मुक्तिबोध का सारा लेखन भारत के मध्यवर्ग को संबोधित है और उससे कहा जा रहा है कि भारत के अगले विकास के लिए तुम्हें अपनी मिथ्या चेतना की जकड़बंदी से मुक्त होना चाहिए, और उस सर्वहारावर्ग का साथ देना चाहिए जो भारत को आगे के विकास की ओर ले जायेगा और तुम्हें भी शोषण के परंपराक्रम से मुक्त करेगा । इस नजरिये से ‘चंबल की घाटी में’ कविता को देखा जा सकता है जिसमें एकाधिकारी पूंजीवाद को बड़ी चट्टान के बिंब से और मध्यवर्ग को उसके नीचे दबी कराहती छोटी चट्टान के रूप में चित्रित किया गया है । छोटी चट्टान मुक्त होना चाहती है और नये पवन के झोंके से निवेदन करती है कि उसे मुक्त करा दो, तब उस मध्यवर्गीय चट्टान से वैज्ञानिक विचारधारा का पवन कहता है कि ‘छाती पर तुम्हारे.../ अकड़कर ठाठ से/ बैठी जो डाकू की चट्टानी मूरत / तुम्हारी ही फैल मुटाई हुई सूरत ’ यानी पेटी बूर्जुआ से ही तो पूंजीवाद विकसित हो कर मोनोपाली बूर्जुआ की शक्ल अख्तियार कर गया है और अब वह सबका शोषण कर रहा है । इसलिए यदि मध्यवर्ग अपनी मुक्ति चाहता है तो उसे अपना वर्गापसरण करना होगा, नीचे लुढ़कना होगा । बड़े पूंजीपतियों व जमीदारों की व्यवस्था का समर्थक होने के बजाय उसे सर्वहारा के साथ मिलना होगा । पवन आगे कहता है कि मध्यवर्ग की मिथ्या चेतना के कारण ही एकाधिकारी पूंजीवाद टिका हुआ है, ‘इसीलिए जब तक उसकी स्थिति है / मुक्ति न तुमको ।’ फिर पवन मध्यवर्ग को सलाह देता है कि ‘मेरी सलाह है ––/ लुढ़को ...’
आलोच्य कविता में भी मध्यवर्ग की मिथ्या चेतना ही ‘भूल गलती’ के बिंब से चित्रित की गयी है । जैसे अन्य कविताओं में मध्यवर्ग के अज्ञान या मिथ्या चेतना को विभिन्न बिंबो (जैसे ओरांगउटांग आदि) से चित्रित किया गया है उसी तरह इस कविता में मध्यवर्ग की भूल गलती को । मध्यवर्ग की चेतना पर इस भूल गलती की जकड़ भयंकर है । उसकी चेतना को झकझोरा गया है कि उसी के भीतर उसका ईमान कैद है जिसे सर्वहारा के बिंब से चित्रित किया गया है जो पूंजीवाद–सामंतवाद के दमन का शिकार है । मध्यवर्ग की मिथ्या चेतना भी पूंजीवादी–सामंती विचारधारा का ही एक रूप है और जो सर्वहारा की मुक्ति के पक्ष में न जा कर अंतत: सत्ताधारी शोषकवर्गों के पक्ष में ही जाती है । भारत में अगर मध्यवर्ग क्रांतिकारी सर्वहारा शक्तियों का साथ नहीं देगा तो हमारे देश के विकास की अगली मंजिल हासिल ही नहीं होगी, शोषण के परंपराक्रम से छुटकारा संभव ही नहीं । अंधेरे में कविता में भी वही सर्वहारा बार बार आता है और धीरे धीरे मध्यवर्गीय वाचक की मिथ्या चेतना के अंधेरे को दूर करता है, यही संदेश ‘भूल गलती’ कविता में मध्यवर्ग को दिया गया कि तुम्हारे दिल पर जिरह बख्तर पहने बैठी हुई मिथ्या चेतना को वही सर्वहारावर्ग दूर करेगा । यह मिथ्या चेतना पूंजीवादी विचारधारा है जिसके पक्ष में इस समाज की अधिरचना के विभिन्न अंग कार्यपालिका, न्यायपालिका, शासनतंत्र और शिक्षा और साहित्य आदि भी हैं । यहां मुक्तिबोध मार्क्सवाद की एक मान्यता को काव्य का रूप दे रहे है कि किसी समाज में जिन वर्गों (व्यक्ति या दल नही) के हाथ में सत्ता होती है, वहां उन्हीं की विचारधारा का भी वर्चस्व होता है । निराला ने भी अपने समय में अपने अनुभव और ज्ञान से यह समझा था कि किस तरह ‘राजे ने अपनी रखवाली की ।’ निराला की उस कविता में भी अनायास समाज के शासनतंत्र की बुनियाद और उसके ऊपर खड़े ढांचे के आपसी रिश्ते को खूबसूरत तरीके से चित्रित किया गया था । इस रिश्ते को ‘अंधेरे में’ कविता में प्रोसेशन के चित्रण में भी मुक्तिबोध ने दिया है ।
इस तरह मुक्तिबोध हमें भारतीय मध्यवर्ग के यथार्थ को, उसकी मनोदशा और उसकी मिथ्या–चेतना का अहसास कराते हैं और ऐतिहासिक दायित्वबोध की ओर इशारा करते हैं कि क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका होगी, मध्यवर्ग के भीतर भी यह परिवर्तन होगा, मगर होगा तभी जब सर्वहारावर्ग संगठित हो कर ‘लश्कर मुहैया कर’ अपने रक्तप्लावित स्वर से प्रकट हो कर उसके सामने आयेगा । जब वर्गीय संतुलन सर्वहारावर्ग के पक्ष में होगा, परिवर्तन तभी संभव होगा । मुक्तिबोध इस ऐतिहासिक वैज्ञानिक सत्य को ही अपनी कविताओं में अलग अलग तरीके से संवेदनात्मक उद्देश्य बनाते हैं।
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