वर्चुअल रियलिटी के बिना चीन को समझा नहीं जा सकता। चीन का अत्याधुनिक विकास ग्लोबल पूंजीवाद के वर्चुअल पैराडाइम की उपज है। वर्चुअल रियलिटी की दुनिया विराट,विस्तार और शून्य पर टिकी है। इसमें प्रत्येक चीज विराट है,चरम है,अविश्वसनीय है और अंतर्वस्तुरहित है। शेष में सब शून्य हो जाता है। ग्लोबल विराटता खोखलेपन अथवा शून्य है। अमरीका की विराट विकसित व्यवस्था का सामाजिक- राजनीतिक शून्य जगजाहिर है। यही स्थिति चीन की है। विराटता में जब भी किसी चीज का रूपान्तरण होगा तो उससे शून्य ही निकलेगा। जो विराट है वह शून्य है। समाजवादी सोवियत संघ की विराटता का शून्य में रूपान्तरण आदर्श उदाहरण है।
चीन की समाजवादी व्यवस्था में विगत तीस पैंतीस सालों में जो परिवर्तन आए हैं। उनका पश्चिम बंगाल के वामपंथी आन्दोलन के द्वारा निर्मित सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक लक्षणों और एटीट्यूट के साथ गहरा संबंध है। पश्चिम बंगाल में बहुत कुछ ऐसा विकसित हुआ है जो सबसे पहले चीन में आया और वहां जनजीवन में उसका प्रयोग किया गया , तदनन्तर पश्चिम बंगाल में उसका संरचनात्मक तौर पर विकास किया गया। सामाजिक व्यवहार में विकास हुआ। इस नजरिए से चीन के विकास का भारत के लिए खास महत्व है। प्रासंगिकता है। भारत में पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे का पैंतीस सालों का शासन और उसकी निरंतरता अभी भी रहस्य है। लोग आश्चर्य के साथ पूछते हैं इतने लंबे समय तक टिके रहने के क्या कारण हैं ? चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की कार्य प्रणाली और व्यवहार के अनेक लक्षण और फिनोमिना पश्चिम बंगाल में सहज ही देखे जा सकते हैं।
पश्चिम बंगाल में चीन जैसे फिनोमिना हैं -1. कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ताा सर्वोपरि है,अन्य सभी संसदीय सत्ताा संरचनाएं पार्टी के बिना अपाहिज। 2. शिक्षा ,सामाजिक और राजनीतिक जीवन में बौध्दिकता का क्षय, बुध्दिजीवियों के प्रति घृणा और संशयवाद, 3.सामाजिक जीवन में जिस्म की तिजारत में बेतहाशा वृध्दि, वेश्यावृत्तिा की व्यापकता , 4. शिक्षा जगत में औसत का वर्चस्व, 5. गरीबों के बीच में भूमि वितरण और जबरिया भूमि हथियाने की कोशिशें, 6.पर्यावरण की पूर्ण उपेक्षा पर्यावरण क्षय , 7. आम जीवन में निर्भीक स्पष्टवादिता का अभाव , 8. असहमत व्यक्ति की पदावनति अथवा घनघोर उपेक्षा, 9.बांग्ला जातीय उन्माद और बांग्ला स्थानीयता का वर्चस्व।
वर्चुअल युग नकल की नकल का युग है। इसमें अधिकारों की दुनिया समृध्द नहीं होती। बल्कि अधिकारहीनता बढ़ती है। वर्चुअल में पाना दुर्लभ चीज है,वर्चुअल का अर्थ है खोना,दूर होना,अलगाव में रहना, अधिकार हैं किंतु अधिकारों पर उपग्रह निगरानी ,कम्प्यूटर की निगरानी और पुलिस निगरानी। सैटेलाइट के जरिए महाकम्प्यूटर में सब कुछ दर्ज हो रहा है। जांच और निगरानी हो रही है। व्यक्ति की निजता का जितना नाटक आज है वैसा नाटक पहले कभी नहीं था। आज प्राइवेसी है निगरानी के साथ। अब यथार्थ कम और यथार्थ के तमाशे ज्यादा हैं। इसमें अंतर्वस्तु पर कम और तमाशे पर ज्यादा जोर है।
