' इलैक्ट्रोनिक फ्रंटियर फाउण्डेशन' (इएफएफ) के अनुसार ब्लॉगर को पत्रकार कहा जाना चाहिए। आमतौर पर मुख्यधारा का मीडिया अभी भी दुविधा में है कि ब्लॉगर को पत्रकार माने या नहीं। यहां तक कि मुख्यधारा के संपादकों का ब्लॉगरों के प्रति पत्रकार जैसा व्यवहार कम नजर आता है । भारत के ब्लॉग जगत में विचारों, फीचर, अनुभव,रिपोर्ताज,कहानी,साक्षात्कार आदि का जितने बड़े पैमाने पर उत्पादन हो रहा है उतना किसी माध्यम पर नहीं हो रहा। तकरीबन 15 हजार से ज्यादा हिन्दी के ब्लॉग लेखक हैं। ये नियमित लिख रहे हैं और प्रतिदिन नए विषय पर लिखते हैं।
इएफएफ के अनुसार संवाददाता को पत्रकार इसलिए कहते हैं क्योंकि वह सूचनाएं एकत्रित करके प्रसारित करता है। चाहे वह इसके लिए किसी भी माध्यम का इस्तेमाल करे, उसे इस काम के कारण पत्रकार कहा जाता है। ठीक यही काम अपने तरीके से ब्लॉगर भी कर रहे हैं। आप यदि पत्रकार हैं और अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की आजादी के कानूनों का लाभ ले रहे हैं तो यह लाभ खाली प्रेस तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए।ब्लॉगर तक इस कानून का विस्तार किया जाना चाहिए। एक पत्रकार का यह भी धर्म है कि वह अपनी खबर का प्रचार भी करे। ब्लॉगर भी यही काम करता है।
अमेरिका में केन्द्रीय संविधान और राज्यों के संविधानों में पत्रकार और प्रेस की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया गया है। भारत में भी नागरिक अधिकारों की जिन कानूनों के तहत व्यवस्था की गयी है उन्हीं कानूनों के तहत प्रेस को भी स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। भारत में पत्रकार और नागरिक की स्वतंत्रता के अधिकार साझा हैं। इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर हमें ब्लॉगर के अधिकारों,ब्लॉग की धारणा, ब्लॉगर के कर्त्तव्य और स्वतंत्रता की ब्लॉगिंग के संदर्भ में नए सिरे से परिभाषा तय करनी जानी चाहिए। आज भी कानूनी तौर पर पत्रकार को अपने स्रोत का नाम नहीं बताने का अधिकार है। खबर के स्रोत की गुमनामी ही है जो प्रेस में खबरों का अबाधित प्रवाह बनाए रखती है।
हाल ही में अमेरिका में मुक्त सूचना प्रवाह कानून में एक बहुत ही महत्वपूर्ण संशोधन किया गया है। संशोधन के अनुसार पत्रकार को यह संवैधानिक अधिकार दिया गया है कि वह अपनी सूचना के स्रोत को चाहे तो नहीं भी बता सकता है, कानून उसे स्रोत बताने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। अब किसी भी पत्रकार को स्रोत न बताने के कारण कोई भी अदालत न तो जेल भेज सकती है और नहीं जुर्माना कर सकती है। उल्लेखनीय है हाल ही में न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्टर जूडिथ मिलर पर जब एक मुकदमे के दौरान अदालत ने खबर का स्रोत बताने के लिए दबाव डाला तो जूडिथ ने स्रोत बताने से इंकार कर दिया,फलत: उसे अदालत ने जेल भेज दिया। लेकिन नए कानूनी संशोधन से अब पत्रकारों की रक्षा होगी। नए संशोधन में कहा गया है कि पत्रकार अपनी खबर के स्रोत को बताने के लिए बाध्य नहीं है। इससे पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा करने में बड़ी मदद मिलेगी, साथ ही विश्वस्तर पर इस कानून का सीधा असर होगा।
