रविवार, 22 नवंबर 2009

कारपोरेट मीडि‍या और गुलामचेतना

       
हाल ही में मुम्‍बई में शि‍वसैनि‍कों ने सीएनएन / आईबीएन के कार्यालय में अंदर जाकर जमकर बबाल मचाया,तोड़फोड़ की और मीडि‍या में इसके खि‍लाफ जमकर प्रति‍वाद भी दि‍खाई दि‍या। कुछ उत्‍पाती सैनि‍कों की गि‍रफ्तारी भी हुई। जि‍स दि‍न यह घटना हुई उसके दो दि‍न या तीन पहले 'आईबीएन 7'  और 'सीएनबीसी 18'   ने अपने यहां काम करने वाले 150 मीडि‍याकर्मियों ‍को नौकरी से अचानक नि‍काल दि‍या। यह खबर मुख्‍यधारा के मीडि‍या में गायब है। इतनी बड़ी तादाद में पत्रकारों को नि‍काला जाना साधारण घटना नहीं है, लेकि‍न प्रेस ने इसे सुर्खी नहीं बनाया। चैनलों ने इस खबर को प्रसारि‍त नहीं कि‍या। यह कारपोरेट मीडि‍या के दो चेहरे हैं।
    कारपोरेट मीडि‍या अपने ऊपर हुए हमले को महत्‍व देता है,उसे जनतंत्र पर हमला करार देता है और जब यही कारपोरेट मीडि‍या अपने यहां जनतांत्रि‍क हमले करता है तो उसकी कहीं पर कोई खबर तक नहीं बनती। आखि‍र हम कि‍स तरह के मीडि‍‍यायुग में जी रहे हैं ? क्‍या यही लोकतंत्र है ? हमें ऐसे लोकतंत्र पर शर्म आती है जि‍समें लोकतंत्र के पहरूए जब कत्‍ल कि‍ए जा रहे हों तो कोई भी नहीं बोलता। संसद नहीं बोलती । न्‍यायपालि‍का नहीं बोलती। साधारण सी अखबार की खबर पर सक्रि‍य होने वाले हमारे स्‍वतंत्र न्‍यायाधीश इस तरह की खबरों पर सक्रि‍य  नहीं होते । ब्रॉडकास्‍टिंग का नि‍यमन करने वाली संस्‍था  नहीं बोलती। जो लोग आए दि‍न मानवाधि‍कार हनन का हंगामा करते हैं ,वे स्‍वयंसेवी संगठन और उनके हि‍मायती वरि‍ष्‍ठ मानवाधि‍कार संरक्षक वकील,बुद्धि‍जीवी आदि‍ सक्रि‍य होकर हस्‍तेक्षेप नहीं करते ।
     एक जमाना था जब  कि‍सी पत्रकार को अगर मालि‍क ने नौकरी से वेवजह नि‍काल दि‍या तो प्रेस में हंगामा खड़ा हो जाता था, लेकि‍न अब  एक मीडि‍या ग्रुप ने सैंकड़ों पत्रकारों को एक ही झटके में अकारण नौकरी से नि‍काल दि‍या और उसकी खबर तक प्रकाशि‍त नहीं हुई है। सारा कारपोरेट मीडि‍या एक शब्‍द भी नहीं बोल रहा। यह मीडि‍याचेतना के क्षय का संकेत है। आखि‍रकार लोकतंत्र के पहरूए मानवाधि‍कार संगठनों की क्‍या कोई जि‍म्‍मेदारी है कि‍ नहीं , मीडि‍या की स्‍वाधीनता को बनाए रखने में न्‍यायपालि‍का और लोकतांत्रि‍क सरकार की कोई जि‍म्‍मेदारी बनती है या नहीं ? यदि‍ बनती है तो मानवाधि‍कार संगठनों को आगे आकर इस मसले को अपने हाथ में लेना चाहि‍ए। मानवाधि‍कारों के परि‍प्रेक्ष्‍य में मीडि‍याकर्मियों के कामकाज,अधि‍कार,दायि‍त्‍व ,नौकरी की शर्तों आदि‍ के बारे में कानून बनवाने की दि‍शा में पहल करनी चाहि‍ए।  इसके लि‍ए चौतरफा दबाव पैदा करना चाहि‍ए।
     हमें ध्‍यान रखना होगा कि‍ कारपोरेट मीडि‍या में काम करने वाले बुनि‍यादी तौर पर गुलामों से भी बदतर कंडीशन और भ्‍यानक असुरक्षा में काम करते हैं। हो सकता है कुछ कारपोरेट मीडि‍या ग्रुप अच्‍छी पगार देते हों,लेकि‍न इन लोगों को वे कि‍सी भी कि‍स्‍म का अधि‍कार नहीं देते। मानवाधि‍कार संगठनों को अपने आदि‍वासी,दलि‍त,कि‍सान एजेण्‍डे के बाहर आकर थोड़ा कारपोरेट मीडि‍या के मोर्चे पर चल रही गुलामप्रथा के खि‍लाफ आवाज बुलंद करनी चाहि‍ए।
     दुनि‍या के वि‍कसि‍त पूंजीवादी मुल्‍कों में कहीं पर कारपोरेट इलैक्‍ट्रोनि‍क मीडि‍या इस तरह का दुर्व्‍यवहार नहीं करता जैसा भारत में हो रहा है। हमें सवाल करना चाहि‍ए क्‍या सीएनएन के लोग अमेरि‍का में अपने कर्मचारि‍यों के साथ इस तरह का बुरा व्‍यवहार कर सकते हैं ? वे यदि‍ भूल से कि‍सी के साथ दुर्व्‍यवहार कर बैठें या नौकरी से नि‍काल दें उसे व्‍यापक कवरेज मि‍लता है, चारों ओर प्रति‍वाद भी होता है।
    भारत में सीएनएन की सहजि‍या संस्‍था अपने ही कर्मचारि‍यों के साथ नि‍रंकुश व्‍यवहार कर रही है और उसने 150 कर्मचारि‍यों को नौकरी से नि‍काल दि‍या वह भी तब जब मंदी का दौर खत्‍म हो गया है। मंदी के दौर में यह घटना घटी होती तो कोई कुछ नहीं बोलता लेकि‍न अब तो मीडि‍या की बल्‍ले बल्‍ले हो रही है। ऐसे में 150 लोगों को नौकरी से नि‍कालना समूचे कारपोरेट मीडि‍या की लोकतांत्रि‍क इमेज पर काला धब्‍बा है।
       शि‍वसेना के सैनि‍कों ने जो तोड़फोड़ की उसका समय बड़ा ही महत्‍वपूर्ण है ,जब 150 कर्मचारी सीएनएन आईबीएन से नि‍काले गए उसके तत्‍काल बाद ही यह तोड़फोड़ हुई है जि‍ससे कर्मचारि‍यों को नि‍काले जाने वाली घटना पर कोई ध्‍यान ही न दे। इसे कहते हैं कारपोरेट मीडि‍या और लुंपन राजनीति‍ की जुगलबंदी।
     कौन नहीं जानता कारपोरेट घराने शि‍वसेना के 'सामना' अखबार को सबसे ज्‍यादा वि‍ज्ञापन देकर आर्थिक मदद देते रहे हैं। 'सामना' समूह कारपोरेट घरानों से सबसे ज्‍यादा वि‍ज्ञापन उठाने वाला अखबार है। शि‍वसैनि‍कों की फंडिंग का सबसे बड़ा स्रोत हैं कारपोरेट घराने। यह अचानक नहीं है कि‍ आईबीएन 7 पर हमले का समय वही चुना गया जि‍स समय कर्मचारि‍यों को नौकरी से नि‍काला गया।
    धन्‍य हैं वागले साहब ,राजदीप सरदेसाई ,संजय पुंगलि‍या जि‍नकी  लोकतांत्रि‍क छवि‍ को भारत के पत्रकार गुलाम पत्रकार के रूप में याद करेंगे। सवाल कि‍या जाना चाहि‍ए कि‍ राजदीप सरदेसाई जैसे इलैक्‍ट्रोनि‍क मीडि‍या के तथाकथि‍त कर्ता मीडि‍याकर्मियों ,खासकर चैनलकर्मि‍यों पर होने वाले हमले के समय हमेशा चुप क्‍यों रहते हैं । कोई भी जनप्रि‍य चैनल, यहां तक कि‍ डीडी 1 भी इस मामले पर चुप है।
    राजनीति‍क दलों और ट्रेडयूनि‍यनों का हाल यह है कि‍ वे तो मीडि‍याकर्मियों के प्रति‍ कोई सहानुभूति‍ नहीं रखते उलटे यही सोचते हैं कि‍ मीडि‍याकर्मी तो सत्‍ता के दलाल हैं। वे कभी मीडि‍याकर्मियों को कर्मी के रूप में नहीं देखते। यही वजह है कि‍ प्रत्‍येक राजनीति‍क दल इस मसले पर चुप्‍पी लगाए बैठा है। ऐसा नहीं है कि‍ यह पहलीबार हुआ है कि‍ कि‍सी चैनल ने अपने यहां काम करने वालों को नौकरी से नि‍काला है । पहले भी मीडि‍या में काम करने वाले अकारण नौकरी से नि‍काले गए हैं।
       हमारे लोकतंत्र के रखवाले राजनीति‍क दल मूकदर्शक की तरह तमाशा देखते रहते हैं। यह इन दलों में व्‍याप्‍त माध्‍यम नि‍रक्षरता का संकेत है। राजनीति‍क दल मीडि‍या खरीदना जानते हैं। मीडि‍या की‍ प्रौपेगैण्‍डा क्षमता भी जानते हैं। उसका कैसे दुरूपयोग कि‍या जाए यह भी जानते हैं लेकि‍न यह नहीं जानते अथवा जानबूझकर अनजान बने रहते हैं कि‍ आखि‍र मीडि‍या लोकतंत्र की बुनि‍याद है। मीडि‍या के भी नि‍यम,कायदे कानून होने चाहि‍ए, कारपोरेट मीडि‍या के भी कायदे कानून होने चाहि‍ए। कारपोरेट मीडि‍या में लोग असुरक्षा में काम कर रहे हैं । असुरक्षि‍त और अनिश्‍चि‍त वातावरण में काम कर रहे हैं। इन सबसे हमारे राजनीति‍क दलों और तथाकथि‍त बौद्धि‍क समुदाय को कोई लेना देना नहीं है। उनके जेहन में यह धारणा बैठी हुई है कि‍ मीडि‍या में काम करने वाला बड़ा आदमी होता है, मोटी तनख्‍बाह पाता है, बड़ा आदमी है,सत्‍ता का आदमी है बगैरह बगैरह। वे यह मानकर ही नहीं चलते कि‍ वह मीडि‍याकर्मी है और एक कर्मचारी की तरह उसे भी अपनी सुरक्षा के लि‍ए तयशुदा नि‍यमों और व्‍यवस्‍था की जरूरत है, यह ऐसी व्‍यवस्‍था हो जो सम्‍मानजनक हो, मानवाधि‍कार के परि‍प्रेक्ष्‍य में परि‍भाषि‍त की गई हो।
     दूसरी ओर मीडि‍याकर्मियों को मीडि‍या के नशे में नहीं मीडि‍याचेतना में रहना होगा। मीडि‍याचेतना अर्जित करनी होती है, यह मीडि‍या में काम करने मात्र से स्‍वत: पैदा नहीं होती। अपने पेशे, कामकाज के कानून, नि‍यम,सामाजि‍क जि‍म्‍मेदारी और एकजुट संगठन की चेतना और साझेपन की भावना की मि‍ट्टी से तैयार होती है।  कोई भी मीडि‍याकर्मी चाहे जि‍तने बड़े ओहदे पर हो वह ओहदे और मीडि‍या के अहंकार में रहेगा तो आफत,वि‍पत में कोई उनकी मदद करने नहीं आएगा। मीडि‍याकर्मी का गरूर उसका सबसे बड़ा शत्रु है।
    मीडि‍या गरूर या छद्मचेतना तब ही पैदा होती है जब माध्‍यम साक्षरता का अभाव होता है। आप मीडि‍या में काम कर रहे हैं इसका यह अर्थ नहीं है कि‍ आप मीडि‍याचेतना सम्‍पन्‍न भी हैं। हमारे अधि‍कांश मीडियाकर्मियों‍ का मीडि‍याचेतना संपन्‍न होना अभी बाकी है। मीडि‍याचेतना सम्‍पन्‍नता का ही अभाव है कि‍ उन्‍हें अपने अधि‍कार,अस्‍मि‍ता,दायि‍त्‍व आदि‍ का बोध वहीं तक है जहां तक मालि‍क सोचने की अनुमति‍ देता है। इसके आगे जाकर वे कभी सोच ही नहीं पाते। यह दोस्‍तो गुलामचेतना है। स्‍वाधीनचेतना नहीं है।
     







2 टिप्‍पणियां:

  1. नेता और उद्योगपति तो चोली-दामन का साथ है ही। वर्ना क्या कारण है करोड़पति अरबपति बन रहे है और जनता अरब के रेगिस्तान समान इस स्वर्ण भूमि पर आत्महत्या कर रही है॥

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  2. Corporate media ke is rup se wakif krate hue tathyon ko samne lakr aapne hmari jankari samriddh ki hai.Suchna aur prodyogiki se snlagn corporate world v media ne aadharbhut manviy sarokaro se nata tod kr loktantra ka mkhoul bna diya hai.DHANYAWAD.

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