क्या हाइपर टेक्स्ट , तार्किक संरचना का विकल्प है। क्या हाइपर टेक्स्ट सिर्फ उद्धाटित करने का उपकरण है ? क्या वह विचार विमर्श अथवा प्रमाण को बदल सकता है ? क्या हाइपर टेक्स्ट गंभीर तर्क प्रणाली के लिए उपयुक्त है ? दर्शन की गैर - रेखीयता की लंबी परंपरा रही है। इसके तर्क की अनेक प्रणालियां रही हैं। विभिन्न संचनाएं रही हैं। अत: हाइपर टेक्स्ट को सिर्फ 'सुपर इनसाइक्लोपीडिया' ही नहीं समझना चाहिए। उसमें तर्क को बदलने की गुंजाइश नहीं होती। जबकि हाइपर टेक्स्ट में तर्क परिवर्तन की पर्याप्त संभावनाएं हैं। साथ ही इसे उत्तर आधुनिकतावादी 'पाठ का अंत ' इस तरह के सरलीकृत मुहावरे के रूप में भी नहीं देखना चाहिए। हाइपर टेक्स्ट की चारित्रिक विशेषता है कि वह अन्य किस्म के पाठ से भिन्न है। वह लिंक के कनेक्शन पर आधारित है।इसके कारण उसका सूचना आधार विकासशील है। उसमें निरंतर वृध्दि होती रहती है।वह यूजर के चारों ओर माहौल बनाए रखता है। वेब में हाइपर टेक्स्ट की खोज का काम बेहद मुश्किल है।इसमें खोने की संभावनाएं हैं। हाइपर टेक्स्ट के प्रसिध्द आलोचक जॉर्ज पी.लनदोव ने ''हाइपर टेक्स्ट 2.0 '' नामक कृति में लिखा कि यूजर के खो जाने का संबंध या उसके भ्रमित हो जाने की स्थिति का संबंध घूमंतु प्रवृत्ति से जुड़ा है। इसका सूचना तकनीक की डिजायन से संबंध है। यह लेखक के कम ध्यान देने की समस्या है। यूजर के कम अनुभव की समस्या भी है। हाइपर टेक्स्ट में नोड में अनेक लिंक होते हैं। खोज की समस्याएं मूलत: यूजर के आंतरिक विश्लेषण , टेक्स्चुअल विश्लेषण, संरचना के विश्लेषण से जुड़ी हैं। पाठक की सुविधा के मेप्स और नियंत्रित दिशा निर्देश के संकेत स्क्रीन पर देखे जा सकते हैं।
सन् 2000 में हाइपर टेक्स्ट लेखकों की एक वर्कशॉप हुई जिसमें 30 लेखकों ने हिस्सा लिया।इन लोगों ने इस सवाल पर विचार किया कि नयी बदली हुई परिस्थितियों में साहित्य सैध्दान्तिकी का कैसे इस्तेमाल करें। ज्यादातर लेखक अभी भी 18वीं और उन्नीसवीं शताब्दी के उध्दरणों का प्रयोग करते हैं।जबकि परिस्थितियां एकदम बदल गई हैं। इन लेखकों का मानना था कि हमें अपने नजरिए को वर्ल्ड वाइड वेब से जोडना होगा। हमें काल्पनिक (इमेजरी) हाइपर टेक्स्ट के वर्णन से बचना होगा। इस वर्कशॉप में मूलत: निम्न समस्याएं रेखांकित की गईं। 1. हाइपर टेक्स्ट में रेखीय ,बहुरेखीय, गैर रेखीयता की समस्याएं आ रही हैं। 2. हाइपर टेक्स्ट ,मुद्रित पाठ से भिन्न होता है।उसकी संरचना भिन्न होती है। 3. उसका समय ,क्रम और संगठन पाठ से भिन्न होता है। 4. उसमें लिंक्स रहते हैं। 5.वह डिजिटल होता है। 6. उसमें आरंभ , अंत होता है,साथ ही वार्डर नहीं होता। 7. वह गतिशील होता है।उसमें समय और प्रक्रिया दोनों शामिल हैं। असल में हाइपर टेक्स्ट को दो दृष्टियों -लेखक और पाठक - से देखा जा सकता है। सभी लेखक यह मानते थे कि यह एक साहित्यिक विधा है। वह सभी विधाओं की संपत्ति है। डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू को समग्रता में संपत्ति के रूप में देखना चाहिए। वह मीडियम है। वह पाठ का पाठ है। वह एक मानसिक अवस्था है। प्रसिध्द आलोचक उम्ब्रेतो इको ने लिखा है कि इंटरनेट में छलनी नहीं है। पाठक ऑन लाइन उपलब्ध सामग्री में से गुणवत्तापरक सामग्री और अन्य सामग्री में अंतर नहीं कर पाते। इको की यह धारणा एक हद तक सच है। किंतु इससे भी बड़ी बात यह है कि इंटरनेट छलनी को अपदस्थ कर देता है। चयन में इस्तेमाल होने वाली सेंसरशिप को खत्म कर देता है। वह आधिकारिक तौर पर चीजों की छानबीन नहीं करता। इंटरनेट यह मानकर चलता है कि शिक्षित समाज में छलनी की जरूरत नहीं होती। सामान्य तौर पर लोग इतने जागरूक होते हैं कि वे गुणवत्तामूलक और अन्य सामग्री में फर्क कर लेते हैं। छलनी की जरूरत पूर्व शिक्षित संस्कृति के युग में होती है। आज हम मध्यकाल से आगे आ चुके हैं।शिक्षित समाज में अबाधित सूचना प्रसार सामान्य और अनिवार्य जरूरत है। इसमें कुछ खतरे भी हैं। किंतु यदि हम स्व-प्रशासन की दिशा में आगे जाएंगे तो जोखिम तो उठाना होगा। इसके लाभ बहुत ज्यादा हैं। यहीं पर एकपुराना सवाल पैदा होता है कि सेंसरशिप को सेंसर कौन करेगा ? उल्लेखनीय है कि प्रत्येक यूजर अपने तरीके से छानता है।चयन करता है।अत: शुरू से छानकर देना सही नहीं होगा।हम यह कैसे तय करेंगे कि पाठक क्या चाहता है। पाठक क्या चाहता है इसे पाठक ही तय करेगा अन्य कोई तय नहीं कर सकता।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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