इंटरनेट की जनप्रियता और ऑनलाइन प्रेस के आने के साथ ही यह स्थिति पैदा हुई है कि अदालतें सीधे यूजर की प्राइवेसी में दखलंदाजी पर उतर आई हैं। हाल ही में खबर आई है कि सबपोइना के एक जिला जज ने स्वतंत्र लिबरल न्यूज साइट इंडीमीडिया से कहा है कि वे अपनी साइट पर आने वालों की समस्त सूची दें।
तमाम जनाधिकार संगठनों और मीडिया वाच ग्रुपों ने इस आदेश की तीखी आलोचना की है,वे इस बात से भी चिन्तित हैं कि आखिर सरकार के पास ऐसी कितनी जानकारियां हैं ,और कितनी बड़ी तादाद में डाटा है, वह अपने देश के नागरिकों पर आखिर ऐसी निगरानी क्यों कर रही है। फेडरल जिला अदालत का स्वतंत्र लिबरल न्यूज वेबसाइट से साइट पर आने वालों की सूची मांगना सरासर प्राइवेसी में हस्तक्षेप है।
अमेरिकी प्रशासन और खासकर फेडरल प्रशासन उन समाचार वेबसाइट से ज्यादा परेशान है जो वामपंथी विचारधारा के रूझान को व्यक्त करती हैं, जिन पर वामपंथी लोग लिखते हैं, जैसे इंडीमीडिया वगैरह। मजेदार बात यह है फेडरल विभाग ने यह डाटा इन्हीं वेबसाइट पर जाने वालों के बारे में मांगा है। फेडरल विभाग ने इंडीमीडिया से इसी साल 30 जनवरी 2009 को क्रिस्टीना क्लेयर (फ्लोरिडा) ,जो इस वेबसाइट की सिस्टम प्रशासक हैं, उन्हें दक्षिण इंडियाना फेडरल जिला अदालत ने कहा कि जून 2008 से उनकी वेबसाइट पर जाने वालों की सूची मुहैयया कराएं,साथ ही उनके ईमेल पते बगैरह भी दें। इस आदेश के बारे में एफबीआई ने भी इस वेबसाइट को एक स्मृतिपत्र भेजा कि उसे अदालत के आदेश का पालन करते हुए जबाव भेज देना चाहिए। उन्होंने वेबसाइट पर जाने वालों के बैंक खाते नम्बर,ईमेल पता,घर का पता और सोशल सिक्योरिटी नम्बर की भी सूचना देने के बारे में कहा जिससे तहकीकात की जा सके।
इंडीमीडिया वालों का कहना था कि वे अथवा उनकी जैसी वेबसाइट अपनी साइट पर आने वालों का इस तरह का डाटा संकलित नहीं करतीं। साथ ही इंडीमीडिया पर आने वालों का डाटा बहुत थोड़े समय तक ही स्टोर करके रखा जाता है। जिला जज के इस आदेश के खिलाफ इएफएफ ने भी कड़ा प्रतिवाद किया और कहा कि इस तरह का डाटा मांगना सीधे नागरिक प्राइवेसी का उल्लंघन है। इंडीमीडिया का जबाव मिलने के बाद फेडरल जिला अदालत ने पलटकर धमकी दी कि इंडीमीडिया उसके साथ सहयोग न करके न्याय के मार्ग में बाधा डाल रहा है। इएफएफ आदि के दबाव के चलते सरकार को यह मानना पड़ा कि जिला अदालत को इस तरह की जांच का आदेश देने का कोई हक नहीं है। जिला अदालत के इस आदेश का कोई वैध कानूनी आधार नहीं है।
उल्लेखनीय है कि 'स्टोर्ड कम्युनिकेशन एक्ट' के तहत जब भी कम्युनिकेशन सर्विस प्रोवाइडर के पास से उसके ग्राहक के बारे में सरकार कोई भी डाटा ,सूचना आदि मांगती है तो उसे ये सूचनाएं अदालत के आदेश के बाद ही मिलती हैं। मसलन् सरकार को किसी का फोन ट्रैक करना है तो उसे पहले अदालत से अनुमति लेनी होती है। लेकिन यह प्रावधान समाचार माध्यमों पर लागू नहीं होता। इस घटना के प्रकाश में आने के बाद से अमरीकी नागरिकों में गहरी चिंता घर कर गई है। ब्लॉगर भी जिला अदालतों और एफबीआई की हरकतों से परेशान हैं। मजेदार बात यह है कि एफबीआई ,सीआईए और पेंटागन का अब विभिन्न देशों की सरकारें अपने हितसाधन के लिए आवश्यक डाटा जुटाने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। हमारे देश में मुंबई विस्फोट के प्रमाण भारतीय पुलिस ने कम एफबीआई के सदस्यों ने ज्यादा मुहैयया कराए हैं, पाक के खिलाफ हमारी सरकार ने आतंकवाद के संदर्भ में जितने भी प्रमाण भेजे हैं उनमें एफबीआई बगैरह के द्वारा इंटरनेट निगरानी के द्वारा जुटाए डाटा ही ज्यादा हैं, ये डाटा कितने प्रामाणिक हैं, इसके बारे में कहना मुश्किल है लेकिन एक बात साफ होती जा रही है कि सारी दुनिया में अब न्यायपालिका में सबसे प्रामाणिक प्रमाण वे ही माने या मनवाए जा रहे हैं जिन्हें अमेरिकी एजेंसियां दे रही हैं। आज ही जो दो पाक नागरिक इटली में पकड़े गए हैं, उनका स्रोत भी यही नेट निगरानी है, और रिचर्ड हेडली और राणा प्रसंग में जो मीडिया में नाटकनुमा जांच चल रही है उसका स्रोत भी एफबीआई के द्वारा नेट जासूसी करके हासिल किए गए डाटा हैं। इससे सीधे राष्ट्रीय न्याय प्रणाली के प्रभावित होने की संभावनाएं पैदा हो गयी हैं। अब हम अपने देश के थानेदार पर कम न्यूयार्क के एफबीआई के थानेदार पर ज्यादा विश्वास करने लगे हैं और अदालतों से भी कहा जा रहा है कि वे भी एफबीआई के थानेदार की मानें। हम यहां याद दिलाना चाहते हैं कि गुआनतानामोवे में बंदी नाइन इलेवन के आरोपियों के खिलाफ सात साल बाद भी एफबीआई अभी तक चार्जशीट फाइल नहीं कर पायी है, इसके कारण ओबामा प्रशासन को यह विशेष यातनाशिविर बंद करने का फैसला लेना पड़ा है। इस यातनाशिविर में बंद लोगों के मुकदमे सामान्य अदालतों के हवाले किए जाने की प्रक्रिया आरंभ हो गयी है। इस बात को कहने का अर्थ यह है कि अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों के द्वारा दिए गए डाटा प्रामाणिक होंगे यह बात मानकर सरकारी एजेंसियों को काम नहीं करना चाहिए। स्वयं अमेरिकी अदालतें उन पर विश्वास नहीं करतीं।
अमेरिका का लक्ष्य सुरक्षा प्रदान करना नहीं है बल्कि एक नए किस्म की विश्व व्यवस्था बनाना है जिसकी धुरी अमेरिका होगा और नई संचार तकनीक इसमें कच्चे डाटा,निगरानी आदि में मददगार होगी। ये डाटा कितने सही हैं यह बात हम इराक के तथाकथित जनसंहारक अस्त्र खोज निकालने के नाम पर किए गए इराक युद्ध और उसके बाद अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों के द्वारा इराक में मचायी तबाही में साफ देख सकते हैं।
अमेरिकी उपग्रहों के द्वारा इराकी जनसंहारक अस्त्रों के बारे में प्रदान किए गए सारे डाटा, तथ्य,स्थान, आदि सब असत्य पाए गए हैं।यह बात स्वयं अमेरिकी प्रशासन भी अब मान चुका है। यहां तक कि सटीक लक्ष्यभेदी प्रक्षेपास्त्र भी सही निशाने पर हमले करने में नाकाम रहे हैं यह बात फिलिस्तीन,इराक और अफगानिस्तान में दागे गए प्रक्षेपास्त्रों के सटीक निशानों पर न गिरने की खबरों से पुष्ट होते हैं। कहने का अर्थ है साइबर निगरानी अव्वल,साइबर डाटा परम पवित्र और प्रामाणिक डाटा आदर्श हैं ,यह धारणा बुनियादी तौर पर मानकर चलेंगे तो बडी गफलत में जाकर फंसेंगे।
कुछ घालमेल सा हो गया है -एक और ब्लॉगर बनाम पारम्परिक पत्रकार की चर्चा है तो दूसरी और साईबर स्रोतों की विश्वसनीयता तथा तीसरी ओर इस दिशा में भी अमेरिका की दादागीरी -फिर जुडिथ का जयगान -आखिर अंतिम निष्पत्ति क्या है ?
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