महेन्द्र 'नेह'
गजानन माधव मुक्तिबोध हमारे समय के उन अग्रणी रचनाकारों में हैं। जिन्होंने देशकाल और परिस्थितियों की त्रासद सचाइयों और उसके साधारण जन पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल पूरी शिद्दत से की और अपनी कविताओं, कहानियों, लेखों व समीक्षा में युग की सच्चाइयों को उदघाटित किया। मेरा मानना है कि निराला के अलावा मुक्तिबोध ही ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होने हिन्दी साहित्य को विश्व-साहित्य की कोटि में रखे जाने का मात्र सपना ही नहीं देखा, बल्कि इस बड़ी चुनौती के लिए प्राण-प्रण से चेष्टा भी की। अपने अध्ययन, मनन, चिंतन और संघर्ष के द्वारा उन्होंने इस दिशा में जो काम किया है, वह अभी हिन्दी के आम पाठकों तक नहीं पहुँच पाया।
मुक्तिबोध उन विरले लेखकों में से थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश की कथित 'आजादी' के मर्म और 1947 के बाद भारत की राज्य-सत्ता पर काबिज नये शासक वर्ग के चरित्र की सच्चाई को समझ कर अपने लेखन का उद्देश्य तय किया। जहाँ केवल सत्ता से नाभिनालबध्द लेखकों का समूह ही नहीं बल्कि प्रगतिशील लेखकों का बड़ा हिस्सा भी नेहरू-युग की भ्रामक प्रगतिशीलता से सम्मोहित हो रहा था, वे मुक्तिबोध ही थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में इस सचाई को उदघाटित किया कि देश का नये शासक-वर्ग का चरित्र मात्र जन-विरोधी ही नहीं है, बल्कि साम्राज्यवादियों जैसा ही क्रूर, निरंकुश और हिंसक भी है। उसके हित साम्राज्यवाद से टकराव के नहीं अपितु वह साम्राज्यवादी शोषण-दमन और उत्पीड़न में सहायक व साझीदार है। इस संदर्भ में उनकी कहानी 'क्लाड ईथरली' को पढ़ना चाहिए, जिसमें वे लिखते हैं - ''तो तुमने मैकमिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसने.......... को दी थी। उसने क्या कहा था ? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है किन्तु संस्कृति और आत्मा से हमारे साथ है। क्या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था ? कतई नहीं। वह एक महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाल रहा था। उनकी कविता ''बारह बजे रात के'' से भी कुछ पंक्तिया उध्दृत करना चाहता हूँ - ''युध्द के लाल-लाल / प्रदीप्त स्फुलिंगों से लगते हैं / बिजली के दीप हमें / लंदन में वाशिंगटन / वाशिंगटन में पेरिस की पूँजी की चिंता में / युध्द की वार्त्ताऐं सोने न देती हैं / किराये की आजादी / चॉटे सी पड़ी है, पर रोने न देती है / जर्मनी संगीत / अमरीकी संगीत / जब मानव और मनुष्य हमें / होने न देता है।''
मुक्तिबोध निरूद्देश्य लेखन के बजाय उद्देश्यपूर्ण व लक्ष्यबध्द लेखन के समर्थक थे। उनका मानना था साहित्य का उद्देश्य मानवीय भावनाओं के परिष्कार, जन को जन-जन करना, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला तथा 'मानव-मुक्ति' के लक्ष्यों से संचालित होना चाहिए। मानव-मुक्ति का उनके लिए अर्थ वर्गीय-मुक्ति से था। शोषित-पीड़ित मजदूरों और किसानों की मुक्ति उनके लिए कोई नारेबाजी नहीं थी, बल्कि इसमें वे समूचे मानव समाज की भूख, अंधेरे और अज्ञान से मुक्ति से जोड़ कर देखते थे।
वे कविता को केवल भावनाओं के उच्छवास का माध्यम नहीं मानते थे बल्कि मानवीय संवेदनाओं के ज्ञान व विवेक संगत होने के पक्षधर थे। ज्ञानात्मक संवेदनाऐं और संवेदनात्मक ज्ञान की अवधारणा मुक्तिबोध द्वारा सौन्दर्यशास्त्र पर उनके गहन अध्ययन की मौलिक अवधारणा है। लेखक की रचना-प्रक्रिया पर भी मुक्तिबोध ने जितना गहन पर्यवेक्षण व चिंतन किया है, उसे परवर्त्ती समीक्षक आगे नहीं बढ़ा सके।
मुक्तिबोध पश्चिमी आयातित विचारों को ज्यों का त्यों अपना लेने के विरोधी तथा अपनी संस्कृति की श्रेष्ठ विरासत व स्वदेशी के प्रबल समर्थक थे। उनकी कविताओं में यूकीलिप्टस और कैक्टस के बजाय पीपल, वट और बबूल के बिम्ब दिखाई देते हैं। इस संदर्भ में उनकी कुछ कविताओं, विशेष रूप से ''चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन'' व ''घर की तुलसी'' को पढ़ा जाना चाहिए। 'घर की तुलसी' की कुछ पंक्तियाँ देखिये -
''मैं काल-विहंग परीक्षा के निज प्रहरों में
भी रहा खोज अपने स्वदेश का कोना निज
उग चलूँ अंधेरे के नि:संग सरोवर में
पंखुरियाँ खोलता लाल-लाल अग्निम सरसिज
वह भव्य कल्पना रूपायित
जब हुई कि मन में अकस्मात
इनकार भरी वह असंतोष की वन्हि
कह गई थी जरूर
घर की तुलसी तुमसे इतनी दूर
रेगिस्तानों से ज्यों नदियों का पूर''
वे भारतीय लेखकों और मीडिया के पश्चिम - प्रेम पर कटाक्ष करते हुए 'क्लॉड ईथरली' कहानी में कहते हैं - ''यह भी सही है कि उनकी संस्कृति और आत्मा का संकट हमारी संस्कृति और आत्मा का संकट है। यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्मा को शिक्षा और संस्कृति प्रदान करते हैं। क्या यह झूठ है ? और हमारे तथाकथित राष्ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केन्द्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं ?''
अपनी लम्बी कविता ''जमाने का चेहरे'' में वे कहते हैं -
''साम्राज्यवादियों के पैसों की संस्कृति
भारतीय आकृति में बँध कर / दिल्ली को वाशिंगटन व लंदन का उपनगर / बनाने पर तुली है!! भारतीय धनतंत्री / जनतंत्री बुध्दिवादी / स्वेच्छा से उसी का कुली है!!''
मुक्तिबोध के लेखन की एक और बड़ी मौलिक देन को मैं रेखांकित करना चाहता हूँ, वह है - आत्मालोचना और आत्म - संघर्ष!
हिन्दी के लेखकों की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही है कि उनमें से अधिकांश बहुत थोड़ा और कम महत्वपूर्ण लिख कर ही आत्म - प्रशंसा और आत्म - मुग्धता के शिकार हो जाते हैं। इसके ठीक विपरीत मुक्तिबोध निरन्तर श्रेष्ठ लेखन की ओर बढ़ते हुए भी स्वयं की तीखी और मारक आलोचना करते हैं। जैसे जन-गण के प्रति अपने दायित्वों को पूरी तरह न निभाने के लिए स्वयं पर कोड़े बरसा रहें हो! मुक्तिबोध का समूचा साहित्य सत्ता - व्यवस्था के विरूध्द जेनुइन संघर्ष के साथ-साथ निरन्तर आत्म-संघर्ष और आत्म परिष्कार की प्रक्रिया से गुजरता है! एक ओर वे मानते है कि ''तोड़ने ही होंगे गढ़ और दुर्ग सब'' तो दूसरी और ''नहीं चाहिए मुझे हवेली'' में वे वर्त्तमान में पदों और पुरस्कारों की कुक्कुर - दौड़ में लगे सत्ता के चाकर साहित्यकारों के बरक्स लिखते हैं -
''नहीं चाहिए मुझे हवेली
नहीं चाहिए मुझे इमारत
नहीं चाहिए मुझको मेरी
अपनी सेवाओं की कीमत
नहीं चाहिए मुझे दुश्मनी
करने कहने की बातों की
नहीं चाहिए वह आईना
बिगाड़ दे जो सूरत मेरी
बड़ों बड़ों के इस समाज में
शिरा शिरा कम्पित होती है
अहंकार है मुझको भी तो
मेरे भी गौरव की भेरी
यदि न बजे इन राजपथों पर
तो क्या होगा!! मैं न मरूँगा
कन्धे पर पानी की काँवड़
का यह भार अपार सहूँगा!!''
संस्कृति के प्रति मुक्तिबोध का रवैया वहुत व्यापक और संश्लिष्ट होते हुए भी अपने निहितार्थ में जन-संस्कृति' के आलोक को विस्तीर्ण-करने का ही था।उनका मानना था कि जिस तरह समाज प्रभुवर्ग और श्रमजीवी वर्ग में विभाजित है, कला, साहित्य और संस्कृति का स्वरूप भी आम तौर पर वर्गीय होता है। प्रभुवर्ग अपने हितों और दृष्टिकोण के आधार पर संस्कृति की व्याख्या तथा संरक्षण देता है, दूसरी और श्रमजीवी वर्ग अपनी चेतना से नई प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य का सृजन करता रहता है। अपनी गतिमान और द्वंद्वात्मक स्थिति के कारण संस्कृति के श्रेष्ठ मानवीय तत्वों का संचयन भी चलता रहता है, जिसे अपनाने में नई संस्कृति के निर्माताओं को गुरेज नहीं करना चाहिए। मुक्तिबोध परम्परा के नाम पर वासनाजन्य साहित्य को स्वीकृति नहीं देते थे, चाहे उसे कालिदास जैसे महाकवि ने ही क्यों न रचा हो।धर्म ने नाम पर अकर्मण्यता और साम्प्रदायिकता के कथित पुरातन संस्कृति पोषक मठाधीशों पर वे अपनी कविता में प्रहार करते हैं -
''भारतीय संस्कृति के खंडेरों में
जीवन्त कीर्ति की विदीर्ण युक्तियों
के लतियाये भालों पर / स्तम्भों के शीर्श पर /
मन्दिरों के श्रंगों पर। बैठे ये जनद्वेषी घूघ्घू ये घनघोर /
चीखते हैं रात दिन !!
घूमते हैं खंडेरों की गलियों में चारों ओर /
कुकुर पुराने और दम्भ के नये जोर
जनता के विद्वेषी / अनुभवी / कामचोर ........''
लेकिन मेरा मानना है कि मुक्तिबोध के साहित्य ने मेरी तत्वदर्शी दृष्टि और भावबोध में इजाफा किया है। मेरे वर्गबोध को भी मुक्तिबोध के साहित्य ने अधिक पुख्ता तथा जन पक्षधरता को पहले से अधिक सच्चा और मजबूत बनाया है। मुक्तिबोध के साहित्य ने केवल मुझे ही नहीं, उन सभी रचनाकारों को गहराई से प्रभावित किया है, जो साहित्य की सामाजिक व परिवर्तनकारी भूमिका को आवश्यक मानते है।
कलावादियों तथा जनवादी लेखकों और आलोचकों के द्वारा मुक्तिबोध को पसंद करने के कई कारण हैं। जनवादी लेखकों - आलोचकों द्वारा तो मुक्तिबोध को पसंद किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नई रचनाशीलता और समझ को जन्म दिया। प्रगतिशील लेखन को अपने पुराने कलेवर से निकालकर एवं व्यापक पृष्ठभूमि पर अवस्थित किया। कला और समीक्षा के नये मापदण्ड निर्धारित किये। जहाँ तक आधुनिकतावादी - कलावादी लेखकों द्वारा मुक्तिबोध को पसंद किया जाने का प्रश्न है, उसको दो तरह से समझा जा सकता है। पहला तो मुक्तिबोध की प्रतिभा और सृजन कला है, जो अपनी समग्रता में बहुत कुछ ऐसा समेटे हुए है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। दूसरा कारण आधुनिकतावादियों द्वारा मुक्तिबोध के साहित्य को जटिलता और रहस्यवाद की ओर धकेलना और उसकी भ्रम पूर्ण व्याख्याएं करना रहा है। लेकिन जिस तरह प्रेमचंद और भगतसिंह के विचारों को विरूपित करने की अधिकांश चेष्ठाएं अंतत: भूलुंठित हुई हैं, मुक्तिबोध के साहित्य की कौंध भी मन को मानवीय और जन को शिक्षित करने की बड़ी सामर्थ्य रखती है।
मुक्तिबोध के अंतर्विरोधों की व्याखा उनके देशकाल और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही की जानी चहिए। मुक्तिबोध को अपने पारिवारिक दायित्वों और अत्यधिक धनाभाव में ही अपनी ज्ञानात्मक, साहित्यिक व सामाजिक भूमिका के लिए संघर्ष करना पड़ा। उनके सामने बहुत बड़े लक्ष्य थे, लेकिन उन्हें कई स्तरों पर जूझना था। एक ओर प्रगतिशील आन्दोलन अपनी चमक खो रहा था तो दूसरी ओर अज्ञेय के नेतृत्व में आधुनिकतावाद और कलावाद के अखाड़े में व्यक्तिवादी - सुविधावादी लेखकों की गोलबंदी हो रही थी। मुक्तिबोध को चूँकि साहित्य की पुरानी जमीन तोड़ कर नई जमीन का निर्माण करना था, नये पौधों को रोपना था, नई ज्ञानात्मक चेतना में पककर नये संस्कारों का निर्माण करना था, वे प्रत्यक्ष रूप से जनता के मुक्ति संग्रामों में न कूद सके। इसी कारण कबीर की तरह ज्ञानात्मक चेतना से युक्त होते हुए भी वे सधुक्कड़ी जन-भाषा का उस तरह का ताना-बाना न बुन सके। इसके बावजूद युग के अंतर्विरोधों की सर्वाधिक प्रखर व विवेक संगत समझ और जन-क्रान्तिकारी भूमिका न निभा पाने की आंतरिक वेदना का उनके मन-मस्तिष्क पर संघातिक असर पड़ा, जिसने उनके जीवन को ही छीन लिया।
( लेखक -महेन्द्र 'नेह' हिन्दी के बेहतरीन जन गीतकार हैं। विगत 30 साल से भी ज्यादा समय से राजस्थान के मजदूरों और किसानों में काम करते रहे हैं। हाल ही में उनका ताजा काव्य संकलन ' थिरक उठेगी धरती' प्रकाशित हुआ है । इसके पहले उनका काव्य संकलन 'सच के ठाट निराले होंगे' प्रकाशित हुआ था। सम्प्रति वे कोटा में रहते हैं )
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