आज आप कोई भी गंभीर से गंभीर सवाल उठाइए आपको अंतत: तमाशे की शरण में जाना पड़ेगा। तमाशा आज के युग का सबसे बड़ा फिनोमिना है। तमाशे को देख सकते हैं,मजा ले सकते हैं। हस्तक्षेप नहीं कर सकते। शिरकत नहीं कर सकते। तमाशा तो सिर्फ नजारे का आनंद है। आंखों का आनंद है। इससे मन को शांति नहीं मिलती,ऊर्जा नहीं मिलती। इसे आप जितना देखते हैं उतना ही थकते हैं। तमाशे का काम है थकाना और सुलाना। रियलिटी टीवी शो से लेकर टीवी समाचारों तक नजारे के दृश्य छाए हुए हैं। तमाशे का असर नहीं होता। तमाशबीन के पास आनंद के अलावा कुछ भी नहीं बचता इस अर्थ में वर्चुअल युग परम मनोविनोद का युग है। चरम छद्म का युग है। कृत्रिम का युग है। कपोल कल्पनाओं का युग है। इसे सत्य की पराजय अथवा सत्य के लोप के युग के रूप में भी याद किया जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में यदि हाल ही में तिब्बत की राजधानी लासा में 14 मार्च 2008 को हुए हिंसाचार और उसके बाद ओलम्पिक मशाल के खिलाफ तिब्बतियों के प्रतिवाद को यदि देखें तो वर्चुअल और गंभीर तथ्य आएंगे।
तिब्बत को लेकर तकरीबन डेढ़ माह तक (10 मार्च 2008से 30 अप्रैल2008) तक चैनलों से रह -रहकर टीवी बाइट्स की वर्षा होती रही है। कभी लासा,कभी लंदन,कभी पेरिस,कभी वाशिंगटन और कभी बर्मा और कभी दिल्ली से संतों,महंत,बुध्दिजीवी,राजनेता,फिल्म अभिनेता,राजनेताओं के वर्चुअल प्रतिवाद और बयान प्रसारित होते रहे हैं। ये तिब्बत के आस्थावान लोगों के बयान हैं। रटे-रटाए तोतों के बयान हैं। वर्चुअल में तोते सुंदर लगते हैं। स्टीरियोटाईप बयान सुंदर लगते हैं। जमघट सुंदर लगता है। नारे और बैनर सुंदर लगते हैं, भीड़ मनोहारी लगती है। सब कुछ मेले जैसा लगता है। वर्चुअल युग में जुलूसों में भाग लेने वाले विदूषक लगते हैं।
वर्चुअल में प्रतिवाद का अवमूल्यन हो जाता है। अब प्रतिवाद अपना विलोम साथ ही साथ बनाते हैं। जितना बड़ा प्रतिवाद उतना ही बड़ा और व्यापक अवमूल्यन। शांति प्रतिवाद जुलूसों और जलसों का अवमूल्यन हम देख चुके हैं। प्रतिवाद अर्थहीन हो जाते हैं। इस अर्थ में पश्चिम बंगाल पूरी तरह वर्चुअल हो चुका है। आप किसी भी दल के हों, किसी भी मुद्दे पर प्रतिवाद करें, उसका कोई असर नहीं होता ,सब कुछ रिचुअल और रूटिन नजारा दिखाई देता है। मीडिया खासकर टीवी चैनलों की दिलचस्पी घटना में कम घटना के नजारे और स्वांग में ज्यादा होती है। मीडिया के द्वारा घटना की सूचना कम स्वांग का आनंद ज्यादा मिलता है। नजारे में हावभाव,एक्शन और नाटक लुभाते हैं। यही नजारे की अंतर्वस्तु हैं। वर्चुअल सत्य की मीडिया पूंजी हैं नजारे,हावभाव और नाटकीय एक्शन । वर्चुअल में सब कुछ नियोजित है कुछ भी स्वर्त:स्फूत्ता नहीं है। सुनियोजन के बिना वर्चुअल निर्मित नहीं होता। प्रस्तुति के पीछे संप्रेषक की मंशा निर्णायक होती है। यहां संप्रेषक मीडियम है।
टीवी चैनल नजारे के प्रसारण में सुचिंतित नियोजन को छिपाते हैं और स्वर्त:स्फूत्ताता को उभारते हैं। किंतु आयरनी यह है कि वर्चुअल में स्वर्त:स्फूत्ताता नहीं होती। वर्चुअल की स्वर्त:स्फूत्ताता नकली होती है। नकली में चमक होती है किंतु प्रभावित करने की क्षमता नहीं होती। नकली आकर्षक और एब्सर्ड होता है। वर्चुअल में प्रतिवाद का सम्प्रेषण अर्थहीनता का संचार है। वर्चुअल स्वाभाविक नहीं सुनियोजित होता है। वहां यथार्थ और आख्यान नहीं बाइट्स होते हैं।
