टीवी कवरेज से कई बातें सामने आयी हैं। पहली बात यह सामने आयी है कि हमारा टीवी जगत अभी तक पेशेवर रिपोर्टिंग में सक्षम नहीं है। खासकर आतंकवाद जैसी आपदा की रिपोर्टिंग के मामले में इसका नौसिखियापन पूरी तरह सामने आ चुका है। भारत-पाक संबंधों को बनाने से ज्यादा बिगाड़ने पर इतना जोर दिया गया कि उससे यह पता चलता है पाक-भारत रिश्ते, पाक में आतंकी संगठनों की नैटवर्किंग आदि का भारत के चैनल रिपोर्टरों को न्यूनतम ज्ञान तक नहीं है।
अपने ज्ञान के अभाव को पूरा करने केलिए चैनलों पर विदेश मंत्रालय के वर्तमान और भू.पू. अधिकारियों,पुलिस अफसरों और नेताओं के बयानों से ज्यादा कोई सामग्री चैनलों में नजर नहीं आयी। सरकारी लोगों को बिठाकर बातें करने से पेशेवर पत्रकारिता अपनी भूमिका अदा नहीं करती। हमारे चैनलों पर अभी तक आतंकवाद और आतंकी संगठनों के बारे में पेशेवर पत्रकारों और गैर सरकारी लोग तकरीबन नजर ही नहीं आते। जनता के प्रतिनिधि के नाम पर बेतुकी बातें करने वाले राजनीति,आतंकवाद आदि के न्यूनतम ज्ञान से शून्य सैलेबरेटी बैठे हुए थे। ये लोग कॉमनसेंस की अनर्गल बातें कर रहे थे। आतंकवादी प्रभाव को कॉमनसेंस ,अर्नगल और सरकारी सेंस के आधार पर पछाड़ना संभव नहीं है। चैनलों के पास खबरों का प्रधान स्रोत था पुलिस। इसके अलावा चैनल किसी भी स्रोत से खबर नहीं जुटा पा रहे थे।
चैनलों के कवरेज का एक सबसे बड़ा सकारात्मक तत्व था आतंकी खबरों का मुसलमान विरोधी खबर में तब्दील न होना। आतंक की खबर को आतंकियों तक सीमित रखने में इन्हें सफलता जरूर मिली। इसके कारण मुसलमान विरोधी भावनाएं पैदा नहीं हो पायीं। जबकि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय ऐसा नहीं हो पाया था, मुसलमान विरोधी भावनाओं को भड़काने में मीडिया सबसे आगे था।
पंजाब में सन् 80 के आतंकी दौर में हिन्दू और सिख विरोधी भावनाओं को भड़काने में पंजाब का प्रेस सबसे आगे था। अपवाद था 'ट्रिब्यून' समाचार पत्र। अन्य प्रमुख पंजाबी पत्रों में हिन्दू-सिख विरोधी वैचारिक लामबंदी चल रही थीं। यही स्थिति अन्य मौकों पर भी देखने में आयी है। अमेरिका के नाइन इलेवन कवरेज ने मुसलमान विरोधी भावनाओं को व्यक्त किया।
सन् 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी उन्माद पैदा करने में सरकारी टीवी दूरदर्शन की बड़ी भूमिका थी। जिसके कारण हजारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। यह बात इंदिरा गांधी की मौत की जांच करने वाले रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित की है। यह रिपोर्ट आज तक संसद में नहीं रखी गयी। भारत-विभाजन के समय प्रेस की साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने में भूमिका थी। यह बात प्रथम प्रेस कमीशन की रिपोर्ट में रेखांकित है।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय प्रेस की साम्प्रदायिक भूमिका थी इसे प्रेस परिषद ने माना। कई समाचार पत्रों को इसके लिए सेंसर किया गया। इन सभी पिछले अनुभवों की रोशनी में कह सकते हैं कि मुंबई की आतंकी घटना का कवरेज कम से कम मुसलमान विरोधी नहीं था। पाक विरोधी भावनाओं से लबालब भरा था।
टीवी चैनलों ने बार-बार जिस चीज पर जोर दिया वह था भारत का 'लोकतंत्र'। मीडिया ने भारत के लोकतंत्र की बड़ी प्रशंसा की और आतंकी कवरेज के सत्य को गौण बनाया। कवरेज में बार-बार पाक का आना, भारत की तुलना में पाक का आना 'लोकतंत्र' को बड़ा बना रहा था। इस क्रम में आतंकी घटना से संबंधित तथ्यों की उपेक्षा हुई। 'लोकतंत्र' में आस्था के कारण ही भारत के पुलिस अधिकारियों, अफसरों और विदेश सेवा के नौकरशाहों का कवरेज ज्यादा आया। सबने 'लोकतंत्र' पर ज्यादा ध्यान दिया। तटस्थ किस्म के पेशेवर लोगों,सैलेबरेटी लोगों,राजनेताओं आदि के वक्तव्य ज्यादा पेश किए गए। घटना से संबंधित तथ्य कम से कम प्रस्तुत किए गए। 'लोकतंत्र' पर जोर देने के कारण ही घटना के तथ्यों को खोजने और प्रसारित करने की बजाय घटना पर विभिन्न किस्म की राय और और टॉक शो में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। चैनल मानकर चल रहे थे कि भारत को सुरक्षित रखना है तो लोकतंत्र को सुरक्षित करें। घटना के तथ्य भले ही हाथ से निकल जाएं। दुनिया लोकतंत्र के लिए है तथ्यों के लिए नहीं। इसके विपरीत नाइन इलेवन की घटना में लोकतंत्र गौण था, घटना के तथ्य मुख्य थे। अमरीकी पत्रकार मानकर चल रहे थे कि आज की दुनिया की सुरक्षा के लिहाज से 'लोकतंत्र' महत्वपूर्ण नहीं है, घटना के तथ्य महत्वपूर्ण हैं।
'लोकतंत्र' के पैराडाइम के आधार पर आतंक के खिलाफ वैचारिक प्रचार अभियान चलाया गया। पाक के झूठ का संगठित प्रत्युत्तर दिया गया। पाक के झूठ के खिलाफ पाक के मीडिया और पाक प्रशासन में असर हुआ। वहां बगावत पैदा करने में भारत के मीडिया को सफलता मिली। भारत के चैनलों के 'लोकतंत्र' पैराडाइम का ही असर था कि पाक के चैनलों का एक धड़ा और प्रशासन में भी पाक प्रशासन के असत्य के खिलाफ स्वर सुनने को मिले और अंत में पाक के अंदर और बाहर इस झूठ के खिलाफ दबाव तेज हुआ।
आज अमरीका,ब्रिटेन आदि से लेकर सुरक्षा परिषद तक पाक के झूठ के खिलाफ गोलबंदी दिखाई दे रही है उसमें भारतीय चैनलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत सरकार पहलीबार इस बात को विश्व जनमत को समझाने में सफल रही है कि पाक झूठ बोल रहा है। कहने का तात्पर्य यह है 'लोकतंत्र' को आधार बनाकर टीवी चैनलों ने जो विचार वर्षा की थी उसने पाक के झूठ को तबाह कर दिया। पाक बार-बार घटना के तथ्यों तक सीमित रखना चाहता था चैनलों ने इस सीमा को मानने से इंकार किया और व्यापक लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में घटना पर रोशनी डाली।
यह सच है चैनलों के पास तथ्य कम थे वे ही तथ्य थे जो सरकारी स्रोतों से आ रहे थे। 'पाक प्रशासन लंबे समय से झूठ बोल रहा है' इस एक नारे के इर्दगिर्द लोकतंत्र का जिस तरह से वातावरण बनाया गया उस वातावरण को पाक तोड़ नहीं पाया और यह कूटनीति,राजनीति के लिहाज से भारत की सबसे बड़ी जीत थी। पाक को अंतत: मानना पड़ा पाकिस्तान के गैर सरकारी लोगों का मुंबई की आतंकी घटना में हाथ है।
एक बार जब विश्व जनमत को यह बात समझाने में सफलता मिल गयी कि पाक प्रशासन लंबे समय से झूठ बोल रहा है तो पाक प्रशासन को भी स्वीकार करना पड़ा आतंकियों के प्रशिक्षण कैंप पाक में हैं और कुछ कैंप बंद करा दिए गए हैं। अब तक पाकिस्तान यह मानने को तैयार नहीं था कि पाक में आतंकियों के प्रशिक्षण शिविर हैं। चैनलों की वैचारिक बमबारी का यह सीधा परिणाम था। पाक प्रशासन को मजबूर होकर कुछ कैंप बंद कराने पड़े। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। कुछ को गिरफतार किया कुछ को घरों में नजरबंद किया। पाक प्रशासन कल तक आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने से गुरेज करता था उसे भी आतंकियों के खिलाफ सक्रिय होना पड़ा। यह भारतीय चैनलों की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। पहलीबार पाक प्रशासन ने आतंकियों से पृथक् करके अपने को प्रस्तुत किया।
टीवी चैनलों की दूसरी बड़ी उपलब्धि है कि उन्हें जो कुछ मिलता गया उसे दिखाते गए। इस क्रम में कुछ गलत और ज्यादातर सही हुआ है। जो गलत हुआ है ,वह पेशेवर अकुशलता के कारण हुआ है। चैनल यदि झूठ बोलते तो खबरें छिपाते। चैनलों ने झूठ नहीं बोला इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि उनके पास जो भी खबर,अफवाह,रिपोर्ट,बयान आदि आया उसे दिखाते गए,इस क्रम में पुनरावृत्ति भी हुई। चैनलों का लगातार दिखाते रहना स्वयं में झूठ को नष्ट करने का औजार बन गया। चूंकि वे घटना के तथ्य कम और विचार अथवा अन्य चीजें ज्यादा दिखा रहे थे फलत: इससे कोई खास नुकसान नहीं हुआ बल्कि लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रचार ज्यादा हुआ। तात्कालिक खबर और तात्कालिक विचार पर उसके प्रभाव के बारे में सोचे बगैर जोर दिया गया। इससे न तो राष्ट्र की कोई क्षति हुई और न आम जनता की। चैनलों के मालिक बड़े कारपोरेट घराने हैं अत: उन्होंने आतंकी घटना को तेजी से मुनाफे में तब्दील किया। रेटिंग बढ़ायी, ज्यादा विज्ञापन हासिल किए।
टीवी की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि थी कि इसने मुंबई की आतंकी घटना को लेकर 'डिसइनफॉर्मेशन' फैलाने का काम नहीं किया। प्रस्तुति में उत्तेजना,अतिरंजना और बोगस चीजें थीं। किंतु 'डिस इनफॉर्मेशन' नहीं था। चैनलों ने जिन सूचनाओं को संप्रेषित किया उनका सबसे बड़ा स्रोत सरकारी एजेंसियां थीं। जो थोड़ी बहुत सूचनाएं निजी प्रयासों से एकत्रित की थीं उनको भी बाद में पुष्टि का मौका मिला। टीवी से प्रसारित ज्यादातर खबरें बाद में पुष्ट हुई हैं। खबर सही है तो उसकी अन्य स्रोत से पुष्टि जरूर होगी।
'डिसइनफॉरमेशन' का मतलब सुचिंतित झूठ। यह ज्यादा नुकसान करता है। सुचिंतित झूठ का चैनलों ने एकदम प्रचार नहीं किया। हां, 'मिसइनफॉरमेशन' को कई बार जरूर देखा गया ,'मिस-इनफॉरमेशन' का मतलब है सबके द्वारा जो चीज स्वीकृत नहीं होती। अथवा भूल से दी गयी सूचना , यह सुचिंतित नहीं होती। इसलिए उसे हमेशा बोलते नहीं हैं। इसी तरह सूचना असत्य हो सकती है साथ ही नुकसानदेह भी हो सकती है।
टीवी चैनलों ने आतंकी खबरों के संदर्भ में 'षडयंत्र सैध्दान्तिकी' का व्यापक इस्तेमाल किया। आतंकियों ने कहां-कहां योजना बनायी होगी, कैसे तैयारी की होगी। इसके बारे में जितना भी कवरेज आया वह 'षडयंत्र सैध्दान्तिकी' के नजरिए पेश किया गया।
टीवी कवरेज में 'पीड़ित समाज' कम नजर आया। आतंक की घटनाओं के संदर्भ में पीड़ितों का सामने आना बेहद जरूरी है। हम नहीं जानते कि आतंकी कार्रवाई में जो लोग मारे गए उनके नाम क्या हैं, जो घायल हुए उनके नाम क्या हैं। इनके नाते-रिश्तेदारों पर क्या गुजरी। कभी -कभार किसी बड़े अफसर का कोई रिश्तेदार टीवी में नजर जरूर आया। आम तौर पर टीवी की 'पीड़ितों के आख्यान' में दिलचस्पी नहीं होती। यह टीवी या मीडिया की संवेदनहीनता है।
'पीडितों' को दिखाना जिस तरह अमरीकी मीडिया में 'टेबू' माना जाता है वही स्थिति हमारे मीडिया में भी है। 'पीडितों के आख्यान' का अर्थ है 'हीरो' और 'हमले में जीवित बचे लोगों' का आना। इनके नाम पर राजनीति का आना। आमतौर पर पीड़ित वे हैं जो निर्दोष हैं,असमर्थ हैं। पीड़ितों में से जब किसी को प्रस्तुत किया जाता है तो राजनीतिक लक्ष्य साधन के तौर पर पेश किया जाता है। इस मामले में आदर्श उदाहरण है हेमंत करकरे की मौत ,उसकी पत्नी और परिवार का आना,उनकी पत्नी का टीवी पर लंबा काव्य वक्तव्य और साक्षात्कार, केरल के मुख्यमंत्री सी.अच्युतानंदन का प्रसंग, मोदी का हेमन्त करकरे को एक करोड़ रूपये की सहायता राशि आदि का प्रसंग।
आतंक पीड़ितों का बहुत बड़ा समाज है। यह समाज उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर जम्मू-कश्मीर तक। दिल्ली से लेकर पंजाब तक फैला हुआ है। इन पीडितों को देखने,जानने, प्रस्तुत करने का मीडिया के पास न तो समय है और न सही समझ है। पीडितों के बृहत्तर समाज ने 'पीड़ितों की राजनीति' को भी पैदा किया है। यह मूलत: संकीर्णतावादी राजनीति है।
पीड़ितों की राजनीति ने असली और नकली पीडित का अंतर पैदा किया है। बड़े शहीद और छोटे शहीद का अंतर पैदा किया है। कश्मीर में खासकर कश्मीरी हिन्दू और गैर हिन्दू पीड़ितों के बीच इस अंतर को साफतौर पर महसूस किया जा सकता है। पंजाब ,असम में यह अंतर देखा जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि टीवी अथवा मीडिया के लिए 'पीड़ित' की केटेगरी में खास दिलचस्पी नहीं है। आमतौर पर पीड़ित का आख्यान व्यक्तिगत और नैतिक आख्यान बनकर सामने आता है। उसके व्यक्तिगत समाधान को ही पेश किया जाता है।
मीडिया का पीड़ितों के प्रति जो उपेक्षाभाव है उससे यही संदेश जाता है कि समाज में पीड़ित जैसी कोई केटेगरी नहीं है। पीड़ित तब ही कवरेज पाता है जब प्रतिवाद पर उतर आए और नाटकीय मुद्रा में अपने को पेश करे। ऐसे में मीडिया पीड़तों के दुख को नाटक या नजारे में तब्दील कर देता है। उसे ढोंग बना देता है। पीड़ितों के प्रति टीवी चैनलों का क्या रवैयया है इसे पीड़ित स्त्री के आख्यान की प्रस्तुति में सहज ही देख सकते हैं।
टीवी ने मुंबई आतंकी हमले के शिकार हेमन्त करकरे आदि अफसरों को पीड़ित की केटेगरी से निकालकर हीरो की केटेगरी में पेश किया। नाइन इलेवन की घटना में मारे गए लोगों को भी पीड़ित या शिकार की केटेगरी में रखने की बजाय हीरो बनाया गया था। आतंक के पीड़ित को मीडिया और सत्ता पीड़ित न कहकर 'शहीद' या 'हीरो' के रूप में प्रस्तुत करते हैं यह पीड़ित की अवधारणा और अवस्था को झुठलाना है।
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