ग्लोबल संस्कृति - स्वतंत्रता के अस्तित्व के लिए साहस की जरूरत है। साहस और जोखिम के बिना स्वतंत्रता का कोई अस्तित्व नहीं है।साहस और जोखिम के सहारे ही अपरिहार्यता के बंधन से व्यक्ति अपने को मुक्त करता है।मेतलार्द का मानना है कि नयी विश्व व्यवस्था स्थापित करने के लिए हमें कम्युनिकेशन के जनतांत्रिकीकरण के सभी पक्षों और उनके परिणामों को उठाना चाहिए। सबसे पहले हमें तथाकथित 'ग्लोबल लोकतांत्रिक बाजार' की धारणा के बारे में सवाल उठाने चाहिए,क्योंकि बहुराष्ट्रीय मीडिया और ग्लोबलाइजेशन के पैरोकारों ने मुक्त बाजार का फायदा उठाकर इसका जमकर प्रचार किया है।इस क्रम में नयी मीडिया और सूचना तकनीकी को ही वे जनतंत्र के पर्याय के रूप में पेश कर रहे हैं।वे यह भी कह रहे हैं कि पेशिव उमभोक्ता अब ' सह-उत्पादक' बन गया है।इसके लिए हमें मुक्त बाजार के जादू को धन्यवाद देना चाहिए।दैनन्दिन जीवन में ग्लोबलाइजेशन के पक्ष में प्रचारित की जा रही धारणाओं ने साधारण जनता में भ्रम की सृष्टि की है।इनसे पलायन करना मुश्किल है। समाज के ज्यादा से ज्यादा हिस्से संचार और सूचना तकनीकी के नेटवर्क सारी दुनिया को अंतर्गृथित कर रहे हैं।यह काम वे सार्वभौम पध्दति के रूप में कर रहे हैं।ग्लोबलाइजेशन का कम्युनिकेशन और संस्कृति के क्षेत्र में प्रयोग सामाजिक और उत्पादक व्यवस्था के क्षेत्र में प्रबंधन की पध्दति के रूप में हो रहा है। वे समाज की उत्पादक शक्तियों को नए सिरे से संयोजित किया जा रहा है। इसके माध्यम से संपर्क और विनिमय के नए सवालों को छिपाया जा रहा है।सारी दुनिया में संपर्क और रूपान्तरण ने अपरिहार्यता के विजन का निर्माण किया है।सन् 1994 में मैक्सिकन पत्रकार और पापुलर कल्चर के सिध्दान्तकार कार्लोस मोनसीवाइस ने ग्लोबलाइजेशन के बारे में लिखा था 'ग्लोबलाइजेशन का अर्थ है कि तुम्हें कभी क्षमा मांगने की जरूरत नहीं है।'
'टेक्नो-ग्लोबलाइजेशन' ने एक रेडीमेड विचारधारा का रूप ले लिया है।यह ऐसी विचारधारा है जो ग्लोबलाइजेशन के राज्य के विभिन्ना अभिनेताओं को जिम्मेदारी से मुक्त कर देती है या उनकी जिम्मेदारी को कम करके दरशाती है।यह एक तरह से सामाजिक तौर पर बहिष्करण का तर्क है। अब हम पुराने जमाने की राष्ट्रों की अन्तर्निर्भरता के गानों को गाने लगे हैं।यह बहुस्तरीय विश्व व्यवस्था है,जिसमें दूरबीन से मुद्दों को देखा जा रहा है,सत्ताा की चाटुकारिता,इसके कारण सत्ताा स्वयं ही जटिल,अस्थिर और संपर्क में रहने वाली हो गयी है। इसके कारण पावर की धारणा के सार में भी झोल आ गया है, इसके कारण किसी भी किस्म के गंभीर विश्लेषण से पलायन करते हैं। 'ग्लोबल वर्ल्ड' पदबंध भूमंडल के अभिनेताओं से लिया गया पदबंध है। ये वे लोग हैं जो बाजार प्रबंधन में लगे हैं जो ' स्व-संचालित' है और सारी दुनिया का भी स्वचालित नियमन कर रही है। विश्व की राजनीतिक समझ को खत्म कर दिया गया है और उसकी जगह नव्य डारविनवादी,तकनीकीवादी और व्यापारवादी निर्धारणवाद की स्थापना कर दी गयी है। बाजार और तकनीकी 'स्वाभाविक शक्ति' बना दी गयी हैं।ग्लोबल का यह लघु और बृहद अवधारणा रूप दो लैंस के एक ही आंख के जासूसी चश्मे में दिखाई देता है। वे एक-दूसरे का समर्थन करते हैं और नव्य उदारपंथी एल्बर्ट हिचमैन के शब्दों में यह 'कल्चर ऑफ डिफेक्शन' है। इस 'संस्कृति' को नव्य उदारपंथी मिल्टन फ्रीडमैन ने लिखा कि नागरिक-उपभोक्ता की उस मानसिकता की अभिव्यक्ति माना है जिसमें वह उपलब्ध वस्तु को ठुकरा देता है। उसका इस तरह ठुकराना स्वाभाविक नियमों का प्रतिस्पर्धी बाजार में आंतरिक प्रतिवाद व्यक्त करता है। इसी तरह एक अन्य किस्म का प्रतिरोध उभरकर आ रहा है ,जिसके जरिए आलोचनात्मक विचारों और अभिव्यक्ति के रूपों का संभावित यथार्थ जगत से बहिष्कार चल रहा है। जो विचार केन्द्र में होता है उसका ही अवमूल्यन कर दिया जाता है। मेतलार्द के अनुसार इससे सामना करके के लिए नागरिकों को विश्व संस्कृति की रक्षा के दायित्व को ग्रहण करना होगा।यह दायित्व उपभोग के संसार में अवस्थित नहीं है।बल्कि संस्कृति को विश्व और स्थानीय स्तर पर एक-दूसरे से मिलना होगा। इसके अलावा संचार तकनीकी ने विश्वस्तर पर जो समस्याएं पैदा की हैं उनकी जड़ों में भी जाना होगा। भूमंडलीकरण के पैरोकारों ने स्वयंभू शैली में अपने को 'विश्व नागरिक' घोषित कर दिया।इसके अलावा कम्युनिकेशन नेटवर्क के सरोकारों के नियमों को भी बदल दिया गया। इसमें आरंभिक बदलाव 'अभिव्यक्ति की आजादी' की परिभाषा के संदर्भ में ही आया। जो इन दिनों ' व्यवसायिक अभिव्यक्ति की आजादी' हो गया है।इसी के गर्भ से नए 'मानवाधिकार' का जन्म हुआ है।इसके कारण बाजार के फुटकल नियमों और कानूनी नियमों में अहर्निश तनाव रहता है, उपभोक्ता की पूर्ण स्वायत्ताता और नागरिक के अधिकारों में हमेशा तनाव रहता है,गारंटेड और डेलीवरेटिव,जनतांत्रिक रूप आदि में निरंतर तनाव रहता है।संचार के अंतर-पेशेवराना संगठनों ने 'व्यावसायिक अभिव्यक्ति की आजादी' को मुक्त व्यापार और उदारीकरण के लिए लॉबी तैयार करने के वैध औजार के रूप में दुरूपयोग करना शुरू कर दिया है। मेतलार्द का मानना है कि इनका लक्ष्य है बाजार के तर्क के द्वारा समाज के सार्वजनिक जीवन में आरोपित 'उपनिवेशीकरण' को और मजबूत बनाना। 'व्यावसायिक अभिव्यक्ति की आजादी' को पुरानी 'अभिव्यक्ति की आजादी की धारणा के साथ जोड़ा नहीं जा सकता। ग्लोबलाइजेशन की नया चक्र पुराने चक्र की पुनरावृत्ति है।जैसे पुराने विचार में मुक्त व्यापार था,उसका समानार्थी आजादी थी,'मुक्त अभिव्यक्ति' की धारणा तो शीतयुध्द के दौरान आयी। इसके प्रत्युत्तर में अमेरिकी विदेशनीति के निर्माताओं ने 'मुक्त सूचना संचार' की धारणा पेश की थी। इसी क्रम में जनतंत्र को भी नए सिरे से परिभाषित किया गया,जो विचार 'मुक्त सूचना संचार' की संगति में नहीं आते थे या उसकी आलोचना करते थे,उनको हाशिए पर डालने की कोशिश की गई, 'मुक्त सूचना संचार' को न्याय और समानता के साथ नहीं जोड़ा गया। जबकि पुराने औपनिवेशिक दौर में व्यापार की आजादी को आजादी के पर्याय के रूप में पेश किया गया।जबकि नए दौर में 'ग्लोबल डेमोक्रेटिक बाजार' की धारणा को जनतंत्र का आधार कहा जा रहा है। किंतु 'सूचना के मुक्त संचार' के साथ न्याय और समानता को जोड़कर पेश नहीं किया जा रहा है।दूसरी ओर सारी दुनिया के पश्चिमीकरण का प्रयास चल रहा है।पोस्ट केपीटलिस्ट सोसायटी नामक किताब के लेखक पीटर ड्रूकर ने लिखा है कि 'भावी शिक्षित व्यक्ति ग्लोबल जगत में जीएगा,यह पश्चिमीकृत जगत होगा।' उसने लिखा है कि नए समाज का आधार प्रबंधक और बुध्दिजीवी होंगे। 'उनके मत भिन्न होंगे,किंतु वे दो भिन्न और कभी विच्छिन्न न किए जाने वाले ,गैर-अंतर्विरोधी ध्रुव पर होंगे,इन्हें एक-दूसरे की जरूरत होगी।' मेतलार्द कहते हैं कि इस दौरान संस्थानगत बहस के आधार में भी परिवर्तन आया है।सत्तर के दशक से लेकर अस्सी के दशक तक यूनेस्को गुटनिरपेक्ष आंदोलन का एक बड़ा फोरम हुआ करता था,जिसमें 'सूचना और संचार की नयी विश्व व्यवस्था' बनाने के लिए लंबी बहसें चलीं,सन् 1985 के बाद से रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थेचर ने हमला किया कि यूनेस्को की बहसें राजनीतिक हो गयी हैं,यूनेस्को का राजनीतिकरण हो गया है।इस बहाने से अमेरिका और ब्रिटेन ने यूनेस्को को हाशिए पर डाल दिया और उसे एक तकनीकी संगठन मात्र बनाकर रख दिया। 'गेट' जिसे आज विश्व व्यापार संगठन कहते हैं,उसने कम्युनिकेशन को सेवा क्षेत्र के रूप में परिभाषित कर दिया।इसमें संस्कृति उद्योग के मालों से लेकर दूरसंचार ,पर्यटन,प्रबंधन तकनीकी आदि को सेवा क्षेत्र में शामिल कर लिया गया।हाल के वर्षों में यूरोपीय यूनियन ,जो विश्व का सबसे आकर्षक और मुनाफे वाला बाजार है, उसे निशाना बनाया जा रहा है। 'संस्कृति' के नाम पर यूरोप और अमेरिका में प्रत्यक्ष तनाव चल रहा है।इसके परिणामस्वरूप सेवा क्षेत्र से ऑडियोविजुअल और सांस्कृतिक मालों को मुक्त व्यापार के दायरे के बाहर रखा गया है।सेवा क्षेत्र में संस्कृति को शामिल करने वालों का तर्क है कि जनता जो देखना चाहती है वह उसे देखने दो,उन्हें तय करने दो बेहतर क्या है।इस बहस में जनता के कॉमनसेंस चेतना पर जोर है।किसी भी सांस्कृतिक माल की सफलता और असफलता का पैमाना होगा बाजार।इस तरह के तर्क का पूरी तरह नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा,बल्कि वे यह मान रहे हैं कि दर्शक सक्रिय होता है।वह दर्शक की भूमिका मानकर चलता है।तबकि साठ और सत्तार के दशक में निर्धारणवादी सैध्दान्तिकी ने दर्शक को सिर्फ संदेश के ग्रहणकर्त्ता के रूप में ही पेश किया था,सक्रिय उपभोक्ता की धारणा ने उस संदर्भ में एक खास अर्थ ग्रहण कर लिया जब नव्य उदारपंथी सांस्कृतिक मालों के उपभोक्ता की संप्रभुता पर जोर दे रहे थे।उपभोक्ता की इस धारणा को जबर्दस्त समर्थन मिला,किंतु इस प्रक्रिया में विभिन्ना सांस्कृतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं के बीच विनिमय की असमानता के सवाल छिपा दिए गए।इसके अलावा सिविल सोसायटी की निर्णायक भूमिका के सवालों की भी उपेक्षा हुई।राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ऑडियो विजुअल की सरकारी नीति में सक्रिय रूप से बदलाव किया गया।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जो लोग व्यासायिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बदलना चाहते थे,उनके लिए साधारण नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी बेमानी थी,वे सूचना और संचार के नियमन के काम में किसी भी किस्म के हस्तक्षेप को अवैध मानते थे,वे नागरिक और बाजार के बीच में निर्धारक के रूप में किसी भी किस्म की सार्वजनिक सत्ताा को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।मुक्त बाजार के तर्क को अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के जमाने में पूरी तरह चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया गया और किसी भी किस्म के हस्तक्षेप से विश्व नेटवर्क को मुक्त करने के नाम पर इंटरनेट को स्थापित किया गया,इंटरनेट मालों और सेवाओं के लिए पूरी तरह मुक्त है,इस पर किसी भी किस्म का हस्तक्षेप संभव नहीं है।इंटरनेट के बहाने यूरोपीय कम्प्यूटरों और स्वतंत्रता को निशाना बनाया गया। इंटरनेट की तकनीकी को लागू करते समय अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के बीच 1993 में संचार के क्षेत्र को लेकर खासकर आडियो-विजुअल क्षेत्र को लेकर जो टकराव पैदा हुआ था,उसे ध्यान में रखा गया और इसके लिए सात सूत्री रणनीति अपनायी गयी।संक्षेप में ये सूत्र इस प्रकार हैं-
1.प्रतिबंधात्मक उपायों (जैसे कार्यक्रमों का कोटा ) को नए किस्म के कम्युनिकेशन रूपों पर लागू न किया जा सके। 2. अमेरिकी फर्मों के निवेश के लिए मौजूदा कानूनों और परिस्थितियों में उदारीकरण के जरिए माहौल बनाना। 3. साझा क्षेत्र तय किए जाएं और अस्मिता के सवालों को हाशिए पर फेंका जाय। 4.कानूनों की पाबंदी हटाने के काम को खासकर ऑडियो-विजुअल मीडिया और नयी संचार तकनीकी के संबंध से जुड़े सवालों को ध्यान में रखा गया। 5. अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में संस्कृति के क्षेत्र में अभी जो प्रतिबंध जारी हैं उनका कोई महत्व नहीं है।उनको मानक नहीं बनाया जा सकता। 6.यूरोप में निवेश बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक समझौते किए गए। 7.यूरोप के आपरेटरों से अमेरिकी फर्मों ने सीधे समझौते किए,जिससे टीवी चैनलों के प्रसारण,कार्यक्रमों के कोटा,विज्ञापन प्रसारण आदि से जो क्षति हो रही थी,उससे बचा गया। इस रणनीति को सिलसिलेबार ढ़ंग से लागू किया गया और उसका ही परिणाम है कि आज यूरोप 'ग्लोबल सूचना समाज' पर बहस कर रहा है।
तकनीकी के डिजिटलाइजेशन के कारण कनवर्जंस संभव हो पाया। कनवर्जंस का सरल तरीका है जिसे बाजार की शक्तियां संचालित कर रही हैं।मसलन् दूरसंचार और सांस्कृतिक मालों को एक ही बास्केट में रख दिया गया है। इस तरह चीजें पेश करने का प्रधान कारण है कि सांस्कृतिक मालों को दिए जा रहे विशेष संरक्षण को खत्म किया जाय।दूसरा बड़ा कारण यह है कि यूरोपीय यूनियन के द्वारा सांस्कृतिक मालों खासकर आडियो-विजुअल मीडिया को लेकर जो नीति थी वह अन्य देशों के लिए मानक न बन जाय।इस मामले में सबसे पहले यूरोप के पूर्व समाजवादी देशों ने अमेरिकीपथ का अनुसरण किया। इस क्रम में बर्न कन्वेंशन में भी बदलाव लाया गया। खासकर लेखक की रॉयल्टी को सुरक्षा प्रदान की गई।क्योंकि अमेरिका के मल्टीमीडिया उद्योग में लेखकों के आर्थिक हित बड़े पैमाने पर दांव पर लगे थे। इस दौरान दो तरह के विजन में टकराहट सामने आयी,पहला एंग्लो-सेक्सन कॉपीराइट व्यवस्था ,जिसमें ऐसे प्रावधान थे जिनके कारण लेखक अपनी रचना का व्यापक रूप से व्यवसायिक दोहन नहीं कर पाता था,दूसरा तनाव रचना पर लेखक के नैतिक अधिकार को लेकर देखा गया,वह जब चाहे तब अपनी रचना का पुनरूत्पादन कर सकता था।मेतलार्द कहता है कि नयी तकनीकी-भूमंडलवादी विचारधारा के तहत जिस सूचना समाज का निर्माण किया जा रहा है वह समाज के भेदों ,सामाजिक शक्तियों के बीच संतुलन और सांस्कृतिक अंतरों की एकसिरे से उपेक्षा कर रही है, और सामूहिक हितों की अनदेखी कर रही है। एक समाज की परिकल्पना पेश की जा रही है जिसमें राज्य बाजार की शक्तियों के ऊपर निर्भर होगा। जिसके कारण 'विश्व संचार',और 'विश्व अर्थव्यवस्था' की बात की जा रही है, इसी के गर्भ से ग्लोबल विलेज की धारणा भी आयी है।यह एंसा ग्लोबल गांव है जिसमें व्यक्ति अकेला है और जगत में घट रही घटनाओं को खड़े-खड़े देख रहा है।अब जीवन शैली और जीवन स्तर भौगोलिक आधार या राष्ट्रीय परंपराओं से ज्यादा महत्वपूर्ण है।इसके आधार पर वे परा-राष्ट्रीय उपभोक्ता समुदायों का निर्माण कर रहे हैं।इन समुदायों के सदस्य एक जैसी सामाजिक शैली को साझे तौर पर शेयर करते हैं,एक जैसे सांस्कृतिक अभ्यासों,एक जैसे उपभोग और एक जैसे मुक्ति के पथ के राही हैं। अस्सी का दशक ग्लोबल स्तर खास किस्म की संस्कृति के प्रति आब्शेसन और बदले की भावना भी देखी गयी,यह पूरा दशक उथल-पुथल और टूट-फूट से भरा था।इस प्रक्रिया के गर्भ से ही परा-राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रवाह के ग्रहण की पध्दति या प्रकार या मोड के सवाल प्रत्येक समुदाय के संदर्भ में पैदा हुए।लोग अकेले और सार्वभौम के अंतस्संबंध को कैसे देखते हैं ?स्थानीय के बीच के संबंध को कैसे देखते हैं ?राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय के अन्तस्संबंध को कैसे देखते हैं ?नए किस्म के सामाजिक वर्चस्व को नजरअंदाज किए बगैर ग्रहण और सांस्कृतिक मालों के उपयोग के सवालों को 'पश्चिमीकरण' , 'निर्भरता', 'क्राँसव्रीडिंग' और 'हाइब्रिडाइजेशन' के जरिए अपदस्थ कर दिया गया है। मेतलार्द कहता है कि यह पुरानी कहानी को ही दोहराना है। जिसमें वर्चस्ववादी ताकतें जनता और संस्कृति के खिलाफ आमने- सामने आयी।यह जनता थी जो प्रतिरोध कर रही थी अथवा इससे दुष्प्रभावित थी।उसका प्रभाव सामान्यत: दर्ज ही नहीं किया।जनता का प्रतिरोध सामान्यत: जरूरी नहीं है कि राष्ट्रवाद और अंध क्षेत्रीयतावाद के रूप में व्यक्त हो। किंतु जनता का यह प्रतिरोध वर्णशंकर संस्कृति के जबाव में पैदा होता है।यह एक तरह से अस्मिता के निर्माण की भूमंडलीय फ्लो में नयी कोशिश है।भूमंछलीकरण के कारण एकल संस्कृति की शुरूआत होती है,यी संस्कृति वर्चस्व स्थापित न कर ले ,यह ऐसी संस्कृति है जो अन्य के अस्तित्व को ही अस्वीकार करती है। इसका भी प्रतिवादी जनता की तरफ से जबाव दिया जाता है। मेतलार्द का मानना है कि संचार का भूमंडलीकरण ऐतिहासिक अर्थ में सामाजिक निर्मिति है,इसक अपरिहार्यता के विजन से बचाने के लिए जरूरी है कि कम से कम चार दिशाओं में इसके बारे में सोचा जा सकता है। पहला ,जनता के संदर्भ में ऐतिहासिक परिवर्तन घटित हो रहे हैं। इनका सतर्कता के साथ अध्ययन किया जाना चाहिए।अभी कुछ अर्सा पहले तक ये परिवर्तन अमूर्त थे।सिर्फ मीडिया केन्द्रित समाज के नजरिए से ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ब्रॉण्ड,माल,डाटा,प्रोग्राम एवं सर्वर आदि के बारे में जान सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा परिवर्तन आर्थिक और सामाजिक मॉडल में आए परिवर्तनों के कारण आ रहे हैं।ये वे मॉडल हैं जिन्हें समाज विशेष की परिस्थितियों में अलग-अलग रूप में लागू किया जा रहा है जिससे वे भूमंडलीय स्पेस के साथ अंतर्गृथित कर रहे हैं।समाज में इससे स्थायित्व आया है।व्यक्तिगत और पारिवारिक जिंदगी इससे गहरे प्रभावित हो रही है। दूसरा , बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध्द में बड़े पैमाने पर मीडिया के जरिए नेटवर्किंग करके विश्वव्यापी स्तर पर भूमंडलीकरण के खिलाफ प्रतिरोध संगठित किया गया है,ये सारे वे संगठन हैं जो नयी मीडिया तकनीकी के प्रति सचेत हैं और उसका जमकर इस्तेमाल भी करते रहे हैं।नई तकनीकी का इस्तेमाल करके इन्होंने विश्व व्यापी भईचारा और प्रतिरोधी एकता का निर्माण किया है।इस सामाजिक प्रतिरोध को देखने के बाद पेंटागन ने इसे नेटवार या साइबरवार नाम दिया है।मेतलार्द कहता कि इसका अर्थ यह नहीं है कि नयी 'सिविल सोसायटी' जन्म ले रही है,जो लोग इसमें विश्वास करते हैं वे लिबरेशन के लिए 'वेब के खिलाफ वेब' की मुहिम चलाने वाले हैं,इण्टरेक्टिव हैं, डिजिटल डेमोक्रेसी है।मेतलार्द कहता है कि बेहद जटिल है।जो लोग ये सब बातें कह रहे हैं वे इसकी जटिलता को नहीं समझ पा रहे हैं। अंतराष्ट्रीय सिविल सोसायटी की संभावना राष्ट्र-राज्य के अंदर सामाजिक शक्ति-संतुलन पर निर्भर करती है।क्योंकि उन्हीं के दबाव में उसका निर्माण हो पाएगा।यह धारणा 'राज्य का अंत' की धारणा के एकदम विपरीत है।यह ' ग्लोबल मार्केट प्लेस' की जनप्रिय धारणा के भी खिलाफ है।राष्ट्रीय क्षेत्र के आधार पर नागरिकता और सामाजिक निर्मिति को लागू किया जाएगा। इसके अलावा स्टेट शक्ति ही होगी जो पूरी तरह मार्केट उदारतावाद का प्रतिरोध करेगा। यह सच है कि विश्व स्तर सामाजिक एकीकरण विश्व स्तरीय संगठनों के निर्माण की ओर ले जाएंगे।ये संगठन ऐतिहासिक परिस्थितियों की जड़ों से जुड़े होंगे। यदि ये संगठन अपना व्यापक आधार बनाना चाहते हैं तो इन्हें स्थानीय स्तर पर अपना मजबूत आधार बनाना होगा। जरूरत इस बात की है कि नागरिकों में इसकी जल्द चेतना पैदा की जाय। एरियल डाफमैन और अर्माण्ड मेतलार्द ने अपनी चर्चित किताब 'हाउ टु रीड डोनाल्ड डक' ,जो सबसे पहले 1971 में स्पेनिश में आयी थी,इसके बाद यह किताब अन्य अनेक भाषाओं प्रकाशित हुई। इस किताब की वैचारिक ताकत से भयाक्रांत होकर डिजनी कारपोरेशन ने अमेरिकी प्रशासन से इसके खिलाफ पाबंदी जारी करने के लिए कहा था।खासकर 1976 में इसके अंग्रेजी अनुवाद को प्रतिबंधित करने की मांग की थी,किंतु इस कार्य में डिजनी कारपोरेशन को अंतत: असफलता हाथ लगी।उत्तरी अमेरिका में इस किताब का व्यापक वितरण हुआ। इस किताब की भूमिका में लेखकद्वय ने लिखा कि डिजनी में दरसायी गयी 'अमेरिकी जीवन शैली' और 'अमेरिकी जीवन सपनों' से सबसे बड़ा खतरा है। इसी तरह अमेरिकी सपने साकार होते हैं,उन्हें अपनी मुक्ति के लिए अन्य पर थोप दिया जाता है।इससे स्वतंत्र राष्ट्र के लिए खतरा पैदा हो जाता है।इसने लैटिन अमेरिकी देशों के लिए खतरा पैदा कर दिया है कि वे अपने को अमेरिकी नजरिए से देखें। इस किताब में डिजनी के चरित्रों का ,जिन्हें खास तौर लैटिन अमेरिकी बच्चों के लिए बनाया गया था,मूल्यांकन करते हुए इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा गया कि ये चरित्र साम्राज्यवादी एजेण्डा सामने लाते हैं। इन चरित्रों के माध्यम से उपनिवेश और औपनिवेशिक शासकों के चरित्रों की बारीकियों का चित्रण किया गया है।इसके लिए लेखक द्वय ने चरित्रों की वक्तृत्व कला को खास तौर पर विश्लेषित किया है।
मेतलार्द ने अपनी किताब '' नेटवर्किंग दि वर्ल्ड ,1794-2000,'' में रेखांकित किया है कि 207 साल पहले टेलीग्राफ ने दूरगामी संचार तकनीकी होने के नाते यह वायदा किया था कि जनतंत्र की पुनर्स्थापना की जाएगी।कई दशकों तक लोग इस बात पर विश्वास भी करते थे।किंतु बाद में नेटवर्क के द्वारा विचारधारा का पुनरागमन हुआ। मेतलार्द ने इसी किताब में कहा है कि प्रत्येक तकनीकी पीढ़ी महान आख्यान के प्रचार के लिए नए अवसर प्रदान करती है।ये आख्यान पश्चिमी सभ्यता के तहत सामान्य सरोकारों और सामाजिक सदभाव से जुड़े होते हैं। चाहे वह अभूतपूर्व परिवर्तनकामी रेल हो,केबल हो अथवा इलैक्ट्रिक पेटेण्ट हो, इन सबके प्रमोटर बड़े-बड़े दावे करते हैं।किंतु दावे या वायदे और वास्तविकता में बड़ा अंतर रहता है।'' तकनीकी के कारण वे बेहतर संसार का वायदा करते हैं।''किंतु ''सच्चाई यह है कि यह कम्युनिकेशन उपकरणों के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने की जंग है।'' अभिजनों को इस संघर्ष में आराम से विजय हासिल हो जाती है। आज के युग में तकनीकी आम तौर पर समस्याओं के ग्लोबल समाधान पेश करने का वायदा करती है।'' सत्तार के दशक के अंत में राष्ट्र-राज्य पर दो तरफ से हमला किया गया। इन लोगों ने कहा कि ग्लोबल तकनीकी इतनी विशाल है कि उसके सामने मानवीय अस्तित्व की छोटी-छोटी समस्याओं का कोई अर्थ ही नहीं है।वह तो बड़ी समस्याओं को भी हल कर सकता है......... इस क्रम में दोहरी मार पड़ी,सूचना और संचार नेटवर्क स्वयं में एक आफत बन गए।'' तकनीकी तरक्की और उसके जरिए मनुष्य की समस्याओं के समाधान के बड़े-बड़े वायदे एक तरह से खोखले साबित हुए।बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि तकनीकी ने हमारे ऊपर अपना शिकंजा कड़ा कर लिया।मेतलार्द कहता है कि '' आरंभ में विज्ञापन बिक्री की आधुनिक तकनीकी मात्र लगता था,किंतु धीरे-धीरे समग्र व्यवसायिक संचार रूप का विजेता बन गया और सार्वजनिक जीवन का केन्द्रीय चरित्र बन गया।'' मेतलार्द कहता है कि '' आज विज्ञापन उद्योग बृहत्तार परा-राष्ट्रीय उपभोक्ता समुदाय को,जो एक ही किस्म की सामाजिक शैली को जिसे वे उपभोग और सांस्कृतिक अभ्यासों के जरिए साझे तौर पर शेयर करते हैं।'' आज हम नए सिरे से तकनीकी के जनतंत्रवादी रूप का गुणगान सुन रहे हैं। यह कहा ला रहा है कि 'ग्लोबलाइजेशन' या कारपोरेट ग्लोबलाइजेशन का अर्थ है समृध्दि और जनतंत्र का विकास।मेतलार्द कहता है कि '' यह विचार मुक्त व्यापार के रेहटोरिक से जुड़ा है।जिसे मनोरंजन उद्योग के मालों के जरिए प्रचारित किया गया है।यह स्वत: ही नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता की ओर ले जाता है,गोया !उपभोक्ता का दर्जा नागरिक के दर्जे के बराबर हो।'' मेतलार्द ने दर्ज किया है, '' डिजिटल तकनीकी को जिस तीव्र गति के साथ लैटिन अमेरिका और एशियाई देशों ने आत्मसात किया है और उसके लाभों को वे जिस तरह उठा रहे हैं।'' किंतु इस तस्वीर का एक धुंधला पक्ष भी है। '' हम यह तथ्य अस्वीकार नहीं करते कि यह नए किस्म की आधुनिकता सह-अस्तित्ववान है। किंतु इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है।बड़े पैमाने पर संचय और जनता के बृहत्तार हिस्सों का इससे बाहर रह जाना।''मेतलार्द की यह किताब इंटरनेट ग्लोबलाइजेशन के बारे में कारपोरेट घरानों और उनके चिन्तकों के विचारों का खंडन करती है। मेतलार्द ने लिखा है , '' सिर्फ समाज का मीडिया केन्द्रित नजरिया लोगों को यह भ्रम पैदा कर रहा है, भूमंडलीय परिप्रेक्ष्य को विदेशी ब्रॉण्ड और परा-राष्ट्रीय सूचना,प्रोग्राम और सरवर में संकुचित कर दिया गया है,विश्व से संपर्क का अर्थ अनुभव से जोड़ दिया गया है।'' किंतु ग्लोबल मीडिया के द्वारा विश्व अनुभव के नाम पर जो चीज परोसी जा रही है वह कृत्रिम है, इसे यथार्थ समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।यह अनेक ऐसे रास्तों से आ रहा है जिन पर जाने पर गलतियां भी हो सकती हैं।मेतलार्द कहता है ,'' ज्ञान का डिजिटल संरचनाओं के जरिए रूपान्तरण अर्थ की संरचनाओं का निर्माण खास किस्म के भू-सांस्कृतिक मॉडल के तहत निर्माण किया जा रहा है।'' मेतलार्द ने आगे लिखा '' इसमें जोखिम यह है कि इसमें सार्वभौमत्व के खास किस्म के आधारों को आरोपित कर दिया गया है।विशेष किस्म की चिन्तन प्रक्रिया और अनुभूति '' को आरोपित किया जा रहा है। आम तौर पर सर्वभौम को बाजार में बिक्रीयोग्य के रूप में तुलना करके पेश किया जा रहा है। जबकि जमीनी हकीकत से जुड़ा संचार लोगों को दुनिया के स्तर पर जोड़ रहा है।ये लोग मुक्त अभिव्यक्ति और सामाजिक न्याय के लिए लोगों को जोड़ रहे हैं।इस प्रसंग में अनेक महत्वपूर्ण वेबसाइट सामने आयी हैं। इसके अलावा 600 मीडिया संगठनों का प्रगतिशील मोर्चा डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डाट इंडीमीडिया डाट ओआरजी का निर्माण किया गया है।
( उपरोक्त अंश ,जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह लिखित 'भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया' नामक किताब से हैं, यह किताब ' अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, (प्रा.) लि., 4697 /3,21 ए,अंसारी रोड नई दिल्ली 110002 , से प्रकाशित है। इस पते पर किताब की खरीद के लिए संपर्क करें। )
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