मौजूदा दौर में टीवी बाइट्स ही सर्वस्व है। आप ंजिंदा हैं या मुर्दा हैं ? स्वस्थ हैं या अस्वस्थ हैं ? तरक्की कर रहे हैं या पिछड़ रहे हैं ? आपके देश में मानवाधिकार हैं या नहीं ? सारे सवालों के फैसले टीवी बाइट्स में हो रहे हैं। वास्तव जीवन की बजाय प्रौपेगैण्डा के जरिए मूल्य निर्णय होता है। प्रत्येक चीज का एक ही मूल्य है प्रचार मूल्य। प्रचार मूल्य के सामने बाकी मूल्य धराशायी हैं। मूल्यों की निरर्थकता का ऐसा महाख्यान पहले कभी नहीं देखा गया।
वर्चुअल के कारण तिब्बत की समस्या का चरित्र ही बदल गया है। आज हमारे पास तिब्बत के बारे में राजनीतिक ,वास्तविक सूचनाएं कम और वर्चुअल सूचनाएं ज्यादा हैं। वर्चुअल सूचनाएं प्राणहीन होती हैं। वर्चुअल के जरिए सत्य का रूपान्तरण संभव नहीं है। यथार्थ का संप्रेषण और सत्य का चित्रण भी संभव नहीं है। वर्चुअल में वास्तव का कृत्रिम में रूपान्तरण अनिवार्य है। वर्चुअल सिर्फ स्वयं को संतोष देता है। वर्चुअल प्रचार शोरगुल का प्रचार है। इसमें प्रचार कम और प्रचार का बहम ज्यादा है। यह ऐसा प्रचार है जिसके सत्य पर अनेक पर्दे पड़े हैं। पर्दों को हटाने में समर्थ हैं तो वर्चुअल प्रचार को उद्धाटित कर सकते हैं, उसके मर्म को समझ सकते हैं। वरना इसमें सत्य पर पर्दा पड़ा रहता है। वर्चुअल में स्थायी तौर सक्रिय और एकजुट करने की क्षमता नहीं है। वर्चुअल के जरिए सामाजिक शक्ति संतुलन नहीं बदल सकते।
आज हम कनवर्जन के युग में हैं। यह ऐसा युग है जिसमें सब कुछ शून्य पर आकर टिक गया है। आप कहीं से भी आरंभ कीजिए किंतु पहुँचेंगे शून्य पर। आप किसी भी अधिकार,मूल्य,संस्कार, आदत की मांग कीजिए वह अंत में शून्य पर ले जाएगी। घूम-फिरकर चीजों का शून्य पर लौटने का अर्थ है खोखली अवधारणा में रूपान्तरण। वर्चुअल सूखी रेतीली नदी है। इसमें सूचनाओं का अंधड़ है। इसका तापमान हमेशा बहुत ज्यादा रहता है। इसमें सूचना का आभास है किंतु कुछ कर नहीं सकते। सूचनाओं के बाहर आपको कुछ भी नजर नहीं आएगा। सूचनाओं का अंधड़ वर्चुअल की शक्ति है। अंधड़ में कुछ भी देख नहीं सकते सिर्फ आंखें बंद करके अंधड़ को महसूस कर सकते हैं। सूचना के अंधड़ ने परवर्ती पूंजीवाद में सबको खोखला बना दिया है। वर्चुअल में मानवाधिकार की खोज,युध्द की निंदा,समाजवाद का गौरवगान,धर्मनिरपेक्षता का वैभव,सामंजस्य का इतिहास, सांस्कृतिक मैत्री, पाखण्ड,,व्यापार की चाल ढाल आदि सभी क्षेत्रों में घूम-फिरकर खोखलेपन पर लौट आते हैं।
वर्चुअल प्रचार विशिष्ट किस्म के निरर्थताबोध को पैदा करता है। आप जिंदगी की बजाय डाटा में उलझे रहते हैं। लगता है कुछ करना चाहिए, प्रतिवाद करना चाहिए,नए मूल्यों की बात करनी चाहिए,नए किस्म का प्रतिवाद करना चाहिए,नए किस्म की किताब लिखनी चाहिए,नए संबंध बनाने चाहिए,नया कानून बनाना चाहिए इत्यादि कुछ भी कीजिए अंत में शून्य पर पहुँचना नियति है इस अर्थ में वर्चुअल सारी चीजों को माया बना रहा है। निरर्थक बना रहा है।
वर्चुअल में पुरानी दार्शनिक परंपरा के माया और ईश्वर को एक ही साथ कबड्डी करते देख सकते हैं। यह मानवीय अभिव्यक्ति का चरम है। चरम स्वयं बोगस होता है। अर्थहीन होता है। प्रभावहीन होता है। अवास्तव होता है। चरम खोखला होता है। वर्चुअल भी खोखला है। क्योंकि यह संचार तकनीक का चरम है। इसकी कोई अंतर्वस्तु नहीं है। खोखलेपन के युग में हर चीज ठंडी होती है। विचार भी ठंडे होते हैं। हाथ-पैर भी ठंडे होते हैं। दिल-दिमाग भी ठंडा रहता है। ठंडे यानी निष्क्रिय । वर्चुअल युग निष्क्रिय स्मृतियों, निष्क्रिय संघर्ष और निष्क्रिय आनंद का युग है। इस युग में हर चीज अपने स्वाभाविक आकार से बड़ी नजर आती है। छोटा सा जुलूस, छोटा सा प्रतिवाद छोटी हिंसा ,छोटा विचार ,क्षुद्र चीजें आदि सब कुछ बड़ी नजर आती हैं। छोटी चीजें अपने आकार से बड़ी नजर आती हैं। जबकि बड़ी चीजों को यह छोटा बनाकर पेश करता है। सब कुछ को अतिरंजना ,विलोम और सुपरफलुअस में डुबो देना इसका प्रधान लक्ष्य है।
