अशोक बाजपेयी बड़े हंसमुख और सुसंस्कृत बुद्धिजीवी हैं। पढे़ लिखे अंग्रेजी में हैं किंतु हिन्दी में रमते है। गजब का विभाजित व्यक्तित्व है। यह व्यक्तित्व का विभाजन उनके नजिरए का भी अंग है। यह उनके अपने जीवन के यथार्थ से पलायन का भी संकेत है। यथार्थ से पलायन कोई नयी बात नहीं है किंतु इन दिनों यह फैशन का रूप ले चुका है। यथार्थ से पलायन का ही दुष्परिणाम है कि अशोक बाजपेयी ने लिखा है '' ज्यादातर लोग बहस में पड़ना नहीं चाहते। उसे एक गैर जरूरी बौद्धिक व्यसन मान लिया गया है। बहस से भला क्या होता है,किसी बहस का ,साहित्य में ,आज तक भला किसी समाधान या समन्वय में समापन हुआ है. स्त्री विमर्श और दलित विमर्श पर बहसें बासी पड़ चुकी हैं।'' ( जनसत्ता ,12 जुलाई 2009) अपने साप्ताहिक कॉलम में 'बहस की हालत' उपशीर्षक के तहत अन्य जो बातें कही हैं उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। वे बेबाकी के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। किंतु उनका उपरोक्त निष्कर्ष सही नहीं है।
समस्या यह है कि साहित्य में जो प्रतिष्ठित हैं, जिनमें अशोकजी स्वयं हैं, वे कितना बहस करते हैं, साहित्य की बहस पाठकों से नहीं साहित्य के आलोचकों से उठती रही हैं। उसी क्रम में साहित्य भी चमका है। साहित्य के नामी समीक्षक जब लिखना बंद कर दें,दूसरों का लिखा हुआ पढ़ना बंद कर दें।गंभीर बहस की बजाय चुटकुलेबाजी और प्रशस्तिगान करने लगें अथवा कीचड़ उछालने लगें तो बताइए इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए, क्या यह समस्या हमारी आपकी सबकी नहीं है कि जिन गंभीर सवालों से लेखक,पाठक और नागरिक दो चार हो रहा है उस पर अपनी पहलकदमी करें और गंभीर हस्तक्षेप करें, उन विषयों पर किताबे लिखें, निबंध लिखें, लिखित बहस आयोजित करें। जिन विषयों पर बहस समापन की बात अशोकजी ने कही है वह सही नहीं है। सच यह है कि हिन्दी के आलोचकों ने स्त्री विमर्श, दलित विमर्श किया ही नहीं है। जब बहस ही नहीं की तो समापन का सवाल ही पैदा नहीं होता । सर्वे के करके देखना चाहिए कि हिन्दी के स्वनामधन्य आलोचकों ने इन विषयों पर कितनी किताबें लिखीं, कितने गंभीर लेख लिखे।
हिन्दी की दिक्कत यह है कि इसका आलोचक अपने पेशे से भटक गया है,उसने आलोचना को अनुशासन के रूप में लंबे समय से ग्रहण करना बंद कर दिया है। हिन्दी आलोचना की जो चलती फिरती और लघु पत्रिकाओं में छपने वाली महान हस्तियां हैं उनमें से ज्यादातर की गंभीर विषयों में कोई दिलचस्पी नहीं है। यह सवाल स्वयं अशोक बाजपेयी को अपने से करना चाहिए कि उन्होंने दलित और स्त्री विमर्श पर क्या कोई किताब लिखी , मैं नहीं जानता, किंतु वास्तविकता यही है कि हिन्दी के ज्यादातर आलोचक इन दोनों ही विषयों पर गंभीर लेखन से कन्नी काटते रहे हैं। आलोचना समृद्ध तब होती है जब आलोचक स्वयं से सवाल करता है,स्वयं की जिम्मेदारियां परिभाषित करता है, आलोचना इस तर्क से विकसित नहीं होती कि क्या क्या नहीं हो रहा। आलोचक कैमरामैन नहीं है। आलोचक एक नागरिक है और वह अपने आलोचकीय नागरिक दायित्व का साहित्य में कैसे और किस कौशल के साथ पालन करता है उससे तय होगा कि आलोचना कैसी है, किसी विषय पर बहस जिंदा है या बासी है।
हिंदी के सुधी विद्वानों के लिए ये विषय कभी आकर्षण के केन्द्र में नहीं रहे, वरना कभी तो किसी आलोचक ने स्त्री और दलित के सवाल पर कोई आलोचना ग्रंथ लिखा होता। हिंदी के अधिकांश आलोचक ( अशोक बाजपेयी भी शामिल हैं) हमेशा मरे हुए, पुराने विषयों पर बहस करते हैं और उन पर ही अपनी वीरता और ज्ञान बहादुरी का प्रदर्शन करते हैं। स्वयं अशोक जी को ही इस लेख या कॉलम में देखें कि वे किन विषयों पर बहस का सुझाव देते रहते हैं।
अशोक बाजपेयी ने लिखा है ' बहस न होना क्या संवादहीनता का प्रमाण है,किसी हद तक।' यह संवादहीनता आती कहां से है, इसका सामाजिक स्रोत क्या है, क्या इसका हिंदी लेखक की मानसिक बुनाबट के साथ कोई संबंध है, क्या मध्यवर्ग के चरित्र के साथ कोई संबंध है, इत्यादि सवालो पर जब तक गंभीरता के साथ चर्चा नहीं होती हम सतही और चालू तर्क से काम चलाते रहेंगे। संवादहीनता तब पैदा होती है जब यथार्थ का मर्म हाथ से निकल जाता है, हिन्दी आलोचक के हाथ से कब और कैसे यथार्थ का मर्म छूट गया और आलोचक ग्लोबल बियावान में घिर गया यह सोचने का विषय है। स्वयं अशोक जी जिन विषयों पर निरंतर लंबे समय से लिख रहे हैं उसमें भी यही स्थिति सहज ही देखी जा सकती है। दूसरी बात यह कि संवादहीनता संचार के अभाव में पैदा होती है। हिंदी आलोचक बोलता है। लिखता है । किंतु संचार नहीं करता।
संचार में दुतरफा प्रक्रिया चलती है,लेना और देना होता है। हिंदी आलोचक सिर्फ अपनी बोलता है अन्य की सुनता नहीं है,ग्रहण नहीं करता,ग्रहण के प्रति उसके अंदर विनय भाव का अभाव है।हिंदी आलोचना में गर्वीलापन रामविलास शर्मा से दाखिल होता है और आलोचना में विनय की परंपरा,ग्रहण की परंपरा के अंतिम आलोचक हैं हजारीप्रसाद द्विवेदी। आलोचना में गर्वीलेपन को वास्तव अर्थों में जन्म दिया प्रगतिशील लेखक संघ ने। बाद में यह संक्रामक बीमारी के रूप में समूचे साहित्य में छा गया। हिंदी में आज सबसे ज्यादा दुर्गति भी प्रगतिशील आलोचना ही झेल रही है, क्योंकि हिंदी का यह सुनियोजित स्कूल था।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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bahut sundar aur vicharottejak tippani hai.Hindi men agar dalit vimarsh aur stri vimarsh khatm ho chuka hai to alochana ki sans bhi khatm man lena chahiye. Swanamdhanya lekhakon ne agar in do vimarshon par nahi likha to ye vimarsh mahtvahin nahi ho jate. sudha singh
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