आज का दौर समस्या केन्द्रित अध्ययन का दौर है। यह परीक्षा का दौर नहीं है। आज हमारे बच्चों के पास भी आलोचनात्मक विवेक है। यह ऐसा दौर है जिसे मीडिया के संदर्भ के सहारे पढ़ा नहीं जा सकता। इसे वेब के सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए।वेब के जरिए लाखों-करोडों चैनलों ने हमला बोला हुआ है। यह वेब का हमला है। इसकी छानबीन संभव नहीं है। इसकी छानबीन का कोई तरीका भी नहीं है। यह पूर्णत: अराजक अवस्था है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लेखन ,रीडिंग और वाचन की तुलना में टाइपिंग अस्वाभाविक और घातक गतिविधि है।इसे कम्प्यूटर क्रांति लेकर आई है। लिखने से क्या लाभ होता है यह सब जानते हैं।वाचन से पाठ की ओर संक्रमण मानवीय प्रगति का चरमोत्कर्ष है।यह अभिजात्य संप्रसार से व्यक्तिगत सृजन और स्वायत्तता (इंटरनेट) का विकास है। इतने व्यापक परिवर्तनों के बावजूद साक्षर, शिक्षित और निरक्षर के बीच में लम्बी खाई बनी हुई है।सवाल यह है वक्तृता से पाठ की ओर और पाठ से वक्तृता की ओर कनवर्जन तकनीकी के कारण कमजोर समाजों में ,जहां निरक्षरता है,और समृध्द समाजों में जहां साक्षरता है,इन दोनों के बीच अंतराल घटा है। असल में यह सब कुछ निर्भर करता है तकनीकी की कीमत पर ।समुचित मशीन और साफ्ॅटवेयर पर। इस क्षेत्र में लगी कीमत की शिक्षण,लेखन, और रीडिंग की कीमत से तुलना करें तो पाएंगे कि तकनीकी पर हमने बहुत कम खर्चा किया है। इसमें भी शिक्षण पर हम ज्यादा खर्च करते रहे हैं। व्यक्ति भी सीखने पर बहुत ज्यादा खर्चा करता रहा है।किंतु भविष्य में इतना खर्चा करना असंभव होगा।आज समाज को शिक्षण की तुलना में तकनीकी उपकरण देना ज्यादा सस्ता है। यह व्यक्तिगत खर्च के लिहाज से भी सस्ता है। हमारे शिक्षण की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उम्र का बड़ा हिस्सा कौशल हासिल करनेमें ही खर्च हो जाता है।यदि ये बातें सच हैं तो नई कम्प्यूटरजनित सूचना तकनीकी गरीब और अमीर के बीच की खाई को कम करेगी। यह संभव है कि उससे नए किस्म का सांस्कृतिक अंतराल पैदा हो जाए।इसके दो आयाम हैं समृध्द समाजों में लेखन जारी रहेगा। उसकी शिक्षा जारी रहेगी।यह तब भी जारी रहेगा जब सामान्य लोग इसका इस्तेमाल करना बंद कर देंगे।वैसे ही जैसे लैटिन या संस्कृत की पढ़ाई आज भी जारी है।इस तरह के शिक्षण का ज्ञानात्मक मूल्य अस्पष्ट है।अभिजन में इसकी शिक्षा को लेकर अंतर रहेगा।यदि आप लैटिन जानते हैं तो पश्चिमी समाजों में आप अभिजन कहलाते हैं।यदि संस्कृत जानते हैं तो पंडित कहलाते हैं।
इसी तरह गरीब देशों में सिर्फ वाचन से पाठ की ओर ले जाने वाली तकनीकी का ही प्रयोग नहीं होगा। अपितु अन्य रूपों का भी प्रयोग हो ,इसी तरह समृध्द देशों में पाठ से वाचन की ओर ले जाने वाले तकनीकी रूपों का ज्यादा प्रयोग होगा। वे लेखन ही नहीं रीडिंग के क्षेत्र को भी पार कर जाएंगे। यह आर्थिक विकास के लिहाज से सस्ता पड़ेगा।इस प्रक्रिया के कारण हुनरमंद लोगों और पाठ एकत्रित करने वाले लोगों के बीच अंतराल पैदा होगा। अथवा हुनरमंद लोगों और अन्य के बीच अंतराल पैदा होगा। परंपरागत साक्षरता के द्वारा दीर्घकालिक और अल्पकालिक स्मृति के संरक्षण पर जोर दिया जाता है। इन दोनों ही स्मृति रूपों को , लेखन से वाचन और वाचन से पाठ की ओर जो कनवर्जन चल रहा है, उसके जरिए संरक्षित रखने की कोशिशें हो रही हैं।लेखन का वाचन और वाचन का पाठ में कनवर्जन इसी तरह रीडिंग का पाठ और पाठ का वाचन में कनवर्जन सिर्फ दीर्घकालिक स्मृति को संरक्षित रखेगा।साक्षरता की अल्पकालिक स्मृति सिर्फ व्यापार में जिंदा रहेगी।किंतु अन्य बहुत सारी गतिविधियों में यह जिंदा नहीं रहेगी।
इन दिनों यह धारणा प्रचलन में है कि अच्छा लेखन वही है जिसका वाचन के साथ फर्क न किया जा सके। हिन्दी के साहित्यकार आए दिन बोलचाल की भाषा में साहित्य सृजन पर जोर देते हैं। समस्या यह है कि जब एक बार स्वचालित वाचन को अच्छे लेखन के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा तो इसमें यह भाव भी निहित है कि स्वचालित वाचन विश्वसनीय है।उसे पढ़ सकते हैं।किंतु इस संदर्भ में ध्यान रहे कि पढ़ते धीमी गति से हैं और बोलते तेज गति से हैं।अथवा जहां पर हम धीमी गति से बोलते या सुनते हैं वहां पर भी धीमी गति से पढ़ते हैं। असल में हमारा दिमाग बोलने और सुनने के लिए तैयार हुआ था न कि पढ़ने और लिखने के लिए। भाषा की तुलना में हमारे लेखन की व्यवस्था ज्यादा जटिल है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि विपरीत है। भाषा के साथ आज भी भाषाशास्त्री संघर्ष कर रहे हैं। भाषा का निश्चित व्याकरण अभी तक नहीं बन पाया है। लेखन और वाचन के बीच आज भी संघर्ष चल रहा है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि ऑडियो रिकॉर्डिंग आने के पहले वक्तृता का कोई स्थायी प्रमाण नहीं था।सिर्फ सुनने या बोलने वाले के ऊपर कुछ देर तक असर रहता था। इसके विपरीत लेखन एक तरह से करो और मरो की तरह है। करो और फिर करो। इसके गर्भ से जो सामग्री निकलती है वह रूपान्तरित होकर सामने आती है। इसके प्रत्येक रूप को संरक्षित किया जा सकता है।लेखन का मर्म यह है कि उसे संरक्षित कर सकते हैं। मेनीपुलेट कर सकते हैं। लेखक अभ्यास, भूल और फीडवैक के जरिए सीखता है। वह सिर्फ जानने मात्र से नहीं सीखता।इसके विपरीत जब एकबार बोलने का हुनर आ जाता है तो बोलना जान जाते हैं।बोलने में जानना ही महत्वपूर्ण है। आज डिकटोफोन ने यह संभव कर दिया है कि आप अपना भाषण लिखित रूप में पढ़ सकते हैं।उसे संशोधित कर सकते हैं। कम्प्यूटर में कनवर्जन के कारण आप अपने भाषण को सुन सकते हैं, देख सकते हैं,पढ़ सकते हैं।जरूरत इस बात की है कि आपकी कम्प्यूटर पर मास्टरी हो।यह एक तरह से यूजर को मास्टर बनाने वाली बात है। सभ्यता के इतिहास में यूजर मास्टर पहलीबार बना है। आज लेखन उच्च कोटि का हुनर है। भाषण उच्चकोटि का हुनर नहीं रहा। आज इन दोनों के ही प्रशिक्षण पर जोर दिया जा रहा है। किंतु तकनीकी विकास के क्रम में एक अन्तर्विरोध पैदा हुआ है।यह संभव है बच्चों को लेखन का अभ्यास ही न कराया जाए। तब शिक्षण का क्या होगा ? आर्थिक प्रयासों का क्या होगा ? क्या इसका परिणाम यह होगा कि बच्चे सिर्फ पढ़ेंगे ? अथवा शिक्षण में लेखन और रीडिंग दोनों पर जोर होगा ? यह भी संभावना है कि खिचड़ी भाषा आ जाए।खिचड़ी भाषा और ध्वनियों को ही पढ़ाया जाएगा। उसी के जरिए सिखाया जाएगा। ऐसे में हम पाठ के मेनीपुलेशन से दो-चार होंगे।यह भी संभावना व्यक्त की जा रही है कि लेखन का प्रशिक्षण पुराना काम हो जाएगा। इसी तरह वक्तृता में परिवर्तन आने शुरू हो चुके हैं। वर्चुअल लेखन की तरह वर्चुअल भाषण के युग का श्रीगणेश हो गया है। वर्चुअल भाषण के कारण गद्य कला के लोप की संभावनाएं बढ़ गई हैं। हमने लेखन के कारण निबंध एवं गद्य के विभिन्न रूपों को जन्म दिया।उसे लिखा।पढ़ा।किंतु वर्चुअल वाचन के युग में यह संभव नहीं होगा। आज हालात बदल गए हैं नयी तकनीकी सांस्कृतिक संचय कर रही है। सूचना की खान तैयार कर रही है।ऐसे में सभ्यता की बुनियादी प्रकृति में भी परिवर्तन आया है। हम लेखन से 'स्काई लेखन' के युग में पहुँच गए हैं।यह तीव्रगति का लेखन है।इसमें मेनीपुलेशन की अनंत संभावनाएं हैं।यह ऑन लाइन लेखन है।यह डिजिटल पाठ है।यह वाचिक सामग्री को तेजी से रूपान्तरित कर रहा है। इसने लेखन के क्षेत्र में स्पीड, संभावना और अंतर-संपर्क को बुनियादी तत्व बना दिया है। लेखन के हुनर के अनेक तत्वों को कम्प्यूटर ने आत्मसात् कर लिया है।स्मृति के बहुत सारे लक्षण अपने अंदर समाहित कर लिए हैं।इसने हमें 'फिजिकल पुस्तक' यानी 'पी-बुक' के युग से निकालकर 'वर्चुअल बुक' या 'वी बुक' के दौर में फेंक दिया है।यह वर्चुअल वर्ल्ड है।इसकी समस्याएं अलग हैं।'वी बुक' में वह सब है जो 'पी-बुक' में था।इसके अलावा इसकी प्रतियां सहज ही बगैर किसी खास लागत के तैयार हो सकती हैं।'वी बुक ' को आप डाउनलोड कर सकते हैं।इसके पाठक सब जगह हैं।'वी बुक' के कारण लेखक-प्रकाशक संबंधों में बदलाव आया है। रॉयल्टी,प्रकाशन रायल्टी की अवधि, आदि नई समस्याएं सामने आ गई हैं।प्रकाशक को मुद्रित पुस्तक छापने का हक है।डिजिटल पुस्तक प्रकाशित करने का हक नहीं है। डिजिटल प्रकाशन की समस्याओं पर हमारे यहां अभी सोचना शुरू नहीं हुआ।िडिजिटल युग में लेखक के अधिकारों के बारे में हमें सोचना होगा। 'वी बुक' के कारण पुस्तकालय की भी प्रकृति बदलेगी।अभी हमारे पुस्तकालयों में पुस्तक होती है।किंतु 'वी बुक' के कारण इसकी प्रतिलिपि आसानी से हासिल कर सकते हैं।इसकी कीमत भी कम आएगी। असल में यह 'प्रिण्टिंग रीडिंग मोड' से 'राइटिंग रीडिंग मोड ' में रूपान्तरण है। पुस्तक का जन्म वस्तु के स्वामित्व के दौर में हुआ। जबकि 'वी बुक' का युग 'रेंटिंग' या भाड़े का युग है। 'वी बुक ' के दौर में यह संभव है कि 'वी बुक' खरीदकर पढ़ो या उसका पाठ खरीदकर पढ़ो ,या किराए पर पढ़ो।भविष्य में क्या होगा कोई कुछ नहीं जानता।मजेदार बात यह है कि इस परिवर्तन की प्रक्रिया में जनमाध्यमों के पास क्या बचा रह जाएगा!
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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