प्रेमचंद जयंती पर विशेष-
इतिहास का आधार प्रेमचंद क्यों नहीं
हिन्दी साहित्य के दो महत्वपूर्ण इतिहास ग्रंथ रामचन्द्र शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखित ' हिन्दी साहित्य की भूमिका' का प्रकाशन एक दशक के दौरान होता है, यह दशक प्रेमचंद के साहित्य का चरमोत्कर्ष भी है। शुक्लजी और द्विवेदीजी ने प्रेमचंद की उपेक्षा करके क्रमश: तुलसीदास और कबीर को इतिहासदृष्टि का आधार क्यों बनाया ? शुक्लजी ने छायावाद से 'कल्पना' और द्विवेदीजी ने प्रगतिशील आंदोलन से 'विचारधारा' को ग्रहण करते हुए अपनी इतिहासदृष्टि का निर्माण किया। आज ये दोनों ही तत्व अप्रासंगिक हैं। मजेदार बात यह है कि उस समय भी ये दोनों तत्व प्रेमचंद के सामने बौने थे। ऐसी अवस्था में प्रेमचंद को इतिहासदृष्टि का आधार न बनाकर तुलसी और कबीर के आधार पर हिंदी को कैसी इतिहासदृष्टि मिली ? क्या इससे मध्यकालीनबोध पुख्ता हुआ या कमजोर हुआ ? छायावाद और प्रगतिशील आंदोलन अब इतिहास की चीज हैं। किंतु प्रेमचंद नहीं हैं ?
हिंदी के आलोचकगण प्रेमचंद को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने से कन्नी क्यों काट रहे हैं ? प्रेमचंद के नजरिए के बुनियादी तत्वों को आत्मसात करके साहित्येतिहास लिखा जाएगा तो ज्यादा बेहतर इतिहास बनेगा। बुनियादी सवाल है क्या प्रेमचंद को आधार बनाकर साहित्येतिहासदृष्टि का निर्माण संभव है ? जी हां संभव है।
प्रेमचंद पूरी तरह आधुनिक लेखक है। कम्पलीट आधुनिक लेखक के उपलब्ध रहते हुए आखिरकार इतिहासकारों को मध्ययुगीन साहित्यकार को अपनी इतिहासदृष्टि का आधार बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? तुलसी या कबीर के नजरिए से प्रभावित इतिहासदृष्टि मौजूदा युग के लिहाज से एकदम अप्रासंगिक है। इसमें मध्यकालीनता के दबाव चले आए हैं। इनका तमाम किस्म की प्रतिक्रियावादी ताकतें और निहित स्वार्थी तत्व सांस्थानिक तौर पर दुरूपयोग कर रहे हैं। यही वजह है मध्यकालीनता आज भी हिंदी विभाग गढ़ बने हुए हैं।
इतिहास आधुनिक अनुशासन है। इसके निर्माण का नजरिया भी आधुनिकयुग से ही लिया जाना चाहिए। सम्प्रति इतिहासदृष्टि के अनिवार्य तत्व हैं बहुभाषिकता, बहुस्तरीय यथार्थ ,संपर्क और संवाद। इन चारों तत्वों के आधार पर साहित्येतिहास पर विचार किया जाना चाहिए। ये चारों तत्व प्रेमचंद के यहां व्यापक रूप में मिलते हैं। इन तत्वों को लागू करने से मौजूदा दौर में इतिहास के सामने जो चुनौतियां आ रही हैं उनके सटीक समाधान खोजने में मदद मिलेगी। खासकर साहित्येतिहास को लेकर जो रूढिवाद पैदा हुआ है उससे मुक्ति मिलेगी। साथ ही उन तमाम विवादास्पद क्षेत्रों को भी साहित्य का अंग बनाने में मदद मिलेगी जिन्हें हम दलित साहित्य,स्त्री साहित्य,शीतयुध्दीय साहित्य,जनवादी साहित्य आदि कहते हैं।
प्रेमचंद ने खुले पाठ की हिमायत की है। पारदश्र्शिता को पाठ का अनिवार्य हिस्सा बनाया है। इस परिप्रेक्ष्य में हमें प्रत्येक को पाठ खोलना चाहिए। पाठ के खुलेपन की बात करनी चाहिए। व्याख्याकार हमेशा पाठ से संवाद के दौरान बाहर होता है। अर्थ के बाहर होता है। पाठ का अर्थ संदर्भ हमेशा दृश्य अर्थ संदर्भ से जुड़ता है। वक्तृता में अनेक अर्थ होते हैं। पाठ अनेक ध्वनियों से भरा होता है। भाषिक अर्थ अमूमन गुप्त होता है। संबंधित युग का भाषिक अर्थ सांस्कृतिक संदर्भ के उद्धाटन से ही बाहर आता है। पाठ को पाठक केन्द्रित नजरिए से पढ़ा जाना चाहिए। पाठक केन्द्रित रणनीति के कारण डाटा को आप भिन्न नजरिए से देखते हैं।
प्रेमचंद जिस समय उपन्यास लिख रहे थे वह समय बहुस्तरीय यथार्थ के रूपायन का युग है। उस युग में अनेक आवाजें हैं। ये आवाजें उनके विभिन्न उपन्यासों में देखी जा सकती हैं। वहां एक ही विचारधारा का चित्रण नहीं है, एक ही वर्ग अथवा सिर्फ पसंदीदा वर्ग का चित्रण नहीं है। वह एक ही साथ विषय और चेतना के विभिन्न रूपों को चित्रित करते हैं। उनमें 'सहस्थिति' और 'संपर्क' का चित्रण करते हैं। सामाजिक जीवन की अनेक ध्वनियों को अभिव्यंजित करते हैं। बहुस्तरीय अन्तर्विरोधी चीजों में शिरकत करते हैं। उनके यहां विभिन्न वर्गों के बीच 'तनाव' ,'अन्तर्विरोध' और 'संपर्क' एक ही साथ देख सकते हैं। उनके उपन्यासों की बहुस्तरीय चेतना एक-दूसरे के साथ संपर्क करती है। पूंजीवादी वातावरण की अनछुई चीजों, विभिन्न लोगों और सामाजिक समूहों को पहलीबार साहित्य में अभिव्यक्ति मिलती है। उनके इस तरह के चित्रण से व्यक्तिगत अलगाव कम होता है।
प्रेमचंद पहले बड़े लेखक हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन में बहुस्तरीय यथार्थ को स्वीकृति दी है,उसकी तमाम संभावनाओं को समानता के धरातल पर खोला है। वह यथार्थ के किसी भी रूप के साथ भेदभाव नहीं करते। वह इस तथ्य को भी चित्रित करते हैं कि विभिन्न वर्गों में 'सहस्थिति' और 'संपर्क' है। इस तरह की प्रस्तुतियों के आधार पर हमें साहित्येतिहास के अंतरालों और अन्तर्क्रियाओं को खोलने में मदद मिल सकती है।
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में 'टाइम' की बजाय 'स्पेस' के संदर्भ में चीजों को प्रस्तुत किया है। इस परिप्रेक्ष्य के कारण ''प्रत्येक चीज सह-अवस्थान '' में दिखाई देती है। अनेक चीजों को एक ही साथ देखते हैं। जो चीजें 'टाइम' में अवस्थित हैं उनके स्पेस का नाटकीय रूपायन करते हैं। स्पेस में प्रस्तुति के कारण आंतरिक अन्तर्विरोधों और व्यक्ति के विकास के आंतरिक चरणों का चित्रण करते हैं।
