इंटरनेट युग में संपर्क और संबंध पेट नहीं भरते,मोबाइल की बातों से संतुष्टि नहीं मिलती,आज हमें सभी किस्म के अत्याधुनिक तकनीकी और संचार साधन चैन से जीने का भरोसा नहीं देते, बार बार अलगाव का एहसास परेशान करता है ,चिन्ता होने लगती है कि आखिरकार हम किस दुनिया में जी रहे हैं। इस अलगाव से मुक्ति कैसे पाएं और इसका सामाजिक स्रोत कहां है ? इस समस्या के समाधान के बारे में मुक्तिबोध मशाल हैं। अकेलेपन की रामबाण दवा हैं।
मुक्तिबोध ने लिखा अकेलेपन की अवस्था में '' मन अपने को भूनकर खाता है।' यह वाक्य बेहद मारक है। हम गंभीरता से सोचें कि इससे कैसे बचें। ऐसी अवस्था में हम अपने लिए मार्गदर्शक खोजते रहते हैं,अपने जीवन के चित्र और अपने जीवन की समस्याओं के समाधान नेट से लेकर साहित्य तक खोजते रहते हैं लेकिन हमें अपनी समस्याओं के समाधान नहीं मिलते। थककर हम चूर हो जाते हैं और सो जाते हैं। अलगाव को दूर करने के लिए नेट,मोबाइल और फोन पर घंटों बातें करते रहते हैं। इसके बावजूद बेचैनी दूर नहीं होती,जीवन में रस-संचार नहीं होता। इसका प्रधान कारण है हमारी बातचीत,संपर्क और संवाद से मानवीय सहानुभूति का लोप।
मानवीय सहानुभूति के कारण ही हम एक-दूसरे के करीब आते हैं। हम चाहे जितना दूर रहें कितना ही कम बातें करें मन भरा रहता है क्योंकि हमारे मानवीय सहानुभूति से भरे संबंध हैं। लेकिन आज के दौर में मुश्किल यह है हमारे पास संचार की तकनीक है लेकिन मानवीय सहानुभूति नहीं है। तकनीक से संपर्क रहता है ,दूरियॉं कम नहीं होतीं। बल्कि तकनीक दूरियॉं बढ़ा देती है। दूरियों को कम करने के लिए हमें अपने व्यवहार में प्रेम और मानवीय सहानुभूति का समावेश करना होगा। प्रेम और मानवीय सहानुभूति के कारण ही जिन्दगी के प्रति आस्था,विश्वास और प्रेम बढ़ता है।
मुक्तिबोध की नजर में इसका प्रधान कारण है ' आजकल आदमी में दिलचस्पी कम होती जा रही है।' अलगाव में मनुष्य दोहरी तकलीफ झेलता है वह 'स्व' और 'पर' दोनों को दण्ड देता है। मुक्तिबोध के अनुसार जिन्दगी जीने अर्थ है 'बिजली-भरी तड़पदार जिन्दगी' जीना। ' ऐसी जिन्दगी जिसमें अछोर,भूरे,तपते , मैदानों का सुनहलापन हो, जिसमें सुलगती कल्पना छूती हुई भावना को पूरा करती है, जिसमें सीने का पसीना हो, और मेहनत के बाद की आनन्दपूर्ण थकन का सन्तोष हो। बड़ी और बहुत बड़ी जिन्दगी जीना (इमेन्स लिविंग) तभी हो सकता है,जब हम मानव की केन्द्रीय प्रक्रियाओं के अविभाज्य और अनिवार्य अंग बनकर जिएं। तभी जिन्दगी की बिजली सीने में समाएगी।'
मुक्तिबोध के अनुसार सार्थक जीवन की अभिलाषा रखना एक बात है और उसके अनुसार जीवन जीना दूसरी बात है। यह भी लिखा हर आदमी अपनी प्राइवेट जिन्दगी जी रहा है । या यों कहिए कि व्यावसायिक और पारिवारिक जीवन का जो चक्कर है उसे पूरा करके सिर्फ़ निजी जिन्दगी जीना चाहता है। मैं भी वैसा ही कर रहा हूँ । मैं उनसे किसी भी हालत में बेहतर नही हूँ । लेकिन क्या इससे पार्थक्य की अभावात्मक सत्ता मिटेगी ? क्या इससे मन भरेगा,जी भरेगा ? यह बिलकुल सही ख्याल है कि सच्चा जीना तो वह है जिसमें प्रत्येक क्षण आलोकपूर्ण और विद्युन्मय रहे,जिसमें मनुष्य की ऊष्मा को बोध प्राप्त हो। किन्तु यह तभी संभव है जब हम अपने विशिष्टों और सुविशिष्टों को किसी व्यापक से सम्बद्ध करें,विशिष्ट को व्याप्ति प्रदान करना, केवल बौद्धिक कार्य नहीं है,वह मूर्त, वास्तविक ,जीवन -जगत् संबंधी कार्य है। तभी उस विशिष्ट को एक अग्निमय वेग और आवेग प्राप्त होगा , जब वह किसी दिशा की ओर धावित होगा।यह दिशा विशिष्ट को व्यापक से सम्बद्ध किए बिना उपस्थित नहीं हो सकती।
मुक्तिबोध के बारे में पढकर एक रूहानी सुकून सा मिला। आभार।
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