देरिदा दार्शनिक नहीं बनना चाहता था।वह पेशेवर फुटबाल खिलाड़ी बनना चाहता था। औपचारिक स्कूली शिक्षा में देरिदा फिसड्डी था।बार-बार परीक्षा में फेल होता था। इसके बावजूद उसे 'इकोल नॉरमाले सुपीरियर इन पेरिस' में दाखिला मिला। आधुनिक युग का दर्शन का सबसे बड़ा दार्शनिक सब समय टीवी ,फिल्में और खबरें देखना पसंद करता था।वह एक दार्शनिक ही नहीं बल्कि आला दर्जे का इंसान था। उसने सबको 'डिकंस्ट्रक्शन' या विखंडन का सिध्दान्त दिया। इसका वह स्वयं भी व्यवहार में पालन करता था।वह जो कुछ भी देखता था उसके प्रति आलोचनात्मक रवैयया रखता था।यह कार्य वह सचेत रूप से करता था।
देरिदा ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा कि मैं सब समय विखंडन करता रहता हूँ। साक्षात्कार में जब पूछा गया कि आपने आखिरी फिल्म कौन सी देखी ?क्या उसका भी विखंडन किया ?इसके जबाव में देरिदा ने गुस्से में कहा कि मैं विखंडन पदबंध के इस तरह के इस्तेमाल से बहुत दुखी हूँ। मैं सोचता हूँ कि यह इस पदबंध का शोषण हो रहा है। स्नातक स्तर के छात्र विखंडन पदबंध का स्टीरियोटाईप की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। उसे विकृत कर रहे हैं।
देरिदा के चिन्तन की केन्द्रीय विशेषता है कि उन्होंने दर्शनशास्त्र को नए सिरे से गरिमा दिलायी।यह काम उन्होंने ऐसे समय मे किया जब दर्शन के अंत की दुंदंभी बज रही थी।आधुनिक काल में दर्शनशास्त्र पेशेवर दार्शनिकों का क्षेत्र बनकर रह गया था।सामान्य बौध्दिक जगत की हलचलों में दर्शन की उपेक्षा हो रही थी।कला,साहित्य,संस्कृति, राजनीति,न्याय आदि सभी क्षेत्रों से दर्शनशास्त्र का संवाद तकरीबन टूट गया था।यह सारी परिघटना बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही शुरू हुई।दर्शन का ज्ञान,विज्ञान,समाजविज्ञान आदि से सामान्य तौर पर रिश्ता क्यों और कैसे टूटा इस सवाल पर गंभीरता विचार करने की जरूरत है।
देरिदा के चिन्तन की दूसरी केन्द्रीय विशेषता है कि वे दर्शन, साहित्य, राजनीति, न्याय,भाषा आदि के समूचे विमर्श को नए सिरे से विश्लेषित करते हैं। सभी धारणाओं, मॉडल, पध्दतियों और विचारधाराओं को विश्लेषित करते हैं, उनकी मान्यताओं को चुनौती देते हैं। इस क्रम में लेखकों, दार्शनिकों, विचारकों के बन-बनाए साँचे टूट जाते हैं। फलत: समूचे विमर्श का पैराडाइम ही बदल जाता है।
देरिदा की तीसरी महत्वपूर्ण खूबी है कि उनका कोई पाठक उनसे प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता।दोस्त हो या दुश्मन वे सभी को प्रभावित करते हैं। सभी को विश्लेषण के औजार बदलने के लिए प्रेरित करते हैं।देरिदा को पढ़ने के बाद नजरिए में परिवर्तन अनिवार्य है।इस तरह की वैचारिक ताकत शायद मार्क्स के बाद किसी भी विचारक ने हासिल नहीं की थी।
देरिदा के नजरिए की चौथी विशेषता यह है कि वे परंपरा पर नए सिरे से समग्रता में विचार करते हैं। खासकर आधुनिक काल के विकास के नजरिए से सोचते हैं। वे उन तमाम दार्शनिक परंपराओं पर समग्रता में विचार करते हैं जिनके बारे में हमने सोचना बंद कर दिया था,यह मान लिया गया था कि अब तो या कुछ भी विवेचन लायक नहीं है।
असल में देरिदा का विखंडन स्वयं को चुनौती देता है।वह उस समूचे जगत को चुनौती देता है जिसमें हम जीते हैं।विखंडन प्रतिगामी वैचारिक औजार नहीं है। बल्कि वह वैध-अवैध, विवेक - अविवेक, तथ्य,कहानी,आब्जर्वेन,इमेजीनेशन आदि सभी को चुनौती देता है।विखंडन में दर्शन से लेकर जनमाध्यम, साइबरजगत तक की समस्याओं पर विचार किया गया है।
''देरिदा का मानना है कि उनका काम मौजूदा विमर्श में बेहद हाशियाकृत है।उनके अनुसार विखंडन दार्शनिक आशयों,विषयों,निष्कर्षों, तत्व मीमांसाओं, कविताओं,धर्मशास्त्रों, विचारधारा शास्त्रों से संबंधित नहीं है,बल्कि विभिन्न रूप में सार्थक संरचानाओं,सांस्थानिक संरचनाओं,शिक्षणात्मक या अलंकारशास्त्रीय नियमों,कानून सत्ता,और उनके बाजार की प्रातिनिधिकता से संबंधित है।स्पष्ट है कि देरिदा अपने इस कथन से विखंडन के नाम पर चल रहे तमाम तरह के प्रवादों की सीमा रेखा खींच देते है।वे विखंडन को सांस्थानिक बनाए जाने के प्रयत्नों को नकार देते है जो अमरीकी विश्वविद्यालयों के अंग्रेजी विभागों तथा तुलनात्मक साहित्य के विभागों में इन दिनों हो रहे हैं।''(सुधीश पचौरी,देरिदा का विखंडन और साहित्य,1997,पृ.20)
विखंडन सन् 60 के दशक में सामने आया।यह पश्चिम की 'मेटाफिजिकल परंपरा' का सिध्दान्त है।इसमें बीसवीं शताब्दी के सभी प्रमुख विचारकों के नजरिए का कनवर्जन है।यह उपग्रह युग की कनवर्जन तकनीकी का साहित्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र है।इसमें हुसेर्लियन फिनोमिनोलॉजी, मार्क्स,सोस्यूर,फ्रांसीसी संरचनावाद,मनोशास्त्र और भारतीय दर्शनशास्त्र का समावेश है।
विखंडन खास तरह की रीडिंग के अभ्यास,आलोचना की पध्दति, विश्लेषणात्मक खोज की पध्दति का नाम है।बारबरा जॉनसन ने 'दि क्रिटिकल डिफरेंस'(1981) में लिखा 'विखंडन' को 'विध्वंस' के पर्यायवाची के रूप में नहीं देखना चाहिए। बल्कि यह 'विश्लेषण' के ज्यादा करीब है। विश्लेषण में त्यागना अनिवार्य शर्त है। बिना त्यागे विश्लेषण संभव नहीं है। बारबरा ने लिखा है कि विखंडन वास्तव अर्थों में 'पुनर्निर्माण' का पर्यायवाची है। यदि कोई चीज विध्वंसक रीडिंग में नष्ट होती है तो वह पाठ नहीं है बल्कि उसका वर्चस्वशाली रूप नष्ट होता है। यह ऐसी रीडिंग है जो पाठ के विश्लेषण के दौरान उसमें निहित आलोचनात्मक फर्क को सहज ही उजागर कर देती है।
पाल द मान ने लिखा है विखंडन रीडिंग की सैध्दान्तिकी है।जो पाठ में निहित विपरीत अर्थ के तर्क की उपेक्षा करने वाले नजरिए का विखंडन करती है। विखंडन के बारे में एक अमेरिकी पत्रिका ने अप्रैल 1993 में लिखा कि विखंडन संभवत: यूरोप के लिए सबसे प्यारी चीज है। किंतु अमेरिका के साथ उसका 'लव-हेट' (प्रेम-घृणा) का संबंध है। सुधीश पचौरी के मुताबिक ''विखंडन मानता है कि आलोचना लेखन का एक तरीका है,जो किसी चीज में से किसी चीज को खोजता नहीं है बल्कि उस टैक्स्ट मे अर्थ का निर्माण भर करता है जिससे वह संलग्न होती है।इसलिए वह रचना की तरह ही रचनात्मक है।जिस तरह रचना टैक्स्ट में अर्थ का निर्माण करती है,उसी तरह आलोचना टैक्स्ट में 'अर्थ का निर्माण' करती है।इसलिए रचना और आलोचना 'अर्थ निर्माण के दो तरीके हैं'बड़े-छोटे नहीं हैं।इस अवधारणा ने सिध्दान्तिकी के परंपरावादियों की नींद हराम कर दी है।''(उपरोक्त,पृ.21-22)
''विखंडन की दूसरी रणनीति यह है कि वह किसी भी 'टैक्स्ट' में मौजूद अर्थ को निश्चित,पक्का और पूरा नहीं मानता।वह नहीं मानता कि किसी टैक्स्ट या पाठ की पूरी तरह और अंतिमत: व्याख्या की जा सकती है।उसका मानना है कि हर पाठ कुपाठ होता है।'मिस रीडिंग' है।''(उपरोक्त,पृ.22)