प्रेमचंद के पाठ में एकल और बहुअर्थी आवाजें एक ही साथ देखी जा सकती हैं। एक ही वातावरण और एक ही वर्ग में विभिन्न रंगत के चरित्रों की बजाय बहुरंगी और बहुवर्गीय चरित्रों का चित्रण किया है। प्रेमचंद जितनी गहराई में जाकर किसान का चित्रण करते हैं उतनी ही गहराई में जाकर जमींदार का भी चित्रण करते हैं। इस तरह की सहस्थिति प्रेमचंद को बहुलतावादी बनाती है। तुलसी और कबीर का नजरिया इस अर्थ में आज बहुलतावाद के संदर्भ में हमारी वैसी मदद नहीं करता जैसा प्रेमचंद करते हैं। प्रेमचंद अन्य प्रगतिशील लेखकों से भी इसलिए भिन्न हैं क्योंकि प्रगतिशील लेखकों की दृष्टि एकल आवाज को अभिव्यक्त करने में लगी रही है इसके विपरीत प्रेमचंद ने बहुअर्थी आवाजों को अभिव्यक्ति दी है। एकल आवाज का लेखक अपनी रचना को महज एक वस्तु में तब्दील कर देता है जबकि बहुअर्थी आवाज रचना को जनप्रिय बना देती है। एकल अभिव्यक्ति में पात्र निष्पन्न रूप में आते हैं। वे लेखक की आवाज को व्यक्त करते हैं। कहानी के सभी स्तर लेखक के नजरिए का विस्तार हैं। इससे यह भी संदेश निकलता है लेखक पाठ के बाहर होता है। सृजन के बाहर होता है। फलत: विचार सुचिंतित,निष्पन्न, और नियोजित एकल आवाज में व्यक्त होते हैं। बहुअर्थी रचना में दाखिल होते समय पाठक चाहे तो अपने लिए एकल अर्थ भी खोज सकता है और चाहे तो उसके बाहर बहुअर्थी आवाजों को सुन सकता है।
प्रेमचंद की दुनिया धार्मिक वैविध्य के साथ संपर्क करती है,उसके साथ सह-अवस्थान करती है। इससे वह एकीकृत स्प्रिट पैदा करने की कोशिश नहीं करते। इस तरह का वातावरण मानवीय चेतना के गहरे स्तरों को उद्धाटित करने में मददगार साबित होता है। उनके दृष्टिकोण का लक्ष्य चेतना को विकसित करके विचार के स्तर तक ले जाता है ये विचार अन्य की चेतना के साथ संपर्क करते हैं। मानवीय यथार्थ के आंतरिक और बाहरी अनुभवों को एक साथ चित्रित करते हैं।
प्रेमचंद ने सृजन में कलात्मक रूपों का इस्तेमाल किया है।एक लेखक के नाते प्रेमचंद ने जिंदगी की चेतना और उसके जीवंत रूपों को जीवंत सह-अवस्थान के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी रचनाओं में ऐसी भी सामग्री है जो समाजशास्त्रियों के भी काम आ सकती है।
लेखक कहानी संदर्भ बनाता है। जिसमें चरित्र और विभिन्न किस्म की आवाजें शामिल रहती हैं। उनके अंतिम वाक्य पर नियंत्रण रखता है। कालक्रम निर्धारित करता है। फलत: हम तक आवाजें पहुँचती हैं। इन आवाजों को वह हीरो के इर्दगिर्द एकत्रित करते हुए सघन और प्रच्छन्न अभिव्यक्ति के वातावरण को निर्मित करता है।
कहानी का सत्य हीरो की चेतना का सत्य बनकर सामने आता है। इस तरह की प्रस्तुति में अनुपस्थित को खोजना मूलकार्य नहीं है बल्कि लेखक की पोजीशन में जो बुनियादी परिवर्तन आए हैं उन्हें देखना चाहिए। जो लोग नजरिए को देखते हैं उन्हें जिंदगी के बहुरंगेपन और बहुअर्थीपन को ध्यान में रखना चाहिए। उपन्यास में सामाजिक जगत की बहुअर्थी दुनिया के साथ महान् संवाद भी रहते हैं। जिनका उपन्यासकार सृजन करता है।
