चंचल चौहान
हमारी हिंदी की आधुनिक आलोचना विधा जो कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में शुरू हुई थी अब काफी आगे बढ़ चुकी है। वह विश्व के किसी भी साहित्य से पीछे नहीं है। उसका भूमंडलीकरण काफी पहले ही हो गया था । यानी दुनिया के किसी भी देश में होने वाली आलोचनात्मक गतिविधि से सीखने और विभिन्न पद्धतियों को आत्मसात करने में हिंदी आलोचना सदैव आगे रही है और इसीलिए अब वह एक समृद्ध साहित्यिक विधा है । इसे विकास की चोटी तक पहुंचाने में मुक्तिबोध का जो योगदान है वह सचमुच अभूतपूर्व और अनूठा है । मुक्तिबोध ने यदि यही लेखन अंग्रेजी में किया होता तो वे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के महान चिंतक और रचनाकार होते। मगर उन्होने उस हिंदी में लिखा जिसे एक जमाने में रघुवीर सहाय ने 'एक दुहाजू की नयी बीवी' कहा था। जिसमें लिखे गये साहित्य को (अपने अज्ञान या पूर्वग्रहों के कारण) कोई भी सलमान रुश्दी कूड़ा साबित कर सकता है । यों तो अभी तक औपनिवेशिक मानसिकता की भूतबाधा से ग्रसित भारतीय बुद्धिजीवी भी मुक्तिबोध के लेखन की ऊंचाई से परिचित नहीं हैं। खुद हिंदीभाषी विद्वानों ने भी शायद ही यह तकलीफ गवारा की हो कि उनके लेखन को पढ़ें और यह महसूस कर सकें कि उनके साहित्य में भी इतना बड़ा चिंतक और रचनाकार हुआ है जो विश्वस्तर के किसी भी महान रचनाकार से ज्ञान और कला में पीछे नहीं ठहरेगा । जहां रचनात्मक साहित्य में वे उत्कृष्ट कोटि के सर्जक हैं। वहीं आलोचनात्मक साहित्य में भी वे अनूठे हैं। उन जैसी मौलिकता और अंतर्दृष्टि विरल है ।
हमारे समाज की विभिन्न बौद्धिक संरचनाओं ,साहित्य, इतिहास, राजनीति आदि -- विषयों पर जिस गहरे और विवेकपूर्ण नजरिये से उन्होंने लिखा वह अचंभे में डाल देने वाला है। उनका नजरिया अपने पीछे कितने बड़े विश्वज्ञान के भंडार को समेटे है। यह उनकी रचनाओं को पढ़ने से पता चलता है। उन्होंने दुनिया भर के साहित्यों और दर्शनप्रणालियों से मुठभेड़ की थी और अपना एक पक्ष चुना था। जिस पक्ष को उन्होंने मार्क्सवाद की संज्ञा दी थी । उनका लेखन मार्क्सवादी विश्वदृष्टि के रचनात्मक व्यावहारिक प्रयोग का बेहतरीन आदर्श है ।
मुक्तिबोध का आलोचनात्मक लेखन उनके रचनात्मक लेखन से गुण और मात्रा दोनों में किसी भी तरह कम नहीं है । इसलिए आलोचक मुक्तिबोध को हम हिंदी आलोचना का सर्वोत्तम रत्न कहें तो इसमें अतिरंजना नहीं होगी। मुक्तिबोध के आलोचनात्मक लेखन को यदि बारीकी से परखा जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने मार्क्सवाद का अध्ययन बहुत ही गंभीरता से किया था और उसके साहित्यिक अमल में भी भूलगलती की बहुत ही कम संभावनाएं रहने दीं । जो भूलें हैं भी वे विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन द्वारा अपने युग के आकलन के बारे में की गयी भूलें ही हैं जिन्हें सोवियत संघ के विघटन के बाद ही ठीक से विश्लेषित किया जा सका है । देश और अपने समाज के विश्लेषण में उनकी नजर बहुलांश में तर्कसंगत, वैज्ञानिक और इसीलिए सही है । उन्होंने जो विश्वदृष्टि अर्जित की उसी के आधार पर वे अपनी पक्षधरता भी तय करते थे, चाहे वह साहित्यिक लेखन हो या अखबारनबीसी । उन्होंने विश्वस्तर पर जो वर्गभेद देखा था, उसमें वे एक ओर समाजवाद और दूसरी ओर साम्राज्यवाद की शक्तियों के बीच टकराव देख रहे थे। इन दो व्यवस्थाओं में से वे समाजवाद (सर्वहारावर्ग की समाजव्यवस्था) के पक्षधर और साम्राज्यवाद (विश्वपूंजीवाद की व्यवस्था) के खिलाफ खड़े थे । वे यह भी देख रहे थे कि साम्राज्यवाद के खिलाफ नवस्वाधीन देश भी हैं जिन पर उन्होंने अपने पत्रकारिता संबंधी लेखन में बहुत लिखा था और उसमें वे नवस्वाधीन देशों का पक्ष लेते थे । नवस्वाधीन देशों में वे पूंजीवाद-सामंतवाद पर आधारित सामाजिक व्यवस्थाओं के विरोध में और मजदूर- किसान- मध्यवर्ग आदि वर्गों को मुक्ति दिलाने वाली विचारधारा--मार्क्सवाद-लेनिनवाद-- के पक्ष में खड़े थे । भारत में वे इसीलिए कांग्रेस के 'समाजवादी पैटर्न' के नारे के छलावे में नहीं आये और उन्होंने भारत के शोषक-शासक वर्गों का सही चरित्र पहचाना था । वे अपनी वैज्ञानिक विश्वदृष्टि से यह जानते थे कि आजादी के बाद भारत की सत्ता का नेतृत्व देशी इजारेदार के हाथ में है जिसने सामंतवाद से गठजोड़ किया हुआ है और विदेशी पूंजी से सहयोग बनाया हुआ है । यह आश्चर्यचकित कर देने वाला तथ्य है कि उन्होंने भारतीय सत्ता का जो वर्गविश्लेषण किया वह उस वक्त सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा किये गये उस विश्लेषण से भिन्न था जिसे डांगे के नेतृत्ववाले कम्युनिस्ट ग्रुप ने अपनाया हुआ था और जो सी पी आइ के पार्टी प्रोग्राम में आज तक अंकित है जबकि वह गलत साबित हो चुका है ।
मुक्तिबोध ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद की वैज्ञानिक प्रणाली से अपने आसपास का और विश्व का यथार्थ गहराई से परखा था और उस पर लिखा था । मार्क्सवाद के आधार और ऊपरी संरचना के बहुचर्चित सिद्धांत को भी उन्होंने काफी गहरी अंतर्दृष्टि से समझा और उससे साहित्य और कला का विश्लेषण किया था। उसे भारतीय साहित्य और विश्वसाहित्य के उदाहरणों से पुष्ट किया था । उन्होंने अंग्रेजी,रूसी,चीनी और फ्रांस आदि देशों के साहित्य और विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों पर भी मार्क्सवादी दृष्टि से टिप्पणियां कीं जो कि उनकी अपनी मौलिक सूझबूझ को ही दर्शाती हैं । इनमें से बहुत सी टिप्पणियां ऐसी हैं जो बाद में पश्चिम में मार्क्सवादी लेखकों में भी देखने को मिलती हैं । शेक्सपीयर पर उनकी टिप्पणी को मार्क्स की टिप्पणियों से प्रभावित मान भी लें तो टी एस एलियट और एजरा पाउंड के बारे में उनके तर्कसंगत और सही विश्लेषण को देख कर आश्चर्य होता है क्योंकि ऐसा विश्लेषण तो पश्चिम में भी बाद में हुआ था । जॉन आर. हैरिसन की अंग्रेजी पुस्तक 'दि रिएक्शनरीज़' जिसमें उक्त अंग्रेजी कवियों का ठीक इसी तरह का आकलन किया गया था मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई थी। मुक्तिबोध ने टी एस एलियट और एजरा पाउंड और हक्सले के बारे में लिखा :
टी एस एलियट, इशरवुड, एल्डूज हक्सले को अपनी जर्जर आत्माओं की समस्याओ का हल गिरजाघर तथा वेदांत में ही दीखा और उन्हीं की मनोवृत्तिवाला कवि एजरा पाउंड अंत में राजनैतिक क्षेत्र में भी घनघोर फासिस्ट हो गया ।
( चंचल चौहान,जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव)
( चंचल चौहान,जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव)
जानकारीपूर्ण आलेख के लिए आभार ...
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