अर्माण्ड मेतलार्द :ग्लोबल संस्कृति और मीडिया
जगदीश्वर चतुर्वेदी
सुधा सिंह
अर्माण्ड मेतलार्द मार्क्सवादी परंपरा में प्रमुख मीडिया सिध्दान्तकार के रूप में जनप्रिय हैं। मेतलार्द ने मीडिया के इतिहास ,सैध्दान्तिकी और विचारधारा की भूमिका को लेकर खासतौर पर काम किया है।मेतलार्द का समूचा चिंतन मार्क्सवादी कठमुल्लेपन से एकदम मुक्त है। मेतलार्द और हर्बर्ट शिलर जैसे विद्वानों के चिन्तन के परिणामस्वरूप ही कारपोरेट चिन्तकों को अत्याधुनिक तकनीकी को लेकर अपने प्रचार अभियान में परिवर्तन करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। मेतलार्द की चर्चित किताबें हैं- 1.मल्टीनेशनल कारपोरेशनस एंड दि कंट्रोल ऑफ कल्चर,(1979) 2.एडवरटाइजिंग इंटरनेशनल(1991),3.रीथिंकिंग मीडिया थ्योरी (1992),मिशेल मेतलार्द के साथ 'मेपिंग वर्ल्ड कम्युनिकेशन :वार,प्रोग्रेस,कल्चर(1994),इन्वेंशन ऑफ कम्युनिकेशन(1996), नेटवर्किंग दि वर्ल्ड 1794-2000(2000) इत्यादि।
मेतलार्द का जन्म सन् 1936 में बेलजियम में हुआ था। आंरभिक शिक्षा कैथोलिक चर्च के स्कूलों में हुई और बाद में लोवानिया में उच्चशिक्षा प्राप्त की।वहां उन्होंने अधिकार और राजनीतिक विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की।इसके बाद पेरिस आकर जनसंख्या पर शिक्षा प्राप्त की, सन् 1962 में चिली में जाकर जनसंख्या के सवाल पर अध्यापन कार्य शुरू किया,कालान्तर में फोर्ड फाउण्डेशन और रॉकफेलर फाउण्डेशन की फैलोशिप पर उन्होंने कम्युनिकेशन पर काम शुरू किया।संचार को जनसंख्या के नजरिए से देखा।सन् 1962 में मेतलार्द ने चिली जाकर रहने का फैसला किया।यहीं पर उन्होंने अपने अकादमिक आधार को आगे विकसित किया और चर्च की जनसंख्या नीति के बारे में काम किया।यह वह दौर था जब कैनेडी प्रशासन जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर लैटिन अमेरिका परिवार नियोजन थेपना चाहता था।इसके खिलाफ प्रगतिशील जनसंख्या नीति की रणनीतियों को बनाने में मेतलार्द का महत्वपूर्ण अवदान है।बाद में चिली में पिनोशेट के फासीवादी शासन के आने के बाद मेतलार्द पेरिस चले आए और वहां अध्यापन कार्य करने लगे।मेतलार्द ने यूनेस्को के कई महत्वपूर्ण नीतिगत दस्तावेज तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
एक जमाना था जब नयी सूचना तकनीकी के गर्भ से जन्मे समाज को कारपोरेट चिन्तकों ने 'सूचना समाज' नाम दिया था। किंतु यूनेस्को जैसे विश्वमंच पर चली वैचारिक जंग में कारपोरेट चिन्तक हारे और हाल ही में सूचना तकनीकी के बारे में जो अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ उसमें 'सूचना समाज' की बजाय '' ज्ञान समाज''(नॉलेज सोसायटी) की धारणा को केन्द्र में रखा गया।
यूनेस्को ने 'सूचना समाज' की बजाय 'ज्ञान समाज' की धारणा का प्रचार करने का फैसला लिया। 'सूचना समाज' टेक्नोक्रेटिक अवधारणा थी,इसमें कनेक्टविटी पर जोर था,यह धारणा अंतर्वस्तु और नए संचार उपकरणों के इस्तेमाल के बारे में कुछ भी नहीं बताती।जबकि 'ज्ञानसमाज' की धारणा के विकास के लिए चार बुनियादी उसूलों का पालन जरूरी है,ये हैं 1.समान रूप से सबके पास शिक्षा पहुँचे,2.अभिव्यक्ति की आजादी हो,3.मजबूत सार्वजनिक सूचना स्रोत हों और उन तक साधारण जनता की पहुँच हो,4.सांस्कृतिक वैविध्य को ,भाषायी वैविध्य के साथ सुरक्षित और संवर्ध्दित रखा जाय।
आज सारी दुनिया में 862 मिलियन लोग अशिक्षित हैं, इसके अलावा सारी दुनिया में 211 मिलियन बाल मजदूर हैं।ये वे लोग हैं जो ज्ञान आधारित उत्तार औद्योगिक समाज के खिलाड़ी नहीं हैं।मूल समस्या यह है इन लोगों तक कैसे पहुँचा जाय। सैटेलाइट और ब्रॉडबैण्ड का विकास और विस्तार हुआ है। अनेक मल्टीमीडिया केन्द्र भी सामुदायिक इस्तेमाल के लिए खोले गए हैं। किंतु साधारण लोगों तक पहुँचने के लिए यह काफी नहीं है। किसी भी समुदाय को कम्प्यूटर से जोड़ देना ही पर्याप्त नहीं है।
इंटरनेट दुतरफा माध्यम है। यह अधिक से अधिक अभिव्यक्ति और सूचना का मंच है। इंटरनेट को यदि व्यक्ति और समुदाय की सेवा करनी है तो अभिव्यक्ति की आजादी जरूरी है।जिससे लोग अपनी समस्याओं और सवालों के उत्तर प्राप्त कर सकें। उत्तर हासिल करने के लिए लोगों को मुक्त अभिव्यक्ति की आजादी भी होनी चाहिए। जब लोग अपने अनुभव रखें तो उन्हें किसी भी किस्म का भय नहीं होना चाहिए।सामान्य लोगों तक सूचना को पहुँचाने के लिए कम्प्यूटर टर्मिनल से ही जोड़ना जरूरी नहीं है। कम्प्यूटर टर्मिनल से आम जुड़कर क्या करेगा जब बिजली ही उपलब्ध नहीं होगी।इंटरनेट व्यक्ति या समुदाय के लिए तब ही लाभप्रद होगा जब उस इलाके में बिजली हो,साथ ही ऐसी सूचनाएं हों जो संबंधित लोगों के काम की हों और उनकी भाषा में हों। इसके अलावा स्थानीय सूचनाओं को निर्मित करना और भी जरूरी हो जाता है।
भारत में अभी हम गौर से देखें तो इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में बहुत कम सामग्री है। सार्वजनिक पैसे से जो प्रकल्प चल रहे हैं उनकी सूचनाएं मुफ्त में साधारण लोगों को उपलब्ध होनी चाहिए। उन चीजों की सूचनाएं मुफ्त में उपलब्ध करायी जानी चाहिए जिन रचनाओं के कॉपीराइट समाप्त हो चुके हैं। इसके अलावा कॉपीराइट और जनता के अधिकार के बीच संतुलन बनाकर चलने की भी जरूरत है।मेतलार्द का मानना है कि '' अभी वर्तमान में चंद अल्पसंख्यक सांस्कृतिक समुदाय ही हैं जिनके पास इंटरनेट संसाधन हैं और उनकी आवाज सुनी जा रही है।''डी. शिलर का मानना है कि इंटरनेट का वर्तमान स्वरूप अविवादित रूप में वैविध्य के पूरी तरह खिलाफ है।''
इंटरनेट के आने के बाद जो वैविध्यपूर्ण संसार सामने आया है उसके बारे में शिलर का मानना है कि यह एक तरह का सांस्कृतिक परजीवीपन है। इसके सच्चे रूप में सांस्कृतिक वैविध्य समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। इंटरनेट पर सांस्कृतिक वैविध्य को प्रसारित करने के लिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा भाषाओं को इस पर लाया जाए। उनकी स्थानीय अंतर्वस्तु को लाया जाए।सांस्कृतिक वैविध्य के लिए सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा करना भी जरूरी है। कम्प्यूटर युग में संरक्षण को नया आयाम मिला है। डिजिटल तकनीकी में तैयार किए गए डाटा को हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के रूप में तीव्रगति के साथ भेजा जा सकता है। इसके अलावा सूचना तकनीकी के लाभ ज्यादा से ज्यादा साधारण लोगों के पास पहुँचें इसके लिए सरकारी समर्थन का होना अनिवार्य शर्त्त है।
( उपरोक्त अंश ,जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह लिखित 'भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया' नामक किताब से हैं, यह किताब ' अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, (प्रा.) लि., 4697 /3,21 ए,अंसारी रोड नई दिल्ली 110002 , से प्रकाशित है। इस पते पर किताब की खरीद के लिए संपर्क करें। )
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