प्रेमचंद की कहानियों में पाठक जब अपने नजरिए के आधार पर बाहर से भीतर की ओर प्रवेश करता है तब क्या होता है ? ऐसे में लेखक का एकल नजरिया और एकल चेतना गायब हो जाती है। वह कहानी के चरित्रों की विश्वचेतना से अपने को जोड़ता है। अपने निजी नजरिए के साथ तुलना करता है। इस क्रम में वह बदलता है। फलत: पाठक को पढ़ने का सुख और परिवर्तन का सुख ये दोनों ही किस्म के सुख पाठक को प्राप्त होते हैं। प्रेमचंद की कहानियों की व्यापक व्याख्याएं हुई हैं। मूल्यांकन का यह वैविध्य एक ही संदेश देता है कि कहानी का अंतिम सत्य तय नहीं किया जा सकता। चरित्रों का अपने अंतिम वाक्य पर नियंत्रण नहीं रहता। पाठकों का बहुरंगी नजरिया कहानी के बहुअर्थीपन के साथ सामंजस्य बिठाकर नए अर्थ की सृष्टि करता है।
प्रेमचंद की सबसे बड़ी देन है कि हम उनके युग की आवाजें सुन रहे हैं। उनके युग के संवाद सुनना बहुत बड़ी उपलब्धि है। उनके लेखन में से एकल आवाज को खोज निकालना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है विभिन्न आवाजों के बीच का संवाद। इस क्रम में युग का स्वर मुखर हो उठा है। इन आवाजों में प्रभुत्वशाली विचार हैं, साथ ही कमजोर आवाजें भी हैं। ऐसे विचार भी हैं जो अभी विकसित नहीं हुए हैं। ऐसी आवाजें हैं जिन्हें लेखक के अलावा कोई नहीं सुनता। ऐसे विचार भी हैं जिनका अभी श्रीगणेश हुआ है। इनमें भावी विश्वदृष्टि छिपी है। उनके यहां तात्कालिक तौर पर यथार्थ खत्म नहीं होता। बल्कि यथार्थ का व्यापक हिस्सा लटका रहता है, जिसमें भावी जगत नजर आता है। कहानी स्पेस और सामाजिक स्पेस के बीच संपर्क होता है, आदान-प्रदान होता है। इस प्रक्रिया के दौरान ही प्रेमचंद अपने साहित्य को सामाजिक-ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के काम की सामग्री बना देते हैं। प्रेमचंद का समग्र लेखन संवाद है। जीवन भी संवाद है। यही संवादात्मक वैपरीत्य है। प्रेमचंद जब सभी चीजों को संवाद बनाते हैं तो उन्हें दार्शनिक भी बनाते हैं। प्रत्येक चीज को सरल बनाते हैं। सरल को संसार बनाते हैं। संसार को सरल बनाते हैं। संसार की जटिल और संश्लिष्ट संरचनाओं को सरल बनाते हैं। उनकी प्रत्येक आवाज में दो आवाजें सुन सकते हैं। एक-दूसरे को चुनौती देने वाली आवाजें भी सुन सकते हैं। प्रत्येक अभिव्यक्ति का रूप तुरंत ही टूटता है और आगे जाकर अन्तर्विरोधी अभिव्यक्ति बन जाता है। प्रत्येक भाव-भंगिमा में आत्मविश्वास झलकता है साथ ही आत्मविश्वास का अभाव भी झलकता है। प्रत्येक फिनोमिना में प्रेमचंद दुविधा और अस्पष्टता चित्रित करते हैं। बहुस्तरीय दुविधा छोड़ते हैं। प्रेमचंद एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनकी संवादात्मक प्रकृति है। प्रेमचंद की भाषा 'संवादात्मक संबंधों' पर टिकी है। फलत: उससे सभी किस्म का मानवीय संप्रेषण होता है। प्रेमचंद का 'संवादात्मक' रूप व्यक्तिवाद विरोधी है। यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि प्रेमचंद ने अपनी कहानी और उपन्यास में व्यापक पैमाने पर 'संवाद' का इस्तेमाल क्यों किया ?
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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