शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

ओबामा और मीडि‍या
















वह जीता हम खुश हुए। वह हारा हम दुखी हुए। 'हम' और 'मैं' के बीच विपर्यय का नाम ही वर्चुअल यथार्थ या महायथार्थ। विपर्यय के कारण ही 'मैं' को 'हम' और 'हम' को 'मैं' समझने लगते हैं। ओबामा की जीत हो या सौरभ गांगुली का टीम चुना जाना हो दर्शक को लगता है वही जीता है। 'मैं' के अंदर 'हम' को इसी तरह वर्चुअल यथार्थ अन्तर्भुक्त कर रहा है। इस तरह वह 'हम' को विभ्रम में रखता है।  
          अमरीका के राष्ट्रपति पद पर ओबामा का चुनाव जीतना। सामान्य राजनीतिक घटना है। राष्ट्रपति का चुनाव होगा तो कोई जीतेगा और कोई हारेगा। किंतु मीडिया ने इसे असामान्य और विलक्षण घटना बना दिया। रातों-रात ओबामा को दलित-अश्वेत और वंचितों के आनंद की अभिव्यक्ति बना दिया। सारी दुनिया उनकी जीत में अपना ओबामा देखने लगी।
       भारत में भी मीडिया बौध्दिकों ने ओबामा की खोज का काम शुरू कर दिया। ओबामा के पहले किसी भी अमरीकी नेता में हमें अपने किसी नेता की छाया के दर्शन नहीं हुए। यह अमरीका में भारत को देखने का चरमोत्कर्ष है। विगत कई दशकों से हम अमरीका में भारत को देखने का अभ्यास करते रहे हैं। अमरीका को मीडिया,मध्यवर्ग और उपभोक्तावाद ने हमारा आदर्श बनाया है। ओबामा की जीत के साथ राजनीति में भी अमरीका मार्का नेताओं की खोज की जा रही है। ओबामा की तलाश राजनीतिक-सांस्कृतिक विपर्यय है।
     ओबामा प्रतीक और उपमा है। वह वर्चुअल राजनीतिक मीडिया प्रवाह की देन है। वर्चुअल सूचना प्रवाह 'तुलना' और 'तदनुरूपता' की ओर ठेलता है। वर्चुअल प्रस्तुति नाटकीय होती है। यथार्थ चंचल होता है।  विमर्श मीडिया वातावरण में गुम हो जाते हैं। सब कुछ 'आभास' में रहता है। वर्चुअल संदेश कोड में रहता है। ओबामा की जीत प्रतीकात्मक है। मीडिया उत्तेजना की चंचल सृष्टि है। ओबामा का प्रतीक वर्चुअल है। इसके निर्माण में मीडिया स्पीड ,सूचना के अबाधित फ्लो और अमरीकी राष्ट्रवाद की केन्द्रीय भूमिका है। ओबामा अश्वेत नहीं है बल्कि अमरीकी वर्चस्व का एकदम नया वर्चुअल रूप है।
        ओबामा का व्यक्ति या अश्वेत के रूप में संप्रेषण नहीं हुआ। मीडिया ने उसे 'परिवर्तन' के प्रतीक के रूप में संप्रेषित किया । प्रतीक के रूप में ओबामा अनिश्चित,अनेकार्थी और पकड़ के बाहर है। प्रतीक के नाते वह विभ्रम पैदा करता है। ओबामा की जीत निजी यथार्थ से मुक्ति भी है। जीतने के बाद वह न काला है न गोरा है। डेमोक्रेट है न रिपब्लिकन है। वह अमरीकी राष्ट्रवाद का प्रतीक है। विभ्रम है। ओबामा एक विचारधारात्मक केटेगरी है।
     व्यक्ति जब विचारधारात्मक केटेगरी बनता है तो स्वयं का निषेध करता है। विचारधारात्मक केटेगरी में प्रस्तुति के कारण जो है वह नहीं दिखता और जो दिखता है वह होता नहीं है। ओबामा का संदेश है '' जो कहा जा रहा है ,उसे आत्मसात करो'' , '' जो दिख रहा है उसे नतमस्तक होकर मानो'', ओबामा का संदेश है '' आत्मसातकरण'' और ''समर्पण।'' इसे बागी प्रतीक के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए।  विभ्रम ने ओबामा का कायाकल्प किया है। ओबामा की दुनिया बदली है। ओबामा की राष्ट्रपति पद पर विजय अश्वेत यथार्थ और नैतिकता की अस्वीकृति है।
      मीडिया में ओबामा 'यथार्थ के अस्वीकार' और 'उम्मीद'ं का प्रतीक है। आभास दिया ओबामा कुछ करेगा।  उसकी इमेज में सामूहिक भावों और अनुभूतियों को समाहित कर लिया गया। फलत: यथार्थ से ज्यादा सुंदर लगने लगा । पराजय,मंदी और अवसाद के क्षणों में ओबामा ने अमरीका के साधारणजन के अंदर 'उम्मीदें' जगायी और स्थानीय से सार्वभौम बन गया।
      ओबामा मीडियायथार्थ पर टिका है। मीडियायथार्थ हमारे विवेक को कुंद,चकित,मौन और पंगु बनाता है। आक्रामक राजनीतिक संरचनाओं की देन है,ये अपनी शर्तें थोपती हैं और गायब हो जाती हैं। वर्चुअल यथार्थ में प्रस्तुत संरचनाएं कारपोरेट अपराधियों को निर्दोष,निकलंक बनाती हैं। फलत: कारपोरेट नायकों और कारपोरेट अपराधों को मीडिया में पकड़ना असंभव है। अमरीकी जनता के सामने वर्चुअल यथार्थ ने एक ही रास्ता छोड़ा है 'चुप रहो, अनुकरण करो।'
    ओबामा का प्रौपेगैण्डा अतिरंजित प्रस्तुतियों पर टिका है। अतिरंजित प्रस्तुतियां 'कॉमनसेंस' और 'मनोरंजक भावबोध' को सम्बोधित करती हैं ,विवेक को अस्वीकार करती हैं। इसके कारण मीडिया प्रस्तुतियों और वास्तविकता के बीच महा-अंतराल रहता है।
      मीडिया प्रस्तुतियों में ओबामा को अश्वेत से जोड़ा गया, वैसे ही मायावती को भी मीडिया प्रस्तुतियों में दलित से जोड़ा गया। वास्तविकता में ओबामा और मायावती दोनों ही अपने सामाजिक स्वरूप को प्रतिबिम्बित नहीं करते। मायावती आज दलित नहीं है। वैभव,चाल-ढाल, रंग- ढ़ंग, विचारधारा किसी भी रूप में मायावती का दलित यथार्थ से मेल नहीं है। यही अवस्था ओबामा की है। ओबामा का समूचा विकास,शिक्षा-दीक्षा गैर अश्वेत अभिजन वातावरण में हुई। जो लोग मायावती में ओबामा खोज रहे हैं वे विभ्रम के शिकार हैं। वैसे ही विभ्रम के शिकार हैं जैसे ओबामा को लेकर अश्वेत अमरीकी हैं। महायथार्थ के फ्रेम में निर्मित होने के बाद चीजें यथार्थ से भिन्ना शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। उनकी यथार्थ के साथ तुलना बेमानी है।
    मीडिया प्रस्तुतियां तकनीकी कौशल की देन हैं। इनमें बेचैनी, प्रेरणा और परिवर्तन की क्षमता नहीं होती। ये महज प्रस्तुतियां हैं। जितना जल्दी संप्रेषित होती हैं उतनी ही जल्दी गायब हो जाती हैं। प्रस्तुतियां आनंद देती हैं,मनोरंजन करती हैं और खाली समय भरती हैं। इनके जरिए राजनीतिक यथार्थ देखना समझ में नहीं आता। राजनीतिक यथार्थ तो टीवी प्रस्तुतियों के बाहर होता है।
    (  पुस्‍तक अंश ,लेखक-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी , पुस्‍तक का नाम 'ओबामा और मीडि‍या',प्रकाशक - अनामि‍का पब्‍लि‍शर्स एंड डि‍स्‍ट्रि‍ब्‍यूटर्स 4697 /3, 21 ए ,अंसारी रोड़ ,नई दि‍ल्‍ली ) 

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