ओबामा का महायथार्थ और मीडिया
वह जीता हम खुश हुए। वह हारा हम दुखी हुए। 'हम' और 'मैं' के बीच विपर्यय का नाम ही वर्चुअल यथार्थ या महायथार्थ। विपर्यय के कारण ही 'मैं' को 'हम' और 'हम' को 'मैं' समझने लगते हैं। ओबामा की जीत हो या सौरभ गांगुली का टीम चुना जाना हो दर्शक को लगता है वही जीता है। 'मैं' के अंदर 'हम' को इसी तरह वर्चुअल यथार्थ अन्तर्भुक्त कर रहा है। इस तरह वह 'हम' को विभ्रम में रखता है।
अमरीका के राष्ट्रपति पद पर ओबामा का चुनाव जीतना। सामान्य राजनीतिक घटना है। राष्ट्रपति का चुनाव होगा तो कोई जीतेगा और कोई हारेगा। किंतु मीडिया ने इसे असामान्य और विलक्षण घटना बना दिया। रातों-रात ओबामा को दलित-अश्वेत और वंचितों के आनंद की अभिव्यक्ति बना दिया। सारी दुनिया उनकी जीत में अपना ओबामा देखने लगी।
भारत में भी मीडिया बौध्दिकों ने ओबामा की खोज का काम शुरू कर दिया। ओबामा के पहले किसी भी अमरीकी नेता में हमें अपने किसी नेता की छाया के दर्शन नहीं हुए। यह अमरीका में भारत को देखने का चरमोत्कर्ष है। विगत कई दशकों से हम अमरीका में भारत को देखने का अभ्यास करते रहे हैं। अमरीका को मीडिया,मध्यवर्ग और उपभोक्तावाद ने हमारा आदर्श बनाया है। ओबामा की जीत के साथ राजनीति में भी अमरीका मार्का नेताओं की खोज की जा रही है। ओबामा की तलाश राजनीतिक-सांस्कृतिक विपर्यय है।
ओबामा प्रतीक और उपमा है। वह वर्चुअल राजनीतिक मीडिया प्रवाह की देन है। वर्चुअल सूचना प्रवाह 'तुलना' और 'तदनुरूपता' की ओर ठेलता है। वर्चुअल प्रस्तुति नाटकीय होती है। यथार्थ चंचल होता है। विमर्श मीडिया वातावरण्ा में गुम हो जाते हैं। सब कुछ 'आभास' में रहता है। वर्चुअल संदेश कोड में रहता है। ओबामा की जीत प्रतीकात्मक है। मीडिया उत्तेजना की चंचल सृष्टि है। ओबामा का प्रतीक वर्चुअल है। इसके निर्माण में मीडिया स्पीड ,सूचना के अबाधित फ्लो और अमरीकी राष्ट्रवाद की केन्द्रीय भूमिका है। ओबामा अश्वेत नहीं है बल्कि अमरीकी वर्चस्व का एकदम नया वर्चुअल रूप है।
ओबामा का व्यक्ति या अश्वेत के रूप में संप्रेषण नहीं हुआ। मीडिया ने उसे 'परिवर्तन' के प्रतीक के रूप में संप्रेषित किया । प्रतीक के रूप में ओबामा अनिश्चित,अनेकार्थी और पकड़ के बाहर है। प्रतीक के नाते वह विभ्रम पैदा करता है। ओबामा की जीत निजी यथार्थ से मुक्ति भी है। जीतने के बाद वह न काला है न गोरा है। डेमोक्रेट है न रिपब्लिकन है। वह अमरीकी राष्ट्रवाद का प्रतीक है। विभ्रम है। ओबामा एक विचारधारात्मक केटेगरी है।
व्यक्ति जब विचारधारात्मक केटेगरी बनता है तो स्वयं का निषेध करता है। विचारधारात्मक केटेगरी में प्रस्तुति के कारण जो है वह नहीं दिखता और जो दिखता है वह होता नहीं है। ओबामा का संदेश है '' जो कहा जा रहा है ,उसे आत्मसात करो'' , '' जो दिख रहा है उसे नतमस्तक होकर मानो'', ओबामा का संदेश है '' आत्मसातकरण'' और ''समर्पण।'' इसे बागी प्रतीक के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। विभ्रम ने ओबामा का कायाकल्प किया है। ओबामा की दुनिया बदली है। ओबामा की राष्ट्रपति पद पर विजय अश्वेत यथार्थ और नैतिकता की अस्वीकृति है।
मीडिया में ओबामा 'यथार्थ के अस्वीकार' और 'उम्मीद'ं का प्रतीक है। आभास दिया ओबामा कुछ करेगा। उसकी इमेज में सामूहिक भावों और अनुभूतियों को समाहित कर लिया गया। फलत: यथार्थ से ज्यादा सुंदर लगने लगा । पराजय,मंदी और अवसाद के क्षणों में ओबामा ने अमरीका के साधारणजन के अंदर 'उम्मीदें' जगायी और स्थानीय से सार्वभौम बन गया।
