सवाल उठता है भारत में 19 वीं शताब्दी में वेश्याएं सबसे ज्यादा किस शहर में दर्ज की गईं ? वे कौन लोग थे जो वेश्याओं के कोठों पर जाते थे ? रैनेसां के समय कलकत्ता में जब कामुकता की नयी आधुनिक आचार-संहिता रची जा रही थी और पुरानी कामुकता को विदाई दी जा रही थी। सबसे ज्यादा वेश्याएं इसी शहर में पैदा हुईं और रैनेसां से जुड़े अनेक बंगाली बाबूओं का एक बड़ा तबका इनके पास जाता था।
नवजागरण के दौर में हिन्दी में साहित्य को रीतिकाल से मुक्त करने के बारे में बहुत कुछ लिखा गया किन्तु वेश्यावृत्ति के विरोध में लेखन नहीं मिलेगा। लंबे अन्तराल के बाद महादेवी वर्मा ने 'श्रृंखला की कड़ियां' लिखी और अमृतलाल नागर ने लखनऊ की वेश्याओं पर रचनाएं लिखीं। किन्तु हिन्दी आलोचना और नवजागरण से जुड़ी हिन्दी आलोचना ने वेश्याओं को कभी अपना विषय नहीं बनाया। वेश्या -विमर्श का हमारी आलोचना में दाखिल न होना कामुकता के शुध्दतावादी नजरिए की सबसे बड़ी जीत है। वरना यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि कामुकता के दरबारी रूपों के खिलाफ लिखनेवाले साहित्यकारों ने कामुकता के बाजारू रूप यानी वेष्यावृत्ति की उपेक्षा क्यों की ?
आधुनिक राजनीति के तानेबाने का रैनेसां की परंपरा से गहरा संबंध है। इसी तानेबाने के हिस्से के तौर पर स्वाधीनता-संग्राम में महिला आन्दोलन पैदा हुआ और बाद में स्वाधीनता -संग्राम की विभिन्न परंपराओं से अपने को जोड़ता हुआ मौजूदा महिला आन्दोलन सामने आया। आज समाज में सक्रिय विभिन्न राजनीतिक दलों से सम्बध्द महिला संगठनों के एजेण्डे पर वेश्याओं के सवाल और समस्याएं नहीं हैं। क्योंकि वेश्याएं उसी अवैध कामुकता की देन हैं जिसे बुर्जुआजी ने अपने उदय के साथ समाज से अलग कर दिया था और कामुकता को घर में कैद कर दिया। कामुकता के इस रूप को आधुनिकता ने निर्मित किया है।
हिन्दी सिनेमा ने अपने तरीके से बुर्जुआ कामुकता के इसी रूप को महिमामंडित किया है और आधुनिकता के बुर्जुआ प्रोजेक्ट को सम्पन्न किया। जब कामुकता के सामंती रूपों यानी रीतिवाद से हिन्दी साहित्य में संघर्ष चल रहा था तो उसके पीछे बुर्जुआ कामुकता को प्रतिष्ठित करने की ही कोशिशें हो रही थी। रीतिवाद विरोधी संघर्ष ने साहित्य में स्त्री के प्रति शुध्दतावादी रूझानों,बुर्जुआ रूझानों और स्त्री के परंपरागत रूपों के महिमामंडन को वैधता प्रदान की। स्त्री का स्थान नए सिरे से तय किया गया। नए सिरे से स्त्री के बारे में भाषिक प्रयोगों और हाव-भाव का संसार रचा गया। स्त्री के बारे में संहिताबध्द विमर्श को इजाजत दी गई। स्त्री का जो रूप संहिता के बाहर आता था, संहिता जिसे वैध नहीं मानती थी, उसे अवैध घोषित कर दिया गया। स्त्री के यथार्थ के रूपायन में वे रूप वैध माने गए जिन्हें संहिता के द्वारा पुष्ट किया जा सकता था। फलत: कामुकता को टेबू,अस्तित्वहीन या चुप्पी में बदल दिया गया और इसे रीतिवाद विरोधी संघर्ष और रैनेसां की जीत कहकर महिमामंडित किया गया।
