'ई' साहित्य विकासशील साहित्य है। 'ई' साहित्य का किसी भी किस्म के साहित्य,मीडिया,रीडिंग आदत,संस्कृति आदि से बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है। 'ई' साहित्य और डिजिटल मीडिया प्रचलित मीडिया रूपों और आदतों को कई गुना बढ़ा देता है। जिस तरह कलाओं में भाईचारा होता है उसी तरह 'ई' साहित्य का अन्य पूर्ववर्ती साहित्यरूपों और आदतों के साथ बंधुत्व है। फर्क यह है कि 'ई' साहित्य डिजिटल में होता है। अन्य साहित्यरूप गैर-डिजिटल में हैं ,डिजिटलकला वर्चस्वशाली कला है। वह अन्य कलारूपों और पढ़ने की आदतों के डिजिटलाईजेशन पर जोर देता है। अन्य रूपों को डिजिटल में रूपान्तरित होने के लिए मजबूर करता है। किंतु इससे कलारूपों को कोई क्षति नहीं पहुँचती। यह भ्रम है कि 'ई' साहित्य और 'ई' मीडिया साहित्य के पूर्ववर्ती रूपों को नष्ट कर देता है, अप्रासंगिक बना देता है। वह सिर्फ कायाकल्प के लिए मजबूर जरूर करता है।
विगत चार दशकों में अमरीकी जनता में सार्वजनिक पुस्तकालयों की सदस्य संख्या में तीन गुना वृध्दि हुई है। इसके विपरीत भारत के 'ई' संस्कृति के आदर्श राज्य कर्नाटक में पांच हजार पुस्तकालय हैं और इन पुस्तकालयों की पहुँच दो प्रतिशत जनसंख्या तक नहीं है। पुस्तकालय आन्दोलन का हमारे देश में विकसित न हो पाना सबसे बड़ी बाधा है। कर्नाटक जैसे राज्य में पुस्तकालय आन्दोलन की यह अवस्था है तो बाकी राज्यों की क्या स्थिति होगी इसका सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
अमरीका में सबसे ज्यादा 'ई' कल्चर है और व्यक्तिगत तौर सबसे ज्यादा किताबें खरीदी जाती हैं। अमरीका में बिकने वाली किताबों की 95 फीसदी खरीद व्यक्तिगत है। मात्र पांच प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों में खरीदी जाती हैं। अमरीका में औसतन प्रत्येक पुस्तकालय सदस्य साल में दो किताबें लाइब्रेरी से जरूर लेता है। एक अनुमान के अनुसार पुस्तकालयों से किताब लाने और व्यक्तिगत तौर पर खरीदने का अनुपात एक ही जैसा है। यानी तकरीबन 95 प्रतिशत किताबें पुस्तकालयों से लाकर पढ़ी जाती हैं। इसके विपरीत भारत में अमरीका की सकल आबादी के बराबर का शिक्षित मध्यवर्ग है और उसमें किताबों की व्यक्तिगत खरीद 25 फीसद ही है। बमुश्किल पच्चीस फीसद किताबें ही व्यक्तिगत तौर पर खरीदकर पढ़ी जाती हैं। हाल ही में किए सर्वे से पता चला है कि विश्वविद्यालयों के मात्र पांच प्रतिशत शिक्षक ही विश्वविद्यालय पुस्तकालय से किताब लेते हैं।
भारत में आज भी किताबों की बिक्री मूलत: पुस्तकालयों और थोक सरकारी खरीद पर निर्भर है। आज भी किताब को मनोरंजन और सेवा उद्योग में रखने में हमें संकोच होता है। किताब के प्रति गैर पेशेवराना रवैयये के कारण हमारे पास आज तक किताब के बाजार ही ठोस जानकारियां उपलब्ध नहीं हैं। ऑनलाइन केटेलॉग नहीं हैं। पुस्तकालयों के कैटेलॉग उपलब्ध नहीं हैं। किताब की केयर करने के अभाव को सहज ही ब्रिटिश लाइब्रेरी,अमेरिकन सेंटर लाईब्रेरी में जाने वालों की प्रतिदिन की संख्या और किसी भी परंपरागत लाइब्रेरी में जाने वालों की संख्या के साथ सहज ही देखा जा सकतस है। आज आप सामान्य से खर्चे के साथ यह पता कर सकते हैं कि ब्रिटेन में किस लाइब्रेरी में कौन सी किताब है। हिन्दुस्तान में यह असंभव है। हमारे पुस्तकालयों की दशा आर्काइव जैसी है,वहां किताबें धूल खा रही हैं, अप्रशिक्षित कर्मचारी हैं। कम से कम कर्मचारी हैं और कम से कम अपडेटिंग होती है। जाहिर है पढ़ने की संस्कृति कैसे बने ?
'ई' साहित्य का पाठकों पर नकारात्मक या सकारात्मक किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है इस चीज को परखने का सबसे आसान पैमाना है दैनिक अखबारी संस्कृति। हमें देखना चाहिए कि क्या हाल के वर्षों में दैनिक अखबारी संस्कृति का ह्रास हुआ है या विकास हुआ है ? भविष्य की क्या संभावनाएं हैं ?
भारत सारी दुनिया में दूसरे नम्बर का अखबार बाजार है। 'विश्व समाचारपत्र संघ' की ताजा रिपोर्ट के अनुसार चीन में अखबारों की 107 मिलियन प्रति प्रतिदिन बिकती हैं। जबकि भारत में 99 मिलियन प्रति प्रतिदिन बिकती हैं। जापान में 68 मिलियन प्रति, अमरीका 51 मिलियन प्रति बिकती हैं। सन् 2007 में अखबारों की बिक्री में 11.2 प्रतिशत का इजाफा हुआ। आगामी पांच सालों में प्रेस में 35.51 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होने की संभावना है। दुनिया में 100 सबसे ज्यादा बिकने वाले दैनिक अखबारों में 74 अखबार एशिया में हैं। इनमें भारत,चीन,जापान में 62 अखबार हैं। सारी दुनिया में बिकने वाले अखबारों का सर्कुलेशन 2.57 प्रतिशत बढ़ा है। यदि इसमें फ्री में बटने वाले अखबारों का सर्कुलेशन जोड़ दिया जाए तो यह 3.65 प्रतिशत बैठेगा और प्रतिदिन सर्कुलेशन 573 मिलियन प्रतियां बैठेगा। सारी दुनिया में फ्री दैनिक अखबारों का सर्कुलेशन कुल सर्कुलेशन के सात फीसद के बराबर है। जबकि सारी दुनिया में प्रतिदिन बिक्रीयोग्य दैनिक अखबारों की 532 मिलियन प्रतियां बिकती हैं। विगत पांच सालों में अखबारों के सर्कुलेशन में 9.37 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। आज भी प्रिंट मीडिया को सकल विज्ञापनों का चालीस फीसद हिस्सा मिलता है। सारी दुनिया के 80 फीसदी देशों में प्रिंट की बिक्री में इजाफा हुआ है।
भारत में छह धर्म हैं,उनके अनेक उप-सम्प्रदाय हैं। 1562 मातृबोलियां हैं। दस लेखन व्यवस्थाएं हैं। सन् 2000में 76 भाषाएं स्कूलों में पढ़ाई जा रही थीं। भारत के संविधान में 18 स्वीकृत भाषाएं हैं जो आठवीं अनसूची में शामिल हैं। इनको 98 प्रतिशत जनसंख्या बोलती है। भारत की 20 प्रतिशत जनसंख्या द्विभाषी और मात्र सात प्रतिशत जनसंख्या त्रिभाषी है।
मैकमिलन प्रकाशन के मुखिया रिचर्ड चार्किन ( 3 जून 2006) के अनुसार सारी दुनिया की आबादी साढ़े छह घंटे प्रति सप्ताह किताब पढ़ने पर खर्च करती है। किताब पढ़ने पर सबसे ज्यादा समय भारत में खर्च किया जाता है। भारत में प्रति सप्ताह 10.7 घंटे खर्च किए जाते हैं। सबसे कम कोरियाई लोग किताब पढ़ने पर समय खर्च करते हैं। कोरियाई प्रति सप्ताह मात्र 3.1 घंटा खर्च करते हैं। ब्रिटेन के लोग 5.3 घंटा, जर्मनी और अमरीका के लोग 5.7 घंटा प्रति सप्ताह खर्च करते हैं।
इसी तरह अर्जेंटीना के लोग सबसे ज्यादा रेडियो सुनते हैं। वे प्रति सप्ताह 20.8 घंटा खर्च करते हैं, जबकि चीन के लोग सबसे कम रेडियो सुनते हैं वे मात्र 2.1 घंटा प्रति सप्ताह खर्च करते हैं। इसी तरह इंटरनेट पर सारी दुनिया में यूजर औसतन मनोरंजन पर 8.9 घंटे और पढ़ने पर 6.5 घंटे खर्च करते हैं। इंटरनेट के उपयोग ने लोगों के पढ़ने के समय में बीस प्रतिशत की कमी की है। जबकि 40 फीसद यूरोपियन एकदम किताब नहीं पढ़ते। ज्यादातर विकसित देशों के लोग इंटरनेट का किताब पढ़ने की बजाय मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करते हैं।
उल्लेखनीय है भारत में किताब पढ़ने पर ज्यादा समय खर्च करते हैं और देश में साक्षरता का भी विकास हुआ है। जबकि मजेदार बात यह है कोरिया दुनिया का सबसे कनेक्टेड देश है उसमें कम से कम किताब पढ़ी जाती है। आज इंटरनेट पर डिजिटल पुस्तकालयों का तांता लगा हुआ है। तेजी से 'ई' किताबों की संख्या बढ़ती जा रही है। अभी तकरीबन 350 से ज्यादा डिजिटल लाइब्रेरियां हैं। इनमें बीस लाख से ज्यादा किताबें प्रतिमाह डाउनलोड की जा रही हैं। इंटरनेट पर दो लाख से ज्यादा किताबें उपलब्ध हैं।
हाल के वर्षों में ब्लॉग रीडिंग की नयी आदत का जन्म हुआ है। ब्लॉग लेखन और रीडिंग का नया संसार सामने आया है। ब्लॉग लेखकों में अधिकांश ऐसे लेखक हैं जो पहलीबार प्रकाशित हुए हैं। इनकी संख्या करोड़ों में है। इन लेखकों के लेखन में तिथि का महत्व कम और नियमित लिखने का रूझान ज्यादा है। ब्लॉग लेखक के ऊपर उसके पाठकों का भी तेज दबाव रहता है,इनके पाठक शीघ्र प्रतिक्रिया देते हैं।
भारत में किताब प्रकाशन उद्योग की अवस्था पर कोई संतोषजनक अनुसंधान अभी तक नहीं हुआ है। कहने के लिए हमारे देश में कानूनन प्रत्येक प्रकाशक को अपनी किताब की दो प्रतियां राष्ट्रीय पुस्तकालय को भेजनी होती हैं किंतु अधिकतर प्रकाशक इस कानून का पालन नहीं करते। इसके कारण प्रामाणिक तथ्यों का इस क्षेत्र में अभाव बना हुआ है। इसके बावजूद ''बुक डिवीजन ऑफ केमीकल्स एंड एप्लाइड प्रोडक्ट एक्सपोर्ट प्रमोशन कौंसिल'' के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष पचास हजार नयी किताबें प्रकाशित होती हैं। इसके अलावा 'फेडरेशन ऑफ इण्डियन पब्लिशर्स ' के अनुसार भारत की 17 भाषाओं और अ्रग्रेजी में प्रतिवर्ष साठ हजार नयी किताबें प्रकाशित होती हैं। इनमें 22 प्रतिशत किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित होती हैं। ये आंकड़े देश के ग्यारह सौ प्रकाशकों से एकत्रित किए गए हैं।
राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन के अनुसार मुद्रण और प्रकाशन उद्योग के उत्पादन के जो आंकड़े प्रकाशित किए गए हैं,उनके अनुसार मुद्रण और प्रकाशन उद्योग का 12.6 प्रतिशत की सालाना दर से विकास हो रहा है। सन् 1996-97 में यह आंकड़ा 1267 करोड़ रूपये का था। ये आंकड़े उन फर्मों के हैं जिनमें 20 से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे। यदि इनमें बीस से कम संख्या वाले फर्मों के आंकड़े भी जोड़ दिए जाएं तो यह आंकड़ा काफी आगे बढ़ जाएगा।
इसके अलावा बड़े पैमाने पर किताबें जीरोक्स करके भी पढ़ी जाती हैं और गैर कानूनी प्रकाशनों के जरिए प्रकाशित पुस्तक उद्योग के आंकड़ों को भी ध्यान में रखना चाहिए। एक सर्वे प्रकाशकों में किया गया जिसके अनुसार 15 से 24 प्रतिशत तक किताबें अवैध रूप में छापकर बेची जाती हैं। 92 प्रकाशकों और 141 पुस्तक बिक्रेताओं में किए गए सर्वे में पता चला कि 33 प्रतिशत ( 92 में से 30) प्रकाशक इस तथ्य से वाकिफ थे कि किसी न किसी रूप में किताब चोरी हुई है या कॉपीराइट कानून का उल्लंघन हुआ है। 141 पुस्तक बिक्रेताओं में से 44 का मानना था किताब की अवैध बिक्री हो रही है। पाठकों में किए सर्वे से पता चला कि 28 फीसदी पाठकों ने कहा वे चोरी से मुद्रित किताब खरीदते हैं। इनमें 82 फीसदी पाठकों के द्वारा जानबूझकर अवैध रूप से मुद्रित किताब खरीदी जाती है। पाठकों ने बताया वे सालाना 37 किताबें खरीदते हैं जिनमें से सात किताबें अवैध रूप से प्रकाशित होती हैं। सर्वे के अनुसार अवैध रूप से प्रकाशित किताबों का प्रतिशत 19 है। एक अनुमान के अनुसार अवैध किताब प्रकाशन से प्रकाशन उद्योग को एक हजार करोड़ रूपये से भी ज्यादा का नुकसान हो रहा है।
पढ़ने -पढ़ाने की संस्कृति के विकास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा निर्मित 'यूजीसी-इंफोनेट' नामक 'ई' पत्रिकाओं के संकलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक जमाना था जब जे.एन.यू. आदि बड़े संस्थानों के पास ही विदेशी पत्रिकाओं को मंगाने की क्षमता थी आज स्थिति बदल गयी है। आज यू.जी.सी. के द्वारा संचालित इस बेव पत्रिका समूह का हिन्दुस्तान के सभी विश्वविद्यालय लाभ उठाने की स्थिति में हैं। इस संकलन में साढ़े चार हजार से ज्यादा श्रेष्ठतम पत्रिकाएं संकलित हैं। मजेदार बात यह है कि इस संग्रह के बारे में अधिकतर शिक्षक जानते ही नहीं हैं।
अंग्रेजी के चर्चित लेखक रस्किन बॉण्ड ने कुछ अर्सा पहले कहा आजकल बच्चे ताजगीभरी हवा चाहते हैं। ताजगी देने वाला लेखन पढ़ना चाहते हैं। लेखन में ऐसी हवा नहीं चाहते जिससे सीने में दर्द हो। वे ऐसी हवा नहीं चाहते जो गर्दो-गुबार से भरी हो। आज ज्यादा लोग किताबें पढ़ रहे हैं और ज्यादा किताबें खरीद रहे हैं। क्योंकि आज लोगों के पास किताब खरीदने के लिए पैसा है। रस्किन बॉण्ड ने कहा जब उसने लिखना शुरू किया था तो उसकी लिखी किताब का दाम पांच रूपया होता था और वह किताब बिक नहीं पाती थी। उसी किताब का दाम आज ढाई सौ रूपये है और वह धडल्ले से बिक रही है। इसके बावजूद यह सच है कि आज भी रीडिंग का काम कम ही लोग करते हैं।
टीवी और इंटरनेट के कारण बच्चों की रीडिंग आदत नहीं बदली है बल्कि सच यह है जो लोग टीवी देखते हैं अथवा इंटरनेट पर जाते हैं वे पहले भी किताब नहीं पढ़ते थे। जो बच्चे किताब पढ़ते हैं वे ज्यादा टीवी नहीं देखते। आज किताबों के वैविध्य से सजी रंगी-बिरंगी दुकानें आ गयी हैं। ऐसी सुंदर दुकानें पहले नहीं होती थीं। इसका एक बड़ा कारण है अंग्रेजीभाषी पाठकवर्ग का बड़े पैमाने पर उदय हुआ है। इतना बड़ा पाठकवर्ग अंग्रेजी में पहले कभी नहीं था। हिन्दी और दूसरी भाषाओं में यह पाठकवर्ग बढ़ सकता है बशर्ते किताबें उसके सहज दायरे में हों। छोटे शहरों और कस्बों में कोई किताब की दुकान ही नहीं होती। इसका परिणाम यह निकला है कि हिन्दी -उर्दू के बड़े पैमाने पर लेखक सिनेमा और टीवी लेखन में चले गए। क्योंकि लेखन का सवाल मूलत: आर्थिक सवाल भी है। लेखन पामाली के लिए नहीं लिखता बल्कि खुशहाली के लिए लिखता है।
रीडिंग आदत के निर्माण के संदर्भ में यह भी ध्यान रहे कि कभी-कभी टीवी और फिल्म को जब किसी साहित्यिक कृति के आधार पर बनाया जाता है तो उसकी बिक्री बढ़ जाती है। क्योंकि टीवी के ज्यादातर दर्शक वे होते हैं जो किताब नहीं पढ़ते। अत: कृति के आधार पर बने टीवी कार्यक्रम टीवी दर्शकों के बीच में किताब को ले जाने का अच्छा माध्यम हैं। उसी तरह बहुत सारी ऐसी कविताएं भी हैं जो अधिसंख्य पाठकों ने नहीं पढ़ी है। ऐसी कविता को ऑडियो उद्योग ने जनप्रियता प्रदान की है। मसलन् रामचरितमानस ,मीराबाई के भजन या गुरू नानक की गुरूवाणी हो उसे आम गैर किताबी ऑडिएंस तक पहुँचाने का काम ऑडियो- वीडियो उद्योग ने किया है। कहने का अर्थ यह है कि कुछ पाठक पढ़ते हैं तो कुछ पाठक लिखे का सुनकर आस्वाद लेते हैं और कुछ पाठक देखकर आनंद लेते हैं। पाठक अब सिर्फ लिखे को ही नहीं पढ़ता,बल्कि देख और सुनकर भी पढ़ता है। पढ़ने की आदत लेखन युग क देन है,देखने-सुनने की आदत 'ई' युग की देन है। यह हमारे विकास का लक्षण है। कहने का अर्थ है रीडिंग में पढ़ना,सुनना और देखना ये तीनों चीजें आती हैं। इन तीनों को करने में -ई' तकनीक की केन्द्रीय भूमिका है। यह कार्य कनवर्जन तकनीक और डिजिटल तकनीक के कारण संभव हो पाया है। आज पढ़ने के लिए साक्षर होने जरूरत नहीं है। आप साक्षर नहीं तब भी सुन और देखकर किताब का आनंद वैसे ही ले सकते हैं जैसे साक्षर लेता है। यही वजह है कि 'ई' साहित्य हमारी पढ़ने,सुनने और देखने की तीनों आदतों को अपने अंदर समाहित किए हुए है। डिजिटल परिप्रेक्ष्य विकासवादी परिप्रेक्ष्य है। यह पहले से उपलब्ध परिप्रेक्ष्यों को विस्तार देता है उनको नष्ट नहीं करता। 'ई' तकनीक और साहित्य समृध्दि का संकेत है। यह आर्थिक,सांस्कृतिक,लेखकीय और पाठकीय समृध्दि का भी संकेत है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
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