मार्क्सवाद सामाजिक परिवर्तन का विज्ञान है।दुनिया को बदलने का विश्व दृष्टिकोण है। जो भी विचार और धारणाएं बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष में मदद कर सकती हैं उनको आत्मसात् करना प्रत्येक मार्क्सवादी चिंतक का कार्य है।स्वयं मार्क्स-एंगेल्स ने अपने समकालीन और पूर्ववर्ती गैर -मार्क्सवादी विचारकों, सिध्दान्तकारों, अर्थशास्त्रियों से ऐसा काफी कुछ ग्रहण किया है जो दार्शनिक धरातल पर मार्क्सवाद के करीब नहीं आते थे। उनके यहां गैर-मार्क्सवादी परिभाषिक शब्दावली का प्रयोग होता था। किंतु परवर्ती मार्क्सवादी आलोचकों ,सिध्दान्तकारों ने इस रवैयये का तकरीबन त्याग ही कर दिया।
मार्क्सवाद को सांस्थानिक रूप देने के चक्कर में मार्क्सवाद की बुनियादी धारणाएं, तयशुदा पारिभाषिक शब्दावली में कुछ इस कदर पेश की गईं कि गोया मार्क्सवाद में नया या मौलिक कुछ भी जोड़ने की जरूरत ही नहीं है। मार्क्स -एंगेल्स ने जिन धारणाओं को बना दिया वे सब अपरिवर्तनीय हैं। मार्क्सवादी आलोचकों के एक तबके ने मार्क्सवाद का टीकाशास्त्र तैयार किया।चूंकि मूलशास्त्र मार्क्स-एंगेल्स बना गए थे अत: उसे बदलने की जरूरत या उसमें नए के समावेश की संभावनाएं तकरीबन खत्म कर दी गईं।जिसने भी मार्क्सवादी शब्दावली से भिन्न शब्दावली में अपने को व्यक्त किया उसे झटककर मार्क्सवाद के दायरे के बाहर कर दिया गया।इस तरह के रवैयये का मार्क्सवाद से कम कठमुल्ले मार्क्सवाद से ज्यादा संबंध है।अथवा इस तरह का मार्क्सवादी रवैयया तब ही पैदा होता है जब आप मार्क्सवाद को राजसत्ता के साथ नत्थी कर दें।मार्क्सवाद को पावर के गेम में शामिल कर दें।
मार्क्सवाद जड़ सैध्दान्तिकी नहीं है।यह वर्चस्व का नजरिया नही है।इसकी भाषा, अवधारणाएं, परिवर्तन के औजार सब कुछ देशज परिवर्तनकामी राजनीतिक परंपरा की अवस्था पर निर्भर हैं।मार्क्सवाद में सामाजिक परिवर्तन के प्रति जिस तरह का आग्रह है उसके कारण वह अन्य से सीखने,आत्मसात् करने,अपने को समृध्द करने में गहरी दिलचस्पी लेता है।वह समाज के प्रति जितना आलोचनात्मक है उतना ही स्वयं के प्रति भी आलोचनात्मक रूख व्यक्त करता है। आलोचना और आत्मालोचना इसके दो बड़े अस्त्र हैं। मार्क्सवादी आलोचना की खूबी यह है कि यह जितना सिखाती है उससे ज्यादा सीखती भी है।
सवाल यह है कि देरिदा के साथ मार्क्सवाद की क्या कोई पटरी बैठ सकती है ? इस संदर्भ में पहली बात यह है कि देरिदा के पास बुनियादी सामाजिक परिवर्तन का कोई खाका या सैध्दान्तिक दृष्टिकोण नहीं है।सामाजिक परिवर्तन के स्पष्ट कार्यक्रम के आधार के अभाव में देरिदा अंतत: पूंजीपतिवर्ग के सफल पैरोकार बनकर रह जाते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के कुछ बुनियादी नियम हैं जिन्हें देरिदा स्वीकार नहीं करते।कुछ बुनियादी कोटियां हैं जिन्हें देरिदा स्वीकार नहीं करते।देरिदा के पास इसके अलावा बहुत कुछ ऐसा है जिससे सीखा जा सकता है।किंतु यदि कोई यह कहे कि देरिदा के पास सामाजिक परिवर्तन का सैध्दान्तिक नजरिया है तो यह सिर्फ भ्रम है।देरिदा पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म नहीं करना चाहते थे।इस सीमा के बावजूद देरिदा इस युग के बड़े दार्शनिक विचारक थे।'व्याख्या' और 'विश्लेषण' की पध्दति के महान पंडित थे।
