मार्क्सवाद का लक्ष्य है सत्य का उद्धाटन करना। सत्य को छिपाना अथवा यथार्थ के बारे में झूठ बोलना अथवा यथार्थ को मेनीपुलेट करना अथवा मीठी चासनी में लपेटकर पेश करना मार्क्सवाद नहीं है। छद्म के आवरण से यथार्थ को बाहर लाना प्रत्येक मार्क्सवादी का लक्ष्य है। यथार्थ और सत्य को छिपाना मार्क्सवाद नहीं है। चीन को लेकर हमारे देश में यही चल रहा है। कुछ नेता हैं और कुछ पत्र-पत्रिकाएं हैं जो चीन के सत्य पर पर्दा डालने में लगे हैं। ये ही लोग हैं जो कल तक सोवियत संघ के सत्य पर पर्दादारी कर रहे थे। बाद में जब सोवियत संघ बिखर गया तो बहुत सुंदर व्याख्याएं लेकर चले आए। वे कभी नहीं मानते थे कि सोवियत संघ में कुछ गलत हो रहा था। किंतु जब सोवियत संघ बिखर गया तो कहने लगे फलां-फलां चीज गलत हो रही थी। चीन के सत्य की खोज और नए परिवर्तनों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए यह छोटी सी किताब लिखी गयी है। मैं कभी चीन नहीं गया। चीन को मैंने किताबों से ही जाना और समझा है। इतन जरूर हुआ है कि इस किताब में जो बातें लिखी गयी हैं उनमें से अधिकांश बातों की पुष्टि मैंने उन लोगों से की है जो चीन घूमकर आए हैं। किताब में चीन को देखने का नजरिया मेरा है। तथ्य और सूचनाएं दूसरों के हैं। यथास्थान उनका संकेत कर दिया गया है।
14मार्च 2008 को तिब्बत दमन के टीवी कवरेज और ओलम्पिक मशाल को लेकर जिस तरह के टीवी नजारे देखने को मिले उन्होंने मुझे भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने और चीन की वास्तविकता को जानने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत किताब उसी का प्रतिफलन है। यह किताब भावुक प्रतिक्रिया में नहीं लिखी गयी है। सिर्फ एक ही चीज बार-बार परेशान करती रही है कि आखिर चीन को लेकर हमारे वामपंथी दोस्त सच बोलने से क्यों कतराते हैं। चीन जाते हैं तो चीन के विवरण और ब्यौरे क्यों नहीं देते। ऐसे ब्यौरे पेश क्यों नहीं करते जिनके जरिए चीन को आलोचनात्मक नजरिए से देख सकें।
चीन को अनालोचनात्मक नजरिए से देखने की आदत असल में पुरानी साम्यवादी प्रतिबध्दता की अंधभक्ति से गर्भ से पैदा हुई है। साम्यवादी प्रतिबध्दता अच्छी बात है। किंतु साम्यवादी भक्ति अच्छी चीज नहीं है। माक्र्सवाद होना अच्छी बात है किंतु कठमुल्ला माक्र्सवादी और अंध माक्र्सवादी होना बुरी बात है। असल में भक्ति और अंधी प्रतिबध्दता का माक्र्सवाद से कोई लेना देना नहीं है। दूसरी बात यह है कि मार्क्सवाद का विकास सर्वसत्तावादी शासन व्यवस्था के दौरान नहीं हुआ था। मार्क्स-एंगेल्स आदि जो मार्क्सवाद के प्रतिष्ठाता हैं उनका लेखन लोकतंत्र के वातावरण और अभिव्यक्ति की आजादी के माहौल की देन है। समाजवादी व्यवस्था के लोकतंत्रविहीन वातावरण की देन नहीं है। अत: मार्क्सवाद पर कोई भी सार्थक चर्चा लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी को अस्वीकार करके संभव नहीं है। किसी भी चीज, घटना,फिनोमिना आदि को मार्क्सवादी नजरिए से देखने के लिए लोकतंत्र के बुनियादी आधार पर खड़े होकर ही मार्क्सवाद के बुनियादी तत्वों की परख की जा सकती है। संभवत: मार्क्सवादियों को यह बात समझ में न आए। किंतु यह सच है कि मार्क्स-एंगेल्स के आलोचनात्मक विवेक के निर्माण में लोकतांत्रिक वातावरण की निर्णायक भूमिका थी। यदि मार्क्स-एंगेल्स कहीं किसी समाजवादी मुल्क में पैद हुए होते तो संभवत: मार्क्स कभी मार्क्स नहीं बन पाते। मार्क्स का मार्क्स बनना और फिर मार्क्सवाद का विज्ञान के रूप में जन्म लोकतांत्रिक वातावरण की देन है। जितने भी नए प्रयोग अथवा धारणाएं मार्क्सवाद के नाम पर प्रचलन में हैं उनके श्रेष्ठतम विचारक लोकतांत्रिक परिवेश में ही पैदा हुए थे। अथवा यों कहें कि गैर -समाजवादी वातावरण में ही पैदा हुए थे। ग्राम्शी,बाल्टर बेंजामिन,एडोर्नो, अल्थूजर, ब्रेख्त आदि सभी गैर समाजवादी वातावरण की देन हैं। इनके बिना आज कोई भी मार्क्सवादी विमर्श आगे नहीं जाता। कहने का तात्पर्य यह है कि मार्क्सवाद के विकास के लिए सबसे उर्वर माहौल लोकतंत्र में मिलता है। समाजवादी वातावरण मार्क्सवाद के लिए बंजर वातावरण देता है। मार्क्सवादी के लिए खुली हवा और खुला माहौल बेहद जरूरी है। इसके बिना मार्क्सवाद गैर रचनात्मक हो जाता है। खुलेपन का आलोचनात्मक विवेक पैदा करने में केन्द्रीय योगदान होता है। मार्क्सवाद सही रास्ते पर है या गलत रास्ते पर है, मार्क्सवादी सही या गलत रास्ते पर है इसका पैमाना है लोकतंत्र और लोकतांत्रिक वातावरण के प्रति उसका रवैयया।
मार्क्सवादियों को भारत में लोकतंत्र अच्छा लगता है, अभिव्यक्ति की आजादी अच्छी लगती है। मानवाधिकार अच्छे लगते हैं। किंतु समाजवादी देश का प्रसंग आते ही हमें ये चीजें अच्छी क्यों नहीं लगतीं ? अथवा यह भी कह सकते हैं कि भारत में जहां कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में रहती है वहां लोकतंत्र,लोकतांत्रिक मान्यताओं और मानवाधिकार रक्षा के सवालों पर उसका वही रूख क्यों नहीं होता जो गैर कम्युनिस्ट शासित राज्यों में होता है। क्या कम्युनिस्ट पार्टी का शासन आ जाने के बाद लोकतंत्र,अभिव्यक्ति की आजादी,मानवाधिकारों की हिमायत आदि अप्रासंगिक हो जाते हैं अथवा कम्युनिस्ट इन्हें अप्रासंगिक बना देते है ? चीन का अनुभव इस मामले में हमें अनेक नयी शिक्षा देता है।
चीन के अनुभव की पहली शिक्षा है पूंजीवाद अभी भी प्रासंगिक है। ग्लोबलाईजेशन सकारात्मक और नकारात्मक दोनों एक ही साथ है। चीन का अनुभव उत्पादन के मामले में सकारात्मक है संपत्ति के केन्द्रीकरण के केन्द्रीकरण को रोकने के मामले में नकारात्मक है। एक पार्टी तंत्र के मामले में चीन का अनुभव नकारात्मक है। विकास के मामले में चीन का अनुभव सकारात्मक है। इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के मामले में चीन की सकारात्मक भूमिका है। समानता बनाए रखने के मामले में नकारात्मक भूमिका रही है। सामाजिक सुरक्षा के मामले में नकारात्मक योगदान रहा है और विकास के नए अवसरों के मामले में सकारात्मक भूमिका है। कम्युनिस्ट नेताओं की जनता के प्रति सक्रियता और वफादारी प्रशंसनीय है, लोकतंत्र के संदर्भ में नकारात्मक भूमिका रही है। चीन के कम्युनिस्टों की देशभक्ति प्रशंसनीय है किंतु मानवाधिकारों के प्रति नकारात्मक रवैयये को सही नहीं ठहराया जा सकता। चीन के कम्युनिस्टों का धर्मनिरपेक्षता और विज्ञानसम्मत चेतना के प्रति आग्रह प्रशंसनपीय है किंतु परंपरा और विरासत के प्रति विध्वंसक नजरिया स्वीकार नहीं किया जा सकता। चीन के कम्युनिस्टों की मुश्किल है कि वे एक ही साथ एक चीज गलत और एक चीज सही कर रहे होते हैं।
चीन में समाजवादी व्यवस्था नहीं है। चीन ने समाजवादी व्यवस्था और मार्क्सवाद का मार्ग उसी दिन त्याग दिया जिस दिन देंग जियाओ पिंग ने 1978 में घोषणा की थी कि चीन के विकास के लिए पूंजीवाद प्रासंगिक है।सामयिक दौर में पूंजीवाद के लिए इतना बड़ा प्रमाणपत्र किसी ने नहीं दिया। इसके बाद चीन का विकास पूंजीवाद के अनुसार हो रहा है। चीन की सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी खुलेआम पूंजीवादी मार्ग का अनुसरण कर रही है इसके बावजूद चीन के भक्त उसे समाजवादी देश कह रहे हैं।
भक्ति में आलोचना का अभाव होता है। जो बात भक्ति में कही जाती है वह सच नहीं होती। उसमें आलोचनात्मक विवेक नहीं होता। देंग इस अर्थ में बड़े कम्युनिस्ट विचारक नेता हैं कि उन्होंने सामयिक विकास के मार्ग को खुले दिल से स्वीकार किया। परवर्ती पूंजीवाद के मर्म को पहचाना और उसकी सही नब्ज पकड़ी। चीन का समाजवाद के रास्ते से पूंजीवाद के मार्ग पर आना बेहद मुश्किल और जोखिमभरा काम था। सोवियत संघ इस चक्कर में टूट गया। अन्य समाजवादी देश भी कमोबेश तबाह हो गए। चीन की उपलब्धि है कि चीन टूटा नहीं। चीन ने तेजी से पूंजीवाद का अपने यहां विकास किया और सामाजिक संरचनाओं का रूपान्तरण किया। यह प्रक्रिया बेहद जटिल और कष्टकारी रही है।
चीन ने जब पूंजीवाद का रास्ता अख्तियार किया तो उस समय पूंजीवाद भूमंडलीकरण की दिशा में कदम उठा चुका था। चीन ने पूंजीवाद का अनुकरण नहीं किया बल्कि असामान्य परवर्ती पूंजीवाद के सबसे जटिल फिनोमिना भूमंडलीकृत पूंजीवाद का अनुकरण किया। भूमंडलीकृत पूंजीवाद तुलनात्मक तौर पर ज्यादा जोखिमभरा है। ज्यादा पारदर्शी है। स्वभाव से सर्वसत्ताावादी और जनविरोधी है। अमरीकी इसके चक्कर में प्रथम कोटि के देश से खिसकर तीसरी दुनिया के देशों की केटेगरी में आ चुका है। अमरीका में आज वे सारे फिनोमिना नजर आते हैं जो अभी तक सिर्फ तीसरी दुनिया के देशों की विशेषता थे।
चीनी जनता इस अर्थ में महान है कि उसने अपने देश के शासकों की बातों पर विश्वास किया और सबसे भयानक जोखिम उठाया। स्वेच्छा से सुरक्षित जीवनशैली वाले समाजवादी मॉडल को त्यागकर असुरक्षा वाले भूमंडलीकृत पूंजीवाद के मॉडल को स्वीकार किया और ईमानदारी के साथ उसे लागू किया। बड़े पैमाने पर संपदा पैदा की। चीन के समग्र तंत्र और संरचनाओं में नए सिरे से प्राणों का संचार किया।
नए भूमंडलीकृत पूंजीवाद में दाखिल होने से वस्तुओं,भवनों,सड़कों आदि इंफ्रास्ट्रक्चर का अभूतपूर्व विकास हुआ। साथ ही नयी सामाजिक संरचनाओं और वर्गों का भी उदय हुआ। चीन के विगत 35 साल के विकास की दो बड़ी उपलब्धियां हैं नयी विराटकाय भौतिक संरचनाओं का निर्माण और नए वर्गों के रूप में पूंजीपतिवर्ग और मध्यवर्ग का उदय। इसके अलावा क्षेत्रीय स्तर पर सत्ताा और पूंजी के नए केन्द्रों का उदय। मसलन् पहले चीन में मध्यवर्ग नहीं था। नयी व्यवस्था आने के साथ तेजी से मध्यवर्ग पैदा हुआ है। आज चीन में मध्यवर्ग का सालाना एक फीसदी की दर से विकास हो रहा है। समाजविज्ञान अकादमी चीन के अनुसार सन् 2003 में दर्ज आंकड़ों के अनुसार सकल आबादी का 19 फीसदी हिस्सा मध्यवर्ग में आ चुका है। चीन के मध्यवर्ग में 150,000 से 300,000 यूआन की संपत्ति के मालिकों को रखा गया है। अमरीकी डालर के अनुसार जिस व्यक्ति के परिवार के पास 18,072 -36,144 डालर तक संपत्ति है,वह मध्यवर्ग की केटेगरी में शामिल है। सन् 2020 तक चीन की कुल जनसंख्या का 40 फीसद मध्यवर्ग में पहुँच जाएगा।
देंग ने सही पहचाना था चीन में साम्यवाद ठहराव का शिकार हो गया था। उसका विकास बंद हो गया था। जब कोई विचारधारा अथवा व्यवस्था गतिरोध में फंस जाए तो उस गतिरोध से निकलना अपने आप में क्रांतिकारी काम है। देंग ने साम्यवादी गतिरोध से चीन को निकालकर मानव सभ्यता की सबसे बड़ी सेवा की है। देंग ने माओ के द्वारा संचालित और प्रतिपादित रास्ते से एकदम हाथ खींच लिया और नया मार्ग चुना और इसे 'सुधार' का नाम दिया।
देंग के आने के बाद 'सुधार' पदबंध का व्यापक प्रयोग चीन की सैध्दान्तिकी और राजनीतिक भाषा में हुआ है। दूसरा पदबंध जो जनप्रिय हुआ है वह '' समृध्द बनो प्रभावशाली बनो।'' चीन का समूचा लेखन,चिन्तन और एक्शन इन दो पदबंधों के इर्दगिर्द घूमता रहा है। नियोजित अर्थव्यवस्था की जगह बाजार अर्थव्यवस्था का मॉडल अपनाया गया। 'ऑटोक्रेसी' की जगह 'खुलेपन' की तरजीह दी गयी। जिसके कारण अर्थव्यवस्था में रोमांचित कर देने वाला उछाल आया।
''खुले दरवाजे' की नीति ने विदेशी पूंजी निवेश का मार्ग खोला और अनंत नयी संभावनाओं के द्वार खोले। सन्1979 से लेकर 1997 के बीच में विकासदर 9.8 प्रतिशत सालाना रही है। इसके फलस्वरूप सात करोड़ लोगों को दरिद्रता के स्तर से ऊपर उठाने में मदद मिली। चीन में बैंकों में नागरिकों के जमा धन में 220 गुना वृध्दि हुई। जनता की बैंकों में जमा पूंजी 21 विलियन यूआन ( तकरीबन 2.5 बिलियन अमरीकी डालर) से बढ़कर 4,628 बिलियन यूआन ( तकरीबन 550बिलियन डालर) हो गयी। कभी किसी एक पीढ़ी ने मानवसभ्यता के इतिहास में इतनी ज्यादा दौलत नहीं कमायी है। यह इस बात संकेत है कि विश्व पूंजीवादी विकास के मार्ग का सटीक अनुकरण किया जाए तो फल अच्छे हो सकते हैं ।
चीनी नागरिकों में ज्यादा से ज्यादा दौलत कमाने की भूख पैदा हो गयी है। जो अमीर हैं और बड़े अमीर होना चाहते हैं गरीब अपनी मुक्ति के लिए हाथपैर मार रहे हैं। संपदा के पुनर्रूत्पादन ने नए किस्म का वर्ग विभाजन पैदा कर दिया है। आज अमरीकी सपने चीन के नागरिकों की फैंटेसी का हिस्सा हैं। कल तक चीन को मजदूरों का स्वर्ग कहा जाता था आज चीन अमीरों का स्वर्ग है। अप्रवासी चीनी नागरिकों का मानना है कि अमरीका में अमीर बनना बेहद मुश्किल है किंतु चीन में अमीर बनना आसान है। इस अनुभूति के कारण चीन के जो लोग बाहर रहते थे वे दौड़कर चीन आए और अपने अमीरी के सपनों को सबसे पहले उन्होंने साकार किया,बादमें बहुराष्ट्रीय निगमों ने इन सपनों को संपदा में तब्दील किया। आज चीन मजदूरों का देश नहीं सपनों का देश है ,अमीरों का देश है। जिस गति से चीन में अमीर पैदा हो रहे हैं उस गति से अमरीका,ब्रिटेन में अमीर पैदा नहीं हो रहे। चीन में पैदा हुई अमीरी की चमक ने सभी पंडितों को स्तब्ध कर दिया है।
सन् 1975 में जार्ज बुश जब चीन गए थे तो उस समय चीन में चंद कारें थीं। सारा देश साईकिल पर चल रहा था। स्वयं बुश भी बीजिंग में साईकिल पर घूमे थे। चीनी मजदूर नीले और हरे रंग के कपड़े पहने हुए थे। उस समय चीन में किसी के पास निजी कार नहीं थी,चंद लोगों के पास निजी घर थे। किंतु जब बुश ने सन् 2002 के फरवरी माह में चीन की यात्रा की तो देखकर अचम्भित रह गए। सारा शहर कारों से भरा हुआ था। उस समय अकेले बीजिंग में रजिस्टर्ड तीन हजार से ज्यादा बीएमडब्ल्यू कारें थीं। हजारों मर्सडीज कारें थी, और 20 से ज्यादा पोर्चेज कारें थीं। एक साल बाद ही बीएमडब्ल्यू ने अपना कार उत्पादन केन्द्र चीन में खोल दिया।
चीन में कितने अमीर हैं इसके प्रामाणिक आंड़े अभी सरकार ने जारी नहीं किए हैं इसका प्रधान कारण है कि कहीं आंकड़ें देखकर जन असन्तोष न भड़क उठे। एक मर्तबा चीन के टीवी केन्द्र ने अमीरों के ऊपर एक वृत्ताचित्र बनाने का निर्णय लिया और उसकी शूटिंग भी शुरू कर दी गयी,किंतु अचानक ऊपर के दबाव में काम बंद कर दिया गया। सत्ताा में बैठे अधिकांश लोगों का मानना था कि जो लोग सुधार के दौर में अमीर बने हैं ये वे लोग हैं जिन्होंने कानून तोडे हैं अत: कानूनभंजकोंका महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए। सन् 2001 में समाजविज्ञान अकादमी के द्वारा कराए सर्वे से पता चलता है कि चीन की बैंकों में बीस फीसद लोगों के खातों में 894 बिलियन डालर की पूंजी जमा है।
चीन के अमीरों और कम्युनिस्टों के बीच घनिष्ठ संबंध हैं। चीन के अमीरों में ज्यादातर लोग वे लोग हैं जो कभी सेना में वफादार रह चुके हैं अथवा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं अथवा किसी कम्युनिस्ट के रिश्तेदार अथवा दोस्त हैं। अथवा कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति वफादार हैं। नयी संपदा के उदय ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की भाषा और सैध्दान्तिकी को बदल दिया है। पहले कम्युनिस्टों का कहना था कि उनका लक्ष्य है सर्वहारा के हितों की रक्षा करना। नया नारा है सत्ताा में रहो, '' चीन की अतिविकसित उत्पादक शक्तियों'' के हितों का संरक्षण करो। 'अतिविकसित उत्पादक शक्ति' से यहां तात्पर्य अमीरों और मध्यवर्ग से है। यह पुराने नजरिए का एकदम उलटा है जिसमें मजदूरों,किसानों और सैनिकों के हितों की रक्षा करने की बात कही गयी थी।
आज चीन में सामाजिक असंतुलन और अव्यवस्था के जो रूप नजर आ रहे हैं वैसे पहले कभी नहीं देखे गए। अचानक समाज में लड़कियों की जन्मदर कम हो गयी है। समाज में बेटा पाने की चाहत और एक संतान के नियम के कारण्ा लड़कियों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। आज स्थिति इतनी भयावह है कि चीन में चार करोड़ लोगों की शादी के लिए कोई लड़की उपलब्ध नहीं है। लिंग असंतुलन का इतना व्यापक कहर पहले कभी चीन में नहीं देखा गया। अनेक समाजविज्ञानी मानते हैं कि लड़कियों की अचानक कमी का प्रधान कारण है औरतों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैयया।
चीनी लोग अमूमन परंपरागत बच्चे और आज्ञाकारी बच्चे पसंद करते हैं। लड़की की तुलना में लड़के को तरजीह देते हैं। चूंकि एक ही संतान का नियम है अत: पहली संतान के रूप में लड़का ही चाहते हैं इसके कारण असंतुलन और भी बढ़ा है। समाजविज्ञानियों का अनुमान है कि यदि यही सिलसिला जारी रहा तो सन् 2020 तक आते-आते लड़कों के लिए लड़कियां मिलना मुश्किल हो जाएंगी। चीनी लोगों में लड़के की चाहत का एक अन्य कारण यह मान्यता भी है कि लड़कियों की तुलना में लड़के श्रेष्ठ होते हैं। इस मान्यता को बदलना बेहद मुश्किल है।
किसी भी देश में नव्य उदारतावादी अर्थव्यवस्था लागू होगी तो आम लोगों का सेक्स और औरत के प्रति नजरिया भी बदलेगा। किसी भी देश में सेक्स और स्त्री के प्रति क्या नजरिया है यह अर्थव्यवस्था की प्रकृति से तय होता है। अर्थव्यवस्था और सेक्स के अन्तस्संबंध को विच्छिन्न भाव से नहीं देखना चाहिए। चीन में आए आर्थिक खुलेपन ने सेक्स के प्रति खुलेपन को ,ज्यादा उदार नजरिए को हवा दी है। माओ के जमाने में सेक्स टेबू था, आज चीन में सेक्स टेबू नहीं है। बल्कि टेबू से बाहर निकलने की कोशिशें ज्यादा हो रही हैं। आम लोगों में टेबुओं के प्रति घृणा सामान्य बात है।
'चाइना डेली'(12मई 2008) में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि विशेषज्ञों की नजर में चीनी लोग सेक्स के प्रति ज्यादा उदार हैं। पेन सुई मिंग (निदेशक,इंस्टीट्यूट ऑफ सैक्सुअलिटी एंड जेण्डर, रींमीन विश्वविद्यालय ,चीन) ने कहा है आज चीन में एकाधिक व्यक्ति से शारीरिक संबंध रखने वालों की चीन में संख्या पच्चीस फीसद है। इसके कारा यह बहस छिड़ गयी है कि क्या चीनी नैतिक तौर पर भ्रष्ट होते हैं ?
पेन का कहना है एकाधिक सेक्स पार्टनर का होना सेक्स क्रांति का प्रतीक है। चीनी नागरिकों में खुला और पारदर्शी कामुक रवैयया पैदा हो रहा है। सन् 2000-2006 के बीच में किए गए सेक्स सर्वे बताते हैं कि आम लोगों में सेक्स और समलैंगिक सेक्स दोनों में ही इजाफा हुआ है। जिस तरह दो अंकों में अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ी है उसी तरह दो अंकों में सेक्सदर में भी इजाफा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में एक से अधिक के साथ सेक्स करने की परंपरा में इजाफा हुआ है। सन् 2000 में ऐसे लोगों की संख्या 16.9 प्रतिशत थी, इसमें सन् 2006 तक सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। सन् 1980 में जब आर्थिक सुधार लागू किए गए थे तो उस समय ऐसे लोगों की संख्या छह प्रतिशत थी। महज तीस सालों में एक से अधिक स्त्री या पुरूष के साथ शारीरिक संबंध रखने वालों की संख्या का छह प्रतिशत से बढ़कर पच्चीस प्रतिशत हो जाना निश्चित तौर पर चिन्ता की चीज है। इसका अर्थ यह नहीं है कि विवाह संस्था संकट में है अथवा अप्रासंगिक हो गयी है। बल्कि यह सेक्स के प्रति बदलते नजरिए का संकेत है। इस बदलाव में गांव से शहरों में माइग्रेट करके आयी औरतों की बड़ी भूमिका है।
आम धारणा रही है कि औरत जीवन में पेसिव और बिस्तर पर एक्टिव होती है। किंतु इस धारणा को भी चीन की औरतों ने पलट दिया है वे जीवन में भी एक्टिव भूमिका अदा रही हैं। इस नए परिवर्तन की वाहक बनी हैं गांवों से आई औरतें। इसके अलावा औरतों में शिक्षा के विकास के कारण भी परंपरागत स्टीरियोटाईप नजरिया टूटा है। साथ ही गर्भपात और परिवार नियोजन की सुविधाओं कीसहज उपलब्धता के कारण भी सेक्स के प्रति उदार रूख का विकास हुआ है। इसके अलावा ज्यादा समय तक प्यार करने और आनंद उठाने के कारण भी औरतों का सेक्स के प्रति नजरियाबदला है। सेक्स क्रांति में सेक्स का वैविध्य बढ़ा है ,कामुक गतिविधियों में इजाफा हुआ है। पेन का मानना है कि सद्भाव समाज में सेक्स को शामिल किया जाना चाहिए। यह क्रांति नहीं बल्कि हमारे जीवन का हिस्सा है।
चीनी में मध्यवर्ग को 'झोंग चान''(zhong chan] कहते हैं। इसका अर्थ है मध्यवर्ग अथवा 'मिडिल प्रापर्टी' या मध्यवित्ता । चीन का नीतिगत जोर इस बात पर है कि आम लोगों को गांवों से शहरों की ओर ठेला जए। किसानी से निकालकर अन्य कार्यों में झोंका जाए जिससे आधुनिक विकास के ईजन को चलाए रखा जाए। समस्या यह है कि आज बड़े पैमाने पर चीन के गांवों से लोग शहरों की ओर पलायन करके आ रहे हैं। किंतु उसके लिए सरकारी अनुमति का होना जरूरी है। बगैर सरकारी अनुमति के लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते। इस नीति के कारण शहरों में अबाध प्रवेश संभव नहीं है। चीन में ऐसा नहीं है कि आपकी जब इच्छा हो आप किसी भी शहर में चले जाएं।
विश्वबैंक के अनुसार चीन के सामने अभी दो बड़ी समस्याएं हैं। पहली समस्या है शहरीकरण और छंटनी मजदूरों की। उन्हें कैसे काम मुहैयया कराया जाए। दूसरी समस्या है किसानों का शहरों में स्थानान्तरण कैसे किया जाए। अभी भी तीन करोड़ किसान और दो करोड़ गरीब हैं अपनी जमीन या संपत्ति से वंचित होकर पड़े हैं जब तक इनकी व्यवस्था नहीं हो जाती। मध्यवर्ग के आधार पर स्थायी समाज बनाना मुश्किल है। मध्यवर्गीय समाज विकसित समाज है। इसमें कानून का शासन चलता है। इसमें निजी संपत्ति का अधिकार, व्यक्तिगत अधिकार, सार्वजनिक कार्यों में शिरकत के अधिकार को सुरक्षित करना होगा,ये अधिकार देने होंगे। फिलहाल मध्यवर्ग के विकास के कारण समाजवादी समाज का क्षय हो रहा है। जिसके कारण कम्युनिस्ट पार्टी के लोग ज्यादा बोल नहीं पा रहे।
माओ के जमाने में 'किसान सैनिक' आदर्श हुआ करता था। माओ का उस जमाने में कहना था कि सीखना है तो कामरेड ली फेंग से सीखो। वही 'किसान सैनिक' का आदर्श था। इसी 'किसान सैनिक' को आधार बनाकर चीनी नैतिकता का सारा तामझाम खड़ा किया गया। वही शिक्षा से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में नैतिकता को परिभाषित करने वाला प्रधान तत्व था। अचानक माओ के बाद इसी 'किसान सैनिक' का रूपान्तरण नयी बाजार अर्थव्यवस्था की संरचनाओं के अनुरूप किया जा रहा है जिससे यह मध्यवर्ग को अपील कर सके। माओ ने ली फेंग को मुक्ति दी थी, ली फेंग पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का सैनिक था। उसे कोई नहीं जानता था। किंतु अचानक सन् 1962 में उसकी एक ट्रैफिक दुर्घटना में मौत हो गयी। यह चीन में लम्बी छलांग का दौर था। उसके प्रेरक प्रतीक के रूप में ली फेंग को प्रचारित किया गया।ली फेंग इस बात का प्रतीक था कि वह कभी आराम नहीं करता था। क्रांतिकारी भावों से भरा था। वह चीन जनमुक्तिसेना,कम्युनिस्ट पार्टी और माओ के प्रति वफादार था।
ली फेंग के मरने के बाद उसकी एक डायरी भी मिली जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नकली है। इसी ली फेंग को आदर्श सैनिक और आदर्श चीनी नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। लंबे समय तक ली फेंग को चीन ने अपने प्रौपेगैण्डा मॉडल के प्रतीक रूप में इस्तेमाल किया। ली फेंग का गुण था कठिन परिश्रम, कभी सवाल न पूछने वाला किसान,यही चीनी प्रशासन की आधारशिला भी यही विचार था। फेंग की इमेज के साथ सैनिक की पोशाक का भी महिमामंडन हुआ।
ली अच्छे काम करने वालों का प्रतीक था,इसकी बीजिंग के शासकों के प्रति वफादारी थी। उस पर अनेक गाने लिखे गए, किताबें लिखी गयी, फिल्में बनीं। ली फेंग को खासकर चीनी बच्चों के सामने आदर्श मॉडल के रूप में पेश किया जाता था। अब ली फेंग का पूरी तरह रूपान्तरण हो चुका है। इस प्रसंग में एक नयी किताब आयी है '' ली फेंग 1940-1962', इस किताब में बताया गया है कि नया ली फेंग ज्यादा नरमदिल इंसान है। ली फेंग पहले की तुलना में ज्यादा सहिष्णु और आज्ञाकारी है।
किताब में बताया गया है कि ली हमेशा कपड़े नहीं पहनता था, जैसाकि उसकी सेना की पोशाक में हमेशा दिखाया गया। बल्कि बताया जा रहा है कि ली लेदर जैकेट और शानदार घड़ी पहनता था। (ये सारी चीजें 50 और 60 के दशक में लग्जरी में गिनी जाती थीं ) ,किताब में यह भी कहा गया है कि ली फेंग की गर्ल फ्रेंड भी थी। ली की ट्रक ड्राईविग की तुलना बीएमडब्ल्यू कार ड्राईविंग के साथ की गई है। अभी हाल ही में एक फोटो नजर आया है जिसमें ली फेंग बीजिंग के तेएनमैन स्क्वायर में मोटर साईकिल चलाता दिखता है। चूंकि मौजूदा दौर फैशन के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण है और इसमें रिबेलियस या बागी तेवरों का व्यापक प्रचार किया जा रहा है। अत: ली फेंग को भी रिबेल के रूप में पेश किया जा रहा है। रिबेल या बागी होने के कारण उसके हेयरस्टाइल फैशनेबुल हो गए हैं। उल्लेखनीय है ली फेंग जब सेना में था उस समय फैशनेबुल बाल रखने पर पाबंदी थी। इस किताब के संपादक का कहना है कि दुख की बात है कि आज के युवा ली फेंग को नहीं जानते। वे नहीं जानते कि ली फेंग कैसे चीन का प्रतीक बन गया था। आज के युवा ली फेंग को जानें इसके लिए उसके बारे में अनेक फोटोग्राफ भी किताब में दिए गए हैं जिनमें बताया गया है कि ली फेंग साधारण किसान परिवार से आया था। उसने सेना में ड्राइवर की नौकरी ली। ली फेंग की नयी निर्मित इमेज को चीन प्रशासन ने बगैर किसी स्पष्टीकरण के जारी किया है।
चीन प्रशासन का मानना है कि ली फेंग के नए रूप के जरिए मध्यवर्ग के दिलों पर राज किया जा सकता है। ली फेंग की पहले जो इमेज माओ के जमाने में प्रौपेगैण्डा के लिए इस्तेमाल की गयी थी और आज जिस नयी इमेज का प्रचार किया जा रहा है ये दोनों ही नकली इमेज हैं, निर्मित इमेज हैं। इनका यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं है। प्रौपेगैण्डा के क्रम में ऑन लाइन कम्प्यूटर गेम के रूप में '' लर्न फ्रॉम ली फेंग'' नामक कम्प्यूटर गेम जारी किया गया है। इसे नस्दाक ने तैयार किया है। यह एक चीनी साफटवेयर कंपनी है। इस गेम के जरिए बच्चों में राष्ट्रभक्ति,आज्ञाकारिता पैदा करने की कोशिश की जा रही है। उल्लेखनीय है कि ऑनलाइन गेम कम्युनिटी में डेढ़ करोड़ युवा शामिल हैं।
उल्लेखनीय है कि यह गेम चीनी बच्चों को ज्यादा अपील नहीं कर पा रहा है। इसका प्रधान कारण है कि चीनी युवावर्ग में प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद की अपील सबसे ज्यादा है जब कभी मौका मिलता है तो यह प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद सड़कों पर निकल आता है। कभी जापान के खिलाफ, कभी फ्रांस के खिलाफ हिंसक प्रदर्शनों में तब्दील हो जाता है। चीनी युवा प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के कारण चीनी युवा हमेशा गुस्से से भरे होते हैं वैसे ही जिस तरह विश्वहिन्दू परिषद या संघ परिवार के संगठनों में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद कूट-कूटकर भरा है। प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद चीनी युवाओं में भरा पड़ा है और मौका पाते ही अपने नस्लवादी चरित्र को व्यक्त कर बैठता है। असल में चीन का समूचा माहौल बौध्दिक अज्ञानता और पिछड़ेपन सेभरा हुआ है जिसके कारण प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद अभी भी फलफूल रहा है।
4 मार्च 2006 को चीन के राष्ट्रपति हू जिनताओ ने आठ सूत्री नैतिक मंत्र जारी किए हैं। इन्हें खासकर युवाओं को लक्ष्य करके बनाया गया है। हू ने आठ सम्मान और आठ अपमान रेखांकित किए हैं। कहा है '' लोग प्रेम करें,किंतु मातृभूमि को क्षति न पहुँचाएं।'' ,'' विज्ञान को ऊँचा उठाएं, अज्ञानी और अविवेकवान न रहें।'', '' कड़ी मेहनत करें, काम से घृणा न करें और आलसी न बनें।'', '' अनुशासित रहें, अराजक और कानूनहीन बनने की बजाय कानून का पालन करें।'' जन प्रतिनिधि कांग्रेस की एक सेमीनार में राष्ट्रपति ने नैतिक कोड के बारे में भाषण देते हुए कहा कि सही क्या है और गलत क्या है,इसका फैसला करते समय हम सीमाओं का उल्लंघन नहीं करने देंगे। बुराई और भलाई,सही या गलत आदि का फैसला इस बात से होगा कि मातृभूमि के प्रति क्या अपमानजनक है और क्या अनैतिक है। उल्लेखनीय है कि माओ ने जिस नैतिक मानदंड की हिमायत की थी और प्रचार किया था उसका समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं था। यही स्थिति हू जिनताओ के नैतिक कोड की भी है। उनके कोड में व्यक्ति की नैतिकता पर जोर है,पहले वाले में समुदाय की नैतिकता पर जोर था,उसे समाजवाद के साथ जोड़ दिया गया था। नया नैतिक कोड व्यक्तिवाद से जुड़ा है।
चीन में आज जिस तरह विकास चरर्मोत्कर्ष पर है वैसी ही अनैतिकता भी चरमोत्कर्ष पर है। अप्रैल 2004 में झु मिंग नामक 26 वर्षीय व्यक्ति को चीन के हेवेई प्रान्त से गिरफतार किया गया। इस व्यक्ति पर आरोप था कि उसने कम से कम 37 औरतों के साथ बलात्कार किया। जिन औरतों के साथ बलात्कार किया उनकी उम्र 71- 93 वर्ष के बीच थी। बूढ़ी औरतों को वह अपना शिकार इसलिए बनाता था क्योंकि उन्हें सहज ही नियंत्रित किया जा सकता है। यह बात उसने स्वयं पुलिस के सामने स्वीकार की। इसी तरह चीन के सबसे चर्चित सीरियल किलर यंग झिनहाई को लोग अभी तक भूले नहीं हैं। इसने 65 लोगों की हत्या की। 23 औरतों के साथ बलात्कार किया। इस तरह के अपराध की खबरें आए दिन चीनी समाचार पत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं।
असल चीज यह है कि विगत दो दशकों में जिस तेज गति से चीन का शहरीकरण हुआ है और एक शहर से दूसरे शहर में जाने के नियमों में ढ़ील दी गयी है उसके कारण आबादी का गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा है। क्रांति के बाद परंपरागत मूल्यों और विरासत को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। इसी क्रम में हठात् बाजार अर्थव्यवस्था में चीन दाखिल हो गया। बाजार अर्थव्यवस्था में दाखिल होते ही सभी अनैतिक चीजों के लिए बाजार अर्थव्यवस्था को दोष देना शुरू कर दिया। जबकि सच यह है कि बाजार अर्थव्यवस्था के आने के पहले ही नैतिकता का सारा तानाबाना नष्ट किया जा चुका था। सिर्फ सैन्यशक्ति और दमन के बलबूते पर कम्युनिस्ट पार्टी उस पर पर्दा डाले हुए थी।
दूसरी बात है कि बाजार अर्थव्यवस्था में नए किस्म की जीवनशैली, चालढाल, वेशभूषा , नयी शहरी संरचना, नई दफतरी संस्कृति, नई ग्लोबल दुनिया की हवा आदि ने नए किस्म की नैतिकता की जरूरत पैदा की है। नया चीन इस नैतिकता में ढल रहा है। इसे पुराने किस्म की कम्युनिस्ट नैतिकता के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। पुराने जमाने में चीन के लोगों के पास बहुत कम चीजें थीं, जीवनशैली भी तदनुरूप थी। आज असंख्य चीजें हैं और असंख्य समस्याएं भी हैं।
समाज में जितनी चीजें होंगी उतनी ही समस्याएं होंगी। जितनी समस्याएं होंगी उनके उतने ही ज्यादा समाधान या विकल्प भी होंगे। पहले चीन में चीजें कम थीं समस्याएं भी कम थीं। विकल्प एकदम नहीं थे। आज अनेक विकल्प हैं। वस्तुओं से लेकर नैतिकता तक प्रत्येक क्षेत्र में विकल्प ही विकल्प हैं। विकल्पों की मौजूदगी समृध्दि का संकेत है। विकल्पों की कमी अभाव का संकेत है। नैतिकता के क्षेत्र में भी यही हाल है। जीवनशैली के वैविध्य का आना ज्यादा स्वतंत्रता का आना है।
आज चीनी लोगों का जोर मित्र बनाने, परिवारीजनों के लिए संपत्तिा जोड़ने और अपनी अभिरूचियों को संतुष्ट करने पर है। आज चीनी ज्यादा पढ़ रहे हैं, ज्यादा धर्मादा कार्यो में ,परोपकार के कार्यों में खर्च कर रहे हैं। नए युवाओं को पहले वाले मूल्य नहीं मिले। उनके पास मूल्यों की कोई विरासत नहीं है। आज वे नये सिरे से मूल्यों को निर्मित कर रहे हैं। जाहिर है यह काम बेहद जटिल है।
पहले माओ की विचारधारा आधिकारिक विचारधारा थी आज भौतिकवाद आधिकारिक विचारधारा है। आज भौतिक वस्तुओं के प्रेम और उन्हें पाने की लालसा ने मेहनतकश चीन को भौतिक संपदाओं का धनी देश बना दिया है। चीन में विगत दो दशकों में व्यापक शहरीकरण हुआ है वैसा संसार में दुर्लभ है। शहरीकरण की अपनी दिक्कतें भी हैं। चीन में अभी जो भेदभाव ,उत्पीड़न और हिंसा नजर आ रही है इसमें नई बाजार अर्थव्यवस्था की कम और पुरानी व्यवस्था की ज्यादा भूमिका है। ये चीजें नए समाज को विरासत में मिली हैं। विरासत की बीमारियां जल्दी पीछा नहीं छोड़तीं ।
साम्यवाद से बाजार अर्थव्यवस्था में दाखिल होते ही अतिवादी नजरिया घटने की बजाय बढ़ा है। चीनी नागरिक पहले भी अतिवाद में जीते थे। कोई भी चीज अतिवादी रूप में नजर आती है। यह अतिवाद बाजार अर्थ व्यवस्था के आने साथ और भी बढ़ा है। इसने नवनिर्माण,उपभोग, उत्पादन और जीवनशैली को खासकर निशाना बनाया हुआ है। इसका प्रतिबिम्बन राजनीति में भी नजर आ रहा है।
बाजार अर्थव्यवस्था की ओर चीन का प्रयाण धीमी गति से न होकर तीव्रतम गति से हो रहा है। चीनी मनोदशा का प्रमुख तत्व है जनसमूह की उन्मादी मानसिकता । चीन में कोई भी प्रतिक्रिया मासरिएक्शन अथवा मासप्रोटेस्ट के रूप में ही नजर आती है। इसने एक तरह से भीड़ की मानसिकता ग्रहण कर ली है। इस मानसिकता का निर्माण सांस्कृतिक क्रांति के दौर में हुआ था। चीनी जनता को समूहवादी उन्माद में सक्रिय करने और इस्तेमाल करने के प्रयोग सांस्कृतिक क्रांति के दौर में सबसे ज्यादा किएगए , समूहवादी उन्मादी मानसिकता के एक्शन हिंसक होते हैं। इनकर इन दिनों यदाकदा प्रतिक्रियावादी राष्ट्रोन्माद में अभिव्यक्ति नजर आती है।
सांस्कृतिक क्रांति के दौरान माओ ने चार पुरानी चीजों के खिलाफ जंग का एलान किया था ये थीं-पुराने विचार, पुरानी संस्कृति,पुराने रीतिरिवाज और पुरानी आदतें या संस्कार। इसे 'चार पुरानों ' के खिलाफ जंग के नाम पर समाज में व्यापक हिंसाचार हुआ। रेडगार्ड इसके वाहक बने। रेडगार्ड का सामाजिक स्रोत मजदूर,गरीब और निम्नमध्यवर्गीय किसान, क्रांतिकारी कैडर, क्रांतिकारी सैनिक और क्रांतिकारी शहीदों के आश्रित थे। रेडगार्ड के हिंसाचार में लाखों चीनी नागरिक मारे गए।
हिंसाचार,उत्पीड़न और अपमान का तूफान पैदा किया था सांस्कृतिक क्रांति ने। सांस्कृतिक क्रांति में सबसे बड़े शत्रु वे थे जो पूंजीवादी मार्ग का अनुसरण कर रहे थे। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान 90 हजार लोग मारे गए यह बात तो स्वयं चीन सरकार मानती है। जबकि सच यह है तकरीबन दो करोड़ चीनी नागरिक सांस्कृतिक क्रांति के दौरान मारे गए। सांस्कृतिक क्रांति को कम्युनिस्ट पार्टी का आंतरिक कलह भी कहते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के विचारधारात्मक आंतरिक कलह को सड़कों पर हल किया गया।
कम से कम मौजूदा नयी सत्ताा अपने आंतरिक विचारधारात्मक विवादों में चीन की जनता को शामिल नहीं कर रही है और विचारधारात्मक विवादों के समाधान और विमर्श को पार्टी मंचों तक सीमित कर दिया गया है। यह बड़ा बुनियादी परिवर्तन है। पार्टी के विवाद अब जनता के विवाद नहीं हैं। पार्टी के आंतरिक विवादों को सड़कों पर हल करने का आखिरी प्रयास तिएनमैन स्क्वायर की घटना थी। नयी सत्ताा को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने पार्टी की आंतरिक विचारधारात्मक जंग के साथ चीनी जनता को नत्थी कर देने की मानसिकता को खत्म किया है।
अब चीनी जनता की मानसिकता और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की मानसिकता में बड़ा अंतर साफ दिखाई देता है। पहले चीन के कम्युनिस्ट जो सोचते थे जनता को भी वही सोचने के लिए मजबूर किया जाता था,भिन्न चीज सोचने वालों को दण्डित किया जाता था। आज बहुत बड़ा चीनी समाज भिन्न नजरिए से सोच रहा है और भिन्न नजरिए से चीन में जीवन जी रहा है। संभवत: यह पहला बड़ा अलगाव है जनता और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच में । यह स्वस्थ लक्षण है।
इस अलगाव का ही परिणाम है कि आम जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में वैविध्य का प्रवेश हुआ है। पहले एक रसानंद था। अब बहुरसानंद है। पहले कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा किसी को भी समाज में प्रभावशाली भूमिका अदा करने का हक नहीं था, माओ अथवा मार्क्सवादी विचारों के अलावा अन्य किसी भी विचारधारा अथवा चेतनारूपों और संस्कृतिरूपों में सोचने अथवा विचरण करने का मौका नहीं मिला था। आज स्थिति यह नहीं है आज चीनी समाज में कम्युनिस्टों के अलावा भी प्रभावशाली तबका पैदा हो गया है। जिसकी समाज में साख है और अपनी निजी पहचान है। इसके पास संपत्तिा है और निजी अधिकार भी हैं।
देंग के मिशन के लागू किए जाने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने 'अन्य' की सत्ता को स्वीकार किया है और उसे सामाजिक स्पेस दिया है। आज चीन में व्यक्तिगत जीवन में कम्युनिस्ट पार्टी का हस्तक्षेप घटा है। पहले लोग कम्युनिस्ट पार्टी के रहमोकरम पर जिंदा थे आज अपनी कीमत पर जिंदा हैं। पहले वाला समाज पराश्रित समाज था, मौजदा समाज व्यक्ति की आत्मनिर्भरता पर जोर देता है। व्यक्ति की आत्मनिर्भरता के लिए निरंतर अनुकूल माहौल बनाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी सक्रिय है। इस समूची प्रक्रिया में सबसे बड़ी उपलब्धि यह हुई है कि कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी समाज जिस तरह गूंथ हुए थे उन्हें तोड़ा गया है और इन दोनों की स्वायत्ताता पर जोर दिया जा रहा है और इस काम में काफी हद तक सफलता भी मिली है। इस क्रम में नए किस्म की नैतिकता और नए किस्म के मूल्यों का प्रचार-प्रसार हुआ है।
नए पर जोर देने के क्रम में कम्युनिस्ट पार्टी ने सचेत रूप से पुराने मूल्यों,मान्यताओं और अध्यात्मिकता और धर्म के विकास पर भी जोर दिया है। फेंग सुई और फिलांगुआन का फिनोमिना उसी की अभिव्यक्ति हैं। चीन का परंपरागत धर्म, दर्शन और अंधविश्वास वाला ज्योतिषशास्त्र सामाजिक सामंजस्य का संदेश देता है और आमलोगों में जीवन जीने की तमन्ना पैदा करता है। चीनी के प्राचीन विचार,धर्म और दर्शन अहिंसक रहे हैं। परंपरा को नए सिरे से अर्जित करने के प्रयासों में सरकार की सक्रिय हिस्सेदारी ने स्थितियों को सामान्य बनाने में बड़ी भूमिका अदा की है।
आर्थिक सुधारों को लागू करने पहले एक ही किस्म की नैतिकता, एक ही किस्म के मूल्य और एक ही किस्म की वेशभूषा आदि सब कुछ एक ही किस्म का था। एकत्व पर जोर था। एकत्व ने चीनी समाज के वैविध्य को अभिव्यक्ति का अवसर ही नहीं दिया। आर्थिक सुधारों का पूरा जोर सांस्कृतिक एकत्वभाव को नष्ट करने पर है। जबकि राजनीतिक एकत्व को बनाए रखना चाहते हैं। राजनीतिक एकत्व की प्रतीक है कम्युनिस्ट पार्टी। सांस्कृतिक एकत्व की बजाय सांस्कृतिक वैविध्य और बहुलतावाद को सामाजिक-आर्थिक विकास का आधार बनाया गया है।
अब एक नहीं अनेक किस्म की नैतिकता, अनेक किस्म के मूल्य, अनेक किस्म के कोड आदि को मान्यता दी गयी है। राष्ट्रभक्ति और मातृभूमि के खिलाफ कुछ भी करने की अनुमति नहीं है। मातृभूमि को सम्मान और प्यार देना प्रत्येक चीनी नागरिक कार् कत्ताव्य है। ऐसा कोई भी मूल्य,नैतिकता अथवा कोड मान्य नहीं है जो मातृभूमि को चुनौती दे। इस प्रक्रिया में देशभक्ति और कम्युनिस्ट भक्ति में अलगाव पैदा किया गया है।
पहले देशभक्ति का अर्थ था कम्युनिस्ट भक्ति। आज किंतु ऐसा नहीं है। जो लोग कम्युनिस्ट नहीं हैं वे भी चीन में सम्मान के साथ रह रहे हैं और उनको व्यापार से लेकर उद्योग धंधों तक में सक्रिय योगदान करते देखा जा सकता है। जो लोग कम्युनिस्ट मान्याताओं में विश्वास नहीं करते उन्हें पूरा हक है कि वे अपने भावों और विचारों का प्रचार करें और इसी स्प्रिट में फैशन और जीवनशैली के वैविध्यमय संसार को व्यक्त करने वाली चीनी पत्रिकाओं की बाढ़ आ गयी है।
आज चीन में देशभक्ति ,व्यक्तिगत विचार और जीवनशैली के वैविध्य के बीच में नए किस्म की विचारधारात्मक अन्तर्क्रियाएं चल रही हैं जिनसे मिश्रित समाज पैदा हो रहा है। ऐसा मनुष्य पैदा हो रहा है जो कहीं से भी कम्युनिस्ट नहीं है। पूरी तरह अराजनीतिक है। पहले यह संभव नहीं था। आज चीनी समाज में कम्युनिस्ट ही नहीं गैर कम्युनिस्ट भी प्रभावशाली हैं। कम्युनिस्टों के पास संपदा है तो गैर कम्युनिस्टों के पास भी संपदा है।
कहने का तात्पर्य यह है 'अन्य' की समाज में मौजूदगी है, उसकी अपनी स्वतंत्र पहचान बन रही है, 'अन्य' अपना स्वतंत्र गैर कम्युनिस्ट स्पेस बना रहे हैं। यह विगत तीस सालों की सबसे बड़ी उपलब्धि है। तीस साल पहले तक कम्युनिस्ट पार्टी 'अन्य' को स्वीकारने को तैयार नहीं थी। विगत तीस सालों में 'मैं' और 'तुम' ,'हम' और 'तुम' का भेद पैदा हुआ है। यह सामाजिक विकास का स्वस्थ लक्षण है। पहले सभी को सत्ताा के बल पर ''हम'' में विलीन कर दिया गया था। पहले अभेद था अब भेद हैं। नैतिक मूल्यों को सापेक्षता के आधार पर देखा जा रहा है। सापेक्षता में भी वैविध्य को केन्द्र में रखा गया है। आज अभेद की बजाय विविधता पर जोर है। पहले कम्युनिस्ट पार्टी , देश और समाज में भेद करना असंभव था। सब बुछ कम्युनिस्ट पार्टी में समाहित था। आज किंतु सब कुछ कम्युनिस्ट पार्टी में समाहित नहीं है बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी के बाहर देश,नागरिक अपनी स्वायत्ताता बनाने में लगे हैं। देश की जनता की कम्युनिस्ट पार्टी से स्वायत्तता बनी है। कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में ढील आयी है।
चीन में एकता और अखंडता पर जोर है और जो एकता और अखंडता को माने उसे किसी भी किस्म के नए प्रयोगों की अनुमति है। फैशन परेड से लेकर मैकाडोनॉल्ड रेस्टोरैंट में खाने तक, बीएमडब्ल्यू कार खरीदने से लेकर बड़े-बड़े बंगले खरीदने तक, कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रचार करने से लेकर गैर कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रचार, यहां तक कि धार्मिक प्रचार करने तक की आजादी है। यानी चीन में देशभक्त होते हुए आप कुछ भी कर सकते हैं। देश की एकता को स्वीकार करते हुए किसी भी हद तक अपना विकास कर सकते हैं। देश के प्रति बगावत किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है। आज कम्युनिस्ट पार्टी से देशभक्ति बड़ी चीज हो गयी है। पहले ऐसा नहीं था।
देशभक्ति और कम्युनिस्ट पार्टी का स्वायत्त संसार धीरे-धीरे बन रहा है। क्रमश: गैर कम्युनिस्ट संरचनाएं बन रही हैं। गैर कम्युनिस्ट संरचनाओं का संसार विचारधारा से लेकर सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं के वैविध्य तक फैला हुआ है। एक ही वाक्य में कहें तो विगत तीस सालों में चीन में 'विविधता' और 'अन्य' की सत्ता प्रतिष्ठित हुई है। यह सिलसिला तेज गति से चल रहा है। यह सिलसिला अभी जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी प्रवेश करेगा। समूचे चीन में बायनरी अपोजीशन की संरचनाएं पैदा हो गयी हैं। पहले ये गायब थीं। बायनरी अपोजीशन सामाजिक शक्ति के पुख्ता होने का लक्षण है। इस समूची प्रक्रिया को गौर से देखें तो पाएंगे कि चीन अब साम्यवादी नजरिए और उसके पुराने उपकरणों से समझ में नहीं आ सकता।
यह सच है कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी एकमात्र शक्तिशाली राजनीतिक दल है। इसका जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वर्चस्व है। कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य वीआईपी माना जाता है। उसकी समाज में तूती बोलती है। लेकिन इस स्थिति में परिवर्तन आ रहा है। यथार्थ यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के तकरीबन साढ़े सात करोड़ सदस्य हैं।( 73.4 मिलियन सदस्य) इनमें 10.8 प्रतिशत मजदूरवर्ग के सदस्य हैं, 23.1 मिलियन यानी 31 फीसद किसान,मछुआरे आदि। 21.3 मिलियन सदस्य अर्थात् 29 फीसद सदस्य कैडर,प्रबंधकीय स्टाफ, और तकनीकी विशेषज्ञ हैं। पार्टी सदस्यों में 1.6 अर्थात् 2.2 फीसद सैनिक आौ सशस्त्रबलों में हैं।1.95 मिलियन यानी 2.6 फीसद छात्र,13.77 मिलियन अर्थात् 18.8 फीसद रिटायर्ड ,3.64मिलियन यानी पांच प्रतिशत अन्य लोग सदस्य हैं। इस बार की सत्रहवीं कांग्रेस में 134,000 लोगों ने पार्टी सदस्यता के लिए आवेदन किया था जिनमें से मात्र 64 हजार को पार्टी सदस्यता प्रदान की गई है।
चीन में नया सामाजिक ढ़ांचा उभरकर आया है जिसमें निजी व्यापारी,तकनीकीविद,प्रबंधन में लगे लोग,देशी और विदेशी कंपनियां, आत्मनिर्भर ग्रुप,तात्कालिक नौकरीपेशा वाले लोगों का बहुत बड़ा सामाजिक ग्रुप उभरकर आया है जिसे कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वीकार किया है। ऐसे पेशेवर लोगों की संख्या पांच करोड़ है। ये लोग तकरीबन 1.3 ट्रिलियन (अमेरिकी डॉलर) की संपत्ति को नियंत्रित करते हैं।
देश की अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों पर जोर है। खासकर निजी क्षेत्र के विकास पर ध्यान ज्यादा दिया जा रहा है। सन् 2006 में चीन में 9.94 मिलियन प्राइवेट व्यापार थे। इनमें कुल 7.5 ट्रिलियन युआन का निवेश हुआ। देश में सात करोड़ तीस लाख कम्युनिस्ट पार्टी सदस्य हैं। इनमें से तीस लाख सदस्य निजी क्षेत्रों की कंपनियों में काम करते हैं। सन् 2006 में कम्युनिस्ट पार्टी में 1500 क्षेत्र के व्यापारियों ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता प्राप्त की। जिन नए सदस्यों को सत्रहवीं कांग्रेस ने सदस्यता प्रदान की उनमें 10,773 सदस्य इस नए सामाजिक क्षेत्र से आते हैं। चीन में इस समय दस करोड़ लोग धर्म के मानने वाले हैं। इनमें विभिन्न धर्मों के लोग हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर लोकतंत्र के दबाव का आलम यह है कि राष्ट्रपति हू जिनताओ ने सत्रहवीं पार्टी कांग्रेस में जो भाषण दिया उसमें विभिन्न संदर्भों में साठ बार लोकतंत्र पदबंध का इस्तेमाल किया। लोकतंत्र के पदबंध का इतना जिक्र पहले कभी किसी कम्युनिस्ट नेता ने नहीं किया। ये सारे संकेत बताते हैं कि चीन में उदार वातावरण बन रहा है। बहुलतावादी सांस्कृतिक वातावरण बन गया है। मासकल्चर का तूफान आया हुआ है। जरूरत है राजनीतिक लोकतंत्र की और वह जल्दी ही आएगा।
प्रस्तुत किताब में पहले अघ्याय में चीन और समाजवाद के बदलते स्वरूप को बौद्रिलार्द के वर्चुअल रियलिटी के परिप्रेक्ष्य में खोलने की कोशिश की गई है। समाजवाद के बारे में जितने भी मूल्यांकन विगत तीस सालों में आए हैं वे सभी प्रेस और यथार्थवाद कें संदर्भ में आए हैं। वर्चुअल रियलिटी के संदर्भ में समाजवाद और चीन पर तुलनात्मक नजरिए से विचार किया गया है। दूसरे अध्याय में मानवाधिकार, समाजवाद और वर्चुअल रियलिटी के नए संबंध की मीमांसा की गई है। तीसरे अध्याय में तिब्बत दमन और मीडिया की भूमिका की व्यापक चीनी संदर्भ में आलोचनात्मक व्याख्या पेश की गई है। यह अध्याय खासकर 'फ्रंटलाइन' पत्रिका के संपादक प्रसिध्द पत्रकार एन.राम की ताजा 'फ्रंटलाइन' कवर स्टोरी में निहित एकायामी नजरिए की आलोचना है। इस अध्याय में मीडिया विचलनों,मेलीपुलेशन आदि का विस्तार से मूल्यांकन किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि तिब्बत ,दलाईलामा,सीआईए,बौध्द धर्म का आधुनिकयुगीन हिंसाचार और आम तिब्बती के बीच में किस तरह का रिश्ता है। तिब्बत के मुक्ति युध्द के पीछे अमरीका के कौन से मंतव्य काम कर रहे हैं। तिब्बत का भविष्य किसमें हैं दलाईलामा के कठमुल्ला धर्म में अथवा आधुनिक चीन के विकास में।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
रविवार, 12 जुलाई 2009
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