सामान्य तौर पर बुध्दिजीवी यह आरोप लगाते हैं कि देरिदा की किताबें बेहद जटिल हैं। वह कठिन गद्य लिखता है।उसे समझने में मुश्किल होती है। पाठकों को हतोत्साहित करता है। लेखन में सरलतापंथी पेटू लोग हिन्दी में जिस तरह व्यापक पैमाने पर पाए जाते हैं वैसे ही पश्चिम में भी पाए जाते हैं।इस तरह के सरलतापंथी पेटू लोगों को ध्यान में रखकर देरिदा ने कहा था कि यह सच है कि इससे मेरा नुकसान होता है।इससे बचने के लिए जो भी संभव है मैं करता हूँ। असल में जो लोग कहते हैं कि उन्हें मेरी बात समझने में कष्ट होता है। मेरी बात उनकी समझ में नहीं आती। असल में वे लोग समझना ही नहीं चाहते। जो समझना नहीं चाहते उन्हें मेरी पुस्तकें समझ में नहीं आएंगी। हमें उनकी रीडिंग और विश्लेषण की पध्दति के बारे में सवाल उठाने चाहिए।असल में वे लोग आरामदायक और सरल तरीके से पढ़ना चाहते हैं।
देरिदा ने कहा जब कोई गणितज्ञ या फिजिसिस्ट लिखता है, उसके लिखे को जब कोई नहीं समझता तो उसके लिखे के बारे में कोई नहीं कहता कि समझ में नहीं आता। कोई विदेशीभाषा बोले,तब भी नहीं कहते कि समझ में नहीं आता अथवा लोग कुछ नहीं बोलते। कोई जब आपकी भाषा की टांग तोड़ दे, तब ही कहते हैं कि समझ में नहीं आता। अथवा वे लोग कुछ नहीं बोलेंगे। असल में सवाल संबंध का है।आप कैसा संबंध बनाना चाहते हैं। मैं जटिल बनाने के लिए जटिल नहीं लिखता। ऐसा करना हास्यापद होगा। लोग यह मानकर क्यों चल रहे हैं कि दार्शनिक को सरल होना चाहिए। वे किसी वैज्ञानिक के बारे में ऐसा क्यों नहीं सोचते। जबकि वैज्ञानिक तो बहुत सारे पाठकों की पहुँच से बाहर होता है। जटिलता के सवाल को साहित्य के संदर्भ या लेखक के संबंध में ही क्यों उठाया जाता है। लेखक के संदर्भ में ही अपठनीयता का सवाल क्यों उठाया जाता है ? जबकि वह नए की खोज करता है। नया रास्ता सुझाता है। वह भाषा की व्याख्या करता है। भाषा का अर्थशास्त्र बनाता है।कोड बनाता है।ग्रहण करने के चैनल बनाता है।
देरिदा पर विचार करते समय अनेक विचारकों ने लिखा है कि विखंडन एक पध्दति है। देरिदा ने इस धारणा का बार-बार खण्डन किया है।उन्होंने यहां तक कहा है कि यह कोई 'देरीदियन मैथड' नहीं है।देरिदा पर विचार करते समय यह ध्यान रखें कि वह बोलने और लिखने की इच्छा को सर्वोच्च स्थान देता है।उसे इडियम में लिखना,इडियम बनाना पसंद है, किंतु यह भी मानता है कि इडियम प्योर नहीं होता।प्रत्येक इडियम की अपनी पध्दति होती है।प्रत्येक विमर्श,काव्य,वाक्य आदि के अपने नियम होते हैं।यह भी कहा कि मैं इडियम में विश्वास नहीं करता।इसके बावजूद सच यह है कि लेखक की लिखने की अपनी इच्छा होती है।वह कुछ भी लिखे या बोले।उसे किसी न किसी इडियम के जरिए अपनी बात कहनी होती है।यह कार्य वह गैर-अपदस्थीकृत रूप में करता है।किंतु अपने कार्य को ज्यों ही निश्चित रूप देता है अपदस्थ हो जाने की प्रक्रिया शुरू होती है। इसमें पुनरावृत्ति की संभावना भी है।वह ज्यों ही भाषा के माध्यम से इडियम में प्रवेश करता है उसे इडियम से बाहर के तत्वों से समझौता करना पड़ता है। वह कॉमनभाषा,अवधारणा,कानून,सामान्य नियमों आदि से समझौता करता है। इस क्रम में वह इडियम को सुरक्षित रखने की कोशिश भी करता है।नियमों की व्यवस्था को सुरक्षित रखता है। साथ ही इडियम के मैथड को भी मानता है। मैं यह भी कहना चाहता हँ कि रचनात्मक सवालों के बहाने मैथड के सवाल हीं उठाए जाने चाहिए।उसकी तकनीकी प्रक्रिया है।वहां एक संदर्भ से दूसरे संदर्भ तक पुनरावृत्ति होती रहती है।मसलन् मैं जो कुछ लिखता हूँ उसके भी सामान्य नियम हैं।कुछ प्रक्रिया है।इसका मैं विश्लेषण के लिए इस्तेमाल करता हूँ।इसी को मैं टीचिंग,नॉलेज और एप्लीकेशन कहता हूँ। किंतु ये सारे नियम पाठ से लिए जाते हैं। प्रत्येक पाठ विलक्षण होता है। उसमें विलक्षण तत्व होते हैं। उसे स्वयं में संपूर्णता के हवाले नहीं किया जा सकता है।इसी तरह लिखे हुए के प्रभाव के बारे में भी सोचना चाहिए। कोई चाहे या न चाहे इडियम का अन्य पर असर होता है। यह फोटोग्राफी के प्रभाव की तरह है।आप चाहे जिस रूप में फोटो खिंचवा लें।चाहे जितनी सावधानी बरतें।चाहे जैसे दिखने की कोशिश करें।इसके बावजूद ऐसे क्षण आएंगे जब फोटो आपको आश्चर्यचकित करेगा।
देरिदा के व्यक्तित्व की यह विशेषता थी कि उन्होंने हमेशा अपने को बहुत ही सामान्य ढंग से पेश किया।किंतु उनके लेखन को लेकर जबर्दस्त विवाद उठे हैं। उन पर अभूतपूर्व हिंसक हमले भी हुए हैं। उनकी जमकर निन्दा भी हुई है। इसके कारणों की खोज करते हुए देरिदा ने कहा कि मेरा कार्य सक्रिय प्रक्रिया का हिस्सा है। वहां अभी बहुत कुछ अनखुला है। खासकर प्रतिरोध अनखुला है जो कभी भी उभरकर सामने आ सकता है।प्रतिरोध उभरेगा तो वह व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहेगा। अनुशासन तक ही सीमित नहीं रहेगा।शैक्षणिक संस्थानों तक सीमित नहीं रहेगा।इस प्रतिरोध में छात्र,युवा एवं शिक्षक बार-बार शामिल हो रहे हैं। यदि मेरे सहकर्मी मेरे ऊपर हमले कर रहे हैं तो इसका कारण शैक्षणिक नहीं है, पागलपन नहीं है, बल्कि सच यह है कि कहीं न कहीं अपने लिए खतरा महसूस कर रहे हैं। मुझे उम्मीद और विश्वास है कि वे अनेक सिध्दान्तों का मूल्यांकन कर रहे हैं,अनेक प्रभुत्वशाली विमर्शों की पुन:परीक्षा कर रहे हैं। शैक्षणिक संस्थानों का मूल्यांकन कर रहे हैं। प्रभुत्वशाली विमर्शों में संशोधन कर रहे हैं। उनका राजनीतिकरण कर रहे हैं। यदि ये सिर्फ व्यक्तिगत हमले होते तो बात कुछ और थी। यह व्यक्तिगत मामला नहीं है। विखंडन की अनेक जिज्ञासाएं सवाल खड़े कर रही है। उन तमाम वर्गीकरणों,तटस्थ रूपों के प्रति सवाल खड़े कर रही हैं जो दर्शन में मौजूद हैं।
कायदे से इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि देरिदा के समसायिक राजनीतिक मसलों पर लिए गए स्टैंड ने कोई हंगामा खड़ा नहीं किया बल्कि व्यवहार में उसकी उपेक्षा ही ज्यादा हुई है।ऐसा क्यों हुआ ?इसके बारे में देरिदा का कहना है कि यह सच है राजनीति में चुप्पी है।अनेक मामलों में मेरी वापसी भी हुई है।किंतु चीजों को अतिरंजित रूप में पेश नहीं करना चाहिए।इस संदर्भ में यदि किसी को रूचि है तो वह देख सकता है कि मेरी रूचियां क्या हैं ?चयन क्या है ?वगैर किसी दुविधा के कुछ चीजें अभिव्यक्त हुई हैं।मैंने सामान्य तौर पर खास और आम बातों पर ही बोला है।ऐसी स्थिति में मैं अन्य की राय या वोट में शामिल हो गया हूँ।मैंने कभी अधिकारी विद्वान् होने का दावा नही किया।कोई यश लेने की कोशिश नहीं की। अपने लिए दार्शनिक या बुध्दिजीवी जैसा विशेष दर्जा नहीं मांगा।बल्कि सच यह है कि मुझे उसी समय ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा है जब मैंने अपने को दार्शनिक, बुध्दिजीवी या प्रोफेसर के रूप में देखने की कोशिश की है।मैं सोचता हूँ कि खास परिस्थितियों में, क्लासिक भूमिका एवं जिम्मेदारी निभाने की जरूरत होती है। उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।मैं रूपान्तरण करने की कोशिश करता हूँ और अच्छे भावों को अपील करने की राजनीतिक जिम्मेदारी निभाता रहा हूँ।
