सबसे पहली बात यह कि मुक्तिबोध अखण्ड भाकपा के सदस्य थे। शमशेरबहादुर सिंह ने 'चॉंद मुँह टेढ़ा है' की जो भूमिका लिखी है , उसमें लिखा है , वे मजदूरों के जुलूसों में भाग लेते थे, जुलूस पर जो पुलिस के अत्याचार होते थे उसे प्रत्यक्ष देखा और झेला था। 'नया खून' के संपादक थे। मुक्तिबोध की 'तारसप्तक' में जो कविता प्रकाशित है 'पूंजीवादी समाज के प्रति' वह उनकी प्रारंभिक कविताओं में से है। उसमें एक पंक्ति आती है ' कि केवल एक जलता सत्य देने टाल ।' यह जानना मुश्किल नहीं है कि मुक्तिबोध जलता सत्य किसे कहते थे।
मुक्तिबोध की मानसिक या रचनात्मक प्रवृत्ति यह थी कि वो किसी समस्या की अनदेखी नहीं करते। केवल भौतिक सामाजिक समस्याएं नहीं बल्कि मानसिक वैयक्तिक समस्याओं और उलझनों का दबाव उन पर पड़ता था, उन पर भी अपनी कविताओं में विचार करते थे। इसलिए उनकी कविता में एक उलझाव लगता है। उनकी मशहूर कविता की एक महत्वपूर्ण पंक्ति है 'एक कदम उठाता कि सौ राहें फूटती हैं।' यह उनकी कविता की रचनात्मक प्रक्रिया की स्थिति है। पर यह भी याद रखना जरूरी है कि जहां वह एक कदम रखता और सौ राहें फूटती हैं,वहीं जलते सत्य को ' एक' कहते हैं। यह जलता सत्य है हमारे समाज की विषमता। यही उनकी कविता का मुख्य सरोकार है और आद्यन्त बना रहा।
मुक्तिबोध का सर्वाधिक प्रचलित और उद्धृत पद है ' सकर्मक ज्ञानात्मक संवेदन' ,ज्ञानात्मक संवेदन जो है वह रस का पर्याय है। आचार्य शुक्ल ने रस की धारणा को विश्रान्तिपरक नहीं माना है। शुक्लजी रस को परम शांति नहीं मानते थे बल्कि कर्म को प्रेरित करने वाला भाव मानते थे। सकर्मक ज्ञानात्मक संवेदना में आए पद में सकर्मकता शुक्लजी के विश्रान्ति के निषेध से मिलता है। कर्म सौंदर्य की धारणा सबसे पहले शुक्लजी ने दी।
मुक्तिबोध की कविता में यहां से वहां तक अपराधबोध आता है ,मुक्तिबोध के यहॉं सद्य:प्रसु शिशु का बिम्ब है जिसे रोता छोड़ दिया गया है। पन्ना धाई का बिम्ब आता है इसे मुक्तिबोध अनुभवप्रसूत बिम्ब कहते हैं। मुक्तिबोध की रचना प्रकिया की इतिश्री सिर्फ कविता करने में नहीं होती बल्कि उनका कवि कर्म सकारात्मकता में ले जाता है।
एक बिम्ब मुक्तिबोध के यहां यह मिलता है कि 'करूणा के दृश्यों से हाय मुँह मोड़ गए', नेहरू-गांधी को देखो तो लगेगा कि जैसे कवि शब्द रचता है वैसे वे कर्म रचते हैं। मुक्तिबोध ने कविता के पर्यवसान के बारे में कहा था कविता का रास्ता कविता में खत्म नहीं होता। वह सकर्मकता में जाता है।
साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी हमें मजदूरों से अलग करती है मुक्तिबोध इस खाई को पाटना चाहते हैं। उनकी कविता का यही संदेश है। श्रीकांत वर्मा ,अज्ञेय, नामवर आदि मुक्तिबोध का जो पाठ करते हैं उसमें वे मुक्तिबोध को अन्न-वस्त्र की समस्या से रहित कर देते। मुक्तिबोध में जो एब्सर्डिटी है उसके यथार्थवादी सरोकार हैं। लेकिन उनकी कविता में जो उलझन है ,अपराधबोध है, वे बातें आधुनिकतावादियों के मेल में है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि मुक्तिबोध का अपराधबोध भक्तों वाला अपराधबोध है। फारमेट भक्तों वाला है। मुक्तिबोध की कविता 'अधेरे में' में एक पंक्ति आती है ' प्रश्न हैं गंभीर और खतरनाक' इसको संपादकों ने हटा दिया था,और दूसरी पंक्ति आती है, ' उसके वस्त्र मैले हैं उसे अन्न कौन देगा ,उसके वक्ष पर घाव क्यों हैं ', जिन लोगों ने यह संकलन निकाला यह अच्छी बात है, लेकिन इस डर से कि भारतीय ज्ञानपीठ से यह संकलन छपेगा ही नहीं शायद इसलिए ये पंक्तियॉं हटा दीं।
रामविलास जी ने जो श्रीकांत वर्मा,अज्ञेय और नामवरजी के मुक्तिबोध थे उन्हें ही असली मुक्तिबोध समझा, मुक्तिबोध का अपराध अस्तित्ववादी अपराधबोध नहीं है। उनका अपराधबोध भक्तों वाला अपराधबोध है,कि जो आदमी सिद्धान्त बनाता है उस पर चल नहीं पाता तो मन में उससे अपराधबोध पैदा होता है। इसीलिए उनकी कविता में आता है कि 'ऐ मेरे आदर्शवादी मन ,ऐ मेरे सिद्धान्तवादी मन ,अब तक क्या किया ,जीवन क्या जिया।'मुक्तिबोध का अपराधबोध 'सिन' या पाप से नहीं जुड़ा।
मुक्तिबोध के यहां परंपरा का सर्वथा निषेध नहीं है। परंपरा का जीवित संदर्भ मुक्तिबोध के यहां है। मुक्तिबोध की मुद्रा ,उनके लेखन का जॉर्गन विरोधी को सम्मान देने वाला है। मुक्तिबोध ने पिताओं की बात की है ,पिता एक होता है ,लेकिन मुक्तिबोध ने जितने महापुरूष हैं उनके लिए 'पिताओं' पदबंध का इस्तेमाल किया है। रचनाकारों और कवियों की दृष्टि से हिन्दी आलोचना बड़ी दरिद्र है। लेकिन हिन्दी आलोचना ही है जिसने कबीर,तुलसी ,कृष्णा सोबती,परसाई,अमरकांत को प्रतिष्ठित किया है।
मैं रामविलास जी का एक उद्धरण देना चाहता हँ , उन्होंने लिखा है, 'नामवर की मुद्रा यह है कौन रामचन्द्र शुक्ल,लोकमंगल वाले ना, कौन नगेन्द्र रस सिद्धान्त वाले ना,कौन नंददुलारे बाजपेयी प्रसाद वाले ना, कौन रामविलास शर्मा मार्क्सवादी ना।' और उनको कविता में उपेक्षितों की तलाश रहती है,आजकल वे चन्द्रभान प्रसाद की प्रशंसा कर रहे हैं,तो यह पता लगाना चाहिए कि 'कविता के नए प्रतिमान' के बाद नामवर सिंह ने मुक्तिबोध पर नया क्या लिखा ? रामविलास शर्मा निराला के आलोचक हैं, निराला को प्रतिष्ठित किया और बाद में भी निराला पर लिखते रहे। लेकिन नामवर सिंह ने मुक्तिबोध पर नया क्या लिखा यह पता लगाने की जरूरत है। मैंने मुक्तिबोध को बिल्कुल मरणासन्न अवस्था में देखा है। 'कवि' के प्रवेशांक में मेरी कविता छपी थी । मुक्तिबोध प्रशंसा में बहुत उदार थे। उन्होंने धर्मवीर भारती की प्रशंसा की है अपने समकालीनों के बारे में बहुतों के बारे में उदार भाव से लिखा है उन्होंने मेरी कविता की भी बड़ी प्रशंसा की थी,मुक्तिबोध की शवयात्रा में मैं भी गया था बहुत से साहित्यिक शामिल हुए थे।
संकीर्णतावादी साम्प्रदायिक लोग मुक्तिबोध से भडकेंगे ,मुक्तिबोध क्षेत्रीयतावाद, जातीयतावाद, साम्प्रदायिकता के किसी भी रूप का समर्थन नहीं करते। मुक्तिबोध का भाव मजदूर वाला भाव है, उनकी बीड़ी पीते हुए जो तस्वीर है उसमें भी मजदूर वाला भाव ही है। मुक्तिबोध का जोर सकर्मक ज्ञानात्मकता पर है। उनकी सकर्मकता पर नए लेखक ध्यान दें, अपने लेखन को जीवन से और जीवन का मतलब सबसे निम्नवर्ग के लोगों के जीवन से हमेशा एप्रूबल कराएं। डर इस बात का है कि हम लोग जिस अपसंस्कृति और भूमंडलीकरण का विरोध कर रहे हैं उसी से ग्रस्त न हो जाएं।ध्यान रखना चाहिए कि जितनी जरूरत हो उतनी ही इच्छा की जाए।
(विश्वनाथ त्रिपाठी, प्रख्यात हिन्दी आलोचक,भू.पू.प्रोफेसर हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, उनसे यह बातचीत डा;सुधासिंह ,एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ खासतौर पर मुक्तिबोध नेट सप्ताह के लिए )
"नामवर सिंह ने मुक्तिबोध पर नया क्या लिखा "
जवाब देंहटाएंवो तो कब का कलम पकड़ना छोड़ चुके :)
त्रिपाठी जी द्वारा इस तरह मुक्तिबोध जी को याद करना अच्छा लगा । बाकी तो सब को पता ही है ।
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