चीन और समाजवाद के सामयिक संदर्भ पर विचार करने के लिए वर्चुअल रियलिटी के नजरिए से देखना सही होगा। वर्चुअल के कारण समाजवाद के प्रति दर्शकीय भाव पैदा हुआ, दर्शकीय इच्छाएं पैदा हुईं। समाजवाद का जिस समय पराभव हो रहा था। सारी दुनिया के लोग दर्शक के रूप में देख रहे थे, समाजवाद विरोधी और समाजवाद समर्थक सभी दर्शक थे। सामने न तो कोई गिराने वाला था और न कोई रोकने वाला था। सोवियत संघ से लेकर चीन तक सभी जगह चीजें गिरती गयीं, बदलती गयीं, लोग देखते रहे और अपनी दर्शकीय इच्छाएं व्यक्त करते रहे। दर्शकीय इच्छा का अर्थ है मन में ही एक्शन हो रहे थे। भौतिक तौर पर जो कुछ बदल रहा था वह जितना विशाल था उससे विशाल थे मन के परिवर्तन। मन के परिवर्तन ने समाजवाद को गिरा दिया। समाजवाद को लाने के लिए जितना रक्तपात हुआ था उसकी तुलना एक अंश भी रक्तपात समाजवाद के गिरने पर नहीं हुआ।
समाजवाद का रक्तहीन पतन ,लोगों के बृहत्तार प्रयास के बिना पतन इस बात का संकेत है कि अब चीजें मन में,इच्छा के धरातल पर गिरेंगी, विचार अब भौतिक रूप में कम और मन और इच्छा के धरातल पर ज्यादा जिंदा रहेंगे। समाजवाद एक भौतिक व्यवस्था थी ,सामान्यतौर पर किसी भी भौतिक व्यवस्था के पराभव में खून खराबा होता है। किंतु समाजवाद के संदर्भ में एकदम रक्तपात नहीं हुआ समाजवाद का पतन पूर्णत: अहिंसक था। पूंजीवाद से समाजवाद में रूपान्तरण हिंसक था किंतु समाजवाद से पूंजीवाद में रूपान्तरण अहिंसक था। सोवियत संघ में सत्ताा पतन के समय मामूली सा हंगामा हुआ था। मामूली हंगामे में ही समाजवाद ढह गया। यह वर्चुअल की शक्ति का असर है। चीन में माओ के बाद के व्यापक परिवर्तन और विनाश को वर्चुअल के विराट रूप ने ढंक लिया। मूल बात यह वर्चुअल ने समाजवाद को बगैर हिंसा के पछाड़ दिया। सोवियत संघ से लेकर चीन तक कहीं पर परिवर्तन में हिंसा नजर नहीं आयी। जबकि वास्तव जीवन में व्यापक तबाही मची है। कांगो से लेकर इराक तक वर्चुअल की भूमिका सत्य के उद्धाटन की कम सत्य को दुर्लभ बनाने की ज्यादा है। वर्चुअल ने सत्य और मीडिया के बीच महा-अंतराल पैदा किया है। वर्चुअल को दुर्लभ बनाया है।
वर्चुअल में समाजवाद एकदम विलोम में तब्दील हो जाता है। अब वह सब दिखने लगता है, होने लगता है जिसकी कभी कल्पना नहीं की थी। अब कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भी एक्शन समाजवाद के विचारों से मेल नहीं खाता। कोई एक्शन यथार्थ एक्शन नहीं होता। समाजवाद की प्रासंगिता गायब हो जाती है और हठात् पूंजीवादी की प्रासंगिकता और अपरिहार्यता केन्द्र में आ जाती है। कम्युनिस्टों की सभी किस्म की प्रासंगिक भूमिकाएं नकारात्मक लगने लगती हैं। नकारात्मकता से बचने के चक्कर में कम्युनिस्ट वर्चुअल के सामने समर्पण कर देते हैं। उनके सभी अर्थ लुप्त हो जाते हैं।