देरिदा के चिन्तन की धुरी है ग्रीक दर्शन और उसकी धुरी है 'लव ऑफ विजडम'। बतर्ज देरिदा फ्रांस में दर्शन को 'इटीमोलॉजी' यानी 'व्युत्पत्तिविज्ञान' कहते हैं। 'व्युत्पत्ति' यानी मालूम करना।संस्कृत में इसे निरूक्त कहते हैं।ग्रीक में दर्शन को प्रेम अथवा सोफिया के प्रति मित्रता कहा जाता है।इसमें 'विजडम' भी शामिल है।इसे ज्ञान का कौशल भी कह सकते हैं।देरिदा ने कहा कि हमें सवाल करना चाहिए कि 'फिलिया'क्या है ? प्रेम क्या है ? इच्छा क्या है ?इन सवालों से टकराते हुए हमने दर्शन को परिभाषित करना शुरू किया।इन सबको परिभाषित करने के लिए हमने व्युत्पत्तिविज्ञान को आधार बनाया।यही वजह है कि प्रेम और मित्रता की व्याख्या करने वाले अनेक पाठ प्रचलन में आए हैं।मैंने भी एक पुस्तक 'पॉलिटिक्स ऑफ फ्रेण्डशिप' नाम से लिखी है।तकरीबन सभी बड़े फ्रांसीसी विचारकों ने मित्रता और प्रेम के सवाल पर विस्तार से विचार किया है।देरिदा ने कहा कि मैं इस प्रसंग में इस बात से सहमत हूँ कि चीजों को इस तरह देखने से दर्शन की ज्ञानमीमांसापरक व्याख्या से हम भटक जाते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक दार्शनिक ने दर्शन की अपनी परिभाषा बनायी है। इसी को लेकर दार्शनिकों में जबर्दस्त विवाद है।वे दर्शन पर विचार करते रहे हैं कि यह कब और कैसे पैदा हुआ ?दर्शन की उत्पत्ति का आधार क्या है ?इस संदर्भ में यह ध्यान रखें कि आप दर्शन क्या है ?इसकी अवधारणात्मक व्याख्या तक ही सीमित नहीं रह सकते।यहां दर्शन शब्द का अर्थभर बता देना ही पर्याप्त नहीं है। 'फिलॉसफी' पदबंध ग्रीक का है।इसकी अनेक व्याख्याएं हैं।इन व्याख्याओं में बदलाव आता रहा है।
विखंडन नकारात्मक धारणा नहीं है।बल्कि हो यह रहा है कि विखण्डन को अधूरे रूप में पेश किया जा रहा है।सन् 1980 में देरीदा ने इस तरह के रूझानों को मद्देनजर रखकर ही कहा था कि विखण्डन के साथ प्रेम की धारणा को रखकर पढ़ा जाना चाहिए। देरिदा ने कहा था कि प्रेम का मतलब है अन्य की इच्छा-आकांक्षाओं के प्रति दृढ़ निश्चयीभाव।अन्य का सम्मान करना।अन्य की तरफ ध्यान देना।न कि अन्य के अन्यत्व को नष्ट करना।यह मेरी बुनियादी समझ है। इसके बावजूद यह सवाल किया जा सकता है कि विखण्डन में नकारात्मक क्या है ? मैं कहना चाहता हूँ कि विखण्डन में कुछ भी नकारात्मक नहीं है।तुम इसकी आलोचना कर सकते हो।सवाल खड़े कर सकते हो।चुनौती दे सकते हो। कभी-कभी विरोध भी कर सकते हो।इसके बावजूद विखण्डन में नकारात्मक कुछ भी नहीं है। विखण्डन नकारात्मक होकर कार्य नहीं करता।नकारात्मकता के आधार पर आप कोई कार्य नहीं कर सकते।यदि आलोचना करना चाहते हैं,इसे अस्वीकार करना चाहते हैं,खारिज करना चाहते हैं,चाहे अन्य का विरोध करने के लिए ही सही,तो इसके साथ आपको एक छोटा सा समझौता करना पड़ेगा सबसे पहले आप उसकी मौजूदगी को मानें।
देरिदा ने कहा कि जब आप अन्य को सम्बोधित करना चाहते हैं,चाहे अन्य का विरोध करने के लिए ही सही,तो आप अन्य की उपस्थिति को मानें।अन्य को अन्य की तरह सम्बोधित करें। अन्य को हजम करने के लिए सम्बोधित नहीं किया जा सकता।यहीं पर हमें अन्य की विशिष्टता को स्वीकार करना है। इस स्थिति को किसी भी तरह बदला नहीं जा सकता। यही इसका मूल नैतिक तत्व भी है।इस दृष्टि से देखें तो विखंडन एक एथिक्स है।यह सामान्य अर्थ में एथिक्स नहीं है।
देरिदा ने अपने लेखन में 'यस' पदबंध का काफी प्रयोग किया है।देरीदा कहते हैं कि 'यस' पदबंध 'अन्य' की तरह नहीं है।तुम 'यस' का प्रयोग नहीं भी करो तब भी यह ध्यान रखो कि प्रत्येक भाषा में 'यस' पदबंध है।यह प्रत्येक दार्शनिक के यहां हैं। हाइडेगर के यहां भी है। हाइडेगर कहा करता था कि चिन्तन की शुरूआत सवाल से होती है।सवाल करने का अर्थ है चिन्तन के सम्मान के प्रति सवाल खड़े करना।एक दिन ऐसा भी आएगा कि हम यह कहें कि 'उसके बयान का खण्डन करते हुए कह रहा हूँ 'यस'।उल्लेखनीय है 'यस' का दार्शनिकों की भारतीय परंपरा में मौनम् सम्मति लक्षणम् के अर्थ में प्रयोग होता रहा है।अथवा भारतीय दार्शनिक यों कहते हैं कि अब तक जो कहा गया वह फलां का है। इसके आगे मैं कहता हूँ।देरीदा ने कहा कि 'यस' कहने से बात खत्म नहीं हो जाती।बल्कि इसके बाद जो सिलसिला शुरू होता है।वह यह रेखांकित करता है कि चिन्तन के पहले भी कुछ मौजूद है।इसी को जूसेज ने चुपचाप स्वीकार करना कहा है।संस्कृत में इसी को मौनम् सम्मति लक्षणम् है।स्वीकार करने का अर्थ है दृढतापूर्वक कहना।'यस' कहने का अर्थ है कि तुम अन्य को पहले मानो और कहो कि मैं तुमसे सवाल करना चाहता हूँ।अन्य से कहो कि मैं तुमसे बातें करना चाहता हूँ।अन्य को चुनौती देने,विरोध करने से पहले यह कहना जरूरी है कि मैं तुमसे बातें करना चाहता हूँ।तुम्हारा अस्तित्व मानता हूँ।ज्योंही आप यह कहते हैं आप अपने और अन्य में जो कॉमन है उसे बता रहे हैं तो इसी को 'लव' या प्रेम कहते हैं।इसी को कहते हैं दृढ़ निश्चयपूर्वक कहना।
देरिदा के चिन्तन की मुश्किल यह है कि उसे पढ़ते समय आप उसके दायरे के बाहर नहीं जा सकते।उससे बाहर राय नहीं बना सकते।यह आंतरिक तौर पर उसकी भाषिक संरचना में निहित है।असल में इस समस्या का संबंध उसके परंपरा संबंधी मूल्यांकन से है।विरासत के सवाल से है।देरीदा ने कहा कि मेरा सब कुछ 'इनहेरिटेड' नामक धारणा पर टिका है।जब आप भाषा को विरासत में पाते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि आप पूरी तरह इसके अंदर हैं।अथवा ठंडे रूप में इसके कार्यक्रम का हिस्सा हैं।'इनहेरिटेड' का मतलब है भाषा को आप पूरी तरह आत्मसात् करें।रूपान्तरित करें।उसमें से कुछ का चयन करें। व्याख्या करें। प्रतिक्रिया दें।जबाव दें।दायित्व लें।जब दायित्व लेते हैं तो आप विरासत के बंदी नहीं होते।'हेरीटेज' का अर्थ यह नहीं है कि आप उसे समूचा पा लें। या दे दें।आप हेरीटज के बंदी नहीं हैं।आप उसे सिर्फ संरक्षित नहीं रख सकते जिससे वह सिर्फ बची रहे। तुम्हें जीना है और विकास करना है।इसमें चयन और व्याख्या की प्रक्रिया भी शामिल है।मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि इसमें दोहराने या कंजरवेटिव पोजीशन लेने की बेचैनी या उद्विग्नता भी होती है।किंतु जरूरी नहीं है कि यह प्रक्रिया घटित हो। मैं कहना चाहता हूँ कि कुछ भी नया करने के लिए विरासत को आत्मसात् करना जरूरी है।तुम्हें भाषा के अंदर जाना होगा। परंपरा के अंदर जाना होगा।तुम जब तक अंदर नहीं जाओगे रूपान्तरित नहीं कर सकते।किसी चीज को तब तक अपदस्थ नहीं कर सकते जब तक उसके अंदर न जाओ।
देरिदा को परंपरा की पुनरावृत्ति से कोई एतराज नहीं है।इस संदर्भ में हमें पुनरावृत्ति और इन्नोवेशन (खोज)में चयन नहीं करना है।बल्कि दो तरह की परंपराओं और इन्नोवेशनों में से चयन करना है।इसके अलावा कुछ और भी सक्रिय रूप भी हो सकते हैं।मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि कुछ नया खोजने की व्यवस्था बनानी है।अथवा कुछ नया घटित हो इसका प्रयास करना है।यह संभव है कि परंपरा के साथ धोखा करो या उसे भूल जाओ।तुम यदि किसी से बात करते हो तो यह सुनो कि अन्य क्या कहते हैं।संभवत: तुम उसकी पुनरावृत्ति करो।इसका तुम्हें जबाव देना होगा।प्रतिक्रिया व्यक्त करनी होगी।देरिदा ने कह कि मैं परंपरा पर बात करते समय प्रतिक्रिया और जिम्मेदारी दोनों को शामिल करता हूँ।देरिदा सामान्य तौर पर जब भाषा पर बात करता है तो उसे पुनरूक्ति कहता है।वह नए और संभावित अर्थ में व्यक्त होती है।इस प्रसंग में देरीदा ने कहा कि मुझे संस्कृत के व्युत्पत्तिशास्त्र की अस्पष्ट समझ है।वहां 'इटिरा' का अर्थ है और फिर एकबार।वही पुनरावृत्ति है।अथवा कुछ अन्य है,कुछ बदलाव के साथ है।इसका अर्थ है कि भाषा स्वयं को नए संदर्भ में पुन: प्रस्तुत करती है।