शिवराम
मुक्तिबोध के बारे में आज कोई भी पुनर्पाठ अमेरिकी साम्राज्यवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दरकिनार करके नहीं बनाया जा सकता है। आज सारी दुनिया अमेरिकी साम्राज्यवाद की आर्थिक -राजनैतिक और सांस्कृतिक नीतियों की चपेट में है। इन नीतियों का मुकाबला एकजुट भारत ही कर सकता है। अमेरिकी नीतियों का हमारी राष्ट्रीय नीतियों पर सीधा असर हो रहा है। इससे जनता को अपार तकलीफों का सामना करना पड़ रहा है। दूसरी ओर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है जो धार्मिक और भाषायी आधार पर सामाजिक अलगाव पैदा करना चाहता है। आर्थिक नीतियों में आए बदलाव के कारण राज्य सरकारें सीधे बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ समझौते कर रही हैं। इससे राष्ट्र-राज्य कमजोर हो रहा है और जातीय तनाव बढ़ रहे हैं। यही बुनियादी परिप्रेक्ष्य है जिसमें हमें मुक्तिबोध के लेखन और कर्म पर नए सिरे से विचार करना चाहिए।
मुक्तिबोध ने चार बातों पर जोर दिया था,प्रथम, 'तय करो किस ओर हो तुम', यह आधुनिक युग का सबसे जनप्रिय नारा भी है,इसके तहत मुक्तिबोध ने वर्गीय प्रतिबद्धता के सवालों को केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है। आज के दौर में खुदगर्जी और विभाजनकारी प्रतिबद्धताएं ज्यादा दिख रही हैं,इनके विकल्प के तौर पर मुक्तिबोध ने वर्गीय प्रतिबद्धता को तरजीह दी।
मुक्तिबोध ने दूसरा महत्वपूर्ण नारा दिया 'पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ' , आम तौर पर राजनीति में भाग लेने की बात सभी करते हैं। सवाल राजनीति में भाग लेने या चुनाव में वोट देने तक सीमित नहीं होना चाहिए ,बल्कि यह भी तय करना चाहिए कि आखिरकार किस तरह की राजनीति से जुड़ना चाहते हैं,उसके कार्यक्रम क्या हैं,नीतियां क्या हैं। राजनीति से जुड़ने का सवाल वर्गीय निष्ठा से जुड़ा है। हमें राजनीति के नाम पर गैर राजनीति करने वाले स्वयंसेवी संगठनों के बारे में भी सतर्क नजरिया अपनाने की जरूरत है। ये संगठन संघर्ष के केन्द्रीय मुद्दों को हाशिए पर डालने के लिए साक्षरता,पर्यावरण,स्वास्थ्य आदि के सवालों को उठा रहे हैं। ये संगठन विभिन्न स्तरों पर काम करते दिखते हैं, इनके संघर्ष आभासी संघर्ष और आभासी अभियान हैं। स्वयंसेवी संगठनों के द्वारा जन-आंदोलनों के गैर -राजनीतिक रहने का दर्शन परोसा जा रहा है। ये संगठन जनान्दोलनों का क्रांतिकारी राजनीति से सायास अलगाव पैदा करने का प्रयास करते हैं। एन.जी.ओ.संस्कृति क्रांतिकारीचेतना से पूर्णतया मुक्त गैर राजनैतिक यथास्थिति वादी-सुधारवादी-आभासी जनांदोलनों की संस्कृति है।
दलित मुक्ति,नारी मुक्ति,आदिवासी मुक्ति के संघर्षों को नपुंसक विमर्शों में बदला जा रहा है,वर्गीय विमर्शों को विस्थापित किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में मुक्तिबोध का नारा और भी प्रासंगिक हो उठा है।
मुक्तिबोध ने तीसरा नारा दिया था ' तोड़ने ही होंगे गढ़ और मठ', आमतौर पर साधारण लोगों में व्यवस्था प्रेम गहरी जड़ें जमाए रहता है। मुक्तिबोध ने इस व्यवस्थाप्रेम की जगह वैकल्पिक व्यवस्था का सपना देखा था ,जिसके निर्माण के लिए जरूरी है कि लोग इस व्यवस्था को ध्वस्त करें। इस व्यवस्था के परे जो अरूणकमल खिल रहा है उस तक जाने का प्रयास करें। मुक्तिबोध के लिए संघर्ष का अर्थ किताबी संघर्ष नहीं था,यह अभिजनों की बतरस चर्चा वाला संघर्ष नहीं है। यह गोष्ठियों में चलने वाला संघर्ष भी नहीं है, बल्कि यह जमीनी संघर्ष है, मुक्तिबोध चाहते थे कि लेखक सक्रिय रूप से जनसंघर्षों में हिस्सा ले। इससे लेखकों को पूंजीवादी विभ्रमों से मुक्त होने में मदद मिलती है।
मुक्तिबोध का चौथा नारा था 'जन प्रतिबद्धता' का है। मुक्तिबोध ने समग्रता में प्रतिबद्धता के सवाल पर विचार किया है। प्रतिबद्धता कोई शार्टकट नहीं है। प्रतिबद्धता के लिए ईमानदारी और पारदर्शिता की भी जरूरत होती है। हमारे बीच में अनेक लेखक और बुद्धिजीवी है जो प्रतिबद्ध है,लेकिन ईमानदारी और पारदर्शिता का उनमें अभाव है।
दूसरी कोटि ऐसे लेखकों की है जिनमें बुर्जुआजी के प्रतिबद्धता है, जन प्रतिबद्ध और बुर्जुआजी के साथ प्रतिबद्ध दोनों ही किस्म के लोग मुक्तिबोध को इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि उनके लिए मुक्तिबोध की प्रतिबद्धता आवरण देती है,मुक्तिबोध की प्रतिबद्धताएं वे नहीं हैं जो आधुनिकतावादियों,नयी कविता वालों और प्रयोगवादियों की हैं। मुक्तिबोध ने अपनी प्रतिबद्धता को नई शोषणमुक्त दुनिया बनाने के लक्ष्य से जोड़ा,जबकि उनके साथ के अनेक प्रयोगवादी और नयीकविता वाले यह लक्ष्य नहीं मानते।
मुक्तिबोध इसलिए ज्यादा अपील करते हैं क्योंकि उनकी कविता में जनपक्षधरता के साथ आत्मसंघर्ष और आत्म समीक्षा का भाव भी है। कविता में उनके व्यक्तित्व की जटिलता और संष्लिष्टता व्यक्त हुई है।
( शिवराम,हिन्दी के जनप्रिय लेखक,संस्कृतिकर्मी ,रंगकर्मीऔर संगठनकर्त्ता हैं। उनके हाल ही में दो नाटक संकलन 'गटक सूरमा' और 'पुनर्नव' आए हैं,इसके अलावा उनकी 'सेज' पर चर्चित किताब है '' सूली पर सेज'',इसके अलावा लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के राष्ट्रीय संगठन 'विकल्प' के महासचिव हैं )
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