विगत सत्तार सालों में जितना समाजवादी साहित्य आया आज वह समाजवादी देशों की सामाजिक अवस्था से कहीं पर भी मेल नहीं खाता। बल्कि समाजवादी मुल्कों को देखकर नहीं लगेगा कि वहां पर कभी समाजवाद भी था। चीन को देखकर भौंचक्का रह जाना और फिर अभिभूत हो जाना। सोवियत संघ का नक्शे से गायब हो जाना। हमें चौंकाता है। यही वर्चुअल की शक्ति है। वर्चुअल हमें भौंचक्का बनाता है। अभिभूत अभिभूत करता है। समर्पण के लिए मजबूर करता है। वर्चुअल के खिलाफ प्रतिवाद नहीं कर सकते वर्चुअल के सामने सिर्फ समर्पण कर सकते हैं। प्रतिवाद सिर्फ वाचिक रह जाता है। प्रतिवाद की वास्तव सामाजिक भावभूमि लुप्त हो जाती है। प्रतिवाद का शब्दों तक सिमट जाना,इमेजों में बंध जाना और सामाजिक जीवन से कट जाना,यह आज के युग की सबसे बड़ी दुर्घटना है।
वर्चुअल का आधार है परफेक्शन। अब कोई भी चीज मौलिक नहीं मिलती सभी परफेक्ट रूप में मिलती हैं। परफेक्ट को आप पूरी तरह आत्मसात कर सकते हैं। आज हम जिस जगत को हजम कर रहे हैं ,आत्मसात कर रहे हैं वह चरम पर है। वर्चुअल में चीजें चरम पर होती हैं। अतिवादी या अतिरंजित रूप में होती है। वर्चुअल ने परफेक्शन का तत्व समाजवाद से लिया है। आधुनिक युग में परफेक्शन का दावा सिर्फ समाजवाद ने किया था, समाजवाद ने परफेक्ट रूप में चीजों को पेश करके भी दिखाया था। पूंजीवाद ने कभी परफेक्शन का दावा नहीं किया था। किंतु परवर्ती पूंजीवाद ने वर्चुअल परफेक्शन के जरिए समाजवाद के परफेक्शन को पराजित कर दिया। यह तो वैसे ही हुआ कि लोहा लोहे को काटता है।
परफेक्शन की कला समाजवादी कला है। वर्चुअल ने इसका सबसे पहले व्यापक प्रयोग व्यवस्थागत तौर पर समाजवाद पर ही किया। वर्चुअल तकनीक के प्रयोग सबसे पहले अमेरिका में शुरू हुए ,मजदूर आंदोलन,माक्र्सवाद और सामाजिक परिवर्तन के समाजवादी मॉडल की मूल चीजों को निशाना बनाया गया। जब अमेरिका में इस कार्य में सफलता मिल गयी तो बाद में समाजवादी व्यवस्था को अप्रभावी बनाने के लिए अमेरिका के बाहर व्यापक इस्तेमाल किया गया।
वर्चुअल में प्रत्येक घटना चाहे वह सुख की हो या दुख की। सब कुछ निर्मित है। इससे आप बच नहीं सकते। पश्चाताप प्रकट नहीं कर सकते। वर्चुअल में प्रत्येक चीज अनैतिक और संवेदनात्मक है। सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि इच्छाशक्ति भी संवेदनात्मक और अकस्मात की शक्ल लेती है। अभिनेता अपने अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। फलत: वे जिम्मेदारी भी नहीं लेते। अपनी इच्छा और आकांक्षाओं का क्रमश: पालन करते हुए खुश हैं। चीजों की पीड़ादायक दुर्घटनाओं का सम्मान करते हुए खुश हैं। वे सिर्फ अस्तित्व रक्षा के खास नियमों को देखते हैं,ये वे नियम हैं जिनको पहले उन्होंने वैधता प्रदान नहीं की।
वर्चुअल का लक्षण है, अस्तित्व है किंतु स्वीकृति के बिना। इससे हमें संतोष मिलता है। क्योंकि हम उसमें विश्वास नहीं करते। इससे स्वायत्ताता का भ्रम पैदा होता है। यथार्थ वैध अवैध, प्रामाणिक अप्रामाणिक के परे चला जाता है। अब वर्चुअल सत्य है सत्य वर्चुअल है। वर्चुअल को समर्पण चाहिए। अनालोचनात्मक स्वीकृति चाहिए। आज हम आजाद नहीं हैं और न हमारी इच्छाएं ही स्वतंत्र हैं। एब्सर्डिटी साफतौर पर देख सकते हैं। अमूमन ऐसी परिस्थितियों में घिरे होते हैं , ऐसे विषयों पर फैसला ले रहे होते हैं जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते या कुछ भी जानना नहीं चाहते। अन्य की शक्ति निज के जीवन को नियंत्रित कर रही है,उसका दुरूपयोग कर रही है। अब न इच्छा है और न यथार्थ ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तुओं को पकड़ न पाने का निरंतर विभ्रम है और साथ ही यह भी विश्वास कि हम पकड़ लेंगे,समझ लेंगे। चीजों के बारे में विभ्रम औरउनकी रेशनल त्रासदी हमारी बौध्दिकता के साथ मुठभेड़ कर रही है।
जब पहलीबार सोवियत संघ में समाजवाद आया तो हमने अन्य देशों में उसका अनुकरण किया। नकल की। नकल करते हुए मौलिक से भी ज्यादा अच्छी चमकदार इमेज बनाने की कोशिश की। त्रासदी यहीं से शुरू हुई। समाजवाद की नकल मूलत: विभ्रम पैदा कर रही थी। मूल का विभ्रम पैदा कर रही थी, समाजवाद को पहले कभी किसी ने देखा नहीं था, जाना नहीं था, विश्व में पहले कभी समाजवाद नहीं था, इसलिए जब समाजवाद आया तो विभ्रम के आधार पर आया,इस विभ्रम की नकल मूलत: विभ्रम ही तो थी। विभ्रम को ही हम यथार्थ समझने लगे। विभ्रम से विभ्रम पैदा होता है।
विभ्रम में यथार्थ का संकट नहीं होता यही वजह है कि समाजवाद में भी संकट नहीं था। विभ्रम को यथार्थ बनाने के क्रम में समाजवाद आया था किंतु समाजवाद यथार्थ नहीं था वह तो विभ्रम था। यही वजह है निण्र्ाायक क्षण आते ही ,संकट की घड़ी आते ही समाजवाद का विभ्रम गायब हो गया। समाजवाद का पराभव हो गया। विभ्रम के आधार पर जब भी यथार्थ निर्मित करने की कोशिश की जाएगी तो वह तेजी से फैलता है जैसे पशु फैलते हैं। पशु जब भी फैलते हैं तो अपने से पहले वाले पशु को खत्म करते हुए फैलते हैं।विभ्रम से पैदा हुआ समाजवाद भी इसी बिडम्बना का मारा हुआ था, समाजवाद फैल रहा था किंतु अपने ही बच्चों को खाते हुए और शेष में समाजवाद के विभ्रम को ही हजम कर गया। विभ्रम के गर्भ से पैदा हुआ यथार्थ स्वयं को ही खाता है। यही उसकी वास्तविक त्रासदी है। यह वास्तव जगत का अपरिहार्य अंत है।
कायदे से विभ्रमों की क्रांतिकारी अंतर्वस्तु को हर हालत में बचाए रखना चाहिए। क्रांतिकारी विभ्रमों को बचाए रखना चाहिए। आमतौर पर क्रातिकारी विभ्रमों का ध्यान हटाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। विभ्रम के कारण्ा चीजों को जिस रूप में प्रस्तुत किया जाता है असल में वे वैसी नहीं होतीं। चीजों को वास्तव में जहां मिलना चाहिए,जिस रूप में मिलना चाहिए वैसी नहीं मिलतीं। दृश्यमान स्थिति का वास्तविकता के साथ कोई मेल नहीं होता। वे कब गायब हो जाएंगी और कब सामने उदित होकर आ जाएंगी। हम नहीं जानते।
वर्चुअल रियलिटी में संकेत का विभ्रम खत्म हो जाता है। सिर्फ उसका आपरेशन रह जाता है। सत्य और असत्य के बीच आनंदायी अभेद,यथार्थ और संकेत के बीच का अभेद पैदा हो जाता है। हम निरंतर अर्थ पैदा कर रहे हैं। प्रासंगिक चीजें पैदा कर रहे हैं, यह जानते हुए कर रहे हैं कि ये सब कुछ नहीं बचेगा। प्रासंगिक चीजें भी एक अवस्था के बाद अप्रासंगिक हो जाएंगी। विभ्रमों को अर्थवान मानना सबसे बड़ा विभ्रम है। यह जगत के विध्वंस का प्रधान कारण है।
हमारा समग्र इतिहास तर्कों पर ही खड़ा है। आज हम उसके किनारे पर आ लगे हैं। हमारी अर्थपूर्ण संस्कृति नष्ट हो गयी है। यथार्थ की संस्कृति खत्म हो गयी है। यथार्थ के अति रूपायन के कारण यथार्थ से पकड़ खत्म हो गयी है। अति सूचना के कारण सूचना की संस्कृति नष्ट हो रही है। समाजवाद के अति प्रयोगों के कारण समाजवाद भी नष्ट हो गया। उपयोगी बुध्दिमत्ता ही प्रासंगिक रह गयी है। क्रांतिकारी विभ्रम अब जीवन में नहीं विचारों में रहते हैं।
समाजवाद के पतन का बुनियादी कारण है बिना शर्त्त समाजवाद की स्वीकारोक्ति। सभी किस्म के यथार्थ, घटनाओं,विचारों और कार्यकलापों को समाजवाद केन्द्रित बना देना। मसलन कहना कि कम्युनिस्ट जो करता है समाजवाद के लिए करता है। नागरिक जो भी कुछ करता है समाजवाद के लिए करता है। अथवा पार्टी के लिए करता है। समाजवाद अथवा पार्टी के लिए करने का स्वांग ही है जो समाजवाद के पतन का प्रधान कारण है। व्यक्ति का यह कहना कि उसके समस्त कार्यकलाप समाजवाद के लिए हैं और समाजवाद से ही प्रेरित हैं, यही वह बुनियादी चीज है जिसने समाजवाद को नष्ट कर दिया। समाजवाद का क्षय बाहर से नहीं अंदर से हुआ है। समाजवाद के शत्रु अंदर हैं।
यह तरंगों और कोड का युग है। तरंगों से जुड़ते हैं कोड से खुलते हैं। समाचार ,संवाद,संपर्क, व्यापार,युध्द,संस्कृति आदि सब कुछ रेडियो तरंगों की देन हैं। तरंगे हमारे जीवन का सेतु हैं। तरंगें न हों तो हम अधमरे हो जाएं। आज तरंगें ही सत्य है और सत्य ही तरंग है। तरंगें भ्रम पैदा करती हैं। स्थायित्व का भ्रम पैदा करती हैं। तरंगें संतुलन पैदा कर सकती हैं और तरंगें अतिवाद अथवा अतिरंजना में डूबो सकती है। तरंगों में सब कुछ चरम पर घटित होता है। तरंग का सार है अतिवाद,चरमोत्कर्ष,अतिरंजना। अंत है विलोम।
तरंगों के जमाने में समानता,मानवधिकार आदि वायवीय हैं। इन सवालों में दर्शकों की दिलचस्पी घट जाती है। ये सिर्फ नजारे अथवा तमाशे की चीज बन जाते हैं। वर्चुअल ने इन सबको नजारा बना दिया है। हम सबको तमाशबीन बना दिया है। नागरिक को तमाशबीन बना दिया है। तमाशबीन के कोई अधिकार नहीं होते। तमाशा देखा और खिसक लिया। तमाशबीन का किसी से लगाव नहीं होता। वह निर्वैयक्तिक होता है। आज तमाशा वर्चुअल है और वर्चुअल तमाशा है। सूचना बेजान और देखने वाला भी बेजान। निर्वैयक्तिकता का चरम वर्चुअल की धुरी है। अपनी ढपली अपना राग इसका मूल मंत्र है।
तरंगों के कारण कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर आता है। जिसने कभी कोई चित्र नहीं बनाया , चित्रकला नहीं सीखी वह कलाप्रेमी और कलामर्मज्ञ का स्वांग करता नजर आता है। जिसकी राजनीति में आस्था नहीं है वह सत्ताा और राजनीति का सबसे बड़ा भोक्ता है। जिसने दर्शन नहीं पढ़ा वह दार्शनिक मुद्रा में डूबा नजर आता है। जो कभी सच नहीं बोलता वह सत्य का पुजारी नजर आता है। अयथार्थ या यथार्थ का अंश विराट और यथार्थ छोटा नजर आता है। सच झूठ और झूठ सच नजर आता है। प्रत्येक चीज सिर के बल खड़ी नजर आती है। सीधी चीज उल्टी और उलटी चीज सीधी नजर आती है। प्रत्येक चीज विलोम दिखती है। यही वर्चुअल का विचारधारात्मक चरित्र है।
अब प्रत्येक चीज में वर्चुअल मिल गया है। अच्छे -बुरे,पानी और शराब आदि सभी में वर्चुअल आ गया है। वर्चुअल के स्पर्श से सब कुछ कपूर होगया है। अब मौत भी सुंदर लगने लगी है। हत्या में आनंद मिलने लगा है। दुख में आनंद मिलने लगा है, दुख मनोरंजन देने लगा है। वर्चुअल ने सब चीजों को नकल और आनंद में बदल दिया है। चीजों की सतह की महत्ताा बढ़ गयी है। अब सत्य की आत्मा महत्वपूर्ण नहीं है। सत्य की सतह महत्वपूर्ण है। सतह को ही मर्म मान बैठे हैं।
आज मनुष्य के पास समय का अभाव है। समय के अभाव के कारण मनुष्य हमेशा मानसिक तौर पर समयाभाव में रहता है। समय का अभाव कालान्तर में स्थान के अभाव में रूपान्तरित होता है। आप जहां से चले थे एक अर्सा बाद फिर वहीं पहुँच जाते हैं। अब स्थान समय में तब्दील हो जाता है। इसे बदला नहीं जा सकता।
मौजूदा दौर में हमारी सारी गतिविधियां वर्चुअल से संचालित हैं। वर्चुअल में मिलते हैं, वर्चुअल सपने देखते हैं। वर्चुअल में बातें करते हैं। वर्चुअल में प्यार करते हैं। वर्चुअल में दोस्त बनाते हैं,वर्चुअल समुदाय में भ्रमण करते हैं। वर्चुअल ने समूचे संसार को इस कदर घेरना शुरू किया है कि हम असली नकली का अंतर भूल गए हैं। तमाम किस्म के पशुओं की विलुप्त प्रजातियां हठात् पैदा हो गयी हैं। हम मानने लगे हैं कि संभवत: उन्हें किसी ने देखा होगा। डायनोसर इसका आदर्श उदाहरण हैं। किसी ने डायनोसर को नहीं देखा किंतु वर्चुअल ने उसका जो प्रचार किया है उसने भरोसा दिला दिया है कि जैसा देख रहे हैं डायनोसर वैसा ही रहा होगा। यह भी संभव है मानव जाति कुछ समय के बाद विलुप्त प्रजाति बन जाए और उसके बारे में भी वैसे ही बताया जाए जैसे डायनोसर के बारे में बता रहे हैं। जिस तरह पशुओं की विलुप्त प्रजातियों को बचाने के लिए अभयारण्य बसाए जाते हैं। वैसे ही भविष्य में मनुष्यों के सुरक्षित जनक्षेत्र बनाए जाएंगे।
वर्चुअल के युग में नैतिकता को आंकड़ों के जरिए नहीं पहचान सकते। आंकड़े महज आंकड़े हैं। वे सच्चाई नहीं हैं। आंकडों की नजर से नैतिकता का कोई अर्थ नहीं है। नैतिकता का वह रूप ज्यादा महत्वपूर्ण है जो आंकडों में नजर नहीं आता। उसकी संख्या ज्यादा है ,उसकी गिनती ही नहीं की गई है। मसलन् मौत को हम चारों ओर देख सकते हैं। मौत का चारों ओर आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। मौत के आंकड़े ठोस मानवीय शरीर की संख्या से भी ज्यादा हैं। जितने मनुष्य नहीं हैं उससे ज्यादा मनुष्य मर रहे हैं। इसी तरह इंडेक्स और दृश्य भ्रष्टाचार में कोई तुलना नहीं कर सकते। इंडेक्स तो उसके लिए मुखौटे का काम करता है। आज राजनीति से दूर रहने वालों की संख्या राजनीति में शामिल लोगों की संख्या से ज्यादा है। इसी तरह समाज में दृश्य मूर्खता से अदृश्य मूर्खताओं की तादाद ज्यादा है। लोगों में बौध्दिक क्षमता दृश्य बौध्दिक क्षमता से ज्यादा है। लोगों में अभिरूचि दिखने वालों की संख्या से ज्यादा है। कल्पनाशीलता जितनी नजर आ रही है वास्तव में मनुष्य उससे ज्यादा कल्पनाशील है। कहने का आशय यह कि दृश्य ने अदृश्य को बौना बना दिया है।
हमें वर्चुअल ने भय के रसातल में बिठा दिया है। जिधर देखो भय ही भय है। भय के ऊपर बैठकर हम टीवी देख रहे हैं, फिल्में देख रहे हैं,आनंद मना रहे हैं। हम छोटे पर्दे पर बादल देख रहे हैं,बंदर देख रहे हैं,शेर देख रहे हैं,युध्द देख रहे हैं,तूफान और बरसात देख रहे हैं। हम जो कुछ देख रहे हैं वह सब टीवी के पर्दे पर ही देख रहे हैं। यह देखना भी है और झूठ भी है। क्योंकि हम वास्तविकता में जाकर ,यथार्थ में जाकर न तो जंगल देखते हैं, न शेर देखते हैं, न मौसम का आनंद लेते हैं, न बाढ़ देखते हैं। हम यथार्थ से कटे होते हैं और यथार्थ से जुड़े होने के भ्रम में रहते हैं। यथार्थ से जुड़े होने का यह भ्रम ही है जो हमें अच्छा लगता है आकर्षित करता है। असल में हम अब सब कुछ स्क्रीन के जरिए ही देखते हैं। स्क्रीन को ही सच मानने लगे हैं। यथार्थ से स्क्रीन के जरिए जुड़ते नहीं हैं बल्कि स्क्रीन के यथार्थ में ही खोए रहते हैं। स्क्रीन के यथार्थ और वास्तव जगत में जमीन आसमान का अंतर है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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