मजेदार बात यह है कि विगत दो सौ वर्षों में हमने कामुकता के दमन को देखा है। कामुकता के प्रति दमनात्मक रवैयया पैदा किया है।अभी तक के आधुनिकता के जितने भी कामुकता संबंधी समाधान विभिन्न क्षेत्रों जैसे न्याय,चिकित्सा,विज्ञान,राजनीति,समाजसुधार आदि ने सुझाए वे सबके सब कामुकता के दमन को बनाए रखते हैं ,अनेक मर्तबा विस्तार देते हैं या सीमित दायरे में कैद रखते हैं।
फूको का मानना है दमनात्मकता का बुनियादी तौर पर पावर,ज्ञान, और कामुकता के साथ शास्त्रीय युग से संबंध चला आ रहा है।यह बात तर्क से भी पुष्ट होती है।हम इससे पर्याप्त कीमत अदा किए बगैर मुक्त नहीं हो सकते। इसके लिए कानून के अतिक्रमण, पाबंदियों के खात्मे ,भाषण में विचलन, यथार्थ के अंदर आनंद की प्रतिष्ठा और पावर के पूरे नए तंत्र को खड़ा करना होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि चिकित्साविज्ञान के अभ्यासों और सैध्दान्तिक विमर्श के जरिए मनवांछित परिणाम हासिल नहीं किए जा सकते। हमें फ्रायड के मनोविज्ञान के नार्मलाइजेशन की भूमिका और वैधता प्रदान करने की कोशिशों को अस्वीकार करना होगा।
रीतिकाल के खुले स्पेस और मुक्त अभिव्यक्ति के माहौल के बाद हम जब आधुनिक काल में कामुकता के दमन के युग में दाखिल होते हैं तो अब दमन के साथ पूंजीवाद भी आता है। फलत: दमन बुर्जुआ व्यवस्था का अन्तर्ग्रथित हिस्सा बन जाता है। इसी प्रक्रिया में आगे चलकर व्याख्या का सिध्दान्त पैदा होता है। जिसे हम आधुनिक आलोचना के नाम से जानते हैं। कामुकता के प्रति कठोर दमन की जरूरत इसलिए भी पड़ी क्योंकि सघन और जबर्दस्त श्रम के सामान्य माहौल में कामुकता की नहीं उसके दमन की जरूरत होती है। यह वह दौर है जब श्रम क्षमता का सुनियोजित ढंग से दोहन किया गया। उल्लेखनीय है श्रम का दोहन आनंद की अवस्था में संभव नहीं है। ऐसे में तो न्यूनतम कामुकता से काम चला लिया जाता है। बल्कि वह अपना पुनर्रूत्पादन करने में असमर्थ रहता हैं। इसी अवस्था में कामुकता के दमन को पुनर्निर्मित किया गया जिससे उसे सहज में विष्लेशित किया जा सके। कामुक कारणों की वैधता राजनीतिक कारणों को गरिमा प्रदान करने का काम करने लगी और सेक्स को भविष्य के हवाले कर दिया गया।
एक स्थिति यह भी थी कि सेक्स का दमन और निन्दा हो रही थी, उस पर पाबंदी लगाई जा रही थी, उसे अस्तित्वहीन बताया जा रहा था, उस पर बोलना मना था,जो बोलता था उसे बागी या कानूनभंजक कहा गया। कामुकता के क्षेत्र में अब ऐसी भाषा का इस्तेमाल होने लगा जो पावर के दायरे के बाहर थी।कामुकता के प्रवक्ता यह महसूस करते थे कि अब आजादी आने ही वाली है।
बुर्जुआजी की पाबंदियों के उल्लंघन का सबसे अच्छा तरीका है कि कामुकता पर खुलकर बातें की जाएं। आज स्थिति यह है कि कामुकता पर पुरानी या आधुनिकता की भाषा में बात नहीं की जा सकती ,बल्कि उससे भिन्न तरीका और भिन्न भाषा का इस्तेमाल करना होगा। इस पर बोलते समय महसूस करते हैं कि हमारी शैली और आवाज सवबर्सिव हो गई है। हम आज्ञाकारी की तरह वर्तमान की स्तुति करने लगते हैं और भविष्य को अपील करते हैं। हम अपने अवदान को स्वीकार करने में झिझकते हैं।कुछ इसमें स्वतंत्रता का वायदा करने वाली बगावत की गंध महसूस करते हैं। भिन्न किस्म के कानूनी युग में रहने के कारण हम आसानी से कामुकता के दमन के विमर्ष में फिसल जाते हैं। पुराने जमाने के उपदेश पुन: सक्रिय हो जाते हैं अब फिर यह बात कही जाने लगती है कि सेक्स पर आगे बात करेंगे। चूंकि अब दमन को वैध बनाना है अत: सेक्स पर बातें बंद।
सेक्स पर बातें करनेका अर्थ उपहास का पात्र बनने का डर। इतिहास की कड़वी सच्चाईयों को किनारे रखने के लिए ही क्रांति और प्रसन्नता, क्रांति और भिन्न शरीर,ज्यादा सुंदरता, अथवा क्रांति और आनंद से जुड़े सवालों पर बहस छेड़ दी जाती है और उसके बहाने सेक्स पर बातें होने लगती हैं। सेक्स पर दमन के संदर्भ में बातें नहीं की जाती। सेक्स पर दमन के सन्दर्भ में बातें की जाएंगी तो पावर के खिलाफ भी बोलना होगा।इसके अलावा इनलाइटेनमेंट,लिबरेशन और बहुस्तरीय आनंद पर भी बातें करनी होंगी।इस प्रक्रिया में जो विमर्श तैयार होगा वह ज्ञान और कानून में परिवर्तन की मांग पैदा करेगा।
फूको का मानना है कि कामुक दमन में बाजार मूल्य अवदान करते हैं। दमन के प्रभाव को खत्म करते हैं। कामुकता का बुनियादी आधार आर्थिक नहीं है।बल्कि हमारे युग का वह विमर्ष है जिसमें सेक्स सत्य का उद्धाटन करता है,ग्लोबल कानूनों को उलटता है,इस प्रसंग में नये आदेष आ सकते हैं।उसके साथ कुछ सुविधाओं का वायदा भी किया गया है। विगत दषक में नयी व्यवस्था का जो रूप सामने आया है वह मिथ्याचार (हिप्पोक्रेसी) को अस्वीकार करता है।वह तत्काल और वास्तविक के अधिकार की प्रषंसा करता है।वह नए षहर का सपना पैदा करता है।
दमनात्मक सेक्स सिर्फ सैध्दान्तिक विशय नहीं है। कामुकता के निष्चयात्मक या सकारात्मक रूप का जन्म मिथ्याचारी,आमोद-प्रमोद से भरे, जिम्मेदार बुर्जुआजी के द्वारा होता है। वही सेक्स के सत्य का उद्धाटन करता है। वह इसी यथार्थ की रोषनी में अपनी अर्थव्यवस्था को संषोधित करता है।वह जिन कानूनों को बनाता है उन्हें तोड़ता है और भविष्य को बदलता है। दमन और उससे मुक्ति इन दोनों को एक-दूसरे पर समान रूप से आरोपित करता है। वह कहता है कि सेक्स का दमन नहीं किया जाना चाहिए।अथवा सेक्स और पावर के बीच के संबंध को दमन के संदर्भ में चित्रित नहीं किया जाना चाहिए। उसका यह कहना समूची अर्थव्यवस्था और स्थापित मान्यताओं के खिलाफ जाता है।उसके विमर्षात्मक हितों के खिलाफ जाता है।
फूको कहता है कि दमित क्या है इस सवाल का उत्तर जानना हमारा मकसद नहीं है। हमारा मकसद है यह है कि हम ऐसा क्यों कहते हैं। इसे लेकर सबसे ज्यादा आकर्षण है ,अपने निकटवर्ती अतीत ,वर्तमान स्वयं के प्रति भी विरोधभाव है। तब भी हम दमित हैं , ऐसा क्या हुआ है कि सेक्स को हम नकारते हैं। खुल्लमखुल्ला सेक्स को छिपाते हैं। अगर कोई उसके बारे मे कुछ कहना चाहता है तो चुप करा देते हैं।
(लेखक- जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधासिंह )
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