'
जेएनयू की 'स्प्रिट' का स्रोत हैं छात्र। छात्रों की एकता,सहनशीलता,मितव्ययता,अनौप चारिकता, बौद्धिकता आदि के सामने सभी नतमस्तक होते हैं। जेएनयू की पहचान जी.पार्थसारथी, नायडूम्मा, मुनीस रजा,जीएस भल्ला या नामवर सिंह से नहीं बनती। जेएनयू की पहचान की धुरी है ''छात्र स्प्रिट'। यह 'छात्र स्प्रिट' सारी दुनिया में कहीं पर भी देखने को नहीं मिलेगी।
जेएनयू की 'छात्र स्प्रिट' का आधार न वाम विचारधारा है न दक्षिणपंथी विचारधारा है। बल्कि लोकतांत्रिक अकादमिक वातावरण,विचारधारात्मक वैविध्य और लोकतांत्रिक छात्र राजनीति इसकी आत्मा है। जेएनयू के वातावरण और 'छात्र स्प्रिट' को निर्मित करने में अनेक विचारधाराओं की सक्रिय भूमिका रही है। जेएनयू का अकादमिक वातावरण विचारधाराओं के संगम से बना है। जेएनयू में आपको एक नहीं अनेक विचारधाराओं के अध्ययन-अध्यापन और सार्वजनिक विमर्श का अवसर मिलता है । इस अर्थ में जेएनयू विचारधाराओं का विश्वविद्यालय है। सिर्फ वाम विचारधारा का विश्वविद्यालय नहीं है। फर्क इतना है कि अन्य विश्वविद्यालयों में विचारधाराओं के अध्ययन अध्यापन को लेकर इस तरह का खुलापन,सहिष्णुता और लोकतांत्रिक भाव नहीं है जिस तरह का यहां पर है।
जेएनयू की 'छात्र स्प्रिट' के अनेक नजारे हमारी आंखों से गुजरे हैं। आज भी इस 'छात्र स्प्रिट' को आप व्यंजित होते देख सकते हैं। मुझे मई 1983 का ऐतिहासिक क्षण याद आ रहा है। यह क्षण कई अर्थों में छात्र राजनीति के सभी पुराने मानक तोड़ता है और नए मानकों को जन्म देता है। यह वह ऐतिहासिक क्षण है जिसमें जेएनयू अपना समस्त पुराना कलेवर त्यागकर नया कलेवर धारण करता है। छात्रों में अभूतपूर्व एकता,अभूतपूर्व भूल और अभूतपूर्व क्षति के दर्शन एक ही साथ होते।
जेएनयू की अभूतपूर्व क्षति के लिए सिर्फ उस समय के छात्रसंघ के नेतृत्व को दोष देना सही नहीं होगा। मई 1983 की जेएनयू की तबाही के लिए छात्र बहानाभर थे। असल खेल तो प्रशासकों ने खेला था। उस खेल में अधिकांश नामी गिरामी शिक्षकों ने प्रशासन का समर्थन किया था। एकमात्र जीपी देशपाण्डे ,प्रभात पटनायक, सुदीप्ति कविराज, उत्सा पटनायक और पुष्पेशपंत ने खुलेआम छात्रों का पक्ष लिया था,प्रशासकों के खिलाफ आवाज उठायी थी। बाकी सब तरह 'बदलो' ,' बदलो' कर रहे थे।
मई 83 की घटना के साथ जेएनयू की समस्त पुरानी ऐतिहासिक मान्यताएं,धारणाएं, विश्वास, संस्कार,आदतें, राजनीतिक मान्यताएं, प्रशासनिक नजरिया,प्रशासकीय नीतियां सब कुछ धराशायी हो गए । मई 83 की घटना को बहाना बनाकर जेएनयू को सुनियोजित ढ़ंग से प्रशासकों ने तोड़ा। इस कार्य में लोकल प्रशासकों से लेकर केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय तक सभी का हाथ था। छात्र आंदोलन को तो महज बहाने के रूप में इस्तेमाल किया गया था। मई छात्र आंदोलन नहीं होता तब भी जेएनयू में बुनियादी परिवर्तन आते। मई 83 के भयानक दमन के बाद भी 'छात्र स्प्रिट' खत्म नहीं हुई । सारे प्रशासकीय और नीतिगत परिवर्तनों को लाने का बुनियादी लक्ष्य था 'छात्र स्प्रिट' को नष्ट करना। छात्रों ने कभी भी यह लक्ष्य हासिल करने दिया।
मई 83 के भयानक उत्पीडन और दमन के बावजूद छात्रों की एकता,भाईचारा,राजनीतिक सहिष्णुता और बंधुत्व बना रहा। उल्लेखनीय है मई 83 में मैं वहां की राजनीति का अनिवार्य हिस्सा था। जेएनयू की स्टूडेण्ट फेडरेशन ऑफ इण्डिया की जेएनयू यूनिट का अध्यक्ष और दिल्ली राज्य का उपाध्यक्ष था।
बाद में सन् 1984 -85 के छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष बनने वाला जेएनयू का एकमात्र हिन्दीभाषी छात्र था। मैं हिन्दी के अलावा कोई भाषा नहीं जानता था। अंग्रेजी एकदम नहीं जानता था। जबकि जेएनयू में उस समय 70 प्रतिशत से ज्यादा छात्र गैर हिन्दीभाषी इलाकों से पढ़ने आते थे। हिन्दी में पीएचडी कर रहा था। उस समय हिन्दी विभाग का छात्र राजनीति में यह सबसे बड़ा योगदान था। मेरे गुरूजन और हिन्दी वाले दोस्त अभी तक इस तथ्य और सत्य को समझ नहीं पाए हैं। वे यह भी नहीं समझ पाए हैं कि जेएनयू किसी व्यक्ति का बनाया नहीं है, कुछ व्यक्तियों का भी बनाया नहीं है। वह प्रोफेसरों का भी बनाया नहीं है। जेएनयू को बनाया है छात्र स्प्रिट ने। किसी महापंडित ने जेएनयू नहीं बनाया। जेएनयू में व्यक्ति नहीं 'स्प्रिट' महत्वपूर्ण है। कर्मण्यता और छात्रसेवा महत्वपूर्ण है।
जेएनयू में छात्रों ने जो सम्मान मुझे दिया उस समय तक वह सम्मान हिन्दी के किसी भी छात्र को नहीं मिला था। जेएनयू में हिन्दी को छात्र राजनीति को पहलीबार सिरमौर के पद पर प्रतिष्ठित करने में इसी 'छात्र स्प्रिट' की केन्द्रीय भूमिका थी। जेएनयू की 'छात्र स्प्रिट' ने संकीर्णतावाद को कभी जगह नहीं दी है। मेरा अध्यक्ष पद पर जीतना आसान नहीं था। मैं दो बार उपाध्यक्ष के पद पर एकबार बागी एसएफआई उम्मीदवार संजीव चोपड़ा से मात्र 10 वोट से हार चुका था,जो इनदिनों पश्चिम बंगाल के भूमि राजस्व विभाग में आईएएस सचिव है। दूसरी बार फ्री थिंकर्स के उम्मीदवार आर. वेणु से मात्र 18 मतों से हार गया। ये जनाब संभवत: इन दिनों संयुक्त अरब अमीरात में राजदूत हैं। मुझे दोनों बार एसएफआई के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार से ज्यादा मत मिले। इसके बावजूद मतों के ध्रुवीकरण के कारण हार गया।
उल्लेखनीय है 1980 में मैं मात्र एक वोट से स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज में कौंसलर चुना गया। मुझे कौंसलर का उम्मीदवार मजबूरी में बनाया गया था। नागेश्वर यादव को असल में कौंसलर के लिए खड़ा करने का फैसला लिया गया था। लेकिन नागेश्वर यादव समय पर अपने गांव से लौट ही नहीं पाया और अंत में मजबूरी में मुझे उम्मीदवार बना दिया गया। सबका मानना था मैं हार जाऊँगा। लेकिन मजेदार बात हुई सबसे सस्पेंस भरी मतगणना में मैं मात्र एक वोट से जीत गया। मेरे जीतने की किसी को आशा नहीं थी। लेकिन मैं आशान्वित था। यहॉं पर भी मेरी संभावित हार के बारे में मेरे अंग्रेजी न जानने को प्रधान कारण के रूप में देखा जा रहा था। दिलचस्प बात थी कि जो उम्मीदवार मुझसे हारा था वह एआईएसएफ का था और स्पेनिश भाषा विभाग में पढ़ता था । अंग्रेजी में फर्राटा भाषण देता था। उस साल एसएफआई और एआईएसएफ में चुनावी समझौता नहीं हो पाया था। ये दोनों संगठन एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे। मैं भारतीय भाषा केन्द्र में पढ़ता था और उस समय इस विभाग में एआईएसएफ का रूतबा था। क्योंकि उनके पास नामवरजी जैसे बड़े शिक्षक का वरदहस्त था। पुरूषोत्त्म अग्रवाल उसी साल एआईएसएफ के पैनल में संयुक्त सचिव के उम्मीदवार थे उन्हें मात्र 125 वोट मिले थे। ये जनाब इन दिनों लोकसंघ सेवा आयोग के सदस्य और प्रसिद्ध आलोचक हैं।
एसएफआई के खिलाफ एआईएसएफ ,फ्रीथिकर्स ,समाजवादी युवजनसभा ये तीन छात्र मोर्चे चुनाव लड़ रहे थे । ये तीनों मोर्चे बुरी तरह हारे एसएफआई को दो-तिहाई सीटों पर जीत हासिल हुई थी। भास्कर वेंकटरमन को अध्यक्ष चुना गया था। वह अर्थशास्त्र में एमए कर रहा था। उस कौंसिल में हम दो हिन्दी बोलने वाले थे। मैं और सुनीलजी। सोशल साइंस से सुनीलजी (इन दिनों मध्यप्रदेश में गरीबों,आदिवासियों में सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं,एकनिष्ठ गांधीवादी समाजवादी ,बेहतरीन इंसान ) जीते थे उन्होंने सच्चिदानंद सिन्हा ( सम्प्रति जेएनयू के सीएसआरडी में एसोसिएट प्रोफसर और कार्यवाहक डीन ऑफ स्टूडेंट) को हराया था। बाद में 1981-82 और 1982-83 में मैं उपाध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा और दोनों बार हारा।
एक साल के अंतराल के बाद सन् 1984-85 के चुनाव में मैं एसएफआई की ओर से छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार बनाया गया। यह एसएफआई ने छात्र राजनीति का सबसे बड़ा दांव खेला था। किसी ठेठ हिन्दीभाषी और एकदम अंग्रेजी न जानने वाले को अध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाया था । सारा कैम्पस जानता था मैं अंग्रेजी एकदम नहीं जानता। मैं अंग्रेजी न पढ़ पाता था और न लिख पाता था। क्या आज ऐसे किसी भी छात्र की जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर जीतने की कल्पना की जा सकती है जो एकदम अंग्रेजी न जानता हो। जिसने कभी अंग्रेजी नहीं पढ़ी हो। यह अविस्मरणीय घटना सिर्फ जेएनयू की छात्र राजनीति में ही संभव है। यह तब ही संभव है जब 'छात्र स्प्रिट' का सार्वजनिक वातावरण में बोलवाला हो। मेरा अध्यक्ष बनाना असाधारण नहीं था। इस सिर्फ इस अर्थ में असाधारण था कि जेएनयू का इससे अंग्रेजीदा मिथ टूटा था। हिन्दी के लिए यह गौरव की बात थी। लोकतान्त्रिक छात्र राजनीति के लिए गौरव की बात थी।
जेएनयू 'छात्र स्प्रिट' की धुरी है कर्मण्यता। जो छात्रों के लिए काम करेगा उसे वे प्यार करते हैं। वे राजनीति पर ध्यान पीछे देते हैं कर्मण्यता पर ध्यान पहले देते हैं। अकर्मण्य होने पर वे किसी भी धाकड़ नेता को घूल चटा सकते हैं। छात्रों के बीच कौन कितना समय देता है, उनकी तकलीफों में कौन कितना ध्यान देता है,कितना समय उनकी सुख दुखभरी जिंदगी में शेयर करता है। इन चीजों को जेएनयू की 'छात्र स्प्रिट' पहचानती है। कोई बढ़िया नेता हो लेकिन छात्रों के बीच में नहीं छात्रसंघ के दफतर में क्लर्क की तरह बैठा रहे। छात्रसंघ की कार्रवाईयों को ही महत्व दे। सार्वजनिक तौर पर कम मिले या लोगों में कम घुले मिले तो ऐसे नेता को जेएनयू के छात्र पसंद नहीं करते।
जेएनयू की 'छात्र स्प्रिट' का अर्थ है छात्र कर्मण्यता। छात्र कर्मण्यता के अभाव में दूसरीबार जब प्रकाश करात अध्यक्ष पद का चुनाव लडने गए तो आनंद कुमार के हाथों बुरी तरह हार गए। आनंद कुमार संभवत: पहले छात्रसंघ अध्यक्ष थे जो हिन्दी में भी जेएनयू में भाषण देते थे। ऐसा मैंने सुना है। इन दिनों आनंद कुमार समाजशास्त्र के जेएनयू में प्रोफेसर हैं। आनंद कुमार जीते इसी छात्रस्प्रिट के कारण। जबकि उन दिनों एसएफआई का संगठन बेहद मजबूत था। उनकी तुलना में समाजवादी उतने शक्तिशाली नहीं थे। प्रकाश करात एसएफआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे। जनता से कटे रहने और यूनियन के दफतरी कामों में व्यस्त रहने के कारण आनंदकुमार से हार गए।
किसी शिक्षक अथवा अकादमिक प्रशासक या राजनेता को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वह जेएनयू की पहचान का निर्माता है। यदि अकादमिक प्रशासक जेएनयू की पहचान और शक्ति के नियामक थे तो अनेक शिक्षकों ने अन्यत्र शिक्षा जगत में शिक्षा प्रशासक की भूमिका अदा की है। अनेक संस्थानों के निदेशक,अध्यक्ष,कुलपति,कुलाधिपति आदि सब पदों पर जेएनयू के शिक्षक आसीन होते रहे हैं। वे कहीं पर भी अपनी क्षमता से जेएनयू जैसी 'स्प्रिट' , 'जेएनयू जैसी संस्कृति' जेएनयू जैसा छात्रसंघ आदि क्यों नहीं बना पाए ? दूसरी बात यह कि जेएनयू जैसी 'छात्र स्प्रिट' वामशासित राज्यों पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में वाम छात्र संगठन क्यों नहीं पैदा कर पाए ? किसी कम्युनिस्ट देश ( अब पराभव हो चुका है) अथवा किसी विकसित पूंजीवादी मुल्क के आदर्श विश्वविद्यालयों में ऐसी 'छात्र स्प्रिट' क्यों नहीं देखी गयी ? जेएनयू की विशिष्टता है 'छात्रस्प्रिट' यह एकदम विलक्षण फिनोमिना है। यह साधारण छात्र एकता नहीं है। छात्र कर्मण्यता है। यह छात्रों के सुख दुख,हंसी,खुशी,विमर्श,विषाद ,अकादमिक शेयरिंग और आनंद की मिट्टी से बनी है। ऐसी मिली जुली मिट्टी आपको सारी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगी। इसी अर्थ में जेएनयू सबसे न्यारा है। उसके छात्र भी न्यारे हैं। जेएनयू के पुराने छात्रों का 9 नबम्बर से 13 नबम्बर 2009 तक मिलन समारोह हो रहा है। मेरी शुभकामनाएं हैं।
मैं भी आप ही की तरह हिंदी में पी.एचडी. कर रहा हूं|
जवाब देंहटाएंआज इस छात्र स्प्रिट की स्थिति बहुत कुछ बदल गयी
है | प्रशासन ने जे एन यू एस यू की शक्ति को काफी
कमजोर कर दिया है |(चुनाव तो बंद ही है)आपका लेख पढ़ते हुए अच्छा
भी लग रहा है और दुःख भी हो रहा है ,क्योंकि अब
अस्सी-नब्बे के दशक का जे एन यू नहीं रहा ...
धन्यवाद् .........