जब मुक्तिबोध ने लिखना शुरू किया था, उस समय राजनीतिक दृष्टि से समय बड़ा सक्रिय था, निर्णायक था। समाजवादी, मार्क्सवादी और मानव स्वातंत्र्यवादी विचारधाराएँ सक्रिय थीं। स्वाधीनता मिलने ही वाली थी और .. मिल गई। उपलब्धि बड़ी थी, सपने बड़े थे। समाज के ढाँचे में परिवर्तन, नया गठन, मनुष्य गरिमा और उसकी आतंरिकता की प्रतिष्ठा नहीं हो पाई। इसी तथ्य ने मुख्य रूप से रचनाकारों की बुध्दि और प्रतिभा का निर्माण किया। 'व्यक्ति मनुष्य' और 'समाज मनुष्य' और दोनों की भूमिकाएँ क्या हैं, कहाँ वे एक बिंदु पर मिलती हैं अब मनुष्य के मुख्य सवाल इन्हीं से संबंधित थे। संवाद, विवाद और संघर्ष इन्हीं के इर्द-गिर्द की विचारधाराओं के आपसी मुठभेड़ के सवाल थे। मुझे लगता है कि केन्द्रीय सवाल मनुष्य की भूमिका की खोज और पहचान का था और इस आधारभूत प्रत्यय में व्यापक सहमति थी। असहमति और विवाद, उसके स्वरूप और ढाँचे को लेकर था और इस बात को लेकर मुक्तिबोध ने अपनी रचनात्मकता के लिए एक नया सूत्र बनाया था। 'आत्मग्रस्त और आत्मचेतन' नया सूत्र था। मुख्य बिंदु यही था। ये जो आत्मग्रस्तता का लक्षण उन्होंने जीवन में देखा या समझा उनको पढ़ते हुए लगता है कि उलझन, असमंजस ,तीव्र स्वचेतना, आत्मरक्षा ये उनकी कविताओं के चरित्र खासकर 'अंधेरे में' में 'मैं' और 'वह' दो रूप हैं। 'मैं' में यह सब बहुत लिपटा हुआ है। कभी-2 ऐसा लगता है कि इससे भी एक मानवीय अनुभव अर्जित किया जा सकता है। इसलिए वे अपनी खातिर और सारी मनुष्य जाति के लिए इससे भिड़ना और निपटना चाहते हैं। मुक्तिबोध 'आत्मग्रस्त' और 'आत्मचेतन' में अंतर करते हैं। आत्मग्रस्तता परिवेश की विषमता से और आत्मचेतना आज के इतिहास के सबसे नाजुक दौर में कठिन परीक्षा से यानि परिवेश की विषमता की स्वीकृति और उससे उत्पन्न है। वेदना को मुक्तिबोध महत्व तो देते हैं लेकिन उसे मानवीय नियति मानना आत्मग्रस्तता का लक्षण मानते हैं। और उसे चुनौती देना उससे संघष्र करना आत्मचेतना का लक्षण मानते हैं। यानि परिवेश और इतिहास या इतिहासबोध दोनों को अलग करते हुए वे देखते हैं। जो परंपरागत आत्मवादी दार्शनिक धारा है वह भी आत्मग्रस्त करती है।
वे उसे आधुनिक युग की वास्तविकताओं से टकराते हुए इच्छाशील बनने , प्रश्नशील बने रहने में आत्मचेतना की संभावना पाते हैं। इसलिए कोई भी मनस्वी मनीषा जो उनको अपनी व्यक्तिमत्ता के सहारे 'चलनेवाले प्राण् को' वरदान और आलोक मानते हैं। उसे आत्मवत और मित्र मानते है। यानि मोटे रूप में कहें कि मुक्तिबोध समृध्द स्वानुभूतिमय व्यक्तिमत्ता और आत्मचेतना के कवि है। ये आत्मग्रस्तता से संघर्ष करते हुए आत्मचेतन को उपलबब्ध करने की यात्रा उनकी कविता की यात्रा है। ये मुख्य सरोकार रहा था।
उस जमाने का एक सवाल था व्यक्ति अस्मिता का। अज्ञेय और आधुनिकतावादियों के लिए अस्मिता का क्या अर्थ था और मुक्तिबोध कैसे देखते हैं। इसमें फर्क है। मुक्तिबोध की अस्मिता की समस्या वर्गीय समाज के विषम संबंधों के बीच है और सामाजिक संबंधों में अपनी खास स्थिति और भूमिका तय करने में है। इसलिए मुक्तिबोध की अस्मिता की समस्या मनुष्य की वर्गीय समाज में संबंधों की समस्या भी है यानि व्यक्ति अस्मिता के साथ संबंध की समस्या मुक्तिबोध के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। अस्मिता और संबंध जीवन के इन दो पहलुओं का द्वंद उनकी कविता में दिखता है। इसकी अगर अज्ञेय से तुलना की जाए 'सुबह उठा तो धूप खिली थी', 'कितनी नावों में कितनी बार' में कविता का नायक धूप, फूल , हवा से 'मैं' का सार अर्जित करता है। 'अंधेरे में' कविता में भी कोई आता है और कहता है कि प्यार दो। नायक कहता कि प्यार और उधार? बिना कुछ लिए वह प्यार नहीं दे सकता। उसने लिया ही ज्यादा है दिया कम है। नायक तब से चुप है, प्रतिक्रिया नहीं देता। जो कुछ बाहर से पाया है वही उसकी अस्मिता है, पर लौटाने के नाम पर आत्मग्रस्तता की खोल में लौट जाता है। ख़तरे लेना नहीं चाहता है। मुक्तिबोध का 'मैं' इसी उलझन में स्वयं को पाता है, और ख़तरे उठाता है। तभी उसे आत्मसंभवा अभिव्यक्ति मिलती है। इस बिंदु पर मुक्तिबोध के लिए अस्मिता नहीं मिलती है। अस्मिता और संबंध की समस्या है। वर्गीय समाज में संबंध का स्वरूप लड़ते हुए ही पाया जा सकता है।
जो आज का जमाना 1990 के बाद का है, सोवियत, वह बर्लिन की दीवार के ढहने का जमाना है, भारत में नई आर्थिक नीतियों का है। जिस समय मुक्तिबोध लिख रहे थे, उस समय और आज की नीतियाँ कहने की जरूरत नहीं, राजनीति भूमण्डलीकरण, पूंजी के अबाध प्रवाह, विकास की जगह (Growth) मार्केट ओरिएन्टेड है। पहले डेवलपमेंटल इकॉनोमी, राजनीति और विकास जुड़े हुए थे, पर आज सब कुछ मार्केट या मीडिया के अधीन है। आज पूंजी के 'ग्रोथ' और बाजार इन्हीं के विकास के लिए प्रयत्न हो रहे है। पिछले राजनीति संदर्भ और स्थिति धुंधली पड़ती जा रही हैं। इतिहास, समाज, विज्ञान और राष्ट्र राज्य का बहिष्करण हो चुका है। ये धारणा भूमण्डलीकृत के प्रवाह में बाधा हैं। गरीबी और विषमता बढ़ी है। इस नए ज्ञानशास्त्र में उसकी स्वीकृति भी है लेकिन ये पिछड़ी हुई बातें है। इसलिए उनका भी बहिष्करण है। मीडिया, बाजार और तकनीक-ये ज्ञान के नए स्रोत है। इसने मनुष्य की दो परिभाषा की है - मनुष्य साइबरनेटिक यंत्र है यानि संप्रेषण और नियंत्रण की मशीन का मैकेनिज्म। इसके अलावा दूसरी परिभाषा की है उपभोक्ता मनुष्य की । इन दोनों व्याख्यायों में मनुश्य के कर्त्ता रूप की भूमिका नहीं है। अगर कोई 'ब्राण्ड' बन सके तो वह मॉडल प्रस्तुत करता है यानि 'रोल' की जगह 'मॉडल' ने लिया है। इस तरह जिस विश्प मनुष्य की भूमिका की खोज और निर्माण मुक्तिबोध कर रहे थे, उसका भी बहिष्करण है। 'ज्ञान' और 'स्किल' बहुत कुछ समानार्थी हो गए हैं। संघर्ष खूब है लेकिन सही-गलत और मानवीय-अमानवीय के बीच का नहीं ताक़त और ताक़त के बीच का है। संबंध की जगह तरह-तरह के समीकरणों ने ले ली है। भाषा और टेक्स्ट के बाहर कुछ नहीं है। जो कुछ घटित होता है या वह सब टेक्स्ट है। टेक्स्ट की व्याख्या हो सकती है पर उससे लड़ा नहीं जा सकता। यदि कुछ टेक्स्ट के बाहर है तो उससे लड़ाई संभव है।
जहा¡ तक पहचान की बहुलता का सवाल है कभी कोई पहचान ताकतवर हो जाती है कभी कोई। मुक्तिबोध के यहाँ पहचान की खोज ज्यादा मानवीय होने की है। ताक़त महत्वपूर्ण है। मल्टी आइडेंटिटीज की समस्या भी उपेक्षणीय नहीं। आधुनिक सुविधाओं ने ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न कर दी है कि तरह-तरह के लोगों को एक साथ रहना पड़ रहा है। वे अपनी आईडेंटिटी के साथ रहेंगे। इसलिए यह उपेक्षणीय नहीं है, पर चौकन्ना रहने की जरूरत है। औपनिवेशिकता राष्ट्रीयता को दबाती है।
औपनिवेशिकता और भूमण्डलीकरण का नया समीकरण बन रहा है। औपनिवेशिकता एक ऐतिहासिक तथ्य है, पर नकारात्मक है। ग्लोबलाइजेशन भी क्या उसी तरह से एक नकारात्मक ऐतिहासिक प्रश्न है ? क्या दोनों का समीकरण बैठता है ? ऐसी हाल में अस्मिताओं को चौकन्ना होकर देखना होगा। ऐसी हालत में अस्मिताएँ स्किल का शिकार हो सकती हैं। ये छिपा हुआ कोना है। यह भी सही है कि ग्लोबलाइजेशन से बड़ा विकास हुआ वैसे ही यह भी सही है कि औपनिवेशिकता से बड़ा विकास हुआ।
मुक्तिबोध उस दिमाग़ को समझने में सहायक हो सकते हैं जो आज भी बड़ी चतुराई से आदमी और दलित का इस्तेमाल कर सकती है या करती हैं।
- अंग्रेजी का औपनिवेषिक खेल रहा और मार्केट के साथ होकर यह आज भी उस रोल में है। अस्मिता विमर्श यथार्थ के बाद का विमर्श ये समाज के बिखरने का साधन न बन जाएँ। तकनीक बहुत शक्ति देती है, तकनीक एक मानसिक आदत पैदा करती है और यह साबित करती है अब तक जो ज्ञान पाया है , वह कूड़े का ढेर है।
- पुराने टेक्स्ट को विखंडित किया जाता है तो इस तरह से किया जाता है कि हम उसे काबू कर लें, समझे यह नहीं दिखता । आधुनिकता जब अंतविर्रोधों के साथ ऐसा करती है तो काबू करने के लिए नहीं ,समझने के लिए। बिखराना समझने के लिए नहीं, अनुपयोगिता सिध्द करने के लिए।
- ग्लोबलाइजेशन और कॉलोनाइजेशन के छिपे समीकरण को तोड़ने के लिए डिकंस्ट्रक्शन बहुत कारगर हो सकता है।
- रामचन्द्र शुक्ल ने 1940 में लिखा कि 'जो पश्चिम का विज्ञान है , वह तो ईमानदार और भरोसेमंद है, पर पश्चिम की जो मानवीय विधाएँ वे ईमानदार नहीं है।'
- भूमण्डलीकरण के सिध्दांत को एज़ाज अहमद, 'मेट्रोपॉलिटन थियरी' कहते हैं। यह मेट्रोपॉलिस के बाहर के समाज को हाशिए पर डालते हैं। यह औपनिवेशिकता का छिपा हुआ रूप है। यदि इन दोनों का समीकरण का बन सकता है और इसे समझने के लिए डिकंस्ट्रशन थियरी पुराने टेक्स्ट को काबू कर रही है, नए समीकरण को समझाने में मदद कर रही है।
- व्यक्तिगत रूप से मुक्तिबोध से परिचय का मौका नहीं मिला। सन् 1957 में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन के बाहर कविता सुनाते हुए देखा था। बीड़ी पीते रहे थे, कोट-पतलून पहने हुए थे। उनकी कविता पढ़कर ताक़त वाले रूपों के प्रतिरोध की ही प्रेरणा देती है। इसके अलावा जो कुछ सामने आ रहा है। उत्तर आधुनिकता में उसमें सहयोगी भूमिका नहीं दिखती। उत्तर आधुनिकता ने सोचने समझने के लिए समस्याएँ बहुत-सी पैदा की है, पर समाधान या आक्रोश , वेदना को जो चेतना के स्तर पर हो मुझे नहीं दिखता । आधुनिकता तक के विमर्श ने चेतना के प्रत्यय का निषेध नहीं किया। चेतना के ढाँचे पर विवाद है। उत्तर आधुनिकता ने मनुष्य की चेतना को हाशिए पर ढकेल दिया है। सोशियोलॉजी बिना सब्जेक्ट के नहीं हो सकता । आज विज्ञापन बड़ा टेक्स्ट है, पर उत्तर आधुनिक स्थिति में वस्तुओं की जिम्मेदारियाँ नहीं लेता। बिना जिम्मेदारी के टेक्स्ट पैसा है, ताक़त जितना विज्ञापन ने पैदा किया और किसी ने नहीं। पर इससे जिम्मेदारी गायब है, सब्जेक्ट कहाँ से होगा। यह सवाल जब भी उठाएंगे, मुक्तिबोध हमारे साथ होंगे। ख़तरा उठाने वाला टेक्स्ट होगा या खूब कमाईवाला बिना जिम्मेदारी के टेक्स्ट पर नहीं । स्वीकृति में इसका जवाब नहीं , प्रतिरोध में है।
- साम्प्रदायिकता सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिए इतना काफी है कि उनका विरोध करें। सामाजिक दृष्टि और मनुष्य को लेकर मुक्तिबोध ने लिखा । उनमें संघ की आस्था जरा भी नहीं।
- नए लेखकों को चाहिए कि जो आज के अंधेरे हैं, उन्हें वे मुक्तिबोध की कविता के मैं की तरह उसके भीतर जाकर देखें पहचाने और लड़ने के ख़तरे उठाएँ तभी हमें दु:ख दिखाई देंगे। हर जमाने के कवि को अपने जमाने के दु:खों को देखना, भीतर जाकर देखो, ख़तरे उठाओ, पहचानो, भीतर से अनुभूत रास्ते की तलाश करो।
मुक्तिबोध ने 'तारसप्तक' में लिखा ''क्रमश: मेरा झुकाव मार्क्सवाद की तरफ हुआ। अधिक वैज्ञानिक, अधिक तेजस्वी दृष्टिकोण मुझे प्राप्त हुआ ।'' उनका झुकाव तात्कालिक कारणों से नहीं था, वास्तविकता को गहरी ऑंख देखने की संभावना उन्हें मार्क्सवाद में मिली थी और उसे उन्होंने बड़े मानसिक संघर्ष के बाद अपनी मांस-मज्जा में उतारकर आत्मवत् बनाया ।
आज के कवि को मुक्तिबोध का संदेश है कि तुम भी रोशनी को आत्मवत् बनाकर अंधेरों का स्वीकार और शिकार न करो ,लड़ो तब तुम आत्मग्रस्त से आत्म चेतन बनोगे।
(नित्यानंद तिवारी ,हिन्दी के प्रख्यात आलोचक,भू.पू.प्रोफेसर,हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ डा.सुधा सिंह की बातचीत पर आधारित)
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