देरिदा और मार्क्सवाद में बुनियादी फर्क यह है कि देरिदा 'व्याख्या के लिए व्याख्या' की पध्दति का सहारा लेते हैं जबकि मार्क्स-एंगेल्स ने बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के लिए विश्लेषण का सहारा लिया।सवाल व्याख्या का नहीं है सवाल है दुनिया को बदलने का।देरिदा जिस पूंजीवादी दुनिया की आलोचना करते हैं उसको बुनियादी तौर पर बदलना नहीं चाहते।वे पूंजीवादी दुनिया के काले धब्बों को सिर्फ साफ करना चाहते हैं।वे इस क्रम में परिवर्तकारी के रूप में नहीं सिर्फ धोबी के रूप में सामने आता है।धोबी की मूल चिन्ता यह है कि गंदे कपड़े को धोकर जहां तक संभव हो साफ-सुथरा कर दिया जाए।
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में समाजवाद के पराभव के बाद एकसिरे से सारी दुनिया में मार्क्सवाद और समाजवाद की मौत पर जश्न मनाए जा रहे थे। इन विजयोल्लास के क्षणों में मार्क्सवाद को जोर-शोर के साथ चीख-चीखकर अप्रासंगिक घोषित करने की मुहिम भी तेज हो गई। समाजवाद के पक्षधरों में निराशा छा गई।ऐसे में 1994 में उनका एक व्याख्यान 'मार्क्स के प्रेत' शीर्षक से सामने आया। इसे 'पहल' पत्रिका (अक्टूबर,नवम्बर,दिसम्बर 1994)ने प्रकाशित किया। साथ ही प्रसिध्द मार्क्सवादी आलोचक एजाज अहमद का लेख ' मेल बनाते देरिदा :'मार्क्स के प्रेत' और विखण्डनवादी राजनीति'' भी प्रकाशित किया । मजेदार बात यह है कि देरिदा और एजाज अहमद अपने-अपने कारणों से समाजवाद के पराभव का विश्लेषण पेश नहीं करते।
देरिदा एक आस्थावान संत की भाषा में मार्क्सवाद के प्रति अपनी आस्था अस्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हैं।मार्क्सवाद की विरासत से जुड़ने की बात कहते हैं। किंतु समाजवाद के पराभव की ठोस मीमांसा पेश नहीं करते। वहीं दूसरी ओर देरिदा के मार्क्सवाद के प्रति सम्पूर्ण रवैयये को एजाज अहमद सवालों के दायरे में खड़ा करते हैं। देरिदा की तीखी आलोचना करते हैं। किंतु समाजवादी व्यवस्था के पराभव के कारणों को पेश नहीं करते। मार्क्सवाद प्रासंगिक है या अप्रासंगिक है ?उसका भविष्य में स्वरूप क्या होगा ?इन दोनों सवालों के बारे में सही रूख इस बात पर निर्भर करता है कि समाजवादी समाजों के पराभव के कारणों को मार्क्सवादी कितनी सच्चाई के साथ रेखांकित करते हैं।पराभव के अनुभवों से क्या सीखते हैं ?मार्क्सवाद संबंधी समूचे प्रपंच में यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि मार्क्सवादी विचारकों के पास जितनी बेहतर विश्लेषण बुध्दि है। तार्किक ढ़ंग से समझाने का जो कौशल है वह अन्यत्र दुर्लभ है।मौजूदा दौर में मार्क्सवाद के नजरिए से समाजवादी व्यवस्था के भावी स्वरूप की क्या कोई परिकल्पना मार्क्सवादी विचारकों के पास है ?क्या समाजवाद के पराभव के बाद मार्क्सवाद का वहीं स्वरूप रह गया है जो पराभव के पहले था ?क्या समाजवादी व्यवस्था की परिकल्पना वही रह गई है जो पराभव के पहले थी ?इन सवालों के बारे में देरिदा और एजाज अहमद अपने-अपने कारणों से चुप हैं।शायद इतना गंभीर संकट विचारकों के सामने पहले कभी नहीं आया था।समाजवादी व्यवस्था में शोषण के पुराने रूपों के खात्मे,शोषक वर्गों के समूल खात्मे के बाद समाजवादी समाजों में शोषक वर्गों का उदय एक गंभीर परिघटना है।यह ऐसी परिघटना है जो अबतक के समाजवाद के समूचे चिन्तन में कहीं पर भी नहीं मिलती।
देरिदा ने 'मार्क्स के प्रेत' शीर्षक व्याख्यान में जो बाद में ''स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्स' शीर्षक से पुस्तकाकार रूप में छप चुका है।देरिदा इस व्याख्यान में अनेक चीजों के बीच मेल बिठाने की कोशिश करते हैं।उन्हें भौतिकवाद और मार्क्सवाद भी चाहिए और उत्तर आधुनिक प्रपंचों के प्रति स्वीकृति भी चाहिए।देरिदा ऐसा करते हुए अन्तर्विरोधी तत्वों को एक ही छतरी के पीचे इकट्ठा करना चाहते हैं।वे मूलत: सर्वसंग्रहवादी की तरह रवैयया व्यक्त करते हैं।मजेदार बात यह है कि वे मार्क्सवाद को स्वीकृति दिलाना चाहते हैं साथ ही उत्तर आधुनिक सांस्कृतिक दबावों यानी 'भिन्नता' और 'विविधता' के सांस्कृतिक विमर्श को भी स्वीकृति दिलाना चाहते हैं।वे चाहते हैं कि लोग मार्क्सवाद को मानें साथ ही विमर्श,नरेटिव, लैंग्वेजगेम, राईटिंग,प्रजेंट,प्रामाणिक अस्मितस,स्व पहचान आदि को भी वैधता प्रदान करें।इस तरह 'स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्स' में देरिदा ने अन्तर्विरोधी तत्वों में मेल बिठाने की असफल कोशिश की है।इस क्रम में देरिदा एक तरह का रहस्यवादी वातावरण तैयार करते हैं।'प्रेत की भाषा' में अतीत केबारे में रोमैंटिक बोध पैदा करते हैं।मार्क्सवाद और रोमैंटिक उत्तर आधुनिकतावाद के बीच संवाद पैदा करते हैं।यहां रोमैंटिक उत्तर आधुनिकतावाद से मतलब है 'लोकल नेरेटिव' के आधार पर 'मेटा नेरेटिव' को खारिज करना।जैसाकि ल्योतार ने किया है। देरिदा इस कृति में प्रेत के बहाने वैचारिक एकात्मकता को उभारते हैं।उसे रोमैंटिक उत्तर आधुनिकतावाद के सरोकारों से पुष्ट करना चाहते हैं।इसके माध्यम से वह संस्कृति को बनाए रखना चाहते हैं,अतीत की सांस्कृतिक एकात्मकता को बनाए रखना चाहते हैं,यथार्थ के ऊपर न्याय की तलाश करते हैं,अन्य के लिए न्याय की तलाश करते हैं।देरिदा का मानता है कि तब तक न्याय संभव नहीं है जब तक 'जिम्मेदारी' के सिध्दान्त की रक्षा न की जा सके।एजाज अहमद ने सही सवाल किया है कि मार्क्सवाद के प्रति देरिदा का आग्रह सोवियत और समाजवादी समाजों के विघटन के बाद क्यों पैदा हुआ ?देरिदा को मार्क्सवाद की प्रासंगिकता का अहसास इतनी देर बाद क्यों हुआ ?इसका उत्तर देरिदा ने कभी नहीं दिया।
देरिदा ने 'मार्क्स के प्रेत' में लिखा है ''मार्क्स को बार-बार न पढ़ना, चर्चा न करना हमेशा एक दोष ही कहलाएगा। यह कहने का अर्थ है कुछ अन्यों को भी पढ़ना और विद्वतापूर्ण 'पठन' तथा 'चर्चा' से परे जाना।यह उत्तरोत्तर एक दोष होगा, सैध्दान्तिक, दार्शनिक,राजनीतिक दायित्व वहन की एक असफलता।जब जडसूत्री मशीन और 'मार्क्सवादी' विचारधारात्मक तंत्र( राज्य,दल,प्रकोष्ठ,यूनियन तथा जड़सूत्रों के उत्पादन की अन्य स्थलियॉँ)ओझल होने की प्रक्रिया में हैं,तब हमारे पास इस दायित्व से मुँह चुराने के केवल बहाने हैं,औचित्य कोई नहीं !इसके बिना कोई भविष्य नहीं होगा:मार्क्स के बगैर नहीं,मार्क्स के बिना कोई भविष्य नहीं,मार्क्स की विरासत और स्मृति के बगैर:हर हाल में किसी एक मार्क्स ,उसकी प्रतिभा,और कम से कम उसकी एक आत्मा (की स्मृति और विरासत के बगैर)क्योंकि यह हमारा 'हाईपोथीसिस' होगा,बल्कि हमारा पूर्वाग्रह : वे एक से अधिक हैं,वे एक से अधिक होंगे।''(पहल,50-51,पृ.49)
देरीदा से सवाल किया जाना चाहिए कि क्या उन्होंने मार्क्स को बार-बार स्मरण किया ?क्या मार्क्सवाद सिर्फ रीडिंग है ?क्या मार्क्सवाद सिर्फ दायित्वबोध है ?क्या मार्क्सवाद सिर्फ स्मृति है ?विरासत है ?जिस तरह के भाषा खेल के जरिए देरिदा मार्क्सवाद को पढ़ना चाहते हैं उससे मार्क्सवाद का भला कम देरिदा का भला ज्यादा होता है।
यह सारी दुनिया जानती है कि देरीदा को वे सारी चीजें पसंद नहीं हैं जो मार्क्स-एंगेल्स को पसंद थीं।मसलन् देरिदा दलीय राजनीति के पक्ष में नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टी की धारणा के पक्ष में नहीं हैं। यह कैसे संभव है कि कम्युनिस्ट पार्टी न हो और मार्क्सवाद को बचा लिया जाए या उसकी विरासत की रक्षा कर ली जाए। विरासत की रक्षा का सवाल सिर्फ रीडिंग और राईटिंग या रेटोरिक का प्रश्न नहीं है। मार्क्सवाद की विरासत बचाने का अर्थ यह नहीं है कि क्रांति को किताबों,विमर्शों में बंद कर दिया जाए।
क्रांति,समाजवाद,वर्ग संघर्ष,विचारधारा आदि के सवाल किताबी लेखन, सेमीनार, संगोष्ठी आदि के गर्भ से पैदा नहीं हुए।बल्कि इन धारणाओं का सामाजिक प्रक्रियाओं के गर्भ, सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष के गर्भ से जन्म हुआ। देरिदा की मुश्किल यह है कि वे मार्क्सवाद को सामाजिक प्रक्रियाओं,राजनीतिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में नहीं देखते।बल्कि बार-बार यही कोशिश करते हैं कि मार्क्सवाद को एक विचार मात्र बना दिया जाए।वे तर्क और आस्था से मार्क्सवाद की रक्षा करना चाहते हैं।यदि मार्क्सवाद को इसी तरह बचाया जा सकता तो विकसित पूंजीवादी मुल्कों के शिक्षा संस्थानों में मार्क्सवाद पर सबसे ज्यादा संगोष्ठियां होती हैं। मार्क्सवाद पर सबसे ज्यादा कृतियां इन्हीं देशों में छपती हैं किंतु मार्क्सवाद सबसे ज्यादा खस्ताहाल अवस्था में इन्हीं देशों में है।
मार्क्सवाद को तर्क या आस्था से जिंदा नहीं रखा जा सकता।मार्क्सवाद का भविष्य विचारकों पर नहीं क्रांतिकारी शक्तियों,मजदूरों, किसानों, शोषित तबकों के संघर्षों की अवस्था पर टिका है।क्रांतिकारी शक्तियों को अपने जीवन की ठोस सच्चाईयों के तहत काम करना होता है।कम्युनिस्ट पार्टी, मजदूरों-किसानों आदि के संगठनों को यथार्थवादी कार्यक्रम के आधार पर काम करना होता है।उनके लिए मार्क्सवाद किताब या रीडिंग या विश्लेषण नहीं है बल्कि दुनिया को बुनियादी तौर पर बदलने का विश्व दृष्टिकोण है।
मार्क्सवाद कभी दलविहीन,कम्युनिस्ट पार्टीरहित वातावरण में जिंदा नहीं रह सकता। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों में मार्क्सवाद और समाजवाद के पराभव का प्रधान कारण है वास्तव अर्थों में कम्युनिस्ट पार्टी का लोप।इन देशों में जो कम्युनिस्ट पार्टियां कार्यरत थीं। वे कम्युनिस्ट पार्टी के उसूलों पर कम सत्ता के उसूलों से ज्यादा परिचालित थीं। सतह पर ये कम्युनिस्ट थे। किंतु इनकी अंतरात्मा और रवैयये का कम्युनिस्ट उसूलों से कोई वास्ता नहीं था। इसलिए यदि इन देशों में समाजवादी व्यवस्था का पराभव हुआ है तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस पर शोक भी नहीं मनाया जा सकता है। किंतु एक बात जरूर सीखने की है कि सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद के बहाने झूठ नहीं बोला जाना चाहिए।
मार्क्सवाद की खूबी है कि वह संसार के झूठ पर से पर्दा उठाता है।वास्तव संसार को ठोस सच्चे अर्थ में उद्धाटित करता है।समाजवादी देशों में जो कुछ घट रहा था।उसके बारे में अधिकांश कम्युनिस्ट पार्टियों ने सच कभी नहीं कहा। जब समाजवादी व्यवस्था धराशायी हो गई तब कहीं जाकर दबे स्वरों में आलोचनाएं सामने आईं।
मार्क्सवाद ने जिस समाजवाद की परिकल्पना की है वह बंद समाज नहीं है।ऐसा समाज नहीं जिसके बारे मे आलोचना ही न की जा सके।जिन कम्युनिस्ट पार्टियों ने समाजवादी समाजों के पराभव के बाद पतन के कारणों पर विस्तार से रोशनी ड़ाली,उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि उन्होंने इसके पहले साफगोई से काम क्यों नही लिया ?
मार्क्सवाद साफगोई सिखाता है।सत्य के प्रति आग्रह पैदा करता है।किंतु व्यवहार में इसका उल्टा हुआ है।समाजवादी समाजों के बारे में हमने मिथ बनाए हैं।अनालोचनात्मक रवैयये का निर्माण किया है।मिथ बनाना और अनालोचनात्मक रवैयया मूलत: गैर-मार्क्सवादी तत्व हैं।अभी भी मार्क्सवादी हलकों में समाजवादी समाजों के पराभव को लेकर अस्पष्टता बनी हुई है।यही हाल देरिदा का भी है। वे समाजवादी समाजों की वास्तव अर्थों में मीमांसा किए बगैर यह कह देते हैं कि ''हम में से अनेकों के लिए एक खास किस्म ( मैं खास पर जोर दे रहा हूँ) के कम्युनिस्ट मार्क्सवाद का अंत,सोवियत संघ तथा पूरी दुनिया में इस पर आधारित प्रत्येक चीज के पतन के पहले ही हो गया था।यह सब पचास के दशक में आरंभ हुआ था।''
सवाल किया जाना चाहिए जब पचास के दशक में ही कम्युनिस्ट मार्क्सवाद का अंत हो चुका था तब ही देरिदा ने मार्क्सवाद की विरासत की रक्षा की सौगंध क्यों नहीं ली ? ऐसा क्या हुआ कि पचास वर्ष के बाद उन्हें मार्क्सवाद की विरासत को बचाने का अहसास पैदा हुआ ?दूसरी बात यह है कि क्या सोवियत संघ और समाजवादी समाजों के मार्क्सवादी अनुभवों,सारी दुनिया के कम्युनिस्टों के मार्क्सवादी तजुर्बों को दरकिनार करके मार्क्सवाद के बारे में कोई बहस संभव है ?
समाजवादी समाजों और गैर-समाजवादी समाजों के मार्क्सवाद के सबक क्या हैं ?क्या मार्क्सवादियों को मौजूदा दौर में इन सबसे सबक हासिल करने की जरूरत है या नहीं ?क्या मार्क्सवाद की दुनिया वही है जो मार्क्स-एंगेल्स के जमाने की थी ?क्या मार्क्सवाद का एक ही पाठ संभव है ?क्या एक रीडिंग संभव है ? क्या क्रांति संभव है ?कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में समूची मानवता को एकजुट करना संभव है ?क्या कोई नया इंटरनेशनल संभव है ?क्या दलरहित इंटरनेशनल संभव है ?क्या किताब लिखने के लिए,सिर्फ समीक्षाओं के लिए इंटरनेशनल संभव है ?क्या साम्राज्यवाद और पूंजीवाद इन दोनों के प्रति रणनीति, कार्यनीति और कार्यक्रम का विश्वस्तर पर एक ही मसौदा संभव है ? क्या समाज में कम्युनिस्ट पार्टी और उसके जनसंगठनों की प्रासंगिकता और जरूरत बची हुई है ?ये कुछ बुनियादी सवाल हैं जिन्हें हल किए बिना मार्क्सवाद की विरासत को आत्मसात् करना संभव नहीं है।जाहिर है देरीदा इनमें सेकिसी भी सवाल का जबाव नहीं देते।उन्हें सिर्फ मार्क्सवाद की विरासत को हासिल करने की चिन्ता है।गोया! विरासत नहीं उन्हें वसीयत की चिन्ता है।
वे चाहते हैं कि मार्क्सवाद की वसीयत उन जैसे लोगों के नाम लिख दी जाए जिन्होंने मार्क्सवाद की विरासत को बचाने,समृध्द करने में कोई भी योगदान नहीं किया है।मार्क्सवाद का मामला उत्तराधिकार या परंपरा का मामला नहीं है बल्कि कुर्बानी का मामला है।यह विमर्श का नहीं वर्ग संघर्ष का मामला है। यह पूंजीवाद के प्रति सदाशयता या पूंजीवाद को सदाचारी बनाने का नहीं बल्कि उसके प्रति अनवरत,समझौताविहीन निर्मम संघर्ष का मामला है।
देरिदा के समग्र दृष्टिकोण में सबसे मुश्किल मामला है भाषा का।देरिदा विमर्श के लिए अलंकारिक और धार्मिक भाषा चुनते हैं।इस तरह की भाषा द्विअर्थीपन लिए होती है।इसे आप किसी भी दिशा में मोड़ सकते हैं।मजेदार बात यह है कि भाषा के खेल में देरिदा सबसे पहले मार्क्स-एंगेल्स रचित भाषा और अवधारणा दोनों को ही नष्ट करता है। मार्क्सवाद के संदर्भ में देरिदा के भाषिक प्रयोग को देखें ''दायित्व के आह्वान से रहित कोई विरासत नहीं होती।विरासत हमेशा एक कर्ज की पुनर्पुष्टि होती है,लेकिन एक आलोचनात्मक, चुनावपरक और छनतीहुई पुनर्पुष्टि। इसीलिए हमने कई आत्माओं के अस्तित्व को माना है।''उपरोक्त,पृ.77) देरिदा से सवाल किया जाना चाहिए कि मार्क्स की कई आत्माएं उन्होंने कहां से खोज निकालीं ?यदि कई आत्माएं हैं ?तो उन्हें कौन सी आत्मा या आत्माएं पसंद हैं ?मार्क्स की किस आत्मा का कर्ज वे उतारना चाहेंगे ?किस आत्मा को आलोचनात्मक विवेक के साथ चुनना चाहेंगे।
सच यह है कि मार्क्स की अनेक नहीं एक आत्मा है और वह है क्रांति। देरिदा को विरासत में क्या चाहिए मार्क्सवाद के प्रति कोरी वाचिक आस्था या क्रांति। मार्क्स का कर्ज इस पृथ्वी पर से तबतक नहीं उतरेगा जब तक क्रांति नहीं होती। जाहिर है देरिदा को क्रांति पसंद नहीं है।जिनके अंदर क्रांति का जज्बा है।उसे पाने की छटपटाहट है,जो वर्ग संघर्ष के काम में लगे हैं वे ही मार्क्सवाद के असली वारिस हैं।आज जो लोग साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं वे ही असली वारिस है। उल्लेखनीय है कि मार्क्स-एंगेल्स को क्रांति से कम कोई भी चीज पसंद नहीं थी।कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा क्रांति संभव नहीं है।देरिदा को कम्युनिस्ट पार्टियां पसंद नहीं हैं।संभवत: वे क्रांति, वर्ग संघर्ष,कम्युनिस्ट पार्टी से रहित मार्क्सवाद को विरासत में पाना चाहते हैं।
मजेदार बात यह है कि देरिदा ने अपने पूरे व्याख्यान में एक भी जगह साम्राज्यवाद या पूंजीवाद को नष्ट करने की बात नहीं की है।देरिदा जिन सवालों को उठाते हैं वे वस्तुत: बुर्जुआ समाज के सवाल हैं।वे क्रांति की संभावनाओं, चुनौतियों,क्रांति के दोस्त और दुश्मन किसी का भी जिक्र नहीं करते।देरिदा मूलत: अधिरचना के सवाल उठाते हैं।अधिरचना में सुधार के सवाल उठाते हैं।जबकि मार्क्सवाद आधार और अधिरचना दोनों के बुनियादी सवालों को पूंजीवादी व्यवस्था के विकल्प के रूप में समाजवादी समाज व्यवस्था के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं।
देरिदा को समाजवादी व्यवस्था से परहेज है।उन्हें असल में 'मार्क्स के प्रेत' या उसकी आत्मा या 'स्पिरिट' की जरूरत है।मार्क्सवाद इनमें से कुछ भी नहीं है।वह तो दुनिया को बदलने का विज्ञान है। जिसकी कसौटी है जिन्दगी। जिन्दगी की कसौटी पर मार्क्सवाद की जो धारणाएं खरी उतरीं उन्हें माक्र्स-एगेल्स ने आत्मसात् किया।जो धारणाएं जिन्दगी की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं उन्हें खारिज कर दिया।मार्क्स-एंगेल्स के सामने पूंजीवाद की जो भयावह तस्वीर उभरकर आई थी उसी के आधार पर वे दोनों इस नतीजे पर पहुँचे कि समाज को बुनियादी तौर पर बदलना चाहिए।
देरिदा ने 'नया इंटरनेशनल' बुलाने का सुझाव रखा है।वे इसे अतर्राष्ट्रीय कानून के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते हैं।इसके सामने मानवाधिकार,शरणार्थी समस्या, विदेशी कर्ज आदि के सवालों को विश्लेषित करने के लिए देरिदा को 'नया इंटरनेशनल' चाहिए।यह इंटरनेशनल पुराने से भिन्न होगा।देरिदा पुराने इंटरनेशनल के कर्ज से मुक्त होकर नए का आयोजन करना चाहते हैं।वे पुराने इंटरनेशनल के लक्ष्यों और उपलब्धियों पर गौर तक नहीं करना चाहते। देरिदा से सवाल किया जाना चाहिए कि ऐसी क्या एलर्जी है कि मार्क्सवाद की आत्मा के वारिस होना चाहते हो,मानवाधिकारों के चैम्पियन बनना चाहते हो,किंतु पहले,दूसरे और तीसरे इंटरनेशनल पर गौर करना नहीं चाहते।लेनिन के शब्दों में ''पहले इंटरनेशनल ने समाजवाद के लिए सर्वहारा के संघर्ष की नींव डाली।दूसरे इंटरनेशनल का काल वह काल था ,जब कई देशों में इस आंदोलन के व्यापक तथा जनव्यापी रूप में फैलने के लिए जमीन तैयार की गई।तीसरे इंटरनेशनल ने पहले और दूसरे इंटरनेशनल के काम के फल बटोरे,उसकी अवसारवादी,सामाजिक अंध-राष्ट्रवादी,बुर्जुआ तथा टुटपुंजिया खोटे को निकाल फेंका और उसने सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को कार्यान्वित करना प्रारभ कर दिया है।''(लेनिन,' अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन',प्रगति प्रकाशन मास्को, 1984,पृ.305)
देरिदा का मानना है नया इंटरनेशनल ''सामीप्य,पीड़ा और आशा का एक सूत्र है।''किंतु 'गुप्तसूत्र' है।''यह एक असामयिक सूत्र है,बिना पदवी,बिना ख़िताब ,बिना नाम के,जो भले गुप्त न हो लेकिन अभी सार्वजनिक भी नहीं है,बिनाअनुबंध,'विश्रृंखलित',बिना समायोजन,बिना पार्टी,बिना देश,बिना राष्ट्रीय समुदाय(हर तरह के राष्ट्रीय परिसीमन से परे,पहले अंतर्राष्ट्रीय),बिना सह-नागरिकता,बिना एक वर्ग से सामुदायिक संबंध के,यहाँ नए इंटरनेशनल का नाम उन्हें दिया जा रहा है जो तमाम उन लोगों के जो संस्थाहीन मैत्री गठबंधन की मांग करता है जो भले ही समाजवादी-मार्क्सवादी इंटरनेशनल में,सर्वहारा के अधिनायकत्व में,सभी देशों के सर्वहाराओं की सार्वभौमिक एकता की मसीहाई युगान्त घोषी भूमिका में विश्वास न करते हों,पर माक्र्स या माक्र्स की कम से कम एक आत्मा से अभी भी उत्प्रेरित हैं (वे अब जानते हैं कि वे एक से अधिक हैं),और खुद को नए,ठोस,वास्तविक ढ़ंग से एकजुट करने के लिए भी।भले यह गठबंधन एक पार्टी या मजदूरों के इंटरनेशनल की शक्ल न ले,बल्कि एक तरह का प्रति-मंत्रोच्चार हो-अंतर्राष्ट्रीय कानून की हालत,राज्य व राष्ट्र की अवधारणाओं इत्यादि की (सैध्दान्तिकी और व्यावहारिक)मीमांसा के रूप में:माक्र्सवादी मीमांसा का पुन: नवीनीकरण करने और विशेषत: इसे आमूल परिवर्तित करने के लिए।'' (पहल,उपरोक्त,पृ.74)यानी देरिदा की मूल चिन्ता मार्क्सवाद को आमूल पविर्तित करने की है। पूंजी के द्वारा श्रम के शोषण के तंत्र को उखाड़ फेंकने की नहीं है।
