हाल के वर्षों में कला और साहित्य के क्षेत्र में एक विलक्षण फिनोमिना नजर आया है। इस फिनोमिना के तहत ''इंटर पेसिविटी' पर जोर दिया जाता है। यह ''इंटरएक्टिविटी' फिनोमिना का विलोम है। ''इंटरएक्टिविटी'' के तहत अन्य विषय के जरिए व्यक्त किया जाता था। हेगेलियन विचार था कि मानवीय पेसन को अपने लक्ष्य को अर्जित करने के लिए मेनीपुलेट करो। पहलीबार लाकां ने ग्रीक त्रासदी के समूहगान के संदर्भ में '' इंटरपेसिविटी'' की धारणा का विवेचन किया। लाकां ने लिखा '' शाम को जब आप थियेटर जाते हैं, आप सारे दिन के कामों से थके होते हैं। काम के दर्द के मारे थक चुके होते हैं। जब आप ऑफिस से बाहर निकलते हैं और दूसरे दिन आने के लिए दस्तखत कर रहे होते हैं तो अपने को ज्यादा श्रेय दे रहे होते हैं, ऐसी अवस्था में तुम्हारे भावों की जगह उस समय मंच पर दिखाए जाने वाली स्वास्थ्यप्रद चीजें ले लेती हैं। समूहगान इनमें आपका ख्याल रखते हैं। भावुक कमेंटरी आपको सुनाई जाती है। ... फलत: आपको चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं होती, तब भी चिन्ता करने की जरूरत महसूस नहीं होती जब आप कुछ नहीं सोच रहे होते, समूहगान आपको एहसास दिलाता रहता है कि आप महसूस कर रहे हैं।'' इस तरह की अवस्था आधुनिक भारतीय टीवी चैनल '' लाफ्टर चैलेंज'' शो जैसे कार्यक्रमों में साफतौर पर देखी जा सकती है। इस तरह के कार्यक्रम ''इंटरपेसिविटी'' के आदर्श उदाहरण हैं। ''लाफ्टर शो'' में हंसी को साउण्ड ट्रेक के जरिए पैदा किया जाता है। जिससे टीवी सेट हमारे लिए हंस सके। इस तरह की प्रस्तुति दर्शक के पेसिव अनुभवों को आत्मसात कर लेती है। मसलन् उस दृश्य की कल्पना करें जब हमारे बीच में सुनने वाला कोई न हो और ऐसे में कोई घटिया चुटकुला सुनाया जाए तो क्या होता है ? और चुटकुला सुनकर आप जोर से हंसने लगें और जोर से कहें '' अरे गुरू मजा आ गया।'' तकरीबन यही स्थिति उस अभिनय की भी होती है जब अभिनेता अभिनय करता है और वैसी ही प्रतिक्रिया की दर्शक से उम्मीद करता है। लाफ्टर शो जैसे कार्यक्रमों में ग्रीक समूहगान की तुलना में स्थिति एकदम विपरीत होती है। ग्रीक समूहगान वाले दर्शक के अनुभवों को महसूस करते थे, दर्शक के भावों को आत्मसात करते थे,अभिनेता की पेसिव भूमिका हुआ करती थी, वहां दर्शक अनुभव करता था, किंतु लाफ्टर शो जैसे कार्यक्रमों में स्थिति एकदम भिन्ना है, यहां जो नरेटर या चुटकुला सुनाने वाला है वह चाहता है दर्शक पेसिव भूमिका अदा करे। नरेटर पेसिव भूमिका अदा नहीं करता बल्कि दर्शक पेसिव भूमिका अदा करता है, नरेटर अपने चुटकुलों पर स्वयं हंसता है। जनता के हंसने की बजाय वह स्वयं हंसता है।
ज़ीज़ेक ने लिखा हाल ही में टोमागुची नामक वर्चुअल टॉय आया है। यह बच्चे की तरह व्यवहार करता है। यह शब्द करता है और अपने मालिक के सामने मांगे पेश करता है। आप तुरंत संबंधित बटन को दबाएं और उसकी मांग पूरी करें, उसे संतुष्ट कर दें। मसलन् आप खिलौने में चाभी देकर उसे चालू करते हैं, उससे खेलते हैं, टोमागुची खिलौने में ऐसी बटन हैं जो खिलौने की प्रत्येक मांग की पूर्ति करती हैं, उस खिलौने के पास छोटा सा हृदय भी है ,आप देख सकते हैं कि खिलौना कितना खुश है। यदि आप टोमागुची की मांग की एक-दो बार पुनरावृत्तिा होने पर पूर्ति नहीं करते तो तीसरी बार खिलौना गिर पड़ता है और इसके बाद ऑब्जेक्ट निश्चित रूप से मर जाता है। अथवा वह फंक्शन करना बंद कर देता है। ऐसी स्थिति में टोमागुची के लिए श्मशान की व्यवस्था की गई है। वे बच्चे जो अपाहिज हैं वे टोमागुची के साथ खेलते हैं और उसके बहाने अपने को व्यक्त करते हैं। यदि आप उनकी तरफ ध्यान नहीं देते हो तो वे हंगामा खड़ा कर देते हैं।
ज़ीज़ेक ने लिखा जापान के बच्चों में टोमागुची के व्यापक नकारात्मक प्रभाव देखे गए हैं। यह एक तरह का ऑटोमेटिक खिलौना है। इस तरह के स्वचालित खिलौनों में आप सक्रिय होते हैं ,किंतु छद्म रूप में,सक्रिय हैं इसलिए कि कुछ हो न जाए, पहले हम सक्रिय होते थे कुछ करने के लिए अब सक्रिय होते हैं कि कुछ घटे नहीं। हम अब एक्टिव है कुछ हासिल करने के लिए नहीं बल्कि एक्टिव हैं रोकने के लिए। नए मीडिया की समस्या यही है उसने हमें सक्रिय किया है किंतु कुछ पाने के लिए नहीं बल्कि रोकने के लिए। आज हम अपनी दैनन्दिन जिन्दगी में छद्म गतिविधियों में बंद होकर रह गए हैं। ऐसी गतिविधियों में कैद हैं जिनसे हमें कुछ हासिल नहीं होना है। पहले गतिविधि का लक्ष्य हासिल करना होता था ,इन दिनों गतिविधियों का लक्ष्य रोकना होता है। राजनीति में भी पुराने विचारधारात्मक सवाल हाशिए पर हैं अथवा पृष्ठभूमि में चले गए हैं। आज सवाल यह नहीं है कि बिल्ली लाल है या काली बल्कि सवाल यह है कि चूहा कैसे पकड़ा जाए, आज लोग यह कहते हैं कि अच्छा विचार कहीं से भी मिले ,उसे तुरंत लागू करो, उसकी विचारधारा कुछ भी हो। ''अच्छा विचार'' का यहां अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है कि जो विचार काम करे, उसे लागू करो। इसका अर्थ यह भी है कि मौजूदा परिस्थति में यथास्थिति बनाए रखकर काम करो। यथास्थिति को मत बदलो। सामाजिक-राजनीतिक संबंधों को मत बदलो। जब हम राजनीतिक भूमिका की बात करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि जो विचार लागू कर सकते हो उसे लागू कर दो। बल्कि इसका अर्थ यह है कि आप अच्छे विचार को एडवांस में ही स्वीकृति दे देते हैं।
ज़ीज़ेक के अनुसार ग्लोबल पूंजी का बुनियादी सूत्र है ,'' जो लागू किया जा सके उसे अपनाओ।'' वे मानते हैं '' आइडिया देट वर्क'' ,जो विचार काम का हो उसे लागू करो, चाहे किसी का भी हो,यही इस युग का नारा है। यदि आप शिक्षा और स्वास्थ्य पर ज्यादा धन खर्च करना चाहते हैं तो वह विचार काम नहीं कर सकता। क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था की मुनाफाखोरी पर इससे हमला होगा। इसीलिए पूंजीवादी लोग नारा देते हैं '' आर्ट ऑफ पॉसिविल'' (संभावना की कला) के नारे ने असल में 'संभव' का अर्थ ही बदल दिया है। आज की राजनीति में '' पॉसीविल'' वह है जो '' फिजीविल'' है। आज विश्व राजनीति में उन चीजों पर बातें की जा रही हैं जिनके बारे में सामान्यत: कभी सोचते नहीं थे ,अपने घनघोर शत्रु से भी बातें करनी पड़ रही हैं। असल में जब कोई आशा नहीं बचती है तो सिर्फ सिध्दान्त बचे रह जाते हैं। एक ऐसा समाज तैयार कर दिया गया है जिसमें आप कुछ भी करते चले जाइए कोई परिणाम निकलने वाला नहीं है। व्यक्ति की भूमिका अथवा सक्रियता लक्ष्यहीन होकर रह गयी है। वह सिर्फ अनुकरण करता है ,दोहराता रहता है। यही वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति के पास जब कुछ भी नहीं बचता तो वह सिर्फ सिध्दान्तों की बातें करता रहता है। अंतत: खोखला होता है।
ज़ीज़ेक के मुताबिक आज पूंजीवाद की माक्र्सवादी धारणा पर सवालिया निशान लग चुका है। पूंजीवाद ने इस कदर शक्ति हासिल कर ली है जिसके कारण वह आए दिन मजदूरवर्ग पर हमले करता रहता है, एक जमाना था जब मजदूरवर्ग हमले करता था ,किंतु आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। आज जो लोग माक्र्सवाद से बेहतर ग्लोबलाईजेशन को बता रहे हैं उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि क्या पूंजीवाद से मुक्ति का उनके पास कोई रास्ता है ? ऐसी स्थिति में दो संभावनाएं हो सकती हैं,पहली संभावना है कि अतीतपूजा करते हुए रिचुअलिस्टिक ढ़ंग से कुछ पुराने फार्मूले दोहरा दिए जाएं। जिनमें कुछ फार्मूले क्रांतिकारी कम्युनिस्ट समाज के हैं और कुछ कल्याणकारी राज्य के हैं। ऐसे लोग उत्तार आधुनिक सामाजिक अवस्था को पूरी तरह खारिज करते हैं। वे आज के पूंजीवाद की कठोर सच्चाई को देखना ही नहीं चाहते। वाम का एक तबका ऐसा भी है जो यह मानता है कि अब तो ' ग्लोबल पूंजीवाद का ही खेल खेलना है, और कोई विकल्प ही नहीं है। आज की वाम राजनीति में दोहरा खेल चल रहा है,एक तरफ कहा जा रहा है कि कल्याणकारी राज्य ने जो दिया है उसे बचाओ, दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि ग्लोबल पूंजीपति के खेल का सम्मान करो, मजदूरों की 'इरेशनल' मांगे मत मानो, उन्हें सेंसर करो। यही वजह है कि वाम राजनीति में एक खास किस्म की फांक पैदा हो गयी है वे सिध्दान्तत: बातें कुछ करते हैं और व्यवहार कुछ और करते हैं।इसी अर्थ में मौजूदा दौर को ज़ीज़ेक ने उत्तार राजनीति के दौर के तौर पर विश्लेषित किया है।
हाल के वर्षों में जो मसले केन्द्र में हैं उन्हें पूंजीवादी सिध्दान्तकारों ने ''रिस्क सोसायटी '' की धारणा के तहत पेश किया है। ज़ीजेक़ ने विस्तार से इस थ्योरी पर विचार किया है। उसका मानना है कि रिस्क के तौर पर भूमंडलीय पर्यावरण असंतुलन, बदलाव,ओजोन की पर्त में छेद, मेडकाऊ डिजीज,सार्स आदि के मुद्दे उठे हैं। इन मसलों के पीछे सक्रिय विचारधारात्मक तत्वों को तब ही समझ सकते हैं जब आप ''रिस्क सोसायटी'' की सैध्दान्तिकी से वाकिफ हों। ''रिस्क सोसायटी'' का मूल मंत्र है '' लो प्रॉविविलटी -हाइ कंसीक्वेंस'' ( कम संभावना और सर्वोच्च परिणाम) रिस्क या जोखिम। कोई नहीं जानता कि जोखिम कितना बड़ा है। जबकि प्रोविविलटी या संभावनाएं भूमंडलीय तबाही की बहुत कम हैं। यदि तबाही होती है तो निश्चित रूप से भयावह होगी। मसलन् बायोलोजिस्ट मानते हैं कि हमारे खाद्य और दवाओं में यदि कैमीकल का इस्तेमाल बढ़ता चला जाता है तो इससे प्रत्यक्ष इकोलॉजिकल तबाही होगी, आम भाषा में कहें तो इससे नपुंसकता बढ़ेगी। किंतु इस तरह के परिणाम असंभव ही लगते हैं। एक अन्य फिनोमिना नजर आ रहा है जिसे '' मैन्यूफैक्चरड रिस्क'' ( निर्मित जोखिम अथवा कृत्रिम जोखिम) कहा जा सकता है। प्रकृति में आर्थिक,तकनीकी और वैज्ञानिक हस्तक्षेप के कारण यह पैदा होता है। इससे समूची प्रकृति नष्ट हो सकती है। संतुलन बिगड़ सकता है। इस आधार पर विज्ञान के ही खिलाफ जंग का एलान कर दिया गया है। मजेदार बात यह है कि ज्यादातर इलाकों में इस खतरे को प्रत्यक्ष देखा नहीं गया है,उसको खोजा नहीं गया है, असल में इन दिनों ऐसे खतरों के बारे में आतंकित किया जा रहा है जो भविष्य में आने वाले हैं ,वे मूलत: कल्पना का हिस्सा हैं।
ज़ीज़ेक के अनुसार इन दिनों जिस तरह के खतरों की बात की जा रही है वे हमारी तकनीकी-वैज्ञानिक तरक्की का हिस्सा हैं। प्रकृति के संदर्भ में जिन खतरों की बार-बार चर्चा की जा रही है,पर्यावरण संबंधी मूलगामी परिवर्तन और भावी तबाही की बात की जा रही है , उसमें बार-बार प्रकृति पर मनुष्य के प्रभुत्व को उभारा जा रहा है। इसके कारण नए खतरे और अनिश्चितता का जन्म हो रहा है। इस संदर्भ में सभी निष्कर्षों को दावे के साथ पेश किया जा रहा है, ये दावे खास किस्म की रेडीकल अनिश्चियात्मक अवस्था को व्यक्त कर रहे हैं। ज़ीजेक़ का मानना है जब '' लो प्रोविविलटी-हाई रिस्क'' के तहत चीजें रखी जाती हैं तो इसके परिणामों के बारे में दावे के साथ कुछ भी कहना संभव नहीं है। इस तरह की समझ के दो चरम ध्रुव हैं। जैसे एक तरफ वे पर्यावरण तबाही की बात कहते हैं तो दूसरी ओर इस तबाही या खतरे को छिपाते हैं या कम करके देखते है या उपेक्षा करते हैं। ये दोनों ही चरमपंथी अथवा अतिवादी रूझान हैं। जब आप कम करके आंकते हैं तो आप बड़बोले ढ़ंग से हल्ला ज्यादा करते हैं, इस हल्ले का वैज्ञानिक अनुसंधान अथवा वैज्ञानिक निष्कर्षों से कोई संबंध नहीं होता। सच यह है कि हम अस्तित्व के सवालों के बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कह सकते। यह भी सच है कि कारपोरेट हाउस और सरकारी एजेंसियां खतरे को कम करके पेश करती हैं, क्योंकि प्रभावी ढ़ंग से वैज्ञानिक आधार पर खतरे के बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। ज़ीज़ेक के अनुसार रिस्क सोसायटी का सबसे बड़ा गतिरोध है ज्ञान और निर्णय के बीच में अंतराल का बने रहना। कारणों की श्रृंखला और उनके लागू किए जाने के बीच जो दुविधा है ,उसके बारे में कोई नहीं जानता, इसके भूमंडलीय परिणामों के बारे में कोई नहीं जानता।
सकारात्मक ज्ञान की अवस्था में हम सबसे ज्यादा अनिश्चित होते हैं। रिस्क सोसायटी हमारे ऊपर चीजों और चॉयज को थोप देती है फिर हमें उनमें से ही चुनने का नाटक करना पड़ता है। यह भी कहा जाता है कि हम चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। जबकि व्यवहार में ऐसा नहीं है। हम उन्हीं चीजों में से चुनने के लिए स्वतंत्र हैं जो हमारे सामने पेश की गयी हैं, अथवा थोप दी गयी हैं। इसी अर्थ में यह खोखली धारणा है। हमें लगातार ऐसे विषयों के बारे में निर्णय लेने के लिए बाध्य किया जा रहा है जो हमारे जीवन को सीधे प्रभावित करते हैं। जबकि हमें उनके बारे सही जानकारी और समझ तक नहीं होती। ज़ीज़ेक ने लिखा है कि पहले इनलाइटेनमेंट में समाज को 'इरेशनल' अथवा 'अविवेक' से मुक्ति मिली, किंतु यह जो दूसरा इनलाइटेंनमेंट है वह हमें 'रेशनल' अथवा 'विवेक' से मुक्त करने जा रहा है। वे चाहते हैं कि हम विवेक से फैसला न लें। वे चाहते हैं कि हम अपने अस्तित्व रक्षा के महत्वपूर्ण फैसले वगैर ज्ञान के आधार पर ले लें। खुलेपन और अनिश्चितता के मूलगामी नजरिए को त्याग दिया गया है। यह कहा जा रहा है कि अनुभव ही हमें मुक्ति दिलाएगा। हमें मुक्तभाव से फैसले करने चाहिए। उसी के गर्भ से जो अनुभव पैदा होगा वह हमें उद्विग्न करेगा। हमें उन बातों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है जिनकी परिस्थितियो का हमें समुचित ज्ञान नहीं है। रिस्क सोसायटी में आपको स्वतंत्रभाव से चुनने की आजादी नहीं है , किंतु परिस्थितियों का दबाव है जो आपको आजादी के लिए मजबूर कर रहा है, आप नहीं जानते कि आजादी के परिणाम क्या हैं ? इसकी कोई गारंटी नहीं है कि लोकतांत्रिक तौर पर हजारों-लाखों लोग महत्वपूर्ण फैसले में शिरकत करें और इसके बावजूद भी जरूरी नहीं है कि सही निर्णय ही लें। अथवा जीवन दशा में सुधार आए। अथवा जोखिम कम हो जाए। असल में रिस्क सोसायटी हमें ऐसी परिस्थितियों में ठेलती है जिसके प्रभाव हमारी जद के बाहर होते हैं।
19वीं शताब्दी में आए परिवर्तनों ने पुराने सामंती ठोस सामाजिक तत्वों को हवा में उड़ा दिया, पुराने किस्म के सभी रूपों को नष्ट कर दिया और पूरे समाज को बाजार के हवाले कर दिया। बाजार ही वह तत्व है जो सबसे बड़ा जोखिम लेकर सामने आया। एक तरफ बाजार ने बुनियादी तौर पर जोखिम के संबंधों को पैदा किया, साथ ही उन तमाम अज्ञात क्षेत्रों में प्रवेश कर गया जिनके बारे में कोई पूर्वज्ञान नहीं था। बाजार के हवाले सब कुछ कर देने का क्या परिणाम होगा हम नहीं जानते थे। बाजार के हवाले रहने का अर्थ था सब कुछ कयास के हवाले कर देना। कयास के सहारे ही हम आगे बढ़े हैं। मुक्त बाजार विचारधारा का बुनियादी आधार है अदृश्य हाथ।
ज़ीज़ेक का मानना है कि मनोविज्ञान ऐसी सैध्दान्तिकी है जो पुराने या परंपरागत स्थिरता और विजडम के विखण्डन का ज्ञान कराती है,उन्हें आधुनिक स्नायविकी में खोजती है। वह हमें मजबूर करती है कि हम पुरानी जड़ों की खोज करें। अथवा पुरानी जड़ों का ज्ञान हासिल करें। मनोविज्ञान यह बताता है सही मायने में वस्तु क्या है, विखंडन के परंपरागत समाजों और लीविडन लाइफ पर क्या असर हो रहे हैं। पितृ शक्ति का क्षय क्यों हो रहा है , नई उद्विग्नता ने सामाजिक और लैगिक भूमिकाएं क्या तय की हैं। मनोविज्ञान स्वयं की केयर करने के बारे में नहीं बताता, वह यह नहीं बताता कि हमारी अनेक किस्म की अस्मिताएं कैसे बन रही हैं। वे कैसे बदल रही हैं। रिस्क सोसायटी की मुश्किल यह है कि वह इन सारे परिवर्तनों को समझ नहीं पाए हैं। वे सारी चीजों का प्रतिबिम्बन सार्वभौम रूप में देख रहे हैं। मसलन् पर्यावरण में आए परिवर्तनों के बारे में सार्वभौम रूप में देख रहे हैं। वे समस्या को सार्वभौम रूप में देखते और पेश करते हैं। सवाल यह है कि क्या सार्वभौम प्रतिबिम्बन जैसी कोई चीज है ? आज प्रकृति और परंपरा का कहीं भी अस्तित्व ही नहीं बचा है, अब तो सिर्फ इनके बारे में बातें भर बची हैं। मनोवैज्ञानिक व्याख्या की असमर्थता आज जगजाहिर है।
परंपरागत मनोविज्ञान अभी भी अवचेतन पर निर्भर है। आज अवचेतन का भोलापन खत्म हो चुका है। अवचेतन प्रतिबिम्बित नहीं होता, आज वे लक्षणों की व्याख्या कर रहे हैं। किंतु वे यह भूल जाते हैं कि लक्षणों का यथार्थ से संबंध होता है अवचेतन से नहीं। मनोवैज्ञानिक चिकित्सा की नव्य नाजीवाद के साथ ज़ीज़ेक ने तुलना की है। ज़ीज़ेक कहता है जैसे नव्य नाजी हिंसा करते-करते अचानक सामाजिक सवालों पर बातें करने लगते हैं, उनकी सामाजिक गतिशीलता को समाजविज्ञानी अस्वीकार करते रहे हैं। इससे असुरक्षा और भी बढ़ी है। पितृशक्ति का विखंडन हुआ है। बच्चों के प्रति माँ का प्यार कम हुआ है। ये सारी चीजें विखण्डन का संकेत करती हैं। साथ ही यह भी बताती हैं कि हमारे समाज में किस तरह हिंसा के रूप चारों ओर फैले हुए हैं और हिंसा की क्या महत्ताा है। इन सबके बारे में हमारे पास उसकी अपर्याप्त व्याख्याएं हैं।
रिस्क सोसायटी के सिध्दान्तकारों ने व्याख्या को पर्याप्त महत्व दिया है। किंतु सवाल यह है कि क्या व्याख्या और सिर्फ व्याख्या से समस्याओं के समाधान संभव हैं ? क्या सभी व्याख्याएं समान हैं ? क्या रिस्क सोसायटी के लोग यह बता सकते हैं कि वे अपना सामाजिक व्याख्या का मुहावरा नहीं बदलेंगे ? क्या हम लगातार पूंजीवादी व्याख्याकारों के बदले हुए मुहावरे,तर्क,धारणाओं में तेजी से परिवर्तन नहीं देख रहे हैं ? क्या यह सच नहीं है कि द्वितीय विश्वयुध्द के बाद तेजी से सामाजिक व्याख्याओं के केन्द्र बिंदु को बदले बिना मुहावरे,नारे,धारणाओं,आन्दोलनों के नाम पर विश्वव्यापी भ्रम पैदा नहीं किया गया है ? लगातार नए आंदोलनों ने पुराने को खारिज किया है और तर्क की बजाय अतर्क को प्रतिष्ठित किया है। सामाजिक विभ्रमों की सृष्टि की है।
ज़ीज़ेक के अनुसार इन दिनों मीडिया में आबशेसन का भाव सक्रिय है। कहानियों,संस्मरणों को ही भविष्य बताया जा रहा है। विश्लेषकों को दोषी ठहराया जा रहा है। आज हमसे विश्लेषक जो मांग कर रहे हैं हम वही कर रहे हैं। असल में इस बहाने हम इच्छाओं को उभार रहे हैं। सच यह है कि विश्लेषकों ने सत्य का उद्धाटन बंद कर दिया है। आज विश्लेषक स्वयं ही चुप नहीं है बल्कि अन्य को भी चुप कराने में लगा है। ऐसे में यदि आप सक्रिय हैं तो भी कुछ होने वाला नहीं है। अब शब्दों से परेशानी नहीं होती। अब हम कुछ शब्द भर बोलते हैं और अपने दमित कष्टों को व्यक्त करते हैं। इसे आप कभी-कभार टीवी वाइटस में देख सकते हैं। आज हम ''छद्म गतिविधियों'' में सक्रिय हैं। ''छद्म गतिविधि'' उसे कहते हैं जहां निरर्थक तौर पर खूब सक्रिय रहते हैं। सक्रिय हैं किंतु कुछ भी अर्जित करना नहीं चाहते। सक्रिय हैं रोकने के लिए कि कुछ घट न जाय। कल्पना कीजिए आपका कोई दोस्त है जिससे मिलने पर आपको तनाव होता है ,अथवा जिससे मिलने पर कुछ धमाका हो सकता है। यही वजह है कि जब वह मिलता है तो सब समय आबशेसनल बातें करते रहते हैं ,चुटकुले सुनाते रहते हैं। जिससे चुप्पी के पीछे छिपी अनिच्छित परिस्थितियों से बचा जाए। बातचीत में शिरकत करने वाले को उलझन में डालने वाले विषयों से बचा जाए। आज राजनीति में खास किस्म के मुद्दे चर्चा के केन्द्र में हैं जैसे समलैंगिकता,अपराधीकरण, पर्यावरण,अल्पसंख्यकों के अधिकार ,साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ओबीसी आरक्षण,अयोध्या में राममंदिर आदि, इस तरह के सवाल अस्थिर होते हैं। अस्मिता की चंचल अवस्थाओं को सामने लाते हैं। इस तरह के सवालों के परिणामस्वरूप बहुस्तरीय तदर्थ मोर्चे बन रहे हैं। ये ऐसे मोर्चे हैं जो अप्रामाणिक हैं। इस तरह के मोर्चे अंतत: आबशेसनल न्यूरोटिक की तरह सब समय बातों में ही व्यस्त रखते हैं। न्यूरोटिक वह है जो कुछ चीजें सुनिश्चित करने के लिए सब समय सक्रिय रहता है , वह जो सुनिश्चित करना चाहता है उसे डिस्टर्व नहीं करता। इसी अर्थ में वह छद्म गतिविधि में लगा रहता है। आज यही हमारी दैनन्दिन जिन्दगी का सच है।
हमारे बीच में ऐसे तर्कवादी आ गए हैं जो इंटरनेट के जरिए जो नेटवर्किंग की जा रही है अथवा जो वर्चुअल आनंद परोसा जा रहा है उसकी आए दिन हिमायत कर रहे हैं। इंटरनेट का वर्चुअल समाज वास्तव समाज नहीं है। वीडियोगेम अथवा पोर्न वास्तव नहीं हैं बल्कि वर्चुअल हैं। वर्चुअल संस्कृति जीवरहित संस्कृति है। यह ऐसी संस्कृति है जिसमें कोई भी जीव नहीं है,पशु नहीं है, आदमी नहीं है, यह प्राणीरहित और प्राणरहित संस्कृति है। यहां तो बस कुछ सिगनल हैं। यहां सिर्फ स्क्रीन है और स्क्रीन के परे कुछ भी नहीं है। हम सिगनलों से खेलते रहते हैं। इसका कोई रिफरेंट या संदर्भ नहीं है। हम पूरी तरह उपयुक्त भावनाओं को आत्मसात करते हुए खेलते हैं अथवा आनंद लेते हैं। वीडियोगेम में अथवा वर्चुअल खेल में अन्य पार्टनर पूरी तरह वर्चुअल होता है। वर्चुअल खेल में अथवा वर्चुअल दृश्य चाट में हम जो कुछ भी कर रहे होते हैं अथवा कह रहे होते हैं वह पूरी तरह छद्म होता है। मसलन् आपने किसी टामागुची वीडियो गेम में अथवा कामुक चाट रूम में सीधे बातें करने वाली औरत से कहा कि मुझे चुम्बन दो अथवा मेरे साथ संभोग करो। ऐसी अवस्था में आप सिर्फ बटन भर दबाते हैं। बटन दबाते ही आपकी इच्छा पूरी हो जाती है। इस संदर्भ में देखें तो डिजिटल टॉय ज्यादा प्रतिगामी (परवर्ज)होता है। यह हमारे ईगो और अति वास्तविक सहिष्णुता को जगाता है।
वर्चुअल संस्कृति में विचरण करने वाले की मुश्किल यह है कि उसे बटन दबाते ही इच्छित चीज मिल जाती है। उसे वास्तव में प्रयास नहीं करना पड़ता, वास्तव से संपर्क नहीं करना पड़ता, वास्तव में महसूस नहीं करना पड़ता। वह जो चाहता है उसे तत्काल मिल जाता है। वर्चुअल में हम मूलत: प्रतीकों में ,प्राइवेट तौर पर आनंद लेते हैं। आपको जिस तरह की सहिष्णुता अथवा सामंजस्य की जरूरत होती है उसका ख्याल वर्चुअल तकनीक करती है आपको स्वयं उसका ख्याल नहीं करना होता। आप प्राइवेट में संतुष्ट होते हैं। यह ऐसी संतुष्टि है जो आपके पड़ोसी को परेशान नहीं करती, आप उसकी चिन्ता भी नहीं करते। वर्चुअल के जरिए मिलने वाला संतोष कभी भी हासिल किया जा सकता है। इसकी खूबी है आपकी मांग की पूर्ति करना। यही वह बिंदु है जहां हम मुश्किल में फंसते हैं। हम आबशेसनल ऑब्जेक्ट के साथ बंध जाते हैं, आबशेसनल ऑब्जेक्ट की विशेषता है वह अन्य की इच्छा की मांग को व्यक्त करता है।
( पुस्तक अंश 'भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया',लेखक- जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह,
प्रकाशक अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.लि;),
4697/3, 21 ए, अंसारी रोड ,दरियागंज,नई दिल्ली 110002)
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