नई किताब के अंश -
सोनिया गांधी,मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के भाषणों में एक साझा तत्व है वह यथार्थकेन्द्रिकता। इन तीनों नेताओं ने अपने भाषणों में यथार्थ को प्रस्तुत करके जनता को पर्सुएट किया। यथार्थकेन्द्रिक भाषणकला हमेशा लघु भाषण पर जोर देती है। यथार्थ को बताकर दिल जीतने की कला स्वत: प्रामाणिक है उसके लिए बाहर से प्रमाण जुटाने और तर्क देने अथवा सहयोगी प्रचार सामग्री की जरूरत नहीं पड़ती। यथार्थकेन्द्रिक भाषणकला सकारात्मक होती है। 'आशा' का संचार करती है। आम लोगों की कल्पनाशीलता को स्पर्श करती है। इसमें सबके सुखी भविष्य की कल्पना अन्तनिर्हित होती है।
कहीं-कहीं इन तीनों नेताओं ने विमर्श की कला का भी अपने भाषणों में इस्तेमाल किया और उस क्रम में अपने विरोधियों की कमियों का तथ्यपूर्ण उद्धाटन किया। इन तीनों नेताओं के भाषण छोटे, खुले और यथार्थकेन्द्रिक थे। खुले भाषण का अपना ही सुख है इसमें श्रोता अपनी कल्पना से बाकी खाली जगह भरने की कोशिश करता है। खुले भाषण की पध्दति इसलिए भी अपनायी गयी क्योंकि न्यूनतम बातों या मुद्दों पर,न्यूनतम शब्दों में बोलना था। इसके कारण्ा भाषण के प्रति रूचि बनी रहती है और उसका प्रभाव भी होता है। कांग्रेस के तीनों नेताओं ने अपने भाषण में निर्विवाद भाषिक प्रयोगों का इस्तेमाल किया। विवादास्पद भाषिक प्रयोगों से बचते हुए भाषा का जो रूप सामने आया वह पूर्णत: यथार्थवादी था।
यथार्थवादी भाषिक प्रयोग नए अर्थ की सृष्टि करते हैं। वे श्रोता को भाषणकर्ता के साथ जोड़ते हैं। सहयोग का भाव पैदा करते हैं। आम लोगों की इच्छा को सम्बोधित करते हैं। इच्छाओं को जगाते हैं। मसलन् राहुल गांधी का पुरूलिया में यह कहना कि पुरूलिया तो सबसे पिछड़ा जिला है,उत्तार प्रदेश से भी पिछड़ा है। इसमें तथ्य भी है और इच्छाएं भी हैं। इच्छा यह है कि पुरूलिया को पिछड़ा नहीं होना चाहिए।इसी तरह राहुल गांधी या सोनिया गांधी ने जब ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत गरीबों को काम न दिए जाने का सवाल उठाया तो वे वस्तुत: इच्छाओं को अभिव्यक्ति दे रहे थे। यह इच्छा व्यक्त की कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत गरीबों को 100 दिन काम मिले। इच्छा को जगाने वाली रणनीति कारगर साबित हुई ।
कांग्रेस का त्रिमूर्त्ति नेतृत्व जब इच्छा जगा रहा था तब मूलत: आम जनता के विश्वासों और अपने राजनीतिक लक्ष्य के बीच मेनीपुलेट कर रहा था। मसलन् जनता यह चाहती है कि उसे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत 100 दिन का काम मिले किंतु संभवत: यह नहीं चाहती कि नव्य उदारतावाद का एजेण्डा जारी रहे। क्योंकि वह जानती नहीं है कि नव्य उदारवाद किसे कहते हैं। यही वह बिंदु है जहां कांग्रेसी नेता अपने भाषणों के जरिए जनता की इच्छा और अपने राजनीतिक लक्ष्यों के बीच घालमेल करने में सफल रहे हैं और यही वजह है कि इसबार के चुनाव परिणाम नव्य-उदारतावादी नीतियों की विजय महसूस हो रहे हैं।
इन तीनों नेताओं के भाषणों में यथार्थकेन्द्रिकता के फ्रेमवर्क का इस तरह इस्तेमाल किया गया कि भाषण में शामिल राजनीतिक पाठ स्वत: सक्रिय हो उठा। यह ऐसा सक्रिय पाठ है जिसकी सतह पर कहीं पर भी भनक नहीं मिलती किंतु लोगों के मन में सक्रिय हो उठता है। संभावित राजनीतिक पाठ के आम दर्शकों में सक्रिय हो उठने का एक अन्य कारण है कांग्रेस की त्रर्िमूत्तिा का भाषण को विमर्श के दायरे के बाहर रखना। उल्लेखनीय है कि लाल कृष्ण आडवाण्ाी ने बार-बार जो भी हमला किया उसका जबाव भाषणों से नहीं प्रेस काँफ्रेस के जरिए दिया गया। भाषण को विमर्श के दायरे के बाहर रखा गया और प्रेस काँफ्रेस को विमर्श का मंच बनाया। प्रेस काँफ्रेस में विमर्श बोगस होता है। इस तरह लालकृष्ण आडवाणी के वैचारिक हमलों को प्रेस कॉफ्रस के जरिए जबाव देकर निष्प्रभावी बनाया गया। इसके विपरीत सोनिया गांधी और राहुल गांधी के भाषणों में गर्मी या ऊर्जा का भी एहसास था।
यथार्थकेन्द्रिक भाषणकला यथार्थ को बदलने की ओर ठेलती है। यथार्थ के परिवर्तन के सेतु के रूप में त्रिमूर्त्ति नेतृत्व का प्रक्षेपण सफल रहा। इन तीनों ने अपने भाषणों में व्यवहारवाद का जमकर इस्तेमाल किया और यह संदेश दिया कि जो जरूरी और व्यवहारिक है वही हमने किया।
कहा गया वाम का समर्थन लेना व्यवहारवाद था, धर्मनिरपेक्षता अथवा नव्य उदारतावाद का विरोध नहीं। व्यवहारवाद के प्रयोग के कारण ही कोई भी पार्टी कांग्रेस के साथ जुड़ने के लिए तैयार है,भाषणों में संप्रेषित व्यवहारवाद का ही सुफल था कि सपा,बसपा,राजद,लोजपा आदि दलों ने चुनाव के तुरंत बाद ही अपने समर्थन का एलान कर दिया।
कांग्रेस के तीनों नेताओं के भाषणों का मूल दर्शन है व्यवहारवाद। व्यवहारवाद के कारण वे शत्रु की भी प्रशंसा करने में संकोच नहीं करते। मजेदार बात यह है ये तीनों नेता जिन बातों को अपने भाषणों में उठा रहे थे उन्हें लोग जानते थे और जिन बातों को लोग जानते हैं उन्हें जब आप यथार्थकेन्द्रिक आधार से पेश करते हैं तो प्रभावी बनाते हैं।
इसी प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण है अस्मिता राजनीति का पैराडाइम परिवर्तन। इस बार के चुनाव में राहुल गांधी के माध्यम से कांग्रेस ने 'युवा अस्मिता' को केन्द्र में रखा और उनके भाषणों में युवावर्ग की मौजूदगी ने अस्मिता राजनीति के सकारात्मक पैराडाइम की शुरूआत की है। यह सच है कि अस्मिता की राजनीति खोखली राजनीति है, कार्यक्रमरहित राजनीति है। यह बात मायावती, मुलायमसिंह, लालकृष्ण आडवाणी,लालू यादव पर जिस तरह लागू होती है वैसे ही राहुल गांधी पर भी लागू होती है। किंतु एक बुनियादी फर्क है धर्म और जाति की अस्मिता के स्थान पर युवा अस्मिता का केन्द्र में आना सकारात्मक है। धर्म,जाति आदि की अस्मिता राजनीति का हाशिए पर जाना और 'युवा अस्मिता' की राजनीति का केन्द्र में आना वस्तुत मासकल्चरीय युवा अस्मिता का चरमोत्कर्ष है।
भारतीय भाषणकला के अंतिम नायक अटलबिहारी बाजपेयी थे और उनकी इस चुनाव में अनुपस्थिति ने भाषणकला का अंत कर दिया। भारतीय भाषणकला की विदाई का एक सिरा अटलजी से जुड़ा है तो दूसरा सिरा सोनिया गांधी से जुड़ा है। यह संयोग है कि सोनिया गांधी का नेता के रूप में राष्ट्रीय क्षितिज में उदय भाषणकला के अंत के प्रतीक के दौर में उस समय हुआ जब अटलजी का सूरज ढ़ल रहा था। मनमोहन सिंह के चौदहवीं लोकसभा का प्रधानमंत्री बनना और अटलजी का जाना,ये सारी चीजें भाषणकला के लोप का संकेत है। यह नव्य उदार वातावरण की पराकाष्ठा है। नव्य उदार वातावरण भाषणकला को अप्रासंगिक बनाता है। अब लोगों की भाषणों में दिलचस्पी कम हो जाती है। अब लोग सुनना कम और देखना ज्यादा चाहते हैं। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से टीवी एक बड़े संप्रेषक के तौर पर दाखिल होता है।
आज हमारे बीच में अच्छे राजनीतिक भाषणकला के पारखी राजनेताओं का एकसिरे से अभाव है। सोनिया के आगमन के साथ लिखित सार्वजनिक भाषण की परंपरा का आना नियमबध्द भाषणकला की वापसी है। नियमबध्द भाषणकला स्वभावत: स्वतंत्रता विरोधी है। यह बोलने वाले को स्वतंत्रता नहीं देती। राहुल गांधी रट्टू नेता के रूप में बोलते हैं। स्वतंत्र भाषणकला की उनमें संभावनाएं हैं किंतु कांग्रेस ने जो रास्ता चुना है उसमें कम से कम बोलना मूल मंत्र है। राजनेता जब कम से कम बोलने के रास्ते पर चल पड़ें तो भाषणकला के दुबारा जिंदा होने की संभावनाएं नहीं हैं।
आश्चर्य की बात यह है सोनिया बगैरह के विकल्प के रूप में जो नेता सामने आ रहे हैं वे भी लिखित भाषण पढ़ते हैं अथवा अप्रासंगिक ज्यादा बोलते हैं। मायावती ने लिखित भाषण पढ़े,जबकि लालू, मुलायम,नरेन्द्र मोदी,बुध्ददेव भट्टाचार्य और आडवाणी की सबसे ज्यादा शक्ति अप्रासंगिक चीजों पर खर्च हुई। मसलन् मनमोहनसिंह कमजोर प्रधानमंत्री हैं। यह बात एकसिरे से भाषणकला के लिहाज से ही नहीं बल्कि राजनीति के लिहाज से भी अप्रासंगिक है। उसी तरह बुध्ददेव भट्टाचार्य का औद्योगीकरण का एजेण्डा पश्चिम बंगाल के औद्योगिक वातावरण के नष्ट हो जाने के बाद अप्रासंगिक एजेण्डा है। पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण का नारा सन् 1977 में दिया जाता तो प्रासंगिक था आज कोई भी विश्वास नहीं करेगा कि माकपा या वामपंथ उद्योग लगाना चाहते हैं। दूसरी बात यह कि माकपा के चिंतन में औद्योगीकरण नहीं आता, यदि ऐसा होता तो केरल सबसे बड़ा उद्योग संपन्न राज्य होता। वहां पर तो किसी ममता बनर्जी का संकट नहीं था। यही हाल त्रिपुरा का है। इसी तरह लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के पास कोई सकारात्मक एजेण्डा ही नहीं था। ये दोनों नेता अपने प्रान्तों (बिहार और उत्तार प्रदेश) के मुख्यमंत्रियों की असफलता का राग अलाप रहे थे जिसकी कोई अपील नहीं थी।
समग्रता में देखें तो भारत में भाषणकला का समापन हो चुका है। कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने राजनीति को भाषण के दायरे बाहर कर दिया है। राजनीति को बातचीत और टॉक शो में तब्दील कर दिया है। इसबार के चुनाव में टेलीविजन में जितने बड़े पैमाने पर टीवी टॉक शो आयोजित हुए हैं उसने मीडिया प्रबंधन कला की ओर ध्यान खींचा है।
( प्रकाशक- अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स,दरियागंज,नई दिल्ली)
तीनों भी अच्छे वक्ता नहीं है। फिर भी, उन्होंने जनता का दिल जीता है तो ज़रूर उन में कुछ खास दिखा होगा या फिर विपक्ष अक्षम रहा सरकार की कमियों को उजागर करने में॥
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