नए फॉर्म में पेश करती है। उसके संभावित अर्थों के बारे में बताना असभव है।उसकी सीमा तय करना असंभव है।इसका अर्थ यह भी है कि पाठ से अर्थ को अलग नहीं कर सकते।खासकर लेखक की मंशा से पाठ को अलग नहीं कर सकते।इसका अर्थ यह भी है कि लेखक अपनी पुस्तक के भविष्य के लिए जिम्मेदार है।किंतु यह बात यांत्रिक तौर पर लागू नहीं होती।लेखक,दार्शनिक आदि को अपने लिखे के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए। मसलन् लिखते समय राजनीतिक आयाम के प्रति सतर्क रहना चाहिए। कोशिश करो कि ज्यादा नियंत्रण स्थापित न किया जाए।लेखन के सभी संभावित परिणामों के मद्देनजर कहना चाहता हँ कि जनता आपके लेखन से कुछ न कुछ अर्थ निकाल लेगी।इसी को ओवलीगेशन कहते हैं।प्रत्येक चीज को देखने एवं विश्लेषित करने का दबाव कहते हैं। लेखन को नियंत्रित करना असंभव है।तुम चीजों को नियंत्रित नहीं कर सकते।अथवा खास तरह के विमर्श या वाक्यों को प्रकाशित होने से रोक नहीं सकते।ध्यान रहे जब कोई चीज खोजी जा रही है तो खोजी जा रही है।खोज हमेशा आपकी पकड़ के बाहर होती है।आपके नियंत्रण के बाहर होती है।वह भिन्न संदर्भ में होती है।उसका शोषण या अपदस्थीकरण संभव है।इसका लेखक के लक्ष्य से भिन्न इस्तेमाल संभव है।
यही सवाल मैंने नीत्शे के संदर्भ में उठाया था।यह सच है कि नीत्शे का नाजियों ने इस्तेमाल किया। दुरूपयोग किया।इसी वजह है नीत्शे को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि वह यह सब नहीं चाहता था। किंतु हम यह कैसे भूल सकते हैं कि नाजी उसे अपना उत्तराधिकारी मानते थे।यही वजह है कि उसके साथ विमर्श होना चाहिए। उसके नाजी संबंधों के बारे में विमर्श होना चाहिए।मैंने यह कार्य अपने तरीके से किया है। फिर भी उसके दुरूपयोग रोक नहीं सकते। मैं चाहता हूँ कि भाषा के वर्चस्व के प्रति प्रतिरोध किया जाए। किंतु इसके साथ यह भी कहना चाहता हूँ कि राष्ट्रवाद का भी विरोध किया जाए।भाषा के वर्चस्व के प्रति विरोध को कुछ प्रतिक्रियावादी तत्वों ने आत्मसात् कर लिया है।कुछ लोगों ने कहा कि तुम डिफरेंस या भिन्नता के नाम पर सार्वभौम भाषा में दरार पैदा कर रहे हो।अत: हम तुम्हारे विमर्श को राष्ट्रवाद या प्रतिक्रियावादी भाषायी हिंसा के पक्ष में इस्तेमाल करते हैं।मैं इस तरह के चिन्तन को नियंत्रित नहीं कर सकता।तुम सब कुछ नियंत्रित नहीं कर सकते।इसका अर्थ यह है कि तुम चुके हुए इंसान हो,सीमित इंसान हो।इसका संबंध भाषा की संरचना से है।खोज की संरचना से है।ज्यों ही तुम कोई चीज खोजने जाते हो तो खोज का कार्य मूल से स्वतंत्र हो जाता है।ज्यों ही तुम कोई चीज खोज लेते हो तो तुरंत पलायन कर जाते हो।मैंने इसी अर्थ में कहा था कि तुम किताब को पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते।मेरे इस साक्षात्कार का भविष्य भी मैं नियंत्रित नहीं कर सकता।अभी यह टेप हो रहा है।बाद में इसे लिखोगे।पुन: लिखोगे।पुन: नए फ्रेम में डालोगे।नए संदर्भ में विकसित करोगे।फलत: मेरे वाक्य नई ध्वनि व्यक्त करने लगेंगे।यह असल में आस्था और विश्वास का मामला है।आपको अपने कहे या लिखे पर विश्वास करना होगा।
एक दार्शनिक के नाते देरिदा से अमेरिका में घटित 'सितम्बर 11' की घटनाओं के बारे में सवाल किए गए। ' 9/ 11 ' की भाषा के बारे में पूछा गया। उसकी परिणतियों के बारे में पूछा गया तो देरिदा ने कई महत्वपूर्ण पक्षों पर रोशनी डाली। देरिदा ने कहा कि ' 9/ 11' की घटना के बारे में जैसा कि तुमने सवाल किया है। इससे यह बात उभरती है कि इसमें तिथि का महत्व है।वही इसका नाम है। ज्यों ही तुमने 'सेप्टेम्बर इलेवन' कहा,तो पहले ही बता दिया कि अब तुम मुझसे इस घटना को याद करते हुए बात कर रहे हो।तुम्हारे सवाल में ही निहित है कि हमारे सार्वजनिक जीवन से 'डेट' और 'डेटिंग' को,पांच सप्ताह हो गए, उठा लिया गया है।(यह साक्षात्कार 22 अक्टूबर 2001 को लिया गया) ।
अब हम 'तिथि' में नहीं 'अनुभूति की तिथि' में जी रहे हैं। फ्रेंच में इसे तारीख निर्माण कहते हैं। इतिहास में दिन का निर्माण है।इसके प्रभाव को आप महसूस कर सकते हैं। यह अभूतपूर्व एकायामी घटना है। इसकी अनुभूति उतनी स्वर्त:स्फूत्त नहीं है जितनी ऊपर से लग रही है।असल में व्यापक स्तर पर इस अनुभूति का अभ्यस्त बनाया गया है। इस अनुभूति को निर्मित किया गया है। यदि यह वास्तव में निर्मिति नहीं है तब भी मीडिया के जरिए,तकनीकी-सामाजिक- राजनीतिक मशीन के जरिए इसे प्रसारित किया गया है।जिससे इस तारीख को इतिहास बनाया जा सके।इसका समूचा वर्णन संभावना और पूर्व संभावना में आ रहा है। अपरिष्कृत और कठमुल्ले रूप में आ रहा है।अथवा यह भी कह सकते हैं कि सुचिंतित,संगठित, सुनियोजित रणनीति के तहत इसका प्रचार हो रहा है।
देरिदा ने कहा कि ' 9/ 11' का संबंध 'अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद' की धारणा से है। जब हम ' 9 / 11 '' कहते हैं तो इस नाम और नम्बर के जरिए क्या कहना चाहते हैं हम नहीं जानते ? इस नामकरण का अविवादास्पद असर हुआ है।इस असर के बारे में हमने सोचा ही नहीं है।इस तरह के नामकरण का अर्थ क्या है ? जब हम 'सेप्टेम्बर इलेवन' कह रहे होते हैं।इसे दोहरा रहे होते हैं।जब हम पुनरावृत्ति करते हैं तो ध्यान रहे पुनरावृत्ति तटस्थ बनाती है।समापन की ओर ले जाती है।संवेदना से दूरी बनाती है।यही बात टेलीविजन प्रसारित इमेज पर भी लागू होती है। इस नाम का या किसी भी नाम का बार-बार उच्चारण अंतत: उस नाम को शक्तिहीन बनाता है।अर्थहीन बनाता है।हमें इस घटना को भाषा के परे जाकर देखना चाहिए।उस दिन भयानक घटना हुई।इसका अंत क्या होगा,हम नहीं जानते।यह हिंसा है।इसकी निन्दा करनी चाहिए।इसमें अनेक लोग मारे गए हैं।कोई नहीं मानेगा कि यही इसका अंत है।असल में यह घटना हमें कुछ कहने के लिए बाध्य करती है।
देरिदा ने कहा कि इस घटना का एक 'इम्प्रेशन' है दूसरा 'इंटरप्रिटेशन' है।अभी इंटरप्रिटेशन असंभव है।इसी तरह हमें ध्यान रखना होगा कि इसके बारे में 'कुछ ठोस तथ्यों' की व्यवस्था कर दी गई है।अत: हमें 'सूचनाओं' में अंतर करना चाहिए।जहां तक संभव हो हम व्याख्या करें।जिससे इस बड़ी घटना को समझा जा सके।जब देरिदा से कहा गया कि यह ऐसा हिंसाचार है जो विश्वयुध्द में भी नहीं देखा गया तो देरिदा ने कहा कि इस तरह के अनेक उदाहरण हैं।ऐसे अनेक जनसंहार हुए हैं।किंतु उन्हें दर्ज नहीं किया गया है।उनकी व्याख्या नहीं हुई है।उन्हें हम महसूस नहीं करते।उन्हें बड़ी घटना के रूप में पेश नहीं करते।इसलिए वे घटनाएं प्रभाव नहीं छोड़तीं।कम से कम सभी पर अपना प्रभाव नहीं छोड़तीं।खासकर विस्मृत न की जाने वाली विनाशलीला के रूप में प्रभाव नहीं छोड़तीं।हमें सवाल करना चाहिए कि हमारे ऊपर ये दो तरह के प्रभाव कैसे पड़ रहे हैं।एक तरफ हम इस घटना के पीड़ितों के प्रति सहानुभूति व्यक्त कर रहे हैं,दुख व्यक्त कर रहे हैं,निंदा कर रहे हैं,किंतु दूसरी तरफ हमें जनसंहारों पर कुछ भी कहने की जरूरत महसूस नहीं होती।मेरा मानना है कि हमें बगैर किसी सीमा के,बगैर किसीर् शत्त के सभी किस्म की बर्बरता,हिंसाचार की निन्दा करनी चाहिए।हमें बर्बरतापूर्ण घटनाओं के प्रति अंदर से आंतरिक प्रतिरोध व्यक्त करना चाहिए।उसकी व्याख्या करनी चाहिए।उन परिस्थितियों को बताना चाहिए कि ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं।
