हाइपर टेक्स्ट सिर्फ मीडियम नहीं है। बल्कि इसके राजनीतिक हित भी हैं। इंटरनेट और हाइपर टेक्स्ट को जो लोग तटस्थ और जनतांत्रिक बता रहे हैं। वे बड़ी ही चालाकी के साथ इसके विमर्शों के जरिए पैदा हो रही राजनीति को छिपा रहे हैं। यह मूलत: इजारेदार पूंजी की साम्राज्यवादी राजनीति का विराट मीडियम है। इस तरह के आरोपों को पढ़कर इंटरनेटपंथी विचारक भड़क सकते हैं। उत्तर आधुनिकों को इस तर्र्र्र्क में माक्र्सवादी राजनीति की बू आ सकती है। किन्तु सच यही है। आज हाइपर टेक्स्ट की ओट में इजारेदार पूंजी का खेल चल रहा है,मसलन् भारत सरकार ने भारतीय भाषाओं के हाइपर टेस्क्ट के निर्माण के लिए माइक्रोसॉफ्ट के साथ 1200 करोड़ रूपये से भी ज्यादा का समझौता किया है। जिसके कारण हमें भारत सरकार मुफ्त में भाषा का प्रोग्राम मुहैयया करा रही है। असल में हाइपर टेक्स्ट और इंटरनेट की अपनी राजनीति है। विचारधारा है। यहां भी मीडिया और सूचना तकनीकी की बिक्री के मुहावरों का इस्तेमाल करते हुए हाइपर टेक्स्ट को अच्छे ,आकर्षक, तटस्थ, सर्वहितकारी के रूप में पेश किया जा रहा है। जबकि सच्चाई यह नहीं है। इंटरनेट या हाइपर टेक्स्ट स्वयं में जनतंत्र सर्जक नहीं हैं। जनतंत्र एक राजनीतिक व्यवस्था है। इसका जन्म तकनीकी से नहीं राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक प्रक्रियाओं के गर्भ से होता है। इंटरनेट ने आते ही सारी दुनिया में यह नारा दिया कि सभी किस्म की कानूनी बंदिशें हटा दो। वे यह भी कह रहे हैं कि कानून हमारी मौत है। जबकि सच्चाई यह है कि कानूनियत के तहत ही हम मजबूत बने हैं। हमारे गाल सुर्ख बने हैं। हमारे पुट्ठे मजबूत हुए हैं। हम ताकतवर नजर आने लगे हैं। आत्मनिर्भर संप्रभु राष्ट्र की साख हासिल की है। आज इसी कानूनियत को चुनौती दी जा रही है।
इंटरनेट और हाइपर टेक्स्ट ने उत्तर आधुनिकतावाद और उत्तर संरचनावाद की समस्त साहित्यिक सैध्दान्तिकी को आत्मसात् कर लिया है। किन्तु ऐसा करते समय वे यह भूल गए कि उत्तर आधुनिकतावादी अभी तक राजनीति की मुकम्मल और सुसंगत सैध्दान्तिकी बना नहीं पाए हैं। वे रैनेसां का विरोध करते हैं। किन्तु वे यह बताने में असमर्थ रहे हैं कि रैनेसां की समस्त उपलब्धियों को अस्वीकार करने का अर्थ है जनतंत्र को भी अस्वीकार करना। जनतंत्र लम्बे समय से रैनेसां का हिस्सा रहा है। इंटरनेट को जनतंत्र चाहिए किन्तु उसके पास राजनीति और उसमें भी जनतंत्र की मुकम्मल समझ का अभाव है। जनतंत्र के लिए सार्वजनिक परिवेश की जरूरत होती है। सवाल किया जाना चाहिए कि आधुनिक काल के ऐतिहासिक विकास क्रम में जनतंत्र का सार्वजनिक परिवेश घटा है या बढ़ा है ? हमारा मानना है कि जनतंत्र का सार्वजनिक परिवेश बढ़ा है। जनतंत्र की हमारी समझ और भी पुख्ता बनी है। साथ ही जनतंत्र विरोधी ताकतें भी बढ़ी हैं। उनके हमले बढ़े हैं।जनतंत्र आज सामाजिक -राजनीतिक जीवन प्रणाली का बेहतर विकल्प है। उत्तर आधुनिकों को इस सवाल का जबाव देना होगा कि उनकी राजनीति की सैध्दान्तिकी क्या है ? रैनेसां से टकराते समय क्या वे जनतंत्र के विरोधियों के हाथों के वैचारिक अस्त्र नहीं बन गए हैं ? क्या वे रैनेसां को ठुकराते हुए जनतंत्र को भी ठुकराना पसंद करेंगे यदि हां तो क्यों ? यदि नहीं तो क्यों ? ध्यान रहे जनतंत्र सिर्फ एक मूल्य नहीं है। वह मूल्यों की व्यवस्था है।
आज मीडिया ने 'पब्लिक' को '' पब्लिसिटी' के जरिए अपदस्थ कर दिया है। 'चरित्र' को 'इमेज' के जरिए अपदस्थ कर दिया है। जो लोग यह कहे रहे हैं कि आलोचना का अंत हो गया है। वे बेचारे भोले हैं। वैचारिक मासूम हैं। वे नहीं जानते कि जनतंत्र का विकास सार्वजनिक परिवेश के विकास के बिना संभव नहीं है। सार्वजनिक परिवेश जनतंत्र के बिना संभव नहीं है और जनतंत्र आलोचनात्मक तर्क के बिना जिन्दा नहीं रह सकता। इंटरनेट को सार्वजनिक परिवेश चाहिए बिना सार्वजनिक परिवेश के इंटरनेट अपना विकास नहीं कर सकता। इंटरनेट जनतंत्र और तकनीकी के अन्तर्विरोधों की पैदाइश है स्वयं इसका जनतंत्र और सार्वजनिक परिवेश के साथ अन्तर्विरोध है। आज जब कोई आतंकवादी संगठन इंटरनेट का इस्तेमाल करता है तो स्वयं के लिए सार्वजनिक परिवेश बनाता है और जनतंत्र के सार्वजनिक परिवेश को सीमित करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संचार की तकनीक स्वयं में सामाजिक व्यवस्था नहीं है,बल्कि उपलब्ध सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है,उसी के अंग के रूप में अपना विकास करती है। इस अर्थ में तकनीक वर्ग की विचारधारा से मुक्त होती है।वह सबकी होती है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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