेद इस बात पर है कि फिल्म और ऑडियो विजुअल मालों को सांस्कृतिक माल मानें या महज मनोरंजन मानें। इस पर भी बहस करने की जरूरत है कि सिनेमा और टेलीविजन कार्यक्रमों का क्या कोई आंतरिक कलात्मक मूल्य है या नहीं ? यह स्पष्ट है कि वे सांस्कृतिक माल हैं। वे जीवन शैली के प्रतीक हैं। फिल्म और ऑडियो विजुअल माल जीवन शैली और सामाजिक संदेश सम्प्रेषित करने के शक्तिशाली माध्यम हैं। इसी अर्थ में उनके मुक्त व्यापार के सवाल को गंभीरता से चुनौती दी जा रही है।
आज दुनिया में तकरीबन 200 देश हैं। जिनमें पांच हजार एथनिक समूह रहते हैं। दो-तिहाई देशों में एकाधिक एथनिक और धार्मिक समूह हैं जो कुल जनसंख्या का 10 फीसदी अंश हैं। अनेक देशों में बड़ी संख्या में मूल बाशिंदे रहते हैं जिन्हें उपनिवेशिकरण और बाद के विकास ने हाशिए पर पहुँचा दिया है। समस्या यह है कि क्या अमेरिकी कंपनियां ,खासकर मीडिया और उपभोक्ता सामान की कंपनियां इस वैविध्य को उपभोक्तावाद की तेज लहर पैदा करके नष्ट कर रही हैं या नहीं ? क्या इंटरनेट मौजूदा उपभोक्तावादी रूझानों से अलग हटकर नई परंपरा शुरू करके जिन्दा रह सकता है ? क्या इंटरनेट का विज्ञापन और उपभोक्तावाद के विकास के लिए इस्तेमाल रोका जा सकता है ? इंटरनेट के लिए अबाधित संप्रसारण अधिकार चाहिए, उपभोक्तावाद और भूमंडलीकरण चाहिए और इन सबके कारण कारपोरेट घरानों के मुनाफों में वृध्दि होगी। वैषम्य बढ़ेगा।सामाजिक-राजनीति तनाव में इजाफा होगा।इंटरनेट और कम्प्यूटर तकनीकी के विकास के दौर में अल्पसख्यकों को सबसे ज्यादा संकटों का सामना करना पड़ रहा है। प्रशासन से लेकर राजनीति सभी स्थानों पर उन्हें हाशिए पर डाल दिया गया है। उनकी भाषा,संस्कृति,संस्कार आदि पर हमले बढ़े हैं।उनके प्रति घृणा अभियान तेज हुआ है। इसके लिए बड़े पैमाने पर सूचना और मीडिया क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियां उन संगठनों को पैसा देती रही हैं जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा अभियान में सक्रिय हैं। हमारे देश में आरएसएस के सहयोगी संगठनों को घृणा फैलाने के काम के लिए जिन कंपनियों ने पैसा दिया उनमें सूचना और मीडिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियां सर्वोपरि हैं।इस संदर्भ में पहला सवाल यह है कि सूचना और मीडिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जनतंत्र के प्रति क्या रूख है ? जनतांत्रिक व्यवस्था में वे किस तरह की राजनीतिक शक्तियों के साथ होती हैं ? अल्पसंख्यकों के प्रति उनका क्या रूख है ? अब तक के विश्व अनुभव से साफ तथ्य सामने आए हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जनतंत्र के प्रति बैर भाव रहा है। हम यह भी सोचें कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जनता जब संघर्ष के लिए मैदान में आ जाती है तब मीडिया और संचार के बड़े संस्थान किसके साथ होते हैं ? तनाव की स्थिति में साधारण जनता के पास क्या विकल्प होंगे ? इन सवालों पर विस्तार से सोचने की जरूरत है।
अभी तक का विश्व अनुभव रहा है कि ग्लोबल मीडिया ने देशज सांस्कृतिक अस्मिताओं की उपेक्षा की है।उन्हें हाशिए पर ठेला है। सारी दुनिया में पूंजीपति वर्ग का अल्पसंख्यक अस्मिताओं के साथ भेदभाव भरा रवैयया रहा है। यह भेदभाव नौकरी, शिक्षा, मकान,स्वास्थ्य,राजनीतिक अभिव्यक्ति के अधिकार और ऐसी बहुत सारी सुविधाएं जो मानवीय जीवन के लिए अनिवार्य हैं, उनके वितरण में अल्संख्यकों के प्रति भेदभाव बरता गया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खूबी है कि उनके द्वारा निर्मित तकनीकी में जनतंत्र होता है किंतु राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन में ये कंपनियां तबाही मचाती रहती हैं, हमें सोचना होगा कि हम इनकी लूट और तबाही के खिलाफ संघर्ष करें या इस भ्रम में जिएं कि इंटरनेट ने जनतंत्र पैदा किया है ? अल्पसंख्यकों के लिए अभिव्यक्ति के अवसर पैदा किए हैं ? हाल ही में इण्डोनेशिया में जनतंत्र की स्थापना के संघर्ष के लिए इंटरनेट का वहां छात्रों ने जमकर इस्तेमाल किया था उसे अमेरिका ने पसंद नहीं किया।उसने बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों पर दबाव डाला है कि इंटरनेट का राजनीतिक तौर पर इस तरह का दुरूपयोग नहीं हो इसके लिए तुरंत कदम उठाए जाने चाहिए। क्योंकि इण्डोनेशिया के तानाशाह को अमेरिका और पश्चिमी धनी देशों का खुला समर्थन था। संचार और मीडिया के नाम पर जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपार दौलत बटोर रही हैं उनके लिए जनतंत्र और मानव विकास का अर्थ उनके मुनाफे का खात्मा।यह स्थिति वे कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं होगे। इंटरनेट जनतंत्र उन्हीं के लिए है जो साधन-सम्पन्न हैं। इसका इस्तेमाल करने की न्यूनतम सुविधाओं से लैस हैं। सच्चाई यह है कि विश्व की अधिकांश जनता उन स्थितियों में नहीं पहुँच पायी है जहां उसे सामान्य शिक्षा मिली हो। अशिक्षा और आर्थिक विपन्नता की स्थिति में वेब का साधारण जनतंत्र जनता के लिए यूटोपिया है किंतु मध्यवर्ग के लिए सच्चाई है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषणकारी रूप पर पर्दा डालने का साधन है। आज भी सारी दुनिया में 1.8 विलियन लोग ऐसी स्थितियों में रहते हैं जहां जनतंत्र के औपचारिक बुनियादी तत्वों का अभाव है। सारी दुनिया के अल्पसंख्यकों में से 359 मिलियन लोग ऐसे हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में धार्मिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने का एक रूप है आम आदमी को उसकी मातृभाषा के इस्तेमाल से वंचित करना। मातृभाषा में शिक्षा,राजनीति,न्याय आदि हासिल करने से वंचित करना। इसके लिए सामान्यत: लोगों पर दबाव डाला जाता है कि वे प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति को अपना लें। सारी दुनिया में लम्बे समय से दस हजार से ज्यादा भाषाएं चली आ रही थीं। किंतु विगत दो सौ वर्षों में प्रभुवर्ग की भाषा और संस्कृति अपनाने का यह दुष्परिणाम निकला है कि तकरीबन चार हजार भाषाएं खत्म हो गई हैं।अब मात्र छह हजार भाषाएं बची हैं। मानव विकास रिपोर्ट 2004में अनुमान लगाया गया है कि आने वाले 100 वर्षों में इनमें से 50-90 फीसदी भाषाओं का लोप हो जाएगा। आज भाषायी वैविध्य के सामने मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई है। समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाने के लिए अफ्रीकी देशों की स्थिति पर सोचें तो पाएंगे कि वहां 2,500 भाषाएं थीं। इनमें अनेक भाषाएं ऐसी भी थीं जिनमें अनेक सामान्य तत्व थे। जिनके सहारे लोग शिक्षा और राज्य के कामों में इन भाषाओं का सीमित रूप में इस्तेमाल कर सकते थे। इस क्षेत्र के तीस से ज्यादा देशों में जिनकी जनसंख्या 518 मिलियन थी,यानी कुल जनसंख्या का अस्सी फीसदी हिस्सा, ये लोग सामान्य तौर पर जिस भाषा का इस्तेमाल करते थे उससे भिन्न इनकी सरकारी भाषा थी। इस क्षेत्र के देशों के मात्र 13 फीसदी बच्चे मातृभाषा में शिक्षा हासिल कर पाते हैं। सवाल यह है कि क्या मातृभाषा में शिक्षा हासिल न करने से विकास बाधित होता है ? अनेक अनुसंधान बताते हैं कि हां। अनुसंधान बताते हैं कि मातृभाषा में शिक्षा पाने वाले बच्चों की भूमिका अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों से काफी बेहतर रही है। मातृभाषा का सार्वजनिक और निजी जीवन में प्रयोग बहुत महत्व रखता है। इस संदर्भ में यूनेस्को ने त्रिभाषा फार्मूला सुझाया है जिसके तहत 1. एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा हो, अधिकांश पूर्व उपनिवेशों में यह प्रशासन की भाषा रही है, किंतु भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में कम से कम एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा का सामान्य ज्ञान जरूरी है। जिससे आप ग्लोबल अर्थव्यवस्था और नेटवर्क में शिरकत कर सकें। 2. एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा हो , इस भाषा के जरिए स्थानीय स्तर पर विभिन्न भाषाभाषी लोगों के साथ संपर्क किया जा सके। 3. मातृभाषा, लोग अपनी मातृभाषा का उस समय इस्तेमाल कर सकें जब वो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर संपर्क में न हों । यूनेस्को की सिफारिश है कि इन तीनों भाषाओं को हमें सरकारी स्तर पर स्वीकृति देनी चाहिए। साथ ही भिन्न परिस्थितियों में इनके भिन्न किस्म के प्रयोग के बारे में भी सोचना चाहिए। हमें एक ही भाषा में शिक्षा की बजाय एकाधिक भाषा में शिक्षा के प्रति आग्रह पैदा करना होगा।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें