टेलीविजन पर क्रोध और प्रतिवाद से तमतमाए चेहरे गायब हैं। सड़कों ,गली, मुहल्लों, शहरों से प्रतिवाद उठकर चैनलों के पर्दे पर पहुँच गया है। सड़कें सूनी हैं, बसों में कोई चर्चा नहीं है, लोकल ट्रेन में सन्नाटा है,लेकिन टेलीविजन में गरमागरम बातें हो रही हैं। आतंकवाद के खिलाफ सक्रिय इन टेलीविजन शूरमाओं को आप कभी किसी भी राजनीतिक संघर्ष में नहीं देखेंगे। ये किसी दल के भी सदस्य नहीं हैं। इनका राजनीति में विश्वास नहीं है। लेकिन राजनीतिक विषयों पर बोलना ये अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।
ये ऐसे उपदेशक हैं जो अपने घरों में 12 महिने कैद रहते हैं। कभी घर से निकलते हैं तो दफ्तर के लिए,क्लब के लिए ,पार्टी के लिए अथवा सीधे चैनलों के टॉक शो के लिए। इनके पास हर समस्या का रेडीमेड जबाव है। आप इनसे किसी भी विषय पर बुलवा लीजिए ये विशेषज्ञ की तरह दावे के साथ बोलते हैं। यह बात दीगर है कि ये जिस विषय पर बोलते हैं उसके बारे में इनकी जानकारी बहुत कम और निरक्षर से बेहतर नहीं है।
चैनल वाले इन्हें ज्ञानी पुरूष मानकर बुलाते हैं। मेरी बात पर विश्वास न हो तो इन टेलीविजन शूरमाओं के ज्ञान का अध्ययन करने के लिए कभी इनसे फोन करके पूछ लें कि इन्होंने आतंकवाद पर क्या पढ़ा और क्या लिखा है ? थोड़ा परिश्रम करने का विचार हो तो लाइब्रेरी चले जाएं। इंटरनेट सर्च पर निकल जाएं। आप सच मानिए इनके लिखे के आपको दर्शन नहीं होंगे। सवाल किया जाना चाहिए टेलीविजन वाले किसे मूर्ख बना रहे हैं और क्यों सुचिन्तित ढंग से दर्शकों के साथ ठगई कर रहे हैं ?
26 /11 के टेलीविजन टॉक शो के शूरमाऔं को कभी जनता के किसी भी संघर्ष में शामिल होते नहीं देखा । इन्होंने आतंकवाद के बारे न तो पढ़ा है और न कुछ लिखा है। इनका एक ही (अव)गुण है ये सैलीबरेटी हैं। ये पेज3 कल्चर के नायक हैं। आतंकवाद का प्रतिवाद पेज3 कल्चर के नायकों के माध्यम से सम्पन्न किया जाएगा तो इससे आम जनता की राजनीतिक शिरकत को बढाना देना संभव नहीं है।
पेज3 कल्चर का नायक कभी भी जनता का प्रेरक नहीं रहा। कहीं पर भी नहीं रहा। यहॉं तक कि अमेरिका में भी नहीं है। नपुसंक प्रतिवाद का यह पेज 3 मार्का अराजनीतिक ग्लोबल रूप हमारे बीच में आ गया है। इसकी विशेषता है कि आपको प्रतिवाद में गुस्से की जरूरत नहीं है। जनता की जरूरत नहीं है। जनता को राजनीतिक तौर पर शिक्षित करने,जागरूक करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ चैनल के पर्दे पर हल्की सी असहमति ,बक-बक ही काफी है। नए ग्लोबल प्रतिवाद का यह रूप 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध वाले प्रतिवाद से काफी मिलता जुलता है। उस जमाने में भारतीय प्रतिवाद नहीं करते थे। कुछ बड़े लोग थे, जो आवेदन और प्रार्थनाएं करते थे। जुलूस निकालने नहीं पड़ते थे।प्रतिनिधिमंडल लेकर जाते थे। मांगपत्र देते थे और प्रार्थना करके चले आते थे। प्रतिवाद के इस रूप की कुछ संशोधनों के साथ टेलीविजन युग में तेजी से वापसी हुई है।
26 /11 की आतंकी घटना पर एक साल बाद सारे देश में क्या हो रहा था हम शायद ही जानते हों। लेकिन कल मुंबई में क्या हो रहा था, हम जरूर जानते हैं। इस जानकारी के लिए हमें चैनलों को 'धन्यवाद' देना चाहिए। हमें विभिन्न देशभक्त राजनीतिक दलों को भी 'धन्यवाद' देना चाहिए कि उन्होंने जब यह घटना हुई तब भी प्रतिवाद में भारतबंद नहीं कराया। महाराष्ट्र बंद नहीं कराया। सड़कों पर लंबे जुलूस नहीं निकाले। कल भी जब देश में प्रतिवाद हो रहा था तो सारे राजनीतिक दल शांत थे। कहीं पर कोई बड़ी प्रतिवाद रैली नहीं निकली। मैंने कम से कम से कम किसी भी स्थान पर बड़ी रैली की खबर नेट पर नहीं देखी है। आपने देखी हो तो जरूर बताएं।
सवाल उठता है कि क्या 26 /11 की घटना इतनी बेकार की घटना थी कि उस पर हमें गुस्सा ही न आए । हमारे राजनीतिक दल सड़कों पर ही न निकलें। मुंबई में आए दिन कॉंच तोड़ने वाले शिवसैनिक और उनके जुड़वॉं राजठाकरे के लोग भी गुस्से से तमतमाएं नहीं। उन्होंने ने भी महाराष्ट्र बंद नहीं किया। कोई बड़ी रैली नहीं निकाली। ऐसा क्या हुआ कि राजनीतिक दलों ने अपनी दुकानें इस मसले पर एकसिरे से बंद कर दीं। वामपंथी दलों को भी क्या दिक्कत हुई कि वे भी सारे देश में इस घटना के खिलाफ खासकर पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में बड़े प्रतिवाद समारोह नहीं कर पाए।
क्या हम यह मान लें कि आतंकी हमले के समय हम सिर्फ भीड़ की तरह,गुमनाम लोगों की तरह प्रतिवादस्वरूप पेज3 सैलीबरेटी लोगों के साथ मोमबत्तियां जलाएंगे, हमारे चैनलों पर कुछ सैलिब्रेटी ,कुछ सोशलाइट,विज्ञापन कंपनी के लोग,कुछ रिटायर्ड सैनिक और पुलिस अफसर ,कुछ बिके हुए सरकारी पत्रकार और कुछ सिनेमा के छोकरे आतंकवाद के खिलाफ टेलीविजन पर प्रचवन देंगे। कुछ पत्रकार अपनी मांद से निकलकर आएंगे और पोस्टमार्टम कर देंगे और यह काम सारे चैनलों पर एक ही समय एक ही साथ सम्पन्न होगा। यहां तक कि मौन रखने का समय भी प्राइम टाइम में ही होगा। गृहमंत्री भी चैनल पर ही मौन रखकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेगा और राजदीपसरदेसाई हमारी जनता का प्रतिनिधि हो जाएगा। शर्म आती है ऐसे अराजनीतिक प्रचार पर। यह हमारी राजनीतिक नपुंसकता का महिमामंडन है।
टेलीविजन बाइटस के लिए किए गए एक्शन प्रतिवाद का चारणरूप हैं। क्या इस मसले पर विभिन्न राजनीतिक दलों को पाक उच्चायुक्त के सामने जुलूस,रैली आदि नहीं करनी चाहिए थी ? हम सोचें हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं ? हमने राजनीतिक प्रतिवाद टेलीविजन बाइट्स में तब्दील कर दिया है। हम कैमरे में मुँह दिखाने के लिए,चैनल पर चेहरा दिखाने के लिए प्रतिवाद कर रहे हैं। अब सारा देश इंतजार करता रहता हे कि जो कुछ भी घटा है उस पर जो कुछ कहना है वह टीवी पर कह दें। टीवी पर डिशक्शन आ गया अब हमें बोलने की क्या जरूरत है। हमारे नादान दोस्त भूल गए हैं कि टीवी टॉक शो ने हमारे आपसी राजनीतिक विमर्श ,संघर्ष और वास्तव शिरकत को अपहृत कर लिया है। टीवी टॉक शो को को हम सबसे बड़ी राजनीतिक जागरूकता समझने लगे हैं। यह राजनीतिक पतन के चरमोत्कर्ष की निशानी है हमें सावधान हो जाना चाहिए।
यह तो ट्रेलर भर है, असली फिल्म तो अभी बाकी है. कुछ सालों के अन्दर ही अख़बारों और चैनलों में लोकसभा चुनाव हाशिये की खबर बनकर रह जायेंगे. और जब अमेरिका के चुनाव हुआ करेंगे तो निर्वाचन के दो महीने पहले से ही मीडिया ऐसा माहौल पैदा कर देगा की जैसे अमरीकी चुनावों में भारतीयों को भी वोट डालना हो. यह कल्पना नहीं है, कुछ सालों में ऐसा होने वाला है.
जवाब देंहटाएंहमें बड़े ही सुनियोजित ढंग से 'डम्ब डाउन' किया जा रहा है. भाषा, मीडिया, अश्लीलता, शिक्षा व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, नैतिक-सामाजिक व्यवस्था व मूल्य, परिवार व्यवस्था, सामान्य जागरूकता, खानपान, प्रकृति-पर्यावरण, जनमानस इन सभी चीज़ों पर सफलता पूर्वक चौतरफा हमला जारी है. और सबसे बड़ा संकट यह है की भारत का युवा वर्ग बेहोशी में झूम रहा है, और ज़्यादातर बुद्धिजीवियों को सिस्टम या बाज़ार ने खरीद लिया है.