यह रीडिंग का नहीं स्क्रीन रीडिंग का युग है। इसका यह अर्थ नहीं है कि रीडिंग के पुराने रूपों का खात्मा हो जाएगा।किंतु यह सच है कि स्क्रीन रीडिंग से पुस्तक, पत्र-पत्रिका आदि के पाठक घटेंगे। यह रीडिंग का प्रमुख रूप हो जाएगा। पुरानी रीडिंग के रूप वैसे ही बचे रह जाएंगे जैसे अभी भी राजा बचे रह गए हैं। एकदम शक्तिहीन। पुस्तक का भी यही हाल होगा। जब लोग 6-8 घंटे स्क्रीन पर पढ़ेंगे या काम करेंगे तो पुस्तक वगैरह पढ़ने के लिए उनके पास समय ही कहां होगा! बच्चों के बीच धैर्य कम होता चला जाएगा।इस समूची प्रक्रिया को इनफोटेनमेंट के कारण और भी गंभीर खतरा पैदा हो गया है। अब टीवी देखते समय हम सोचते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं। बच्चे किताब पढ़ें इसके लिए उन्हें शिक्षित करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
स्क्रीन पाठ फैला हुआ पाठ है।इसके अनेक लिंक हैं।ये पाठक को रास्ता सुझाते हैं।इसने सभी किस्म के लेखन,जिसका हाइपर टेक्स्ट के साथ संबंध हो,साहित्य की कोटि में पहुँचा दिया है। एकरेखीयता और एक ही व्याख्या को हाइपर टेक्स्ट अस्वीकार करता है। हाइपर टेक्स्ट का ही यह प्रभाव है कि आज सारी दुनिया में एकरेखीयता की जगह गैर-रेखीयता केन्द्र में आ गई है। गैर-रेखीयता एक नियम बन गयी है। अब विमर्श एक ही दिशा और एक ही दृष्टिकोण की बजाय विभिन्न दृष्टियों से किए जा रहे हैं। सभी दृष्टियां समान हैं।आज यह सब फैशन की तरह चल रहा है। गैर-रेखीय चिंतन के कारण ही रोलां बार्थ ने लिंक,नेटवर्क,वेब और पाथ पदबंधों का आलोचना में उपयोग किया। इसी तरह देरिदा ने लिंक,वेब,नेटवर्क,मेट्रिक्स और इंटरवीविंग पदबंध का हाइपर टेक्स्चुएलिटी के संदर्भ में प्रयोग किया।मिखाइल बाख्तिन ने लिंक्स,लिंकेज, इंटर कनेक्टेडनेस, इंटरवोवेन पदबंध का प्रयोग किया है।रोलां बार्थ ने 'एस/ जेड' कृति में जिस आदर्श पाठ की परिकल्पना दी है। वह 'हाईपर टेक्स्ट' ही है। इस आदर्श पाठ में बार्थ के मुताबिक अनेक नेटवर्क अन्तर्क्रिया करते हैं।वे किसी का भी अतिक्रमण नहीं करते।यह संकेतकों की आकाशगंगा है। यह संकेतित की संरचना नहीं है।क्योंकि इसका कोई आरंभ बिन्दु नहीं है।इसे पलटा जा सकता है।हम इसमें अनेक रास्तों से प्रवेश कर सकते हैं। इनमें से किसी को भी प्रामाणिक मानकर मुख्य द्वार नहीं कहा जा सकता।'कोड्स' के जरिए आप इसके पीछे अपनी आंखों को दौड़ाते हैं,और इसमें जो पाठ की व्यवस्था है वह मूलत: बहुलतामूलक है।इसे अनेक नंबरों में पेश किया जा सकता है। उसके नंबर कभी बंद नहीं होते।इसका पाठ कभी बंद नहीं होता।पाठ की कोई सीमा नहीं है।इसकी भाषा अनंत है।
