कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन का बोल्शेविक स्वरूप स्वाभाविक तौर पर किसी भी क्रांतिकारी दल के लिये एक आकर्षक और आदर्श स्वरूप है क्योंकि उसी के जरिये दुनिया में पहली बार शासक वर्गों की ताकत के खिलाफ उत्पीड़ित जनों की क्रांति को संभव बनाया जा सका था। अंग्रेज इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने इस संगठन के बारे में सही लिखा था कि संगठन के उस स्वरूप ने ''छोटे से संगठनों को भी अपने अनुपात से कहीं अधिक प्रभावशाली बना दिया था, क्योंकि इसके जरिये पार्टी अपने सदस्यों से असाधारण निष्ठा और त्याग-बलिदान हासिल कर सकती है जो किसी भी सेना के अनुशासन और तालमेल से ज्यादा होता है और किसी भी कीमत पर पार्टी के फैसलों पर अमल करने पर पूरी तरह से संकेंद्रित कर देता है।''
लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि संगठन की जो तकनीक रूस में, जो एक पिछड़ा हुआ समाज था और जहां आततायी राजा का शासन था, जबर्दस्त रूप में सफल हुई, उसे भारत के एक भिन्न समाज और भिन्न प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियों में हूबहू लागू नहीं किया जा सकता था। भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास और खास तौर पर 1975 के आंतरिक आपातकाल के अनुभवों और जनतंत्र की रक्षा के संघर्ष की महत्ता को समझते हुए सीपीआई(एम) ने खुद को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का जो निर्णय लिया था वह इसी सच को प्रतिबिम्बित करता है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फैसला संगठन के उस कथित लेनिनवादी रूप से मेल नहीं खाता था जो रूस की परिस्थितियों में उत्पन्न सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है और चीन की खास परिस्थितियों में उत्पन्न चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है। यह भारत के विशेष आधुनिक राजनीतिक इतिहास की पृश्ठभूमि में लिया गया भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का फैसला था, जिसकी दूसरे किसी विकासशील देश में भी कोई नजीर नहीं मिलती है। यह एक क्रांतिकारी पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों की प्रतिनिधित्वकारी पार्टी बनाने की जरूरत को समझते हुए लिया गया फैसला था।
दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों की इस बैठक में निश्चित तौर पर किसी न किसी रूप में कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर के इस प्रकार के विषय भी अनुभवों के आदान-प्रदान में सामने आये होंगे। ऐसी बैठकों से कोई एक दस्तावेज या प्रस्ताव पारित करने की परिपाटी नहीं है। अब तक इन्हें आपसी विचार-विमर्ष के अनौपचारिक मंच के रूप में ही लिया जा रहा है। यह बिल्कुल सही है। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के बाद के इन 8 दशकों में विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का पूरा दृश्यपट ही बदल गया है। एक केंद्र से सब देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को संचालित करने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। यही वजह है कि आज प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर ही नहीं, विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में भी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के दिनों के कमांड ढांचे को त्याग कर इस विविधताओं से भरी दुनिया के बहुरंगी अनुभवों को समेट कर चलने की बहुलतावादी संस्कृति के पनपने और पुष्ट होने की जनतांत्रिक संभावनाएं पहले के किसी भी समय की अपेक्षा कहीं ज्यादा हैं। ( समाप्त)
( लेखक- अरूण माहेश्वरी,प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक )
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