ओबामा मीडियायथार्थ पर टिका है। मीडियायथार्थ हमारे विवेक को कुंद,चकित,मौन और पंगु बनाता है। आक्रामक राजनीतिक संरचनाओं की देन है,ये अपनी शर्तें थोपती हैं और गायब हो जाती हैं। वर्चुअल यथार्थ में प्रस्तुत संरचनाएं कारपोरेट अपराधियों को निर्दोष,निकलंक बनाती हैं। फलत: कारपोरेट नायकों और कारपोरेट अपराधों को मीडिया में पकड़ना असंभव है। अमरीकी जनता के सामने वर्चुअल यथार्थ ने एक ही रास्ता छोड़ा है 'चुप रहो, अनुकरण करो।'
ओबामा का प्रौपेगैण्डा अतिरंजित प्रस्तुतियों पर टिका है। अतिरंजित प्रस्तुतियां 'कॉमनसेंस' और 'मनोरंजक भावबोध' को सम्बोधित करती हैं ,विवेक को अस्वीकार करती हैं। इसके कारण मीडिया प्रस्तुतियों और वास्तविकता के बीच महा-अंतराल रहता है।
मीडिया प्रस्तुतियों में ओबामा को अश्वेत से जोड़ा गया, वैसे ही मायावती को भी मीडिया प्रस्तुतियों में दलित से जोड़ा गया। वास्तविकता में ओबामा और मायावती दोनों ही अपने सामाजिक स्वरूप को प्रतिबिम्बित नहीं करते। मायावती आज दलित नहीं है। वैभव,चाल-ढाल, रंग- ढ़ंग, विचारधारा किसी भी रूप में मायावती का दलित यथार्थ से मेल नहीं है। यही अवस्था ओबामा की है। ओबामा का समूचा विकास,शिक्षा-दीक्षा गैर अश्वेत अभिजन वातावरण में हुई। जो लोग मायावती में ओबामा खोज रहे हैं वे विभ्रम के शिकार हैं। वैसे ही विभ्रम के शिकार हैं जैसे ओबामा को लेकर अश्वेत अमरीकी हैं। महायथार्थ के फ्रेम में निर्मित होने के बाद चीजें यथार्थ से भिन्ना शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। उनकी यथार्थ के साथ तुलना बेमानी है।
मीडिया प्रस्तुतियां तकनीकी कौशल की देन हैं। इनमें बेचैनी, प्रेरणा और परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। ये महज प्रस्तुतियां हैं। जितना जल्दी संप्रेषित होती हैं उतनी ही जल्दी गायब हो जाती हैं। प्रस्तुतियां आनंद देती हैं,मनोरंजन करती हैं और खाली समय भरती हैं। इनके जरिए राजनीतिक यथार्थ देखना समझ में नहीं आता। राजनीतिक यथार्थ तो टीवी प्रस्तुतियों के बाहर होता है।
एक जमाना था सोचते थे कि वोट के क्या परिणाम होंगे। इन दिनों ऐसा नहीं सोचते। इनदिनों वोट देते समय तात्कालिकता का दबाव सबसे ज्यादा रहता है। 'वोट के सामाजिक परिणाम' की जगह अब 'हार-जीत' और 'राजनीतिक उन्माद' ने लेली है। मीडिया प्रस्तुतियों में परिणाम के पीछे निहित 'जोखिम' को छिपाया जाता है। 'जीत' को जोखिमरहित बनाकर पेश करने के कारण ही विगत चुनाव में बुश को व्यापक सफलता मिली। वर्चुअल वातावरण का नारा है 'जीत में जोखिम नहीं होता।'
एक ही वाक्य में कहें तो 'जीत' में यथार्थ दांव पर लगा होता है। हम यथार्थ की बजाय मीडिया प्रस्तुतियों में मगन रहते हैं। यह विज्ञापनकला का प्रभाव है। मीडिया प्रस्तुतियों में अतिरंजना, छिपाना, सेंसरशिप, बड़बोलापन प्रमुखता अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में चुनाव प्रचार में जो वायदा किया जा रहा है उसकी पड़ताल नहीं करते। प्रौपेगैण्डा और सत्य में अंतर नहीं करते। 'न्यूज' और 'प्रचार' में अंतर नहीं करते। बल्कि होता यह है कि 'न्यूज' के नाम पर 'प्रचार' का आनंद लेते हैं। अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में भी यही हुआ। 'खबर' कम और 'प्रौपेगैण्डा' ज्यादा संप्रेषित हुआ। प्रचार ने 'प्रामाणिक' और ' नकली' का भेद खत्म कर दिया। उसकी जगह 'प्रामाणिक नकली' (ऑथेंटिक फेक) ने ले ली।
उम्ब्रेतो इको के शब्दों को उधार लेकर कहें तो ओबामा 'प्रामाणिक नकली' है। वह अश्वेत राजनीति और अश्वेत सामाजिकता का कभी हिस्सा नहीं रहा। ओबामा ने अश्वेतों की कोई भी समस्या नहीं उठायी। अश्वेतों की दुर्दशापूर्ण अवस्था उसके प्रचार अभियान का हिस्सा नहीं थी। 'सामान्यबोध' और 'पापुलिज्म' के वैचारिक तानेबाने में बुनकर अपनी बातें रखीं। 'सामान्यबोध' और 'पापुलिज्म' के फ्रेम में रखकर जब भी प्रचार किया जाता है तो वह अतीत को भुला देता है। इसका लक्ष्य होता है 'अतीत को भूलो ,आगे की ओर देखो।' सारे संकट के समाधान और जटिलताओं को भविष्य के हवाले कर देता है। 'सामान्यबोध' और 'पापुलिज्म' को नीति की तुलना में नया,युवा और बड़बोलापन अपील करता है।
महायथार्थ के नियमों के अनुसार ओबामा ने वह कहा जो उसके व्यवहार का हिस्सा नहीं था। अपने असली विचारों को छिपाया और नकली विचारों का प्रदर्शन किया। ओबामा इस अर्थ में 'प्रामाणिक नकली'है क्योंकि उसके विचारों का अमरीका के सामाजिक यथार्थ से मेल नहीं है। जो इमेज पेश की उसका वास्तव के साथ मेल ही नहीं था। संवाद नहीं था।
महायथार्थ का अलभ्य भविष्य से संबंध है। इसे कभी प्राप्त नहीं कर सकते। प्रभाव खत्म होते ही जहां के तहां नजर आते है। यही सब कुछ ओबामा के साथ हुआ। पुराने लोग और पुरानी नीतियां बनी रहीं। महायथार्थ के कारण ओबामा ने सामाजिक वास्तविकता के साथ दूरी बनाने में सफलता हासिल कर ली। प्रौपेगैण्डा ने वास्तविक अस्मिता को छिपाया और फैंटेसीमय इमेज बनायी । उल्लेखनीय है फैंटेसी के बिना 'परिवर्तन' को स्वीकृति नहीं मिलती।
फैंटेसी में परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। फैंटेसी आनंद और मनोरंजन देती है किंतु 'परिवर्तन' नहीं करती। यही वह बिंदु है जहां पर ओबामा की त्रासदी शुरू होती है। ओबामा जिस क्षण जीते उसी क्षण अपनी त्रासदी का आख्यान आरंभ कर चुके थे, जिस क्षण जीते उसी क्षण अपनी इमेज का विलोम बना रहे थे। जिस क्षण बोल रहे थे कि ' हम बदल सकते हैं।' अप्रत्यक्षत: यही कह रहे थे कुछ भी बदलने वाला नहीं है। फैंटेसीमय इमेज यथास्थिति बनाए रखते हैं ,राजनीति में प्रतिगामिता को जन्म देते हैं।
ओबामा की फैंटेसी उम्मीद के दायरे बाहर न चली जाए इसके प्रयास शुरू हो गए हैं किंतु ये ज्यादा दूर तक ओबामा की मदद नहीं कर पाएंगे। ओबामा के पीछे जिस तरह का मीडिया उन्माद सक्रिय था उसकी तुलना चार साल पहले जॉर्ज बुश के लिए तैयार किए गए फैण्टेसीमय वातावरण से की जा सकती है। यथार्थ की कठोर वास्तविकता ने बुश की समूची फैण्टेसी को खत्म कर दिया और अंत में स्थिति यह है कि अपने आखिरी इराक दौरे के समय एक प्रेस कॉफ्रेस में एक पत्रकार ने जब बुश के ऊपर प्रतिवाद स्वरूप जूता फेंककर मारा तो सारी दुनिया में जूते फेंकने वाले के पक्ष में इराक में हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया। अमरीकी मीडिया में भी इस घटना का प्रभावशाली रूपायन हुआ और अमरीकी राजनीतिक सर्किल में बुश के पक्ष में कोई बोलने के लिए तैयार नहीं हुआ।
एक पत्रकार के जूते के सामने बुश बौने लग रहे थे,जूते की मार से बचने के लिए सिर झुका रहे थे। डिजिटल फोटो में इराकी जूता ऊपर था जॉर्ज बुश का सिर नीचे था। यह बुश की प्रतीकात्मक पराजय थी। महायथार्थ के फैंटेसीमय महाख्यान का शानदार ग्लोबल अंत था। अब बुश महान् नहीं थे । बुश सद्दाम से जीत गए किंतु इराकी जूते से हार गए। जूता सच इराकी सच है। यह उन तमाम तर्कों का अंत है जो बुश को वैध बनाते हैं,महान् बनाते हैं। यह उस सेंसरशिप का भी अंत है जो अमरीकी मीडिया में इराक को लेकर जारी है। संदेश यह है कि इराकी जूता सच है अमरीकी प्रशासन गलत है। इराक को लेकर अमरीकी नीतियां गलत हैं। इराक विजय से आरंभ हुआ बुश आख्यान इराकी जूते के आगमन से खत्म हुआ। एक जूता अमरीका की विशाल सेना पर भारी पड़ा, यह साधारण इराकी का जूता था और इसे भी ओबामा की जीत के बाद ही पड़ना था। तात्पर्य यह कि मीडिया निर्मित फैंटेसी नकली होती है, उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। एक स्थिति के बाद यह गायब हो जाती है।
महायथार्थ की धुरी है विवरण,ब्यौरे और सुनियोजित फैंटेसीमय प्रस्तुति । इस तरह की प्रस्तुतियां संवाद नहीं करती बल्कि इकतरफा प्रचार चलता है। दर्शक के पास ग्रहण करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। वह इसमें हस्तक्षेप नहीं कर पाता। महायथार्थ की आंतरिक संरचना में नागरिक की आकांक्षाओं को समाहित कर लिया जाता है। आकांक्षाओं को समाहित कर लेने के कारण नागरिक को बोलने,हस्तक्षेप, प्रतिवाद और सवाल पूछने की भी जरूरत नहीं होती।नागरिक को निष्क्रिय बनाकर महायथार्थ के फ्रेम में प्रचार चलता है । चर्चा का नकली वातावरण बनता है । सामाजिक जीवन में बहस एकसिरे से गायब हो जाती है।
महायथार्थ नागरिक स्वायत्तता का अस्वीकार है। नागरिक कठपुतली होता है। ओबामा के प्रचार में मुद्दों पर कम शैली,सामाजिक स्तर पर वोटों की जोड़तोड़ ,भाषणकला,वोट जुगाड़ करने की कला आदि पर केन्द्रित किया। राष्ट्रपति चुनाव में मीडिया तकनीक के विभिन्ना रूपों का प्रचार में व्यापक इस्तेमाल किया गया। खासकर इंटरनेट, टेलीविजन और ईफोन आदि कस व्यापक इस्तेमाल किया गया। इससे एक तथ्य साफ उभरा है कि तकनीक का अमरीकी जीवन पर नियंत्रण है। तकनीक जैसा चाहती है वैसा ही अमरीकी नागरिक सोचते हैं। तकनीक के कारण यह विभ्रम पैदा हुआ कि ओबामा और मेककेन में अंतर है, रिपब्लिकन और डेमोक्रेट में अंतर है। इस अंतर को जनता के गले उतारने में संचार तकनीक की बड़ी भूमिका है। मीडिया ने यह इमेज बनायी कि बुश प्रशासन ने जनता के साथ दगा की, जनता को कष्टों में डाला।
उल्लेखनीय है यही मीडिया चार साल पहले कह रहा था बुश सबसे भरोसे का नेता है। अमरीकी जनता का हितैषी है। आज वही मीडिया भिन्ना स्वर में प्रचार कर रहा है। सवाल यह है चार साल पहले वाला रिपब्लिकन दल और आज के रिपब्लिकन दल में बुनियादी तौर पर क्या अंतर है ? सच यह है कि मीडिया दर्शक के यथार्थबोध का नियंत्रण कर रहा है।
मीडिया जिस भाषा ,व्याकरण में बोलता है वह सरकारी तंत्र की देन है। मीडिया कभी भी सरकारी शब्दावली और अवधारणाओं के बाहर जाकर कोई चीज पेश नहीं करता। हम जिस भाषा के अभ्यस्त हैं वह जनता की भाषा नहीं है बल्कि सरकार की भाषा है। जब सारे विमर्श सरकारी शब्दावली में चलेंगे तो यह संभव नहीं है कि इससे भिन्ना भाषा में आप सोचें। जब सरकारी भाषा में सोचेंगे तो सरकारी परिप्रेक्ष्य के दायरे के बाहर जाना संभव नहीं होगा। मीडिया के द्वारा जो भी राजनीतिक विमर्श चलता है वह जनता की भाषा में नहीं होता। जनता की अवधारणाओं में नहीं होता।
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