कांग्रेस और नव्य उदार चुनावी प्रौपेगैण्डा
जनता कृतघ्न नहीं होती। जनता की सेवा करने का लाभ मिलता है। जो राजनीतिक दल जनता के आर्थिक हितों का ख्याल रखता है जनता उसके प्रति समर्थन व्यक्त करने से कभी संकोच नहीं करती। विगत पांच सालों में मनमोहन सरकार ने जनहित ( किसानों की कर्जमाफी,छठा वेतन आयोग, ग्रामीण विकास रोजगार योजना आदि) के जो कदम उठाए थे उनके बदले जनता ने कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका देकर अपने कृतज्ञभाव का प्रदर्शन किया है। पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि भारत की जनता ने नव्य आर्थिक उदारीकरण को अंतत: अपनी स्वीकृति दे दी है। नव्य आर्थिक उदारीकरण की जो प्रक्रिया भारत में शुरू हुई थी उसके जनक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं। इसबार का चुनाव कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को नायक बनाकर लड़ा। यह ऐसा नायक जिसके पास नव्य उदारवादी एजेण्डा है। लंबे समय के बाद कार्यक्रम सहित प्रधानमंत्री का चेहरा जनता के सामने आया था। बाकी प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के पास प्रतिक्रिया का कार्यक्रम था। फलत: वे जनता को अपील नहीं कर पाए।
पन्द्रहवीं लोकसभा का चुनाव नव्य उदारीकरण के प्रौपेगैण्डा की जीत है। इस जीत के नायक हैं मनमोहन और मुख है टेलीविजन। कांग्रेस पार्टी ने अपने नियमों की कैद से बाहर आकर पहली बार प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर मनमोहन सिंह का नाम प्रचारित किया। कांग्रेस के द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नाम को केन्द्र में रखकर लड़ा गया यह पहला लोकसभा चुनाव था। देश की जनता में मनमोहन सिंह की छवि नव्य उदारतावादी आर्थिक नीतियों के जनक की है। पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम नव्य उदारतावाद के प्रति आम जनता के एक बड़े अंश के समर्पण का संकेत है। यह जीत नहीं विभ्रम है।
कांग्रेस को अपने समानधर्मा दलों के साथ बगैर किसी 'न्यूनतम साझा कार्यक्रम' के अपने ही कार्यक्रम पर साझा सरकार बनाने का पहलीबार मौका मिला है। इस सरकार में वे दल शामिल हैं जिनके बीच चुनाव पूर्व समझौता था। केन्द्र सरकार को उन दलों का भी समर्थन प्राप्त है जो चुनाव के समय कांग्रेस को हराने की अपील कर रहे थे।
आखिरकार मनमोहन सिंह और उनके सहयोगी कैसे जीते ? असल में यह जीत कांग्रेस के मीडिया प्रबंधन और नव्य उदार उम्मीदों की जीत है। यह जीत इसलिए भी संभव हुई है क्योंकि विपक्ष ने टीवी चैनलों की भूमिका को लेकर पहले कोई रणनीति नहीं बनायी और इसके कारण कांग्रेस को चैनलों का अबाधित दोहन करने का सुनहरा मौका मिल गया।
कांग्रेस ने विस्तार के साथ टेलीविजन प्रबंधन पर ध्यान दिया। बहुभाषी चैनलों का जमकर इस्तेमाल किया। मीडिया के इतिहास में सन् 1971 के चुनाव के बाद कांग्रेस का इलैक्ट्रोनिक मीडिया का यह सबसे प्रभावशाली राजनीतिक दोहन था। सन् 1971 में स्व.श्रीमती इंदिरा गांधी ने रेडियो मीडियम का प्रभावशाली इस्तेमाल करके प्रचार के मैदान में सबके छक्के छुड़ा दिए थे और रेडियो के तत्कालीन आक्रामक प्रचार के गर्भ से अधिनायकवाद का खतरा पैदा हुआ। ठीक वैसा ही आक्रामक रूख इसबार टीवी चैनलों की प्रस्तुतियों में दिखाई दिया है।
