जब आप संस्कृति पैदा करते हैं तो वह सीधे अस्मिता को चुनौती देती है। यही वजह है कि समलैंगिक अपनी पहचान को उभारने की कोशिश करते हैं। पहचान को बनाने की कोशिश करते हैं। फूको इस बात से बहुत चिन्तित है कि इस संस्कृति को कोई व्यक्ति की आत्मा की मुक्ति के साथ जोड़कर पेश करे। फूको ने पुरूषों के समलैंगिक आन्दोलन को छद्म मर्दानगी की उप संस्कृति के रूप में व्याख्यायित किया है।
''छदम मर्दानगी गहरे अर्थ में हिंसा से जुड़ी है।वह हिंसा ,आक्रामकता,मूर्खता से मुक्त करती है, हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि वे लोग जो कुछ कर रहे हैं ,वह आक्रामक नहीं है।वे अपने शरीर के विलक्षण अंगों के जरिए, शरीर को कामुक बनाते हुए नए किस्म के आनंद की संभावनाएं खोज रहे हैं। मै सोचता हँ यह एक तरह का सृजन है। सृजनात्मक कार्य व्यापार है। इसके लक्षणों में से एक लक्षण है आनंद का विकामुकीकरण... अपने शरीर का विभिन्न रूपात्मक आनंद के तौर पर इस्तेमाल महत्वपूर्ण चीज है। मसलन् यदि आप परंपरागत आनंद को देखें तो वहां पर शारीरिक आनंद,नशा,खाना, भोग आदि को आनंद की कोटि में रखा गया है। इससे हमारी शरीर और आनंद के बारे में सीमित समझ बनती है।''
फूको कहता है कि सवाल मुक्तिकामी आनंद का नहीं है ,बल्कि सृजनात्मक आनंद का सवाल है,नयी पहचान बनाने का है। छद्म मर्दानगी उनमें से एक संभावना है। '' कोई कह सकता है कि यह पावर का कामुकीकरण है।बुनियादी संबंधों का कामुकीकरण है।... छद्म मर्दानगी एक मजेदार खेल है क्योंकि इसमें बुनियादी संबंध शामिल है ,यह हमेशा तरल रहता है।यह सच है कि इसमें भूमिकाएं हैं, किन्तु यह सब जानते हैं कि इसमें भूमिकाएं बदल सकती हैं, कभी कभी दृश्य मालिक और गुलाम से शुरू होता है। किन्तु अंत में देखा गया कि गुलाम मालिक बन गया। अथवा जब भूमिकाएं स्थिर हो जाती हैं, तब भी आप अच्छी तरह जानते हैं कि यह तो खेल है, इसके नियमों में रूपान्तरण होता रहता है। अथवा यह भी देखा गया है कि समझौता हो गया है , घोषित और अघोषित तौर पर वे जानते हैं कि इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। यह बुनियादी खेल शारीरिक आनंद का रोचक स्रोत है।''
फूको का मानना है कि बुनियादी धारणा है कि कