चुनावी जीत सारी कमजोरियों को भुला देती है और पराजय के समय छोटी से छोटी गलती भी महान नजर आती है। हार और जीत के इस विभ्रम ने कांग्रेस को 'सच' और वामपंथ को 'झूठ' ,मनमोहन सिंह को 'नायक' और प्रकाश कारात को 'खलनायक' बना दिया है। 'सच' और 'झूठ' का जितना बड़ा विभ्रम इस बार के चुनावी प्रचार अभियान में देखा गया वैसा शायद पहले कभी नहीं देखा गया।
टेलीविजन चैनलों में यह इकतरफा चुनाव था। कांग्रेस के द्वारा समाचार चैनलों का जिस तरह सुनियोजित प्रबंधन किया गया और पूरा समय खरीदा गया वह वाममोर्चे की पराजय के प्रधान कारणों में से एक है। खासकर क्षेत्रीय बांग्ला समाचार चैनलों की इसमें केन्द्रीय भूमिका थी। वाममोर्चे की हार का माहौल चैनलों ने रातों-रात तैयार नहीं किया बल्कि लंबे समय से वाममोर्चा विरोधी सूचना प्रवाह बांग्ला चैनलों में चल रहा था चुनाव परिणाम तो फलश्रुति मात्र हैं।
बायनरी अपोजीशन की जंग- वाममोर्चे की पश्चिम बंगाल में पराजय के गंभीर सांगठनिक और विचारधारात्मक स्थानीय कारण हैं। राष्ट्रीय कारकों ने इसमें पूरक की भूमिका अदा की है। पश्चिम बंगाल में मावाद के नाम पर जो विचारधारात्मक वातावरण्ा बनाया गया वह अवसादभरा और रूग्ण है। इसकी धुरी है माकपा। माकपा मार्का बांग्ला मार्क्सवाद ने बांग्ला संतोषशास्त्र को अपनी विचारधारा बनाया है। इस शास्त्र का माकपा के विचारकों ने अपने कार्यकर्त्ताओं ,नेताओं और साधारण जनता तक जमकर प्रचार किया है।
वाममोर्चे की पराजय के प्रमुख कारणों में है पश्चिम बंगाल में आर्थिक सुधारों के खिलाफ संघर्ष के नाम पर राज्य कर्मचारियों को अपर्याप्त सुविधाएं और संसाधनों का अभाव,गैर पेशेवर कार्यशैली और समान नजरिए का अभाव,पार्टी लाइन के आधार पर भेदभाव ,उपेक्षा और उत्पीडन। निचले स्तर पर पार्टी गुटों का आपसी कलह। पश्चिम बंगाल में ज्यादा तनख्वाह पाने वाले को पार्टी कतारों में डाह की नजर से देखा जाता है। उल्लेखनीय है पांचवे वेतन आयोग की जब नई तनख्वाहें आयीं तो यह प्रचारित किया गया कि कर्मचारी तो अमीर हो गए हैं। अब छठे वेतन आयोग की सिफारिशें देश में लागू की जा रही हैं तो वाममोर्चे में यही 'डाह' एक आम फिनोमिना बनकर उभरा है।
माकपा की विचारधारात्मक विशेषता है आम जनता में संपत्ति,आय आदि के बारे में घृणा का प्रचार करना और पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा संचय करना। संपत्ति और उपभोग से जनता घृणा करे। संतोष करे। माकपा की कार्यशैली के लक्षणमूलक नारे हैं 'संतोष रखो, समर्थन करो ', 'राज्य सरकार बंधु सरकार ,असंतोष व्यक्त मत करो ', 'संतोष रखो आंदोलन मत करो','संतोष रखो पदोन्नति लो' , माकपा का समर्थन करो आगे बढ़ो।'
संतोषशास्त्र को गांवों में भी प्रचारित किया गया,'कम मजदूरी ' और 'फसल की सरकारी खरीद का अभाव' को पार्टी तंत्र के जरिए नियमित किया गया। राज्य के प्रत्येक स्तर पर 'संतोष और दलाल' ये दो तत्व शहरों से लेकर गांवों तक पार्टीतंत्र में घुस आए। शहरों में संतोषशास्त्र के नाम पर नए बाजार और नयी उपभोक्ता संस्कृति को धीमी गति से विकसित किया गया। सारे देश में विगत 25 सालों में जहां छोटे शहरों से लेकर विभिन्न महानगरों तक बड़े-बड़े मॉल और बाजार बड़ी मात्रा में उभरकर सामने आए उसकी तुलना में मॉल और बिग बाजार की संस्कृति का कोलकाता और राज्य के दूसरे शहरों में शून्य के बराबर विकास हुआ है।
संतोष के जरिए उपभोक्तावाद को पछाड़ने की कोशिश वैसे ही है जैसे कोई मंत्र से बीमारी का उपचार कर रहा हो। संतोषशास्त्र सामंती मूल्य है। यह वर्चस्व स्थापित करने का मंत्र है। इसमें इच्छाओं का दमन और राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की बर्बर साजिश निहित है। संतोष के नाम पर माकपा ने पश्चिम बंगाल में निठल्लेपन,कुंठा और अवसाद को थोप दिया। कुंठा और अवसाद में जीने के कारण आज पश्चिम बंगाल की बीमार नजर आता है। आज पश्चिम बंगाल का कोई भी बंगाली परिवार ऐसा नहीं है जिसमें एक या उससे अधिक संख्या में व्यक्ति किसी न किसी लंबी बीमारी शिकार न हो। माकपा का प्रचार है 'जो है उसमें संतोष करो' ,'न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति करो', 'जो है उसे बचाओ,कम से कम खर्च करो', 'जो ज्यादा कमाते हैं और ज्यादा खर्च करते हैं उनसे घृणा करो।' 'उपभोक्तावाद मुर्दाबाद,नयी दुकानें मुर्दाबाद।' नए बाजार को फैलने से रोको। इसी नजरिए के तहत सुचिंतित और नियोजित ढ़ंग से राज्य के प्रत्येक बाजार में अवैध दुकानों की फुटपाथ पर भीड़ एकत्रित कर दी गयी। फुटपाथ पर चलने वाली इन अवैध दुकानों से प्रतिदिन करोड़ों रूपये की उगाही स्थानीय नेताओं और संगठनों की पाकेट में एकत्रित होने लगी। माकपा का एक ही नारा रहा है 'उत्पादन गिराओ,गैर उत्पादकता बढ़ाओ।' 'निकम्मेपन को बढ़ावा दो', 'श्रमसंस्कृति की जगह पार्टीसंस्कृति को प्रतिष्ठित करो।' मंत्री से लेकर साधारण क्लर्क तक सभी का एक ही नारा ,एक ही लक्ष्य है 'पार्टी काम ही महान है', 'दफतर में जनता की सेवा करना मूर्खता है','पेशेवर जिम्मेदारी निभाना गद्दारी है।'पार्टी के साथ रहो सुरक्षा पाओ'।
मजेदार बात यह है विगत पैंतीस सालों में पश्चिम बंगाल में छोटी बचत बढ़ी हैं। देश में छोटी बचतों में पैसा जमा करने में पश्चिम बंगाल सबसे आगे है। बाजार में सर्कुलेशन में न्यूनतम पैसा है। जो चीजें आज नयी दिल्ली के बाजार में सामान्य तौर पर मिल जाती हैं वे चीजें कई सालों के बाद कोलकाता पहुँचती हैं।
माकपा ने संतोष और शांति को कायम करने के नाम पर आमदनी और उपभोग दोनों को ही पंक्चर किया है। ज्योंही कोई व्यक्ति किसी पार्टी नेता से यह कहता है कि दिल्ली या लखनऊ की तुलना में यहां सरकारी कर्मचारियों को कम पगार क्यों मिलती है ? तो पार्टी नेता का तर्क होता है तुम वहीं चले जाओ। ज्यादा कमाना है बाहर चले जाओ। ज्यादा उपभोग करना है बाहर चले जाओ।
पुराने जमाने में संतोष और शांति के नाम पर सामंती विचारधारा का लंबे समय तक वर्चस्व रहा है आधुनिककाल में इसे नवीकृत रूप में मार्क्सवाद के नाम पर माकपा ने प्रचारित किया है। उल्लेखनीय है सोवियत संघ और समाजवादी पूर्वी यूरोप के देशों में उपभोक्तावाद का जमकर संतोष और शांति के नाम पर वर्षों विरोध किया गया। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौर में कम से कम में गुजारा करने की संस्कृति को लंबे समय तक चलाया गया जिसके खिलाफ व्यापक प्रतिक्रिया के रूप में तियेनमैन स्क्वायर की बर्बर घटना हुई जिसमें हजारों निर्दोष मारे गए। उसके बाद तेज से उपभोक्तावाद का उभार आया है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देश तो शांति और संतोष से निजात पाने के चक्कर में विखण्डित हो गए। उत्तार कोरिया और क्यूबा उपभोक्तावाद का विरोध करते हुए दरिद्रता की चौखट तक पहुँच गए हैं। पश्चिम बंगाल में भी स्थितियां ज्यादा सुखद नहीं हैं।
आज चीन से लेकर रूस तक सभी देशों में उपभोक्तावाद की लहर चल रही है। इच्छाओं की पूर्ति पर ध्यान दिया जा रहा है। जहां लोग इच्छापूर्ति नहीं कर पा रहे हैं वहां पर गहरे अवसाद और देहव्यापार की संस्कृति पैदा हो चुकी है। इसे पश्चिम बंगाल से लेकर चीन तक आसानी से देखा जा सकता है।
पश्चिम बंगाल में दूसरा खतरनाक फिनोमिना में 'अधिनायकवादी लोकतंत्र' , लोकतंत्र में उप केटेगरी के रूप में लोकतंत्र की स्वीकृति के नाम पर यह फिनोमिना चल रहा है। इसके कुछ लक्षण हैं, सोचो मत,बोलो मत,शांति से रहो। जो देखते हो उसकी अनदेखी करो। स्वतंत्र प्रतिवाद मत करो। जो कुछ करो पार्टी के जरिए करो। माकपा का मंत्र है 'हां।' 'हां में हां मिलाओ' सुरक्षित रहो।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने पन्द्रहवीं लोकसभा के भाषणों में 'हां बनाम ना' का नारा दिया और 'ना' को परास्त करने और 'हां' पर मुहर लगाने की मांग की। विचारधारात्मक तौर पर 'हां' की इतनी नंगी हिमायत माकपा ने पहले कभी नहीं की थी। आश्चर्य की बात है सारे देश में शासकवर्गों के खिलाफ 'ना' का बिगुल बजाने वाली माकपा,क्रांति के नाम पर संघर्ष करने वाली माकपा का मुख्यमंत्री घृणिततम रूप में 'हां' के पक्ष में वोट मांग रहा था। 'जी हुजूरी' के पक्ष में वोट मांग रहा था।
वाममोर्चे का 'हां' के पक्ष में वोट मांगना विचारधारात्मक पैराडाइम शिफ्ट है। यह वस्तुत: माक्र्सवाद का संपूर्ण विसर्जन है और सामंतवाद की नंगी वापसी है। बुध्ददेव भट्टाचार्य का प्रत्येक भाषण में प्रधान आख्यान था 'ममता की ना को हां में बदलो।' बुध्ददेव का तर्क था ममता ने वाममोर्चा सरकार के प्रत्येक फैसले के खिलाफ ना की है उसके खिलाफ वाममोर्चे को वोट देकर हां में तब्दील करो। मजेदार बात यह है कि बुध्ददेव 'हां' का नारा लगा रहे थे,ममता 'ना' का नारा दे रही थी। यह देरीदियन बायनरी अपोजीशन है। 'हां' का प्रतीक 'पुरूष' (बुध्द देव और माक्र्सवाद) था, इसके विपक्ष में 'ना' के प्रतीक के रूप में स्त्री (ममता) थी , यह 'पुरूष' बनाम 'स्त्री', 'हां' बनाम 'ना' के बीच का चुनावी युध्द था।
वाममोर्चे के बायनरी अपोजीशन में फंसते ही माकपा और वाममोर्चे को करारी हार का सामना करना पड़ा। राजनीतिक विमर्श जब बायनरी अपोजीशन में बदलेगा तो अपोजीशन जीतेगा। पुरूष के विपक्ष में स्त्री जीतेगी, हां के विपक्ष में ना जीतेगा। उल्लेखनीय है जब कोई स्त्री ना बोलती है तो वह बागी होती है।
ममता का ना का नारा सामान्य नारा नहीं था बल्कि असामान्य नारा था। बागी नारा था ,ममता के इसी बागी स्वर को माकपा के इर्दगिर्द जमा हुए सहयोगियों और हमदर्दों ने भी समर्थन दिया। समय-समय पर सीपीआई,आरएसपी,फारबर्ड ब्लॉक से लेकर वामपंथी बुध्दिजीवियों का व्यापक समर्थन मिला।
बायनरी अपोजीशन सबवर्सिव होता है। जो है उसे रहने नहीं देता। ममता ने सन् 2006 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद बायनरी अपोजीशन के विचारधारात्मक पैराडाइम में ले जाकर पश्चिम बंगाल को डाल दिया। ममता का राज्य सरकार के प्रत्येक फैसले को 'ना' कहना। राज्य सरकार के साथ प्रत्येक कदम पर असहयोग करना उसकी बृहत्तार विचारधारात्मक रणनीति का केन्द्र बिंदु है। माकपा इस बायनरी अपोजीशन की कैद से निकल ही नहीं पायी। माकपा यह भूल गई कि वे जब आम जनता को कृषि बनाम उद्योग के नारे के तहत यह समझा रहे थे कि ममता कृषि को बचाने के नाम पर उद्योग लगाने का विरोध कर रही है तो वे वस्तुत: ममता के बायनरी अपोजीशन में कैद हो चुके थे। कृषि बनाम उद्योग के नारे पर जितना भी इल्जाम ममता के मत्थे मड़ा गया उससे ममता को विचारधारात्मक लाभ मिला था। क्योंकि माकपा ममता के विचारधारात्मक दायरे का अतिक्रमण ही नहीं कर पायी।
( लेखक की सद्य प्रकाशित किताब '' मीडिया और नव्य उदार चुनावी प्रौपेगैण्डा'', प्रकाशक- अनामिका पब्लिशिर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर (प्रा.लि.) ,4697 /3,21 ए,अंसारी रोड़ ,दरियागंज,नई दिल्ली,110002)
jordar hai. kolkata mein rahte hue sahaspurna bhi, humko bal milta hai. vijay sharma and Hitendra patel
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