आतंकी हमले की इमेज जब प्रस्तुत की जाती है तो देखना होगा कि क्या पेश किया जा रहा है और किस भाषा में पेश किया ज रहा है और लोग किस रूप में ग्रहण कर रहे हैं। मुंबई की आतंकी घटना के 59 घंटे के कवरेज में आरंभ किसी इमेज से नहीं होता है बल्कि सबसे पहले भाषा में खबर पेश की जाती है। शीर्षक था 'दो गुटों में फायरिंग'। इसके कुछ समय बाद इमेजों का प्रक्षेपण आरंभ होता है जो 59 घंटे तक चलता है। इसमें सबसे पहली इमेज 'टाइम्स-नाउ' चैनल पर आती है। जिसमें आतंकी हमलावरों को भागते,फायरिंग करते, पुलिस कास्टेबिलों के साथ मुठभेड़ करते, पुलिस गाड़ी को हाईजैक करते दिखाया गया।
आतंकी घटना के तथाकथित लाइव कवरेज ने दो सवालों को जन्म दिया है। पहला बुनियादी सवाल यह उठा है कि क्या मुंबई की आतंकी घटना के लाइव प्रसारण ने प्रसारण के एथिक्स का उल्लंघन किया है ? दूसरा सवाल ,क्या टीवी से प्रत्यक्ष आतंकी हिंसा का प्रसारण दिखाया जाना चाहिए ? इन दोनों सवालों पर विचार करने पहले यह ध्यान में रखना बेहद जरूरी है कि आतंकी हमला क्यों हुआ ? आतंकियों की मंशा क्या थी ?
आतंकी हमला राष्ट्रद्रोह है। किसी भी तर्क से इसे वैध नहीं ठहराया जा सकता। 'इकनॉमिक टाइम्स',(हिन्दी, 30 नबम्बर 2009) में प्रकाशित एसोचैम के सचिव डी.एस. रावत के अनुसार आतंकी हमले से तकरीबन चार हजार करोड़ रूपये का नुकसान हुआ।
अनेक मीडिया पंडितों का मानना है मुंबई के आतंकी हमले का लाइव कवरेज मूलत: टीवी के अभिजनवादी नजरिए की अभिव्यक्ति है। लाइव कवरेज के संदर्भ में यह तर्क एकसिरे से बेहूदा और बोगस है। यह संयोग की बात है कि मुंबई के हमले के निशाने पर अभिजन थे। किंतु यह हमला अभिजनों पर नहीं किया गया था। यह हमला भारत पर हुआ था। इस हमले का व्यापक कवरेज इसलिए हो पाया क्योंकि यह घटना मुंबई में घटी थी और टीवी चैनलों के लिए प्रसारण के फ्लो को बनाए रखना संभव था। यही घटना कहीं दूर-दराज के इलाके में घटी होती तो इतना व्यापक कवरेज नहीं आता। मीडिया की घटना तक सहज पहुँच ने इसके कवरेज को संभव बनाया।
यह भी कहा गया कि मीडिया ने छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के रेलवे स्टेशन की आतंकी-पुलिस मुठभेड़ और उसके बाद की परिस्थितियों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित न करके पांच सितारा होटलों पर हो रही मुठभेड़ पर ज्यादा ध्यान दिया। रेलवे स्टेशन पर साधारण लोग थे और पांच सितारा में अभिजन थे। रेलवे स्टेशन पर मारे जाने वाले लोग साधारण मध्यवर्ग के थे और पांचसितारा में जो लोग थे वे अभिजन थे। अपने अभिजनवादी नजरिए के कारण मीडिया ने पांचसितारा की मुठभेड़ को ज्यादा कवरेज दिया।
इस तरह के तर्कों के संदर्भ में पहली बात यह है कि आतंकियों के निशाने पर कभी कोई सामाजिक वर्ग या धर्म नहीं होता। आतंकी हमले का मूल लक्ष्य है 'भय' पैदा करना और ज्यादा से ज्यादा हत्या करके व्यापक कवरेज हासिल करना। आतंकी हमले के निशाने पर हमेशा राष्ट्र होता है। इस प्रसंग में सिर्फ जम्मू-कश्मीर का ही उदाहरण काफी होगा। जिन इलाकों में आतंकी कार्रवाई जारी है वे इलाके किसी भी दृष्टि से अभिजन इलाके नहीं हैं। यही स्थिति उत्तर-पूर्व के राज्यों में चल रही आतंकी कार्रवाई के संदर्भ में देख सकते हैं। यहां तक कि नक्सल आतंक से वे ही इलाके प्रभावित हैं जो किसी भी रूप में धनी नहीं हैं। आतंकी कभी जाति,दौलत,और धर्म देखकर हमला नहीं करते। आतंकियों का मूल निशाना राष्ट्र होता है। राष्ट्र को तबाह करने के लिए किसी का भी खून बहाया जा सकता है,कहीं पर भी हमला किया जा सकता है। किसी को भी बंधक बनाया जा सकता है और कहीं पर भी मुठभेड़ हो सकती है।
दूसरी बात यह कि टीवी कवरेज खासकर आतंकी कवरेज कितना होगा और कहां पर कैमरा होगा यह कभी दर्शक की स्थिति के अनुसार तय नहीं किया जाता। टीवी पर जब लाइव कवरेज आता है अथवा जब खबरें आती हैं तो उन्हें अभिजन ही नहीं देखते बल्कि साधारण लोग भी देखते हैं। अखबार में जब खबर छपती है तो उसे अमीर ही नहीं साधारण लोग भी पढ़ते हैं। आतंकी हमले के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा अगर कहीं नजर आता है तो साधारण आदमी में नजर आता है। क्योंकि सबसे ज्यादा उसे ही क्षति उठानी पड़ती है।
आतंक की खबरों का सबसे ज्यादा उपभोग अमीरों में नहीं होता। अभिजन में नहीं होता। टीवी कवरेज के बारे में यह मिथ है कि टीआरपी बढ़ाने के लिहाज से लाइव कवरेज का इस्तेमाल किया गया। यह संभव है टीआरपी बढ़े और यह भी संभव है टीआरपी घटे। किंतु यह निर्णय तुरंत नहीं लिया जा सकता। किसी भी घटना के कवरेज से मीडिया की टीआरपी बढ़ी है या घटी है यह इससे तय नहीं होग कि कितने लोगों ने देखा। बल्कि इससे तय होगा कि मीडिया की साख बढ़ी है या घटी है। जब भी कोई लाइव कवरेज आता है आम खबरों की तुलना में उसकी दर्शक संख्या हमेशा ज्यादा ही रहती है। यह बात क्रिकेट-फुटबाल मैच से लेकर मुंबई कवरेज तक सब पर लागू होती है। किंतु कवरेज का असर किसी समुदाय विशेष पर नहीं होता। समूचे समाज पर होता है। समाचार या लाइव कवरेज या क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण अथवा विज्ञापन का प्रसारण या सीरियल या फिल्म का प्रसारण हो ,यह प्रसारण सिर्फ दर्शकों को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि उन्हें भी प्रभावित करता है जो लोग इसे नहीं देखते। जो लोग नीति निर्धारक हैं।
प्रसारण हुआ है तो प्रभाव भी होगा यह बात दावे के साथ कहना संभव नहीं है। प्रभाव हो सकता है और नहीं भी हो सकता। आमतौर पर आतंकी कवरेज का प्रभाव क्षणिक होता है। कवरेज का प्रभाव स्थायी तब ही होता है जब उस प्रभाव को लागू करने वाली सांगठनिक संरचनाएं निचले स्तर तक मौजूद हों।
मीडिया का प्रभाव तब ही होता है जब प्रभाव को लागू करने वाले संगठन सक्रिय हों। यह सच है कि मीडिया का लक्ष्य हमेशा अभिजन का कवरेज होता है किंतु सारी चीजें मीडिया के अनुसार नहीं चलतीं। मीडिया प्रवाह के अपने नियम हैं और ये नियम वर्गीय सीमाओं के परे काम करते हैं। मीडिया सिर्फ लक्ष्य के अनुसार ही प्रभाव नहीं छोड़ता। बल्कि अनेक ऐसी चीजें आ जाती हैं जिनकी मीडिया ने कल्पना तक नहीं की होता। मीडिया प्रवाह स्वयं में प्रधान कारक कभी नहीं रहा। मीडिया हमेशा तब ही भूमिका अदा करता है,तब ही प्रभावित करता है जब उसे लागू करने वाली संरचनाएं निचले स्तर तक सक्रिय हों। मीडिया सहयोगी होता है निर्णायक नहीं आमलोग हों या अभिजन हों। कोई भी मीडिया से निर्णायक तौर पर संचालित नहीं होता। इनके संचालन और नियमन के नियमों की जड़ें समाज में हैं। सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-आर्थिक प्रक्रियाओं में हैं।
कवरेज कैसा होगा ? यह इस बात पर निर्भर करता है कि दांव पर क्या लगा है ? दांव पर यदि निर्दोष लोगों की जिंदगी लगी है तो कवरेज भिन्न किस्म का होगा। यदि दांव पर आतंकी लगे हैं तो भिन्न होगा। दांव पर कुछ भी नहीं लगा है तो कवरेज की शक्ल अलग होगी।
विभिन्न टीवी चैनलों के लाइव कवरेज में सूचनाएं बहुत कम थीं। न्यूनतम सूचनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति हो रही थी। सारवान खबरें एकसिरे से गायब थीं। इसका प्रधान कारण था टीवी चैनलों के पास संसाधनों की कमी। चैनलों के पास जितने भी संवाददाता थे वे सब एक ही स्थान पर विभिन्न दिशाओं में लगे हुए थे ,वे घटनास्थल पर खड़े थे और बाहर खबर के आने का इंतजार कर रहे थे।
खबर स्वयं चलकर नहीं आती। खबर को लाना होता है, बनाना होता है। अर्णव गोस्वामी,बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई आदि जितने भी टीवी पत्रकार थे वे न्यूनतम सूचनाएं संप्रेषित कर रहे थे। घंटों एक ही सूचना को दोहरा रहे थे। डीएनए अखबार ( 29 नबम्वर 2008) में वी .गंगाधर ने लिखा 43 घंटे गुजर जाने के बाद भी दर्शक यह नहीं जानते थे कि होटल में कितने आतंकी हैं, कितने लोग मारे गए हैं। चैनल बार-बार कह रहे थे कि आतंकियों से मुठभेड़ अंतिम चरण में है। किंतु अंत दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था। ज्योंही बंदूक की आवाज सुनाई देती थी अथवा विस्फोट की आवाज सुनाई देती थी चैनल पर बताया जाता था कि जंग तेज हो गई है। गंगाधर ने सवाल उठाया है कि ऐसा कहकर चैनलों ने दर्शकों को भ्रमित क्यों किया ?
दोनों पांच सितारा होटलों से लपटें उठती हुई नजर आ रही थी। ये लपटें कभी उठती थीं। कभी बुझ जाती थी। कभी सिर्फ धुंआ नजर आता था। कभी फायरिंग की आवाज आती थी। कभी होटल में फंसे लोग बाहर आते नजर आते थे। कभी कोई खिड़की खुली नजर आती थी। कभी किसी खिड़की से झांकता कोई चेहरा नजर आता था। कभी किसी आतंकी का शरीर झांकता था। कभी किसी आतंकी की लाश खिड़की से लुढ़कती नजर आ रही थी।
सड़कों पर झुंड बनाकर रिपोर्टर खड़े थे। कभी जमीन पर लेटकर रिपोर्टिंग कर रहे थे। कभी पुलिस बैन नजर आ रही थी। कभी कमाण्डो आपरेशन करते नजर आ रहे थे। कभी पोजीशन लेते नजर आ रहे थे। कभी हेलीकॉप्टर से होटल के पास की छत पर उतरते कमाण्डो नजर आ रहे थे। कभी टीवी पर आतंकियों के साक्षात्कार सुनाई दे रहे थे। कभी दर्शकों का हुजूम दिखाई देता था। कभी आतंकवादियों के चश्मदीदों के बयान दिखाए जा रहे थे तो कभी होटल से निकाले गए लोगों के बाइट्स दिखाए जा रहे थे। कभी पुराने फोटो दिखाए जा रहे थे। इस सारी प्रक्रिया में विभिन्न चैनलों पर पाक का आतंकी आख्यान चल रहा था।
दोनों होटलों से उठती हुई लपटें दिखाई दे रही थीं किंतु न्यूनतम सूचनाएं आ रही थीं। एनडीटीवी की बरखादत्त सांस रोके बिना अहर्निश बोल रही थी,किंतु कोई भी सारवान बात नहीं कह रही थी। राजदीप सरदसाई सीएसटी टर्मिनस में फायरिंग की अफवाहों में व्यस्त थे। सरदेसाई जैसे गंभीर पत्रकार भी चूक कर रहे थे। सरदेसाई ने पहले अफवाह को खबर बनाया। बाद में कहा यह अफवाह थी। सवाल यह है अफवाह थी तो पहले ही क्यों नहीं रोका ? यदि अफवाह थी तो दर्जनों बार पुनरावृत्ति क्यों दिखाई गयी ?
अर्णव गोस्वामी पाक की आतंकवाद के संदर्भ में क्या भूमिका रही है इसके आख्यान में व्यस्त थे। हिन्दी चैनलों में सबसे खतरनाक प्रसारण 'इण्डिया टीवी' का था। इस चैनल ने प्रसारण के दौरान दो आतंकियों का सीधे साक्षात्कार सुनाया। चश्मदीद गवाह पेश किया। ये चीजें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे खतरनाक थीं। खबरों को प्रसारित करने की दौड़ में यह चैनल सभी चैनलों से आगे था। इस चैनल में अनेक चीजें पहलीबार दिखाई गयीं जो अन्य चैनलों पर बाद में आयीं। जैसे आतंकियों को सबसे पहले समुद्री तट पर जिन धोबियों-मछुआरों ने देखा था उनमें से पहले जिस महिला ने देखा उसका साक्षात्कार दिखाया। कैसे हेलीकोप्टर से कमाण्डो उतर रहे हैं कितने कमाण्डो हैं, दो आतंकवादियों का होटल से सीधे साक्षात्कार आदि।
सब से तेज़- की लालच में टीवी वाले देश हित और सच्चाई को नज़र अंदाज़ कर रहे हैं। टीवी पर लाइव बताने के कारण ही आतंकवादियों को आगे की कार्रवाई करने में आसानी हुई, तो फिर क्या ऐसा लाइव कवरेज उचित है। बेहतर होता पूरे तथ्य इकट्ठा करके पूरी तस्वीर पेश की जाती॥
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