इसी तरह 'विश्वास' का फिनोमिना, साख एवं संबंध पर निर्भर करता है।इसी पर इसकी व्याख्या निर्भर करती है।देरिदा ने कहा कि ' 9 /11 ' की घटना को 'आतंकवाद के खिलाफ जंग' कहना भ्रमित करना है।(उल्लेखनीय है अमेरिका ने इसी थीम पर सारा प्रचार किया है।)हमें इस भ्रम को विश्लेषित करना चाहिए।बुश ने कहा कि यह 'युध्द' है किंतु असलियत में वह इसे परिभाषित करने में असमर्थ रहा।जबकि यह घोषित युध्द था।यह भी बार-बार कहा गया कि यह अफगानिस्तान के नागरिकों के खिलाफ जंग नहीं है।यह भी कहा गया कि अफगानिस्तान की जनता और सेना अमेरिका की शत्रु नहीं है।यह मानकर चला गया कि विन लादेन वहीं है।वह स्वायत्त रूप से फैसले लेता है।जबकि प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि वह अफगान नहीं है।उसे उसके देश ने ही ठुकरा दिया है।बहिष्कृत कर दिया है। यह भी कह सकते हैं कि उसे प्रत्येक देश और राज्य ने अस्वीकार कर दिया है।यह सच है कि उसे प्रशिक्षण अमेरिका ने ही दिया था।अत: वह अकेला नहीं है।उसे कोई भी राज्य खुले तौर पर समर्थन भी नहीं करता।जहां तक आतंकवादियों को शरण देने वाले राष्ट्रों का मामला है तो इस बारे में यही कह सकते हैं कि उनकी पहचान नहीं हो सकती। अमेरिका,यूरोप,लंदन, बर्लिन इनके अभयारण्य हैं।ये वे देश हैं जहां दुनियाभर के सभी आतंकवादियों के प्रशिक्षण,निर्माण अदि की सभी सूचनाएं उपलब्ध हैं।इनके बारे में किसी भूगोल,सीमा क्षेत्र को आधार नहीं बना सकते।आज हमें किसी देश में गड़बड़ी फैलाने के लिए भाड़े के सैनिक या आतंकवादी भेजने की जरूरत नहीं है।बल्कि सिर्फ कम्प्यूटर वायरस भेजने की जरूरत है।वायरस के प्रसार से ही उस देश की समूची अर्थव्यवस्था,सैन्य और राजनीतिक संसाधनों को नष्ट किया जा सकता है।चाहें तो किसी देश या महाद्वीप को धराशायी कर सकते हैं।आज दुनिया में आतंक,आतंकवाद और क्षेत्र का रिश्ता बदल गया है।यह संभव हुआ है तकनीकी विज्ञान के जरिए।यह तकनीकी विज्ञान ही है जो 'युध्द' और 'आतंक' के अर्थ को बदल रहा है।आज जिन लोगों ने ' 9/ 11 ' की घटना की है वे कल इससे भी भयानक घटना को अंजाम दे सकते हैं।यह कार्य वे बगैर खून-खराबे के भी कर सकते हैं।यह 'युध्द' दो राष्ट्रों के बीच भी नहीं है।यह 'सिविलवार' भी नहीं है।न यह 'पार्टीजान युध्द' है।इसका लक्ष्य कुछ भी हो।यह मुक्ति युध्द भी नहीं है।लेकिन यह सच है कि विन लादेन के नेटवर्क ने सऊदी अरब को अस्थिर कर दिया है।उसकी जगह नए राष्ट्र को प्रतिष्ठित कर दिया है।
देरिदा के समूचे चिन्तन की धुरी है वंचित समाज,स्त्री,काले, हाशिए के लोग, अनाथ,शरणार्थी लोग,सांस्कृतिक -सामाजिक तौर पर बेदखल कर दिए गए लोग। वंचितों की अस्मिता,शास्त्र,संस्कार और मूल्यों की चिन्ता को लेकर सारा देरीदाशास्त्र निर्मित किया गया है। आधुनिक काल में चिन्तकों में वंचितों की मुक्ति की इस कदर बेचैनी कार्ल मार्क्स के बाद पहलीबार देरिदा में दिखाई देती है।देरिदा की केन्द्रीय समस्या यह है कि वे वंचितों की मुक्ति चाहते हैं किंतु जनतंत्र के अंदर।वे अपने समूचे लेखन में पूंजीवादी व्यवस्था की तीखी आलोचना पेश करते हैं किंतु इसके विकल्प का सपना उनके पास नही है। घूम-फिरकर वे पुन: पूंजीवादी विकल्पों में ही वापस जाते हैं।गैर-पूंजीवादी सामाजिक विकल्प की कोई तस्वीर उनके पास नहीं है।वे एक साफ-सुथरा,दोषरहित पूंजीवाद चाहते हैं। देरिदा के चिन्तन की यह सबसे बड़ी सीमा है। वे मौलिक इस मायने में हैं कि चिन्तन के बन-बनाए ढांचों को यथातथ्य स्वीकार नहीं करते।सन् साठ के बाद के फ्रांसीसी समाज के परिवर्तनों को वे अभिव्यक्ति देते हैं।विखंडन का सारा तामझाम अपनी पूरी शक्ति के साथ पुन: एकबार केन्द्र में आता है।ऐसा नहीं है कि देरिदा विखंडन की धारणा का इस्तेमाल करने वाले पहले दार्शनिक हैं।बल्कि यों कहें तो ज्यादा सही होगा कि पूंजीवादी विकास के क्रम में सैध्दान्तिकी की भीड़ ने जो भ्रम का वातावरण बनाया था।दिशाहीनता पैदा की थी।चिन्तन के क्षेत्र में जो हताशा छायी हुई थी।सामान्य तौर पर बुध्दिजीवियों को समझ में नहीं आ रहा था कि उनके लिए कौन सा रास्ता या दृष्टिकोण सही है।
द्वितीय विश्व युध्द के बाद पूंजीवादी दार्शनिकों की साख एकसिरे से खत्म हो चुकी थी। उसमें प्राणवायु का संचार करने में अस्तित्ववाद भी असमर्थ रहा।यहां तक मार्क्सवाद के बारे में संदेह और प्रश्नाकुलता इसी दौर में सबसे ज्यादा मार्क्सवादी खेमों में पैदा हुई।द्वितीय विश्वयुध्द के समापन के समय सारा जगत गहरे वैचारिक मंथन से गुजर रहा था।सभी विचाधाराओं को बुध्दिजीवी संदेह की नजर से देख रहे थे।मार्क्सवाद की कतारों में भी विचलन नजर आ रहे थे। बुर्जुआ विचारधाराओं में नित नए प्रयोग हो रहे थे।युध्दोत्तर दौर की नई तकनीकी-वैज्ञानिक एवं राजनीतिक कतारबंदी ने वैचारिक उथल-पुथल को तेज कर दिया था।पूंजीवादी और मार्क्सवादी दोनों ही खेमों में गहरा मंथन चल रहा था।परवर्ती पूंजीवाद और समाजवाद के परिवर्तनों को लेकर नई वैचारिक रणनीति क्या हो ?इसे लेकर सभी स्कूल सक्रिय थे।यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें देरिदा सक्रिय होते हैं।वे सारे चिन्तन को जो स्वयं ही विखण्डित हो रहा था।एक नई विखंडन सैध्दान्तिकी देते हैं।वे सहमति के माहौल में असहमति का मंत्र लेकर आते हैं।वे ऐसे रूढिवादी माहौल में असहमति और विखंडन की बात करते हैं। जब मार्क्सवाद अपने को सत्य का पर्याय बना चुका था।समाजवादी व्यवस्था स्थिर हो चुकी थी।समाजवादी शिविर सामने आ चुका था।समाजवादी खेमे और मार्क्सवादियों की ओर से यह मान लिया गया कि जनतंत्र एक चुकी हुई व्यवस्था है। जनतंत्र का सर्वोच्च विकास समाजवादी जनतंत्र है। ऐसे में देरिदा का प्रवेश बेहद महत्वपूर्ण है।देरिदा ने मार्क्सवाद और पूंजीवाद के अब तक के प्रचलित सभी भावों,विचारों,विचारों,मूल्यों,नियमों, संहिताओं आदि को गंभीर चुनौती दी।यह चुनौती वे एकदम नई जमीन से देते हैं। उल्लेखनीय है कि मार्क्सवाद और पूंजीवाद ये दोनों ही मानवाधिकारों की बात नहीं करते। इनकी जितनी भी सिध्दान्त चर्चा है वह मानवाधिकार के दृष्टिकोण की उपेक्षा करती है।
देरिदा का सबसे बड़ा एकमात्र अवदान यह है कि वे युध्दोत्तर दौर में मानवाधिकारों का जो चार्टर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने बनाया था।जिसे समाजवादी और पूंजीवादी व्यवस्था के पक्षधर मानने को तैयार नहीं थे।इस मानवाधिकार के दृष्टिकोण को अपने समूचे चिन्तन की बुनियाद बनाया।वे विखंडन के जरिए मानवाधिकारों की खोज करते हैं।जिस तरह कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन का मंत्र बताया था। उसी परंपरा में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में मानवाधिकारों और मानवाधिकारों के पक्ष में खड़ी सैध्दान्तिकी के रूप में देरिदा सामने आते हैं। देरिदा को अभी यह चिन्ता नहीं है कि क्रांति कब होगी ? समाजवादी व्यवस्था को बचाया जाए या गिराया जाए ? देरिदा की मूल चिन्ता यह है कि अब तक के आधुनिक विकास के क्रम में मानवाधिकारों का सारी दुनिया में विकास नहीं हुआ है। मानवाधिकारों के पक्ष में दर्शन का कोई स्कूल खड़ा नहीं है। यहां तक कि कोई दार्शनिक भी मुस्तैदी के साथ खड़ा नहीं है। देरिदा के दर्शन,साहित्य,भाषा,संस्कृति,जनमाध्यम, न्याय,कानून,नैतिकता, लिंगभेद, नस्लवाद विरोध, शरणार्थी समस्या,फिलिस्तीन समस्या आदि का मूलाधार मानवाधिकार का परिप्रेक्ष्य है। उनकी बुनियादी समझ यही है कि मानवाधिकारों का उनकी सर्वोच्च अवस्था तक विकास किया जाए। मानवाधिकारों की हर हालत में रक्षा की जाए।
शीतयुध्द के दौरान मानवाधिकारों के सवाल को सोवियत संघ के माक्र्सवादियों ने सीआईए का राजनीतिक प्रपंच बना दिया था।इसके चलते बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों के प्रति परिवर्तनकामी शक्तियों में गलत समझ बन गई।मानवाधिकारों की चिन्ता को बड़े कौशल के साथ देरीदा दर्शन,साहित्य,भाषा, आदि के क्षेत्र में विखण्डन के बहाने ले आते हैं।कायदे से मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में देरिदा को पढ़ा जाना चाहिए।मानवाधिकार और विखण्डन का गहरा संबंध है। मानवाधिकार के सवालों ने पूंजीवाद और समाजवाद के समूचे तानेबाने को अस्त-व्यस्त किया है।वही कार्य विखण्डन ने किया है।असल में विखण्डन मानवाधिकार की दार्शनिक रणनीति है।जिस तरह मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में सभी क्षेत्र में बदलाव की प्रक्रिया शुरू हुई है।यही कार्य विखण्डन ने चिन्तन के क्षेत्र में किया है।विखण्डन की रणनीति गैर-राजनीतिक नहीं है।बल्कि पूरी तरह राजनीतिक है।सम-सामयिक है।मजेदार बात यह है कि जिस जमाने में मानवाधिकारों की चेतना नहीं थी।उस दौर के चिन्तन को भी देरीदा मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में खोलकर देखते हैं।मानवाधिकार की राजनीति और देरीदा और उनके अनुयायियों का गहरा रिश्ता है।आम तौर पर आलोचकों ने इस पहलू की उपेक्षा की है।देरिदा पूंजीवाद या समाजवाद या माक्र्सवाद की आलोचना करते समय कोई निश्चित व्यवस्था का खाका पेश नहीं करते।सिर्फ मनुष्य और उसके अधिकारों के पक्ष में जनतंत्र को सबसे बडा तत्व मानते हैं। देरिदा के चिन्तन के आने के बाद सारी दुनिया में समानता, जनतंत्र,अस्मिता, स्त्री अस्मिता,दलित अस्मिता,काले लोगों के अधिकार,वंचितों के अधिकार का मामला एकदम नए स्पेस में चला गया है।
उल्लेखनीय है कि देरिदा ऐसे समय में अपनी समस्त वैचारिक ऊर्जा के साथ दाखिल होते हैं जब सांस्कृतिक-सैध्दान्तिक चिन्तन पतन की ओर जा रहा था।इस पतन से बचने का कोई मार्ग नजर नही आ रहा था।बड़े-बड़े विचारक,आलोचक,लेखक इस संकट की अवस्था में अध्यात्म में लौट चुके थे।अथवा अपनी-अपनी सैध्दान्तिक रूढ़ियों में कैद थे। देरीदा इन सबसे मुक्ति दिलाते हैं। जब हिन्दी से लेकर अंग्रेजी तक थियरी को अप्रासंगिक ठहराया जा रहा था। जब युवाओं में मानवाधिकारों और मध्य-पूर्व के संकट और नस्लवाद पर बातें करने की बजाय अप्राकृतिक मैथुन पर ज्यादा चर्चाएं हो रही थीं।समाजवाद के प्रति आकर्षण घट रहा था।जब 'शरीर' और सिर्फ कामुक शरीर चर्चा के केन्द्र में था।ऐसे में देरीदा ने अपनी विखण्डन रणनीति के जरिए वंचितों और उपेक्षितों को सारी दुनिया में केन्द्रीय एजेण्डा बनाया।जो काम इस दौर में मार्क्सवाद नहीं कर पाया उसे देरिदा के चिन्तन ने कर दिखाया।जिस समय आलोचना के नाम पर साहित्य में कचरा जमा हो रहा था।आलोचना रूढियों के मार्ग पर चली गई थी।छात्रों,शिक्षकों,आलोचकों और विचारकों के पास कोई प्रेरक व्यक्तित्व नहीं था।ऐसे में देरीदा ने प्रेरक के रूप में सारी दुनिया के बौध्दिक विमर्श को नई बुलंदियों तक पहुँचाया।देरिदा ऐसे दौर में दाखिल होते हैं जब बौध्दिकों को भविष्य को देखने के औजार नहीं मिल रहे थे।देरीदा के चिन्तन की केन्द्रीय उपलब्धि यह है कि वह बुध्दिजीवियों को सभी किस्म के रूढिगत चिन्तन से मुक्त करता है।भविष्य में आस्था पैदा करता है।भावी सपनों को आलोचनात्मक विवेक की रणनीति के जरिए खोलता है। देरीदा को पढ़ना एक राजनीतिक अभ्यास भी है।
सवाल पैदा होता है कि विखंडन में बुनियादी चीज क्या है ?इसमें दो बुनियादी चीजें हैं।पहला,देरीदा ने 'वायनरी अपोजीशन' में जो संबंध होते हैं।उन्हें विखंडन की रणनीति के तहत उलट दिया है।वह वायनरी अपोजीशन के उलट का मसीहा है।इसी के आधार पर उसने सोचने की दिशा को बदला है।मसलन् वायनरी अपोजीशन में मर्द / औरत, अच्छा /बुरा, वाक् / लेखन आदि के जो प्रचलित संबंध थे।उन्हें उलट दिया।मसलन् मर्द और औरत के संबंध में मर्द केन्द्र में था। किंतु देरीदा ने स्त्री को केन्द्र में स्थापित कर दिया।अच्छे और बुरे में अच्छा केन्द्र में था उसकी जगह बुरे को बिठा दिया।वाक् केन्द्र में था उसकी जगह लेखन को रख दिया।वायनरी अपोजीशन में यह उलट सारी दुनिया के लिए वरदान साबित हुआ है।यहां तक कि अब वे भी इस रणनीति का पालन कर रहे हैं जो कभी इसकी निन्दा करते थे।
विखंडन की रणनीति का दूसरा बड़ा अवदान यह है कि उसने समस्त भेदों को अस्थिर कर दिया है।विखंडन रीडिंग का दार्शनिक अस्त्र है यह अन्य के पाठ की व्याख्या का औजार है।इस औजार का विकास जनतंत्र में ही संभव है।जनतंत्र में ही अन्य की मुक्ति संभव है।जनतंत्र की धुरी है समानता और समानता पर आधारित न्याय का शासन।निष्पक्ष न्यायपालिका और न्याय के बिना जनतंत्र का काम करना संभव नहीं है।इस तथ्य को देरिदा ने बार-बार अपने कानून और न्याय संबंधी व्याख्यानों और लेखों में रेखांकित किया है।अपने पहले कानून-संबंधी व्याख्यान 'विफोर द लॉ' में देरिदा ने कानून के सामान्य और विशिष्ट अर्थ की विस्तार से व्याख्या करते हुए कहा कि आज कानून बेहद महत्वपूर्ण हो उठा है। न्यायाधिकारी की महत्ता बढ़ी है।वे कभी-कभी राजनीतिज्ञों द्वारा सत्ता के दुरूपयोग को रोकते हैं। जनतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना बेहद जरूरी है। स्वतंत्र न्यायपालिका हो यह जनतंत्र के लिए भी परीक्षा की घड़ी है।जो दार्शनिक एथिक्स और राजनीति में रूचि लेते हैं उन्हें कानून पर लौटना ही होगा।यदि जनतंत्र सही मायने में ग्लोबल बनता है तो दार्शनिक,कानून और न्याय से भाग नहीं सकते।उल्लेखनीय है कि देरिदा ने कानून की औपचारिक पढ़ाई नहीं की थी।किंतु कानून के सवालों पर उनकी दार्शनिक मीमांसा को सारी दुनिया के कानूनविदों में वही सम्मान और शोहरत मिली जो साहित्य या दर्शन में मिली।सामान्य तौर पर कानून पढ़ने की जरूरत उन्हें तब पड़ी जब वे एकबार लेखक के अधिकारों और कापीराइट के मसले पर कानूनी नुक्तों का अध्ययन करने के लिए मुखातिब हुए।उन्होंने साहित्य के संदर्भ में ही सबसे पहले कानून का अध्ययन आरंभ किया।लेखक के अधिकारों और कापीराइट के सवाल पर अंग्रेजी और फ्रांसीसी कानून में वर्णित प्रावधानों का अध्ययन करने के बाद येल में एक सेमीनार में पर्चा पढ़ा।देरिदा ने कानून संबधी लेखन में केन्द्रीय रूप में जिस बात को आधार बनाया है वह है एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के प्रति दायित्व।इसी के आधार पर उन्होंने सीक्रेट, टेस्टीमॉनी,होस्पीटेलिटी, फोरगिवनेस आदि विषयों पर व्याख्यान दिए।
देरिदा के चिन्तन की बुनियादी धुरी है कि कुछ भी अंतिम नहीं है।कोई चीज अपने अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँची है।सब कुछ बदल सकता है।सब चीजों,विचारों,मूल्यों,तकनीकी आदि को उलट- पुलटकर देखा जाना चाहिए। वस्तुओं,विचार,मूल्य,मान्यता आदि के प्रति देवत्वभाव से मुक्त होकर आलोचनात्मक नजरिए से देखा जाना चाहिए।विश्लेषण,व्याख्या, और परिवर्तन से परे कुछ भी नहीं है।यहां तक कि हमारी आस्थाएं और विश्वास भी विश्लेषण के दायरे में आते हैं।वे भी बदल सकते हैं।बदल रहे हैं।कोई चीज अंतिम नहीं है।यही वह प्रस्थान बिंदु है जो मानव सभ्यता के विकास के अनंत पथ खोलता है।इसी अर्थ में देरिदा और उनके अनुयायियों की पहल बढ़ी है।वे ज्यादा प्रासंगिक सवाल उठा रहे हैं। प्रश्नाकुलता पैदा कर रहे हैं।असहमति का शास्त्र रच रहे हैं। सहमति की दुनिया में असहमति का शास्त्र विकास का लक्षण है,पतन कर नहीं।इसी अर्थ में विखण्डन एक सकारात्मक रणनीति है। यह खोए हुए यथार्थ,पराए लोगों,वंचित लोगों और जनतंत्रप्रेमी जनता का अस्त्र है।
हमारे देश में कुछ लोग चाहते हैं कि एकायामी हिन्दुत्ववादी शिक्षा दी जाए।इस तरह की शिक्षा का देरीदा ने अपने देश में भी विरोध किया था।वहां पर भी कुछ लोग ऐसी शिक्षा के पक्ष में थे कि जो एकायामी हो,विविधता की विरोधी हो।जिसमें बहुलतावाद,विज्ञान, धार्मिक विविधता आदि की कोई जगह न हो।इस तरह की शिक्षा को देरीदा ने 'प्रभुत्ववादी केन्द्रीयता' की संज्ञा दी।
देरिदा नहीं चाहते थे कि सारी दुनिया का एकीकरण हो जाए।एक ही केन्द्र के इर्द-गिर्द सारे देश जमा हों।'नई विश्व व्यवस्था' के बारे में जो तर्क दिए गए उन्हें यूरोप की सांस्कृतिक अस्मिता के संदर्भ में खोलते हुए देरीदा ने लिखा कि यह दुधारी तलवार है। यूरोप की सांस्कृतिक अस्मिता को आप नई विश्व व्यवस्था के नाम पर रफा-दफा नहीं कर सकते। जब मैं कहता हूँ कि किसी भी तरह नहीं,तो इसके दो अर्थ हैं,पहला ऐसा करना हार्दिक तौर पर मुश्किल है।दूसरी बात यह कि हम किसी केन्द्रीय ऑथरिटी की पूंजी स्वीकार नहीं कर सकते।खासकर ऐसी पूंजी जो नियंत्रित करे और स्टैण्डर्डाइज करे।स्थान के आधार पर लोगों की चेतना का निर्माण बहुत सहज है।उस चेतना की बिक्री सहज कार्य है।इस तरह का सामान्यीकरण किसी भी जगह सब समय सांस्कृतिक पूंजी बनाता है।यही कार्य वर्चस्ववादी केन्द्र भी करता है।ब्रूनर ने लिखा था कि आत्म या निज को अन्य के संदर्भ में परिभाषित करो।'देरिदा ने भी कहा कि ''अस्मिता में वस्तुत:अन्य भी होता है।'' ''यह कह सकते हैं, आंतरिक और बाह्य तौर पर अस्मिता के सभी रूपों के निर्धारण में कम से कम कोई आत्म संबंध नहीं होता।स्वयं से कोई संबंध नहीं होता।आप स्वयं के आधार पर कोई पहचान नहीं बनाते।संस्कृति के बगैर अस्मिता की पहचान संभव नहीं है और संस्कृति स्वयं में अन्य की संस्कृति होती है।संस्कृति में दुहरा रूप छिपा होता है।वह स्वयं से फ़र्क खत्म करती है।'' इसका अर्थ यह है कि बौध्दिक क्षमता बढ़ाने के लिए अन्यत्व, बहुस्तरीयता और अन्तर्विरोधी स्वरों भी को शामिल किया जाए।जिससे भाषा को आलोचनात्मक अभिव्यक्ति मिले। इन स्वरों के बहिष्कार का अर्थ है कि शिक्षा का तटस्थीकरण।इसका अर्थ यह भी है कि राजनीतिक तौर पर हम यह फैसला लेने जा रहे हैं कि हमें शिक्षित नहीं करना है। देरिदा ने भिन्नता और अन्यत्व की अभिव्यक्ति को स्वीकार किया है।'नई विश्व व्यवस्था' की आलोचना करते हुए लिखा कि ''आज हमारे सामने बहुस्तरीय वैविध्य के प्रति दोहरी जिम्मेदारी है।''देरिदा ने लिखा कि इसके कई बिन्दु हैं जिन्हें ध्यान रखें।संक्षेप में देरीदा की बातों को निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं।
1.यह जरूरी है कि परंपरा को याद करें।साथ ही 'भिन्नता' के प्रति खुले रहें।
2.यह जरूरी है कि 'विदेशियों' का स्वागत करें।उन्हें अपने अंदर समाहित करने के लिए नहीं।बल्कि उन्हें मानें,स्वीकार करें,सम्मान दें।
3.यह जरूरी है कि सर्वसत्तावादी कठमुल्लावाद की सिध्दान्त और व्यवहार में आलोचना करें। साथ ही धर्म की पूंजी को जिसे कठमुल्ले पैदा कर रहे हैं,जो नए रूप में आ रही है,उससे सीखें और रेखांकित करें।उसकी आलोचना करें।
4.यह जरूरी है कि आलोचनात्मक विचारों और आलोचनात्मक परंपरा पैदा करें।उसे विखंडन की रणनीति के हवाले करें।उसे आलोचक और सवालों के परे ले जाएं।
5.यह जरूरी है कि हम मानकर चलें कि यूरोपीय परंपरा में लोकतंत्र का विचार एक विलक्षण विचार है।यह भी मानकर चलें कि इस विचार को कभी छोड़ा नहीं गया।यह भी कह सकते हैं कि इस पर कभी -कभी यह विचार किया गया कि यह जरूर लागू होगा।
6.यह जरूरी है कि भिन्नता,इडियम,अल्पसंख्यकों,विश्ष्टिता,कानून का सार्वभौमत्व,समझौते और असहमति की इच्छा व्यक्त करें।साथ ही बहुसंख्यकों के कानून का विरोध करें।नस्लवाद का विरोध करें।राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी उन्माद का विरोध करें।
7.सहिष्णु बनें।सम्मान करें।ये सभी बातें तर्क के शासन में नहीं आतीं।ये आस्था के भिन्न रूप हैं।साथ ही यदि तर्क के बारे में लगातार सोचें ,तर्क के इतिहास के बारे में सोचें,अनिवार्यत: उसकी व्याख्या का उल्लंघन करें। अतार्किक हुए वगैर अज्ञान की सीमा को जानें।
8.दुहरी जिम्मेदारी का अर्थ है जिम्मेदारी।''यानी सोचने,बोलने और लागू करने की जिम्मेदारी।''समुचित परिस्थितियों और दोहरे अन्तर्विरोधों के स्तर पर उन सभी का सम्मान करते हुए यह काम उन्हें भी सम्मानित करते हुए करें जो किसी भी किस्म की जिम्मेदारी नहीं निभाते।
देरीदा का सबसे चर्चित अवदान विखंडन है इसके विखंडन के मूल बिन्दु इस प्रकार हैं-
1.यह पाठ की रणनीति है।इसका उपयोग मूल्य है।इसका उत्तर व्युत्पत्तिशास्त्र में छिपा है।यह किसी भी किस्म की संदर्भगत रणनीति के बाहर है।
2.विखंडन साहित्य और दर्शन के पाठ पर निर्भर है।उसकी क्षमता है नए पाठ और नए पाठक को आत्मसात् करने की।विखंडन को 'पध्दति' में संकुचित नहीं किया जा सकता।यह खोज है।विश्लेषण है।नए तनावों की खोज है।पाठ में अन्तर्निहित अस्थिरता की खोज है।वह सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है।बल्कि पाठ में निहित चीजों को उभारने,सामने लाने,उजागर करने,उन पर बल देने का नाम है।यह स्वयं और अन्य की खोज भी है।
3.विखंडन चीजों की तय प्राथमिकताओं के बारे में सवाल खड़े करता है।खासकर मूल,स्वाभाविक अथवा जो स्व-प्रमाणित है उसके प्रति सवाल खड़े करता है।कौन से मुख्य पदबंध हैं।मंशाएं हैं।चरित्र हैं।उन्हें पाठ के अंदर वायनरी अपोजीशन या युग्मी-युक्ति के रूप में परिभाषित करना।अपोजीशन कैसे क्रमानुवर्ती है ? यह अपोजीशन अस्थिर है।इसके संबंध को बदला जा सकता है।यह एक-दूसरे पर निर्भर है,अन्य पर निर्भर है।यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि पाठ कैसे उलटता है।लेखक की मंशा से परे चला जाता है।अतिक्रमण कर जाता है।
4.आज के साहित्यिक परिदृश्य में विखंडनात्मक रीडिंग व्यापक तौर पर व्याख्यात्मक रणनीति का हिस्सा है।इसका बार-बार हायरार्कीकल अपोजीशन को अस्थिर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।(जैसे मर्द/ औरत, अभिजन/ पापुलर कल्चर, आदि)।देरीदा ने विखंडन को अपना केन्द्रीय कार्य कभी नहीं माना।यही वजह है कि उसने इसे एक व्यवस्था,आंदोलन या स्कूल बनाने की कोशिश नहीं की।अभी तक हमारी जानकारी में कहीं 'डिकंस्ट्रक्टनिज्म' पदबंध का प्रयोग सामने नहीं आया है।हिन्दी में सिर्फ गोपीचंद नारंग ने इसे विरचनावाद कहा है।जो गलत है।उन्होंने ही इसे 'वाद' बनाया है।
5.यह भी भूल होगी कि हम विखंडन को उत्तर-संरचनावाद का पर्याय बना दें।या उस रूप में समझें।उत्तर -संरचनावाद दर्शन है।इससे देरिदा जुड़े रहे हैं।जबकि इस कार्य के अंदर विखंडन एक पदबंध है।
देरिदा पर जब भी चर्चा होती है तो हाइडेगर और नीत्शे का जिक्र जरूर आता है।इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान रहे कि देरिदा ने इनके सकारात्मक तत्वों को आत्मसात् किया था।इनका अंधानुकरण नहीं किया था।इन दोनों के परिप्रेक्ष्य से भिन्न परिप्रेक्ष्य में देरीदा सोचते थे।इन दोनों से भिन्न देरीदा की समसामयिक राजनीतिक सवालों पर राय थी।
देरिदा के विखंडन की मुश्किल यह है कि वह अकल्पनीय मुश्किलों से ग्रस्त है।मसलन् जब भी कोई व्यक्ति बोलता है तो तर्क की भाषा में बोलता है।ऐसे में विखंडन की रणनीति के तहत ऐसे व्यक्ति के वक्तव्य में हमें उन छिपे हुए क्षेत्रों की खोज करनी चाहिए जो तयशुदा अर्थ से भिन्न है।तर्क के नियमों से परे हैं।यहीं पर दुहरा खेल शुरू होता है।यह उभयभाविता की मांग करता है।दर्शन की भाषा में इसे दुरंगापन कहते हैं।
हाइडेगर के लिए दर्शन का अंत मेटाफिजिक्स में निहित था।हाइडेगर का मानना था कि अनुभवनिरपेक्ष के बारे में सवाल करना अर्थहीन है।वह मानता था कि दर्शन का अंत हो चुका है।दर्शन और कुछ नहीं पश्चिमी विचारधारा है।जो स्वयं सुपीरियर मानती है।देरिदा ने हाइडेगर के तर्कों से भिन्न बात कही है।देरिदा मानता है कि अनुभवनिरपेक्षता के सवालों से आप बच नहीं सकते।विचारधारा के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं यदि वे सच हैं तो ये आरोप तो दर्शन की भाषा के प्रति हुए।कायदे से पूछा जाना चाहिए कि क्या प्रभुत्वशाली विचारधारा को किसी अन्य विचारधारा ने अपदस्थ किया है।जैसे मार्क्सवाद,फ्रायडवाद वगैरह ने।देरिदा ने कहा कि मैं तर्क करना चाहता हूँ कि तर्क पुराना या रूढ़ हो गया है।वह स्वयं को ही अपील करता है।वह जिसका विरोध करता है उसके खिलाफ स्वयं को ही अपील करता है।अपने क्षेत्र को ही सम्बोधित करता है।इसी अर्थ देरिदा ने कहा कि तर्क रूढ़ हो गया है।अप्रासंगिक हो गया है।
देरिदा ने हाइडेगर की इतिहास को लेकर जो समझ है उसे लेकर कोई झगड़ा नहीं किया।मसलन् जब हाइडेगर कहता है कि दर्शन के इतिहास का अंत हो गया तो देरिदा सवाल उठाता है कि ऐसा क्या हुआ है कि अंत हो गया ?अपने समूचे चिन्तन में देरिदा ने जो रणनीति चुनी है वह दुरंगी है।वह दुहरा खेल खेलती है।वह तर्क की भाषा के जरिए सक्रिय होती है।चूँकि अन्य कोई भाषा नहीं है।वह ऐसे क्षेत्र में भी जाती है जहां समस्याओं के कोई उत्तर नहीं हैं।वह तार्किक स्थितियों के अन्तर्विरोधों को दिखाती है।देरिदा इस रणनीति को ही विखंडन कहता है।हाइडेगर के यहां यह 'विध्वंस' है।हाइडेगर के लिए 'डिस्ट्रक्शन' या विध्वंस 'इतिहास के इतिहास' की जांच या खोज है।इसमें वर्तमान की नकारात्मक व्याख्या शामिल है।हाइडेगर मानता है कि व्यक्ति इस संसार में अकेला है।वह साधारण जिन्दगी जीता है।साधारण जिन्दगी जीते हुए वह संसार सागर से मुक्त नहीं हो पाता बल्कि उलटे फंसता चला जाता है।ऐसे में दुखी होकर मोक्ष की कामना करने लगता है।इस क्रम मे वह संसार सागर की व्याख्या करता है।विरासत में प्राप्त परंपरा की व्याख्या करता है।निरंतर मृत्यु की कामना करता है।मृत्यु के भय में जीता है।इस क्रम में वर्तमान की नकारात्मक और इतिहास की सकारात्मक व्याख्या करते हुए प्रामाणिकता हासिल करता है।वह कठिन सवालों को उठाता है।जिससे वह अपनी ऑथरिटी को मनवा सके।इसके लिए वह जगत की टुकड़ों में व्याख्या करता है।उसे इतिहास में खोजता है।हाइडेगर का मानना था कि अस्तित्व के अंतर्य को समझने के लिए जरूरी है कि मनुष्य सभी किस्म की व्यावहारिक मान्यताओं को त्याग दे।अपनी नश्वरता,क्षणभंगुरता को पहचाने।सतत रूप से मृत्यु के आमने-सामने होने की अनुभूति से ही मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षण की अर्थवत्ता तथा भरपूरता को देखने की स्थिति में होता है और अपने को लक्ष्यों,आदर्शों और वैज्ञानिक अपकर्षणों से मुक्त कर सकता है।
देरिदा के यहां एक अन्य धारणा है भिन्नता ।वे इसे भेद से अलग करते हैं।उनके यहां भिन्नता और भेद दो अलग-अलग धारणाएं हैं।भिन्नता यानी अस्मिता का पृथक् रूप।भेद यानी समय का पृथक रूप।इस धारणा पर देरीदा हुसेर्ल को पढ़ते हुए पहुँचे।खासकर 'फिनोमिनोलॉजी ऑफ हिस्ट्री' के विखंडन के जरिए पहुँचे।देरीदा ने कहा कि यह हमारे सारे सवालों का उत्तर देता है।यह बताता है कि सत्य को कैसे पाया जा सकता है।यदि सत्य को सत्य बनना है तो उसे रूढ़ बनना होगा।परमत्व को प्राप्त करना होगा।उसे सभी किस्म के नजरिए से स्वतंत्र करना होगा।फिनोमिनोलॉजी सत्य के उदय की खोज करती है। फिनोमिनोजिस्ट तर्क देते हैं कि सिर्फ वर्तमान ही मौजूद है।वर्तमान में अतीत का रहना एक तरह से सभ्यता की अनुपस्थिति का सूचक है।भविष्य का आप अनुमान लगा सकते हैं किंतु यह कार्य वर्तमान में रहकर ही संभव है।अतीत को वर्तमान में बचाए रखने के लिए जरूरी है कि भविष्य की भी वर्तमान में भविष्यवाणी की जाए।वर्तमान को सिर्फ वर्तमान में नहीं होना चाहिए बल्कि वर्तमान ऐसा होना चाहिए जो अभी आना बाकी है।साथ ही वर्तमान ऐसा जो अतीत हो चुका है।यही वह बिन्दु है जहां 'डिफरेंस' की धारणा में देरीदा दाखिल होते हैं।वह कहते हैं कि वर्तमान की स्वयं के साथ एकरूपता नहीं है।यह भिन्नता ही आरंभिक तथ्य की समस्या को सामने लाती है।मान लीजिए हमने किसी आरंभिक तथ्य के जरिए किसी घटना के आरंभ की खोज की ऐसी अवस्था में हम यह कैसे कह सकते हैं कि इसके निर्माताओं के दिमाग में यही अर्थ था।हम अपने अर्थ को उनके अर्थ के बराबर नहीं रख सकते।यदि हम 'फिनोमिनोलॉजी' बनाते हैं तो हमें हुर्सेल के 'सिध्दान्त का सिध्दान्त' की धारणा का इस्तेमाल करना होगा।सिध्दान्त यह है कि इतिहास अर्थपूर्ण रहा है।किंतु भ्रमित करनेवाला रहा है।उसे बताने के लिए किसी की जरूरत है।उसे पीढ़ी-दर पीढ़ी संचारित कर सकते हैं।उसमें कई स्वर हैं।उसे किसी भी समय लिपिबध्द नहीं किया गया।व्यक्ति और अर्थ एक नहीं हो सकता।अर्थ हमेशा भिन्न होता है। सही क्या है ? और तथ्य क्या है ?ये दोनों एक नहीं हैं।इसका कारण यह है कि तथ्य और सही में सामान्य फर्क होता है।इसी तरह देरीदा कहते हैं कि प्रथम तो प्रथम है,वह प्रथम इसलिए है क्योंकि उसके पीछे द्वितीय है।प्रथम को आप अकेले नहीं पहचानते बल्कि प्रथम के लिए द्वितीय का होना जरूरी है।पूर्वर् शत्त है।दूसरे को मानने का अर्थ है तीसरे का आना।इसी अर्थ में ओरिजन एक तरह का पूर्वाभ्यास है।पुनरावृत्ति का पूर्वाभ्यास है।मौलिक की नकल है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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बहुत खुब लिखा है, विखंडनवाद पर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार सर।
जवाब देंहटाएंअद्भुत लेख है; देरिदा पर।