रोलां बार्थ का मानना था कि 'पाठ की बहुलार्थकता' रही है।वह अर्थ के एकत्व को अस्वीकार करता है। पाठ के एक अर्थ की बजाय अनेक अर्थ भी हो सकते हैं। पाठ में अर्थ की नहीं प्रक्रिया की खोज की जानी चाहिए।'संकेतक' को 'संकेतित' का सहभागी समझना चाहिए, ताकि उसकी सहायता से निरवरोध अर्थ उत्पन्न हो सके। बार्थ का मानना था कि मानव का एकत्व एक प्रकार की भ्रान्ति है।यदि ध्यान से देखा जाए तो हममें से प्रत्येक वस्तुत: 'अनेक' है।वह उस प्रत्येक वस्तु का समर्थक था जो बहुलतावादी और केन्द्रापसारी हो,और प्रत्येक उस वस्तु का विरोधी था,जो केन्द्राभिसारी हो अथवा एकाकी हो।
बार्थ ने कथा साहित्य के उन आलोचकों की तीखी आलोचना की है,जो संसार भर की कहानियों को एक आंतरिक संरचना के अंतर्गत लाकर देखते हैं। प्रत्येक कृति भिन्न होती है। विभेद कलाकृति के अद्वितीय होने में नहीं,अपितु प्राय:कलाकृति की पाठात्मकता का हिस्सा होता है। बार्थ के यहां 'कोड' का अर्थ डिक्शनरी के प्रचलित अर्थ से भिन्न है।ये संरचनावादी कोड नहीं है।बल्कि यह हाइपर टेक्स्ट का कोड है।यह कोड पाठ से असंख्य स्वर पैदा करता है। बार्थ का मानना है कि पाठक जब भिन्न दृष्टिकोण से अध्ययन करता है तो भिन्न अर्थ पैदा होता है और अर्थ का तथाकथित अद्वितीयत्व विलीन हो जाता है,अर्थात् अर्थ का एकत्व कपोल कल्पना है। रोलां बार्थ ने 'डेथ ऑफ़ दि ऑथर' लेख में उस धारणा का खंडन किया कि कृतिकार पाठ का उत्स है।इसके विपरीत उसने कहा पाठक ही वह इकाई है जो पाठ के बहुमुखी अर्थ के केन्द्रों को स्थिर करता है।पाठक जिस ओर से भी चाहे,पाठ में प्रवेश कर सकता है,कोई एक मार्ग,कोई एक द्वार या विशेष द्वार नहीं है। बार्थ का मानना था कि पाठक,पाठ की अर्थोत्पत्ति की प्रक्रिया में बराबर की भागीदारी के लिए स्वतंत्र है,बिना 'संकेतक' का निरंकुश प्रतिबन्ध अनुभव किए।पाठक,भाषा के साम्राज्य-स्थलों का व्यंजक है और वह अर्थ के किसी भी तंत्र से पाठ को संबध्द करने और कृतिकार के अभिप्राय की उपेक्षा करने में पूर्णत: स्वतंत्र है।
रोलां बार्थ ने 'फ्रॉम वर्क टु टेक्स्ट' में लिखा कि ''पाठ नि:संदेह शब्दों का समुच्चय है।किंतु यह उस प्रकार अर्थ नहीं रखता,जिस प्रकार शब्द से अर्थगत अभिप्राय लिए जाते हैं। सामान्यतया पाठ अर्थ को अनन्त स्थगन में रखता है।इसका अर्थ यह नहीं कि पाठ जो कुछ कहना चाहता है,वह अनिवर्चनीय है,अपितु यह कि पाठ 'संकेतक' की फुलझड़ी है।यह भाषा का वह टुकड़ा है,जो संरचना रखता है,किन्तु बिना केन्द्र के जिसका कोई अंत नहीं है।''
बार्थ कहता है पाठ का 'अर्थ-बाहुल्य' अलघुकरणीय है और इसका कारण उसकी संदर्भपरकता,लाक्षणिक प्रयोग एवं पदमैत्रियाँ हैं,जो एक पाठ में दूसरे पाठों के साथ पाई जाती हैं।बार्थ इस संबध को अंतर्पाठ कहते हैं।जिसमें कोई भी पाठ स्थित होता है।'यह संदर्भों से गुंथा हुआ होता है बिना उध्दरण चिह्नों के जिनकी प्रतिध्वनि पंक्तियों में गूंजती रहती है। पाठ कई दूसरे पाठों के साथ घुला-मिला रहता है।बार्थ यह भी कहता है कि कृतिकार अथवा उसके अभिप्राय का अर्थोत्पत्ति की प्रक्रिया में कोई हस्तक्षेप नहीं होता।बार्थ की प्रसिध्द उक्ति है कि 'पाठ अपने पिता के हस्ताक्षर के बिना पढ़ा जाता है।''
मिशेल फ़ूको ने लिखा है हमें नेटवर्क के विचार की सामान्य व्यवस्था को पुनर्निमित करना चाहिए।उसकी सकारात्मकता और समान अन्तर्क्रियाओं को सामने लाना चाहिए।क्योंकि उसमें अन्तर्विरोधी राय संभव है।वह उन परिस्थितियों का अतिक्रमण कर जाता है जिसमें अन्तर्विरोध या समस्याएं पैदा होती हैं।यह ज्ञान की ऐतिहासिकता है।फ़ूको के लिए 'ऑर्डर' या व्यवस्था 'छिपे नेटवर्क का आंतरिक नियम है।' फ़ूको के अनुसार नेटवर्क ऐसा फिनोमिना है जो चीजों को एक-दूसरे से जोड़ता है। इसमें व्यापक पैमाने पर अन्तर्विरोधी दृष्टियां, व्याख्याएं, केटेगरी, नियम, आब्जर्वेशन आदि शामिल हैं।
हेंज पजेल्स ने नेटवर्क की व्याख्या करते हुए 'दि ड्रीम ऑफ रीजन' कृति में लिखा कि 'नेटवर्क में न तो सर्वोच्च है और न निचला हिस्सा है।बल्कि इसमें कनेक्शन की बहुलता होती है।इसके कारण नेटवर्क के तत्वों में संपर्क की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।कम्प्यूटर हमारी पाचन प्रणाली की तरह है।इसमें सीखने और स्मृति में रखने की अपूर्व क्षमता है।
इसी प्रकार देरिदा ने ''दि आर्केलॉजी ऑफ नॉलेज'' में लिखा है ''पुस्तक का मोर्चा आज भी स्पष्ट नहीं है।क्योंकि यह अन्य पुस्तकों के संदर्भों की व्यवस्था से घिरा हुआ है।अन्य पाठ,अन्य वाक्य-विन्यास और नेटवर्क के अंदर ही इसकी गांठें हैं।...नेटवर्क में इसके सन्दर्भ हैं।''देरिदा के 'डीकन्स्ट्रक्शन' यानी विरचनावाद का आधार हाइपर टेक्स्ट यानी इलैक्ट्रोनिक पाठ है।विरचनावाद की समूची सैध्दान्तिकी विकसित सूचना तंत्र के संदर्भ खासकर कम्प्यूटर प्रणाली के संदर्भ में विकसित की गई है।कम्प्यूटर पाठ की प्रकृति के साथ विरचनावाद की धारणाओं का गहरा संबंध है। कम्प्यूटर पाठ में आप किसी भी पाठ को विस्थापित कर सकते हैं। उलट-पलट कर सकते हैं।उसका अर्थ बदल सकते हैं।ठीक यही कार्य विरचनावाद करता है।विरचनावाद से अभिप्राय पाठ के अध्ययन की वह पध्दति है, जिसके माध्यम से न केवल पाठ के निर्धारित अर्थ को विस्थापित किया जा सकता है।अपितु उसके अर्थगत अद्वितीयत्व को विखंडित किया जा सकता है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
बेहतर लेख। सूचनापरक अौर सारगर्भित।इस विषय पर विपुल सामग्री उपलब्ध कराने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएं