पर्यावरण के प्रति उत्तर-आधुनिकों का रवैया मिथकीय है।और विज्ञान विरोधी है।पर्यावरण को ये लोग पूंजीवाद के आम नियम से पृथक् करके देखते हैं। कायदे से पर्यावरण के बारे में मिथों को तोड़ा जाना चाहिए।विज्ञान-सम्मत दृष्टिकोण का प्रचार किया जाना चाहिए।पर्यावरण के प्रश्न सामाजिक विकास के प्रश्न हैं।इनकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। परंपरागत संगठनों ने इन प्रश्नों की लम्बे समय तक उपेक्षा की है। स्वैच्छिक संगठनों के संघर्षों के कारण पर्यावरण की ओर ध्यान गया है। धीरे-धीरे प्रकृति और पर्यावरण के प्रश्न आम जनता में जनप्रिय होरहे हैं।पूंजीवादी औद्योगिक क्रान्ति के गर्भ से विकास की जो प्रक्रिया शुरु हुई थी ,वह आज अपनी कीमत मांग रही है। विकास के नाम पर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन प्राकृतिक विनाश की हद तक ले गया।
मनुष्य और प्रकृति का अविभाज्य संबंध है। प्रकृति का समाज और समाज का प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। कोई भी राष्ट् प्रकृति का विनाश करके विकास नहीं कर सकता ।इसी तरह कोई भी राष्ट् औद्योगिक विकास के बिना विकास नहीं कर सकता। इसीलिए प्रकृति और विकास के बीच में संतुलन जरुरी है।आज पृथ्वी के किसी भी हिस्से में प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है तो उसका समूची दुनिया पर दुष्प्रभाव पड़ता है। अत :प्रकृति के विनाश को रोकना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। प्रसिध्द पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल की राय है कि पर्यावरण रक्षा के नाम पर चल रहे अधिकांश आन्दोलन विज्ञान विरोधी हैं।
पर्यावरण की रक्षा के नाम पर आज तरह - तरह के संगठन सक्रिय हैं। इनमें ऐसे लोग भी हैं जिनके पर्यावरण एवं विज्ञान दोनों को लेकर सरोकार हैं। ये लोग पर्यावरण के प्रति विज्ञानसम्मत समझ बनाने पर जोर देते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी इच्छा और आकर्षण के आधार पर कार्यरत हैं। इनमें से ज्यादातर मिथों के आधार पर काम करते हैं और मिथों की सृष्टि करते हैं।
प्रकृति को निर्ममता से लूटने की प्रवृत्ति मानवजाति के भूतकाल की उपज और उस जमाने का अनिवार्य परिणाम है ,जब उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर बहुत नीचा था और प्रकृति के विरुध्द संघर्ष मनुष्य के उत्पादन का अभिन्न अंग था। किन्तु आज मनुष्य प्रकृति का गुलाम नहीं है बल्कि स्वामी है। स्वामी होने के बाबजूद मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति बदली नहीं है। वह आज भी प्रकृति को शत्रु समझकर कार्य कर रहा है।पर्यावरण और प्रकृति संबंधी विवादों की यह विशेषता है कि इसके उपभोग और संरक्षण के प्रश्न जितने महत्वपूर्ण बनते जाते हैं ,उनको लेकर उतने ही झूठे तर्कों का शब्दजाल फैलाया जाता है।प्रकृति के संरक्षण , सामाजिक पूर्वानुमान और इन क्षेत्रों में अंतराष्ट्ीय विकास पर नियंत्रण रखने वाली बहुराष्ट्ीय कंपनियां और इजारेदारियां तरह-तरह के दांव-पेंच खेलती रही हैं।
पारिस्थितिकी विशेषज्ञों और प्रकृति संरक्षकों को कभी-कभी बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है।क्यों कि उन्होंने प्रकृति को प्रदूषित करने वाला कारखाना बंद करा दिया।जिससे मजदूर बेकार हो गए।उन पर उर्जा संकट का आरोप लगाया जाता है ,उन्हें देशद्रोही घोषित किया जाता है ,क्योंकि ये लोग प्रकृति के बुध्दिसंगत प्रबंध की मांग करते हैं।प्रकृति के प्रश्न विश्व के प्रश्न हैं।अत: इनके बारे में अंतर्राष्ट्ीय परिप्रेक्ष्य में सोचने की जरुरत है।पर्यावरण के सवालों पर बहुराष्ट्ीयनिगमों और अमरीका ने सबसे ज्यादा गैरजिम्मेदाराना रवैय्या अपनाया हुआ है।जबकि प्राकृतिक संपदा कासबसे ज्यादा इस्तेमाल अमरीका ही कर रहा है।
अमरीका की कुल आबादी दुनिया की आबादी का मात्र 6 फीसदी है।किन्तु यह देश दुनिया के 40 फीसदी संसाधनों का इस्तेमाल करता है।यह अपनी खपत का 40 फीसदी तांबा, 40फीसदी शीशा, आधे सेज्यादा जस्ता , 80फीसदी एल्यूमीनियम, 99 फीसदी मैगनीज़, और भारी मात्रा में लोहा बाहर से प्राप्त करता है।इससे प्राकृतिक संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है। आज ये लोग उत्तर-आधुनिकों के जरिए उपभोग पर विमर्श चला रहे हैं। उपभोग की सैध्दान्तिकी है 'इस्तेमाल किया और फेंक दिया' , ' जो चाहे हो जाए' और ' सब कुछ लागू किया जा सकता है' के नारे बहाने समझा जा सकता है। इन तीन नारों के तहत ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां समूची दुनिया पर हमले बोल रही हैं।रास्ते में यदि पहाड़ खड़ा है और पहाड़ को खोदना इसके इर्द-गिर्द रास्ता बनाने से सस्ता है तो समझो कि पहाड़ के दिन लद गए । इसी तरह कारखाने का गंदा पानी नदियों एवं झीलों फेंका जाता है ,जैसे नदियों और झीलों की जरुरत ही न हो। कारखानों का कचरा समुद्र में फेंका जाता है ,गोया समुद्र की जरुरत ही न हो ?सदियों में उगे जंगलो को काटकर कागज बनाया गया ,उस पर व्यापारिक इश्तहार छापे गए और इस तरह अगले ही रोज रद्दी का एक और पहाड़ खड़ा कर दिया गया। जंगल की जगह जो खेत जोता गया ,दस साल में मिट्टी के कटाव के कारण बेकार हो गया और उसे ' फेंक' दिया गया।
अगर वायुमंड़ल में अरबों टन कार्बन डायोक्साइड गैस निसृत हो जाए ,नदियों को गंदे नाले का जोहड़ बना दिया जाए, खेतों की मिट्टी को नष्ट किया जाए तथा रासायनिक जहर से विषाक्त बना दिया जाए , तो इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग अपने एकमात्र आश्रय पृथ्वी को 'फेंक' रहे हैं।इस सबसे पता चलता है कि निजी उपभोग और निजी स्वामित्व के जमाने में विरासत में मिली मान्यताओं को हमें बदलना चाहिए और विश्व के प्रति एकदम नया दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ,ऐसा दृष्टिकोण जो सभी को मान्य हो और जिसमें मानव के अस्तित्व के भौगोलिक , पारिस्थितिकीय ,आर्थिक तथा राजनीतिक पहलुओं को ध्यान में रखा जाए ,ऐसा दृष्टिकोण ,जो समय के प्रवाह तथा प्रभाव का समुचित मूल्यांकन कर सके ,लोगों को एक -दूसरे के प्रति तथा प्रकृति के प्रति उत्तरदायित्व का बोध कराने में समर्थ हो।
दूसरे शब्दों में समय की मांग है कि विश्व के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाए ,जो मानव जाति की एकता ,समाज और प्रकृति में समन्वय के सिध्दान्त पर आधारित हो। विश्व के प्रति नया दृष्टिकोण विश्व-स्तर पर मानव के 'अधिकार' को भी प्रभावित करेगा। मानव जाति की संपत्ति होने के कारण ' पृथ्वी' पर किसी का भी अधिकार नहीं होना चाहिए ,यहां तक की राज्य का भी नहीं। ' पृथ्वी' को हमें एकदम नए दृष्टिकोण से देखना होगा। पृथ्वी 'अपनी संपत्ति'नहीं है अपितु मानव जाति की संपत्ति है। इसी तरह प्रकृति भी किसी की संपत्ति नहीं है ,वरन् समूची मानव जाति की संपत्ति है। जब तक हम प्रकृति को 'अपनी संपत्ति' मानते रहेंगे ,प्रकृति को लूटते रहेंगे ,उसका ध्वंस करते रहेंगे।
उल्लेखनीय है कि भारतीय कानून प्राकृतिक संसाधनों को संपत्ति के अधिकार के दायरे में रखता है। आज दुनिया में 200 से ज्यादा अंतर्राष्ट्ीय कानून हैं। 600 से ज्यादा द्विपक्षीय समझौते हो चुके हैं। 150 से ज्यादा क्षेत्रीय कानून हैं।ये ज्यादातर यूरोपीय देशों में हैं।भारत ने समस्त अंतर्राष्ट्ीय कानूनों पर दस्तखत किए हैं और उनकी संगति में प्रकृति और पर्यावरण संबंधी कानूनों को बदला है।
भारत ने सबसे पहले 1933 के लंदन कन्वेंशन को 1939 में स्वीकार किया। बाद में 1951 के रोम के वृक्ष संरक्षण कन्वेंशन को 1952 में स्वीकृति दी। अंतर्राष्ट्ीय प्रतिबध्दताओं को पूरा करने के लिहाज से संविधान के 253 अनुच्छेद में प्रावधान है। बाद में 1972की स्टोकहोम कॉफ्रेंस की सिफारिशों को संसद ने 42 वें संविधान संशोधन के जरिए लागू किया। हमारे संविधान के अनुच्छेद 48A में राज्यों को जिम्मेदारी दी गयी है कि वे पर्यावरण को सुधारें,वन, जंगलात और पशुओं का संरक्षण करें। अनुच्छेद 51[A][g]में नागरिकों के इस संदर्भ में दायित्वों का उल्लेखकिया गया है।
इसके अलावा1974का जल कानून ,1981 कावायु कानून , 1986 का पर्यावरण संरक्षण कानून स्टाकहोम कन्वेंशन की संगति में बनाए गए। इसी तरह समुद्री पर्यावरण से संबंधित अंतर्राष्ट्ीय कानूनों को भारत स्वीकार कर चुका है और हमारे यहां इनकी संगति में अनेक कानून हैं। अभी तक संयुक्त राष्ट् संघ ने प्रकृति और पर्यावरण्ा संबंधी जितने भी कानून बनाए हैं उनकी संगति में भारत में कानून बन चुके हैं। दुखद बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून लागू कराने के लिए जितना दबाब ड़ाला जाता है उसकी तुलना में कानून बनाने की प्रक्रिया में सभी देशों को शामिल नहीं किया जाता। कायदे से अंतराष्ट्रीय कानून बनाने वाली प्रक्रिया का लोकतांत्रिकीकरण किया जाना चाहिए। साथ ही विश्व संस्थाओं को 'प्रकृति को संपत्ति' बनाने अथवा राज्य को उसका मालिक बनाने की कोशिशों का विरोध करना चाहिए।
संसार में अभी तक जितनी भी पीढ़ियां गुजरी हैं ,सभी ने प्रकृति को संपत्ति के रुप में अपने वंशजों को विरासत में छोड़ने की कोशिश की है।इस प्रश्न पर बहुत कम विचार किया गया है कि क्या ऐसे मूल्य ,इरादे और लक्ष्य मौजूद हैं ,जो भावी पीढी के मूल्यों ,इरादों तथा लक्ष्यों के अनुकूल हों ।अपने कार्यों के औचित्य और भावी पीढी की कृतज्ञता में लोगों का अटल विश्वास था।परन्तु ,सभ्यता की विशाल इमारत का निर्माण करते हुए काफी देर तक उस अपार हानि से अनभिज्ञ रहे ,जिसे मानव जाति को उठाना पड़ा।
इस प्रसंग में कार्ल मार्क्स को उध्दृत करना समीचीन होगा। मार्क्स ने लिखा है '' निजी संपत्ति ने हमें इतना जड़मति और एकांगी बना दिया कि कोई वस्तु सिर्फ तभी हमारी होती है जब वह हमारे पास हो ,जब वह पूंजी की तरह अस्तित्वमान हो ,अथवा जब वह प्रत्यक्षत: कब्जे में हो , खाई ,पी ,पहनी ,आवासित हो -संक्षेप में ,जब वह हमारे द्वारा प्रयुक्त की जाती है।'' आज प्रकृति को बचाने के लिए दो मोर्चों पर एक साथ संघर्ष चलाना होगा। पहला मोर्चा परंपरावादियों का है जो प्राकृतिक संपदा के अराजक उपभोग को स्वाभाविक मानते हैं।दूसरा मोर्चा पूंजीवादी विचारों का है जहां प्रकृति भी निजी संपत्ति है या राज्य की संपत्ति है।ये दोनों ही दृष्टिकोण प्रकृति को समूची मानव जाति की संपदा नहीं मानते। हमारे देश के वन ,पर्यावरण एवं प्रकृति संबंधी कानूनों में यह दृष्टिकोण हावी है।ये दोनों दृष्टिकोण प्रकृति के ध्वंस को सुनिश्चित बनाते हैं। प्राकृतिक ध्वंस को देखना हो तो कुछ मोटे आंकड़ों पर गौर करना समीचीन होगा।मसलन्, बॉधों ,हाइड्रो इलैक्ट्रिक क्षेत्र ,कृषि प्रकल्पों ,खान-उत्खनन ,सुपर थर्मल पॉवर ,परमाणु उर्जा संस्थानों ,मत्स्य पालन,औद्योगिक कॉम्प्लेक्सों ,सैन्य-केन्द्रों ,हथियार परीक्षण स्थलों ,रेल मार्गों एवं सड़कों के विस्तार ,अभयारण्यों एवं पार्कों ,हथकरघा उद्योग आदि क्षेत्रों में नई तकनीकी के प्रयोग ने पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव छोड़ा है।संबंधित इलाकों के वाशिंदो को अपने घर -द्वार एवं जमीन -जायदाद से बेदखल होना पड़ा है।
सन् 1947 से अब तक 1600 बॉधों और कई हजार मध्यम और छोटे कृषि प्रकल्पों को तैयार किया गया और नहरों का जाल बिछाया गया।फलत: जगह-जगह पानी जमा हो जाने के कारण पानी में नमक की मात्रा बढ़ गई ,उन स्थानों पर खेती और रिहाइश मुश्किल हो गई ,साथ ही लाखों लोगों को बेदखल होना पड़ा। एक अनुमान के अनुसार 1951-1985 के बीच में बेदखल होने वालों की संख्या दो करोड़ दस लाख थी।विकासमूलक प्रकल्पों के नाम पर जो कार्यक्रम लागू किए गए उनसे एक करोड़ 85 लाख लोग विस्थापित हुए।विस्थापितों में आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा थी।
आदिवासियों में लागू किए गए 110 प्रकल्पों के सर्वे से पता चला कि इनसे 16.94 लाख लोग बेदखल हुए।इनमें तकरीबन 8.14 लाख आदिवासी थे।यह स्थिति उन इलाकों में है जहां खानें हैं।अधिकांश खानें आदिवासी इलाकों में हैं। खानों के उत्खनन से आदिवासियों को जमीन , रोजगार एवं उपजाउ जमीन से हाथ धोना पड़ा। वनों को काट दिया गया।
प्रत्यक्ष बेदखली के साथ-साथ इन लोगों को भाषाई एवं सांस्कृतिक कष्टों को झेलना पड़ा।
इसके अलावा उपभोक्तावादी उद्योगों के द्वारा जिन्हें विस्थापित किया जा रहा है , कृषि और बाजार की तबाही से जो लोग बेदखल हो रहे हैं उनका अभी तक कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
सत्तर के दशक में दक्षिण ,उत्तर और पश्चिमी भारत के संसाधनों के चुक जाने के बाद से पूंजीपति वर्ग ने पूर्वी घाट के संसाधनों को लूटने की दिशा में प्रयाण किया। इस इलाके के प्राकृतिक संसाधनों में 30 फीसदी अकेले उड़ीसा में है। पूर्वी घाट के दोहन के बाद पर्यावरण और प्रकृति में भयंकर बदलाव आ सकते हैं। जिनकी ओर अभी हमारा ध्यान ही नहीं है।
विश्व बैंक के दो अधिकारियों कार्टर ब्रांडों और किरशन हीमेन ने ''दि कॉस्ट ऑफ इनेक्शन : वेल्यूइंग दि इकॉनोमी बाइड कॉस्ट ऑफ इनवायरमेंटल डिग्रेडेशन इन इंडिया'' नामक कृति में पर्यावरण से होने वाली क्षति का अनुमान लगाने की कोशिश की है। लेखकों के अनुसार पर्यावरण से 34,000 करोड़ रुपये यानि 9.7 विलियन डॉलर की क्षति का अनुमान है।यह हमारे सकल घरेलू उत्पाद का4.5 फीसदी है। यह भी कह सकते हैं कि सन् 1991 में भारत में जितनी विदेशी पूंजी आई उसके दुगुने से भी ज्यादा है। हवा-पानी के प्रदूषण से 24,000 करोड़ रुपये की क्षति हुई।भूमि के नष्ट होने एवं जंगलों के काटे जाने से 9,450करोड़ रुपये की क्षति हुई। अकेले कृषि क्षेत्र में जमीन के क्षय से उत्पादकता में 4 से 6.3 फीसदी की गिरावट आई जिसका मूल्य 8,400 करोड़ रुपये आंका गया।
उपरोक्त अनुमान कम करके लगाए गए हैं। मसलन्, जल प्रदूषण से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को ही लें , जल प्रदूषण से होने वाली स्वास्थ्य क्षति का मूल्य 19,950 करोड़ रुपये आंका गया है। इसके लिए जो आधार चुना गया है वह अपर्याप्त एवं विवादास्पद है। इसी तरह प्रदूषित हवा से होने वाली क्षति 4,500करोड़ रुपये प्रतिवर्ष आंकी गयी है। जबकि प्रदूषित हवा से प्रतिवर्ष 40,000 मौतें हो जाती हैं। जबकि नमक की कमी से होने वाली क्षति 650 करोड़ रुपये बतायी है। जंगलात के विनाश से 4,900 करोड़ रुपये की क्षति का अनुमान है। यह समूचा अनुमान गलत मानदंडों पर आधरित है वास्तव में 50,000 से 70,000करोड़ रुपये तक की क्षति का अनुमान है।य हारे सकल घरेलू उत्पाद के 9 फीसदी के बराबर है।यह हमारी सकल राष्ट्रीय विकास दर से भी ज्यादा है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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