देरिदा के उपरोक्त व्याख्यान पर एजाज अहमद ने सही लिखा है कि यह ''साहित्यिक शैली का प्रदर्शनपरक पाठ है।एक ऐसा पाठ जो विश्लेषण नहीं करता,एक प्रदर्शन की प्रस्तुति करता है:शव को दफनाने और पुनप्र्राप्ति का एक अनुष्ठानी प्रदर्शन,इसीलिए शपथ,प्रेतीयता और प्रतिश्रुति के मॉटिफ।'' (पहल,उपरोक्त,पृ.85) देरिदा के बारे में एजाज अहमद का यह निष्कर्ष है कि वे ''दक्षिणपंथ के आदमी नहीं हैं।''एजाज अहमद ने देरिदा के व्याख्यान 'मार्क्स के प्रेत' को 'शोकगीत' नाम दिया है। ''इस पाठ में उन्होंने अपने लेखन का स्वर बहुत सावधानी के साथ चुना है।यह एक शोकगीत का,पराजित को सीख देने का स्वर है,जख्मों के उपचार की एक भाषा ताकि नयी प्रतिश्रुतियाँ की जा सकें,ताकि पूर्वजों की प्रतिश्रुतियों का निर्वाह किया जा सके,भले ही एक तरीके से।''(वही,पृ.94) देरिदा का मानना है कि विखण्डन ,मार्क्सवाद का आमूल परिवर्तन है।एजाज अहमद ने विखण्डन को मार्क्सवाद का आमूल परिवर्तन मानने से इंकार किया है।
एजाज अहमद ने सही सवाल उठाया है कि देरिदा यह सोचें कि क्या विखण्डन को आत्म-समीक्षा की जरूरत है या नहीं ? विखण्डन के नाम पर दक्षिणपंथी और धुर मार्क्सवाद विरोधियों ने विखण्डन की ओट से मार्क्सवाद पर हमले आखिर क्यों किए ? क्या इन हमलों को सुनिश्चित बनाने में विखण्डन के तत्व से कोई मदद मिली या नहीं ? इसका यह अर्थ नहीं है कि देरिदा दक्षिणपंथी थे।देरिदा ने मार्क्सवाद की असख्य गलतियों की तरफ ध्यान दिया है।यदि कितु विखण्डन की गलतियों कर तरफ देरिदा ने आलोचनात्मक नजरिए से नहीं देखा।
एजाज अहमद ने लिखा है कि '' यह एक ठोस सच्चाई है कि अधिक कुख्यात किस्म के मार्क्सवाद विरोधी उग्र सुधारवादों से देरिदा ने आम तौर पर खुद को दूर रखा है।लेकिन उत्तरी अमेरिका और विशेषत:येल में उनके अनेक निकट सहकर्मियों -जिनके कारण देरिदा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली और जिनसे देरिदा ने स्वयं को दूर नहीं किया- की खातिर मार्क्सवाद का कोई अर्थ नहीं रहा है।उनमें कुछ दूसरों के मुकाबले अधिक तीखे विरोधी हैं।,लेकिन मार्क्सवाद विरोध उनकी सांझी विशिष्टता रही है।''(वही,पृ.97)
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
मेरा बचपन- माँ के दुख और हम
माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...
-
मथुरा के इतिहास की चर्चा चौबों के बिना संभव नहीं है। ऐतिहासिक तौर पर इस जाति ने यहां के माहौल,प...
-
लेव तोलस्तोय के अनुसार जीवन के प्रत्येक चरण में कुछ निश्चित विशेषताएं होती हैं,जो केवल उस चरण में पायी जाती हैं।जैसे बचपन में भावानाओ...
-
(जनकवि बाबा नागार्जुन) साहित्य के तुलनात्मक मूल्यांकन के पक्ष में जितनी भी दलीलें दी जाएं ,एक बात सच है कि मूल्यांकन की यह पद्धत...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें