मुक्तिबोध ने हिन्दू धर्म और दर्शन की धर्मनिरपेक्ष व्याख्या निर्मित की है। सबसे पहले हम देवी-देवताओं के संदर्भ में उनकी व्याख्याओं को देखें। आम तौर पर देवी-देवताओं की देवत्ववादी व्याख्याएं मिलती हैं। इस मूल्यांकन में मुक्तिबोध देवत्व भावना के प्रति समाजशास्त्रीय नजरिया व्यक्त करते हैं। मुक्तिबोध के अनुसार ब्रह्मा,बिष्णु, और महेश का संबंध क्रमश: जन्म, विकास और मृत्यु से है। साथ ही उत्पत्ति ,पालन और संहार इन तीन प्राकृतिक क्रियाओं से ये तीनों देवता जुड़े हैं। इसी रूप में इनकी व्याख्याऍं भी मिलती हैं।
मुक्तिबोध का मानना था ' वैदिक आर्यों ने सृष्टि की शक्तियों में देव -रूप देखा। ऋग्वेद में जो देवता हैं वे प्रकृति के नाना रूपों और शक्तियों के प्रतीक हैं। आगे ,चलकर, उन्होंने कण-कण में समाए परमात्मा की भावना की। प्रारम्भ में वे प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के उपासक थे। हम वैदिक देवताओं को तीन भागों में बॉंट सकते हैं : (1) सर्वोच्च शून्याकाश के देवता,जैसे द्यौस्, अश्विन,सूर्य तथा उसके विभिन्न रूप, जैसे सवित् ,उषस्, और इनके अतिरिक्त ,विष्णु और वरूण; (2) पृथ्वी के देवता,जैसे, अग्नि,सोम, सरस्वती, तथा पृथ्वी; और इन दोनों के बीच , (3) अन्तरिक्ष देवता जैसे इन्द्र,वायु,पर्जन्य,मरूत। इनमें सर्वाधिक प्राचीन हैं द्यौस् और पृथ्वी। द्यौस् या द्यौ: आकाश का चमकता देवता था। वह हमारा पिता था,पृथ्वी माता थी। किन्तु ,ज्यों -ज्यों समय आगे बढ़ता गया ,द्यौ : के स्थान पर वरूण का तथा इन्द्र का माहात्म्य बढ़ता गया। आगे चलकर वरूण समुद्रों का , जल का भी देवता बना। यही नहीं, वह सत्य और ऋत का (विश्व -व्यवस्था , सृष्टि-व्यवस्था ,समाज-व्यवस्था, नैतिकता आदि सबका ) देवता बना। विश्व के त्रिकालदर्शी शासक और अनुशासक के रूप में उसकी कल्पना की गयी। पाप-शान्ति के लिए लोग उससे क्षमा याचना करने लगे। '
' मन्त्र-दृष्टा ऋषियों ने वरूण के प्रति कुछ अतिशय रसार्द्र स्तवन किए हैं। वरूण के पश्चात् सर्वाधिक लोकप्रिय देवता इन्द्र हैं। वह देवों का अग्रणी अर्थात् नेता है। वह वर्षा करता ,शत्रुओं के दुर्गों को विध्वंस करता। युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए आर्य उसकी प्रार्थना करते। इसके अतिरिक्त सूर्य के विभिन्न रूप -पूषा,मित्र,सवितृ इत्यादि भी आर्यों के प्रिय देवता थे। '
मुक्तिबोध ने आर्यों की धर्म -दृष्टि के बारे में लिखा '' आर्यों की धर्म-दृष्टि की बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि वे देवताओं की सहायता से इसी पृथ्वी पर स्वर्ग बनाना चाहते थे। उनके धर्मौपदेश संसार से विरक्ति या पलायन नहीं सिखाते, वरन् वे इसी जगत् को सर्वांगीण समृद्धि के लिए देवताओं का आवाहन करते हैं। आर्यजन आशावादी थे। उनका अन्त:करण प्रसारशील था। ''
' वे मूर्त्तिपूजक नहीं थे,देवताओं के लिए मन्दिर नहीं बनाते थे। प्रकृति-सौंदर्य के प्रति,उनका हृदय सहज रूप से आकर्षित होता। प्रभात की मनोरम सौन्दर्य आभा को 'देवी' का रूप देना, उनकी कल्पना का सुन्दर नमूना था। '
मुक्तिबोध ने लिखा ' इसके बावजूद वे मातृ देवियों के पूजक नहीं हैं। वैदिक धर्म में पुरूष भावों की प्रधानता है। उसमें एक ताजगी है, नवीनता की संवेदना है,विकास और प्रसार की भावनाऍं हैं। उस धर्म में ,स्वर्ग का तो उल्लेख है ,किन्तु नरक का कहीं नहीं । पापी मनुष्य को इसी लोक में दण्ड दे दिया जाता था । उसके लिए नरक के विधान की आवश्यकता नहीं थी। यह हमारा प्रारम्भिक वैदिक धर्म है। '
मुक्तिबोध ने लिखा ' वेद ' श्रुति' भी कहलाते हैं, इसलिए कि शिष्य ,उन्हें गुरूओं से सुन-सुनकर कण्ठाग्र कर लेते थे। महान् विद्वान ऋषि बादरायण वेदव्यास ने उनका संकलन किया। इसलिए ,ये चारों वेद संहिताऍं कही जाती हैं। संहिता का अर्थ है एकत्र रखना अर्थात् संकलन करना। वेदों का जो रूप आज विद्यमान है वह भगवान वेदव्यास का दिया हुआ है। उन्होंने पुराणों का भी संकलन किया। भगवान वेद-व्यास अपनी माता के अवैध पुत्र थे। इनकी माता कृष्ण वर्ण की,केवट जाति की,शूद्र स्त्री थीं। इनके पिता एक आर्य ऋषि थे । वेदों को संहिता -रूप देने वाला महान् दृष्टा वेदव्यास इस बात का साक्षी है कि जिस भारतीय आर्य सभ्यता का विकास हुआ है उसमें आर्येतर तत्वों का समावेश स्वाभाविक हो उठा था। ''
मुक्तिबोध का उपरोक्त उद्धरण कई नए सवाल पैदा करता है ,पहला तथ्य यह संप्रेषित करता है कि वेदव्यास शूद्र थे, ऐसे में क्या दलित लेखन की परंपरा क्या वेदव्यास से मानी जाए ? यदि ऐसा होता है तो दलित लेखक दुनिया का सबसे पुराना आदिम लेखक कहलाएगा । हमारे दलित बंधु ध्यान दें क्या वेदव्यास से दलित लेखन की परंपरा का आरंभ मानें ? दूसरी महवपूर्ण बात यह निकलती है कि देवी देवताओं के प्रति मुक्तिबोध का नास्तिक भाव नहीं था। वे अपने तर्क यहॉं से आरंभ नहीं करते कि ईश्वर नहीं है। इस अर्थ में वे एक नया धर्मनिरपेक्ष नजरिया व्यक्त करते हैं। इसमें देवताओं के प्रति खारिज करने वाला नहीं बल्कि सम्मान और आदर का भाव है।यही हमारी आधुनिक सामंजस्यवादी दृष्टि की धुरी है।
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