कांग्रेस की मीडिया रणनीति के प्रमुख बिंदु हैं -कांग्रेस ने देश के साथ अपनी पहचान जोड़कर पेश की। स्वयं को धर्मनिरपेक्षता और आर्थिक सुधारों का प्रतीक बताया। दूसरी ओर भाजपा को वरूण गांधी के अल्पसंख्यक विरोधी भाषण को लेकर उलझा दिया। कांग्रेस को इसका फायदा मिला और अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के बीच में अपनी इमेज चमकाने का मौका मिला। वरूण गांधी के भाषण का मसला गैर जरूरी था, तकरीबन पन्द्रह दिनों तक भाजपा इस झंझट में फंसी रही और कांग्रेस ने बेहतर मीडिया प्रबंधन के जरिए इस मसले को टेलीविजन समाचारों के मुख्य मुद्दे से हटने नहीं दिया और इस मुद्दे पर एनडीए के नेताओं के अन्तर्विरोधी बयानों को इतना उछाला कि भाजपा का एकजुट एनडीए का नारा प्रभाव पैदा नहीं कर पाया।
दूसरा ,बायनरी अपोजीशन और निष्कलंक इमेज का सार्वजनिक प्रचार अभियान में जमकर इस्तेमाल किया । मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी की छवि जेण्डर संतुलन का भावबोध पैदा कर रही थी। साथ ही इन दोनों नेताओं ने निष्कलंक राजनेता का भी संदेश दिया। इन दोनों के खिलाफ किसी के पास कोई आरोप नहीं था। पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद पहलीबार ऐसा प्रधानमंत्री जनता के बीच में था जो पांच साल शासन करने के बाद निष्कलंक था और सादगी का प्रतीक था। सादगी और निष्कलंक इमेज ने साधारण लोगों को आकर्षित किया।
तीसरा, वंशवाद का विरोध, मनमोहन-सोनिया -राहुल की इमेजों का अहर्निश प्रक्षेपण अप्रत्यक्ष रूप में यह संदेश भी देता है कि कांग्रेस वंशवाद नहीं चाहती। वंशवाद की परंपरा से कांग्रेस ने अपने को अलग किया है। यह अप्रत्यक्ष संदेश इतना प्रभावशाली था कि लालकृष्ण आडवाणी और एनडीए एकदम निष्प्रभावी हो गए। यह इमेज तैयार करते समय विज्ञापन निर्माताओं ने सिगरेट के विज्ञापनों की रणनीति का वैचारिक तौर पर सहारा लिया । एनडीए और भाजपा के तर्कों का प्रतिवाद किया। यह वैसे ही था जैसे सिगरेट बनाने वाली कंपनियां ध्रूमपान का विरोध करने वालों के तर्कों का अपनी इमेजों के जरिए अप्रत्यक्ष तौर पर प्रतिवाद करती हैं। सोनिया और राहुल के बीच में मनमोहन सिंह का होना उन सभी तर्कों का प्रत्युत्तार है जो यह कहते हैं कि कांग्रेस वंशवाद चाहती है। साथ ही यह भी कहा कि सोनिया और राहुल सत्ताा में कोई पद नहीं चाहते। यह संदेश इतना प्रभावशाली था कि लालकृष्ण आडवाणी के प्रचार अभियान का मूल मुद्दा ही निष्प्रभावी हो गया।
चौथा, आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ विपक्ष की विचारधारात्मक मुहिम को बड़े ही कौशल के साथ 'विकास' और 'आशा' के संदेश के बहाने निशाना बनाया गया। इसकी शुरूआत 'जय हो' की धुन की खरीद के साथ हुई। मजेदार बात यह है जिन चीजों,भाषा रूपों आदि के साथ नकारात्मक अर्थ जुड़ा है उनका सचेत रूप से प्रयोग रोका गया। मसलन् कांग्रेस ने अपने प्रचार अभियान में 'नव्य आर्थिक उदारतावाद' पदबंध और उससे जुड़ी भाषिक केटेगरी का प्रयोग नहीं किया। इसके विपरीत विपक्ष के द्वारा नव्य आर्थिक उदारतावाद के खिलाफ चलायी जा रही मुहिम का कांग्रेस ने 'विकास' के प्रचार के जरिए जबाव दिया। कांग्रेसी नेता चैनलों में चालीकी के साथ 'आर्थिक सुधार' पदबंध का इस्तेमाल करते थे। वे कभी 'आर्थिक उदारतावाद' अथवा 'नव्य आर्थिक उदारवाद' पदबंध का किसी भी मंच पर,टीवी टॉक शो आदि में इस्तेमाल नहीं करते थे।
पांचवां, कांग्रेस ने अपने प्रचार अभियान में विपक्ष पर आक्रामक हमले कम किए और अपने कार्यक्रमों और उनके लागू न कर पाने की कमियों का जिक्र ज्यादा किया। साथ ही कांग्रेस के कार्यक्रमों को जो दल या राज्य सरकारें लागू कर रही हैं उनकी प्रशंसा भी की। फलत: प्रचार अभियान को दलीय घृणा के पैराडाइम के बाहर कर दिया। इस क्रम में यह संदेश गया कांग्रेस सहिष्णु और सामंजस्यवादी राजनीतिक पार्टी है।
छठा, चौदहवीं लोकसभा में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी थी। लोकसभा चुनाव के बाद यूपीए गठबंधन अस्तित्व में आया। यूपीए ने चौदहवीं लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा था। यूपीए ने पहलीबार पन्द्रहवीं लोकसभा का चुनाव लड़ा और कांग्रेस ने विभिन्न दलों के साथ क्षेत्रीय स्तर पर सीट समझौता किया। समझौते में जो दल शामिल थे उन्हें ही लेकर नयी सरकार का गठन किया गया। इस समूची प्रक्रिया में यह तथ्य उभरता है कि कांग्रेस के नेतृत्व में कांग्रेस के घोषणापत्र से सहमत दलों को केन्द्र में पहलीबार साझा सरकार बनाने का मौका मिला है। सरकार में शामिल दलों में आर्थिक नीतियों को लेकर कोई बुनियादी मतभेद नहीं है। जबकि पिछली सरकार में ऐसा नहीं था, वामपंथी दलों का अनेक नीतियों के साथ मतभेद था जिसके कारण बार-बार केन्द्र सरकार की फजीहत हुई और इस फजीहत को आम जनता ने अच्छी नजरों से नहीं देखा और उन तत्वों को पराजित कर दिया जो प्रतिदिन राजनीतिक कलह करते थे।
यह धारणा रही है कि संयुक्त मोर्चे की राजनीति में आंतरिक कलह करने वालों को जनता अच्छी नजर से नहीं देखती और उन्हें सबक सिखाती है । उल्लेखनीय है जनता पार्टी के शासनकाल के दौरान सोशलिस्टों और संघ परिवार के आंतरिक कलह को जनता ने अच्छी नजरों से नहीं देखा उन्हें लंबे समय के लिए राजनीति से छुट्टी दे दी गयी, पश्चिम बंगाल में वाम के आंतरिक कलह और कांग्रेस और वाम के कलह को अच्छी नजर से नहीं देखा,केरल में माकपा का आंतरिक कलह पराजय का कारण बना। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीतिक कलह को जनता पसंद नहीं करती। टीवी प्रौपेगैण्डा में कांग्रेस की तरफ से राजनीतिक कलह सबसे चर्चित विषय था। जबकि विज्ञापन और मुद्रित प्रचार सामग्री में 'विकास' का प्रौपेगैण्डा प्रमुख था।
सातवां, कांग्रेस नेताओं ( सोनिया गांधी,मनमोहन सिंह,राहुलगांधी ) के भाषण छोटे और उत्तोजनारहित थे। इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों के नेताओं के भाषण आलोचना और उत्तोजनाभरे थे। कांग्रेस ने अपने तीन बड़े नेताओं और प्रमुख क्षेत्रीय नेताओं के भाषणों के प्रचार के लिए राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनलों का जमकर इस्तेमाल किया और बहुत कम लागत में अपने विचारों का प्रचार किया।
भाषणकला- सोनिया गांधी,मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के भाषणों में एक साझा तत्व है वह यथार्थकेन्द्रिकता। इन तीनों नेताओं ने अपने भाषणों में यथार्थ को प्रस्तुत करके जनता को पर्सुएट किया। यथार्थकेन्द्रिक भाषणकला हमेशा लघु भाषण पर जोर देती है। यथार्थ को बताकर दिल जीतने की कला स्वत: प्रामाणिक है उसके लिए बाहर से प्रमाण जुटाने और तर्क देने अथवा सहयोगी प्रचार सामग्री की जरूरत नहीं पड़ती। यथार्थकेन्द्रिक भाषणकला सकारात्मक होती है। 'आशा' का संचार करती है। आम लोगों की कल्पनाशीलता को स्पर्श करती है। इसमें सबके सुखी भविष्य की कल्पना अन्तनिर्हित होती है।
कहीं-कहीं इन तीनों नेताओं ने विमर्श की कला का भी अपने भाषणों में इस्तेमाल किया और उस क्रम में अपने विरोधियों की कमियों का तथ्यपूर्ण उद्धाटन किया। इन तीनों नेताओं के भाषण छोटे, खुले और यथार्थकेन्द्रिक थे। खुले भाषण का अपना ही सुख है इसमें श्रोता अपनी कल्पना से बाकी खाली जगह भरने की कोशिश करता है। खुले भाषण की पध्दति इसलिए भी अपनायी गयी क्योंकि न्यूनतम बातों या मुद्दों पर,न्यूनतम शब्दों में बोलना था। इसके कारण्ा भाषण के प्रति रूचि बनी रहती है और उसका प्रभाव भी होता है। कांग्रेस के तीनों नेताओं ने अपने भाषण में निर्विवाद भाषिक प्रयोगों का इस्तेमाल किया। विवादास्पद भाषिक प्रयोगों से बचते हुए भाषा का जो रूप सामने आया वह पूर्णत: यथार्थवादी था।
यथार्थवादी भाषिक प्रयोग नए अर्थ की सृष्टि करते हैं। वे श्रोता को भाषणकर्ता के साथ जोड़ते हैं। सहयोग का भाव पैदा करते हैं। आम लोगों की इच्छा को सम्बोधित करते हैं। इच्छाओं को जगाते हैं। मसलन् राहुल गांधी का पुरूलिया में यह कहना कि पुरूलिया तो सबसे पिछड़ा जिला है,उत्तार प्रदेश से भी पिछड़ा है। इसमें तथ्य भी है और इच्छाएं भी हैं। इच्छा यह है कि पुरूलिया को पिछड़ा नहीं होना चाहिए।इसी तरह राहुल गांधी या सोनिया गांधी ने जब ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत गरीबों को काम न दिए जाने का सवाल उठाया तो वे वस्तुत: इच्छाओं को अभिव्यक्ति दे रहे थे। यह इच्छा व्यक्त की कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत गरीबों को 100 दिन काम मिले। इच्छा को जगाने वाली रणनीति कारगर साबित हुई ।
कांग्रेस का त्रर्िमूत्तिा नेतृत्व जब इच्छा जगा रहा था तब मूलत: आम जनता के विश्वासों और अपने राजनीतिक लक्ष्य के बीच मेनीपुलेट कर रहा था। मसलन् जनता यह चाहती है कि उसे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत 100 दिन का काम मिले किंतु संभवत: यह नहीं चाहती कि नव्य उदारतावाद का एजेण्डा जारी रहे। क्योंकि वह जानती नहीं है कि नव्य उदारवाद किसे कहते हैं। यही वह बिंदु है जहां कांग्रेसी नेता अपने भाषणों के जरिए जनता की इच्छा और अपने राजनीतिक लक्ष्यों के बीच घालमेल करने में सफल रहे हैं और यही वजह है कि इसबार के चुनाव परिणाम नव्य-उदारतावादी नीतियों की विजय महसूस हो रहे हैं।
इन तीनों नेताओं के भाषणों में यथार्थकेन्द्रिकता के फ्रेमवर्क का इस तरह इस्तेमाल किया गया कि भाषण में शामिल राजनीतिक पाठ स्वत: सक्रिय हो उठा। यह ऐसा सक्रिय पाठ है जिसकी सतह पर कहीं पर भी भनक नहीं मिलती किंतु लोगों के मन में सक्रिय हो उठता है। संभावित राजनीतिक पाठ के आम दर्शकों में सक्रिय हो उठने का एक अन्य कारण है कांग्रेस की त्रर्िमूत्तिा का भाषण को विमर्श के दायरे के बाहर रखना। उल्लेखनीय है कि लाल कृष्ण आडवाण्ाी ने बार-बार जो भी हमला किया उसका जबाव भाषणों से नहीं प्रेस काँफ्रेस के जरिए दिया गया। भाषण को विमर्श के दायरे के बाहर रखा गया और प्रेस काँफ्रेस को विमर्श का मंच बनाया। प्रेस काँफ्रेस में विमर्श बोगस होता है। इस तरह लालकृष्ण आडवाणी के वैचारिक हमलों को प्रेस कॉफ्रस के जरिए जबाव देकर निष्प्रभावी बनाया गया। इसके विपरीत सोनिया गांधी और राहुल गांधी के भाषणों में गर्मी या ऊर्जा का भी एहसास था।
यथार्थकेन्द्रिक भाषणकला यथार्थ को बदलने की ओर ठेलती है। यथार्थ के परिवर्तन के सेतु के रूप में त्रिमूर्त्ति नेतृत्व का प्रक्षेपण सफल रहा। इन तीनों ने अपने भाषणों में व्यवहारवाद का जमकर इस्तेमाल किया और यह संदेश दिया कि जो जरूरी और व्यवहारिक है वही हमने किया।
कहा गया वाम का समर्थन लेना व्यवहारवाद था, धर्मनिरपेक्षता अथवा नव्य उदारतावाद का विरोध नहीं। व्यवहारवाद के प्रयोग के कारण ही कोई भी पार्टी कांग्रेस के साथ जुड़ने के लिए तैयार है,भाषणों में संप्रेषित व्यवहारवाद का ही सुफल था कि सपा,बसपा,राजद,लोजपा आदि दलों ने चुनाव के तुरंत बाद ही अपने समर्थन का एलान कर दिया।
कांग्रेस के तीनों नेताओं के भाषणों का मूल दर्शन है व्यवहारवाद। व्यवहारवाद के कारण वे शत्रु की भी प्रशंसा करने में संकोच नहीं करते। मजेदार बात यह है ये तीनों नेता जिन बातों को अपने भाषणों में उठा रहे थे उन्हें लोग जानते थे और जिन बातों को लोग जानते हैं उन्हें जब आप यथार्थकेन्द्रिक आधार से पेश करते हैं तो प्रभावी बनाते हैं।
इसी प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण है अस्मिता राजनीति का पैराडाइम परिवर्तन। इस बार के चुनाव में राहुल गांधी के माध्यम से कांग्रेस ने 'युवा अस्मिता' को केन्द्र में रखा और उनके भाषणों में युवावर्ग की मौजूदगी ने अस्मिता राजनीति के सकारात्मक पैराडाइम की शुरूआत की है। यह सच है कि अस्मिता की राजनीति खोखली राजनीति है, कार्यक्रमरहित राजनीति है। यह बात मायावती, मुलायमसिंह, लालकृष्ण आडवाणी,लालू यादव पर जिस तरह लागू होती है वैसे ही राहुल गांधी पर भी लागू होती है। किंतु एक बुनियादी फर्क है धर्म और जाति की अस्मिता के स्थान पर युवा अस्मिता का केन्द्र में आना सकारात्मक है। धर्म,जाति आदि की अस्मिता राजनीति का हाशिए पर जाना और 'युवा अस्मिता' की राजनीति का केन्द्र में आना वस्तुत मासकल्चरीय युवा अस्मिता का चरमोत्कर्ष है।
भारतीय भाषणकला के अंतिम नायक अटलबिहारी बाजपेयी थे और उनकी इस चुनाव में अनुपस्थिति ने भाषणकला का अंत कर दिया। भारतीय भाषणकला की विदाई का एक सिरा अटलजी से जुड़ा है तो दूसरा सिरा सोनिया गांधी से जुड़ा है। यह संयोग है कि सोनिया गांधी का नेता के रूप में राष्ट्रीय क्षितिज में उदय भाषणकला के अंत के प्रतीक के दौर में उस समय हुआ जब अटलजी का सूरज ढ़ल रहा था। मनमोहन सिंह के चौदहवीं लोकसभा का प्रधानमंत्री बनना और अटलजी का जाना,ये सारी चीजें भाषणकला के लोप का संकेत है। यह नव्य उदार वातावरण की पराकाष्ठा है। नव्य उदार वातावरण भाषणकला को अप्रासंगिक बनाता है। अब लोगों की भाषणों में दिलचस्पी कम हो जाती है। अब लोग सुनना कम और देखना ज्यादा चाहते हैं। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से टीवी एक बड़े संप्रेषक के तौर पर दाखिल होता है।
आज हमारे बीच में अच्छे राजनीतिक भाषणकला के पारखी राजनेताओं का एकसिरे से अभाव है। सोनिया के आगमन के साथ लिखित सार्वजनिक भाषण की परंपरा का आना नियमबध्द भाषणकला की वापसी है। नियमबध्द भाषणकला स्वभावत: स्वतंत्रता विरोधी है। यह बोलने वाले को स्वतंत्रता नहीं देती। राहुल गांधी रट्टू नेता के रूप में बोलते हैं। स्वतंत्र भाषणकला की उनमें संभावनाएं हैं किंतु कांग्रेस ने जो रास्ता चुना है उसमें कम से कम बोलना मूल मंत्र है। राजनेता जब कम से कम बोलने के रास्ते पर चल पड़ें तो भाषणकला के दुबारा जिंदा होने की संभावनाएं नहीं हैं।
आश्चर्य की बात यह है सोनिया बगैरह के विकल्प के रूप में जो नेता सामने आ रहे हैं वे भी लिखित भाषण पढ़ते हैं अथवा अप्रासंगिक ज्यादा बोलते हैं। मायावती ने लिखित भाषण पढ़े,जबकि लालू, मुलायम,नरेन्द्र मोदी,बुध्ददेव भट्टाचार्य और आडवाणी की सबसे ज्यादा शक्ति अप्रासंगिक चीजों पर खर्च हुई। मसलन् मनमोहनसिंह कमजोर प्रधानमंत्री हैं। यह बात एकसिरे से भाषणकला के लिहाज से ही नहीं बल्कि राजनीति के लिहाज से भी अप्रासंगिक है। उसी तरह बुध्ददेव भट्टाचार्य का औद्योगीकरण का एजेण्डा पश्चिम बंगाल के औद्योगिक वातावरण के नष्ट हो जाने के बाद अप्रासंगिक एजेण्डा है। पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण का नारा सन् 1977 में दिया जाता तो प्रासंगिक था आज कोई भी विश्वास नहीं करेगा कि माकपा या वामपंथ उद्योग लगाना चाहते हैं। दूसरी बात यह कि माकपा के चिंतन में औद्योगीकरण नहीं आता, यदि ऐसा होता तो केरल सबसे बड़ा उद्योग संपन्न राज्य होता। वहां पर तो किसी ममता बनर्जी का संकट नहीं था। यही हाल त्रिपुरा का है। इसी तरह लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के पास कोई सकारात्मक एजेण्डा ही नहीं था। ये दोनों नेता अपने प्रान्तों (बिहार और उत्तार प्रदेश) के मुख्यमंत्रियों की असफलता का राग अलाप रहे थे जिसकी कोई अपील नहीं थी।
समग्रता में देखें तो भारत में भाषणकला का समापन हो चुका है। कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने राजनीति को भाषण के दायरे बाहर कर दिया है। राजनीति को बातचीत और टॉक शो में तब्दील कर दिया है। इसबार के चुनाव में टेलीविजन में जितने बड़े पैमाने पर टीवी टॉक शो आयोजित हुए हैं उसने मीडिया प्रबंधन कला की ओर ध्यान खींचा है।
राजनीति जब टॉक शो में आने लगती है तो उसकी प्रकृति बुनियादी तौर पर बदल जाती है। राजनीति के अराजनीतिकरण का समग्र वातावरण बनता है। टीवी टॉक शो आम जीवन की राजनीतिक गर्मी को अपहृत कर लेता है। फलत: इसबार के चुनाव में गली,चौराहे,पंचायत,चौपाल आदि पर राजनीतिक गर्मी गायब थी और टीवी में गरमागरम चर्चाएं हो रही थीं।
( लेखक की सद्य प्रकाशित किताब '' मीडिया और चुनावी नव्य उदार प्रौपेगैण्डा'', प्रकाशक- अनामिका पब्लिशिर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर (प्रा.लि.) ,4697 /3,21 ए,अंसारी रोड़ ,दरियागंज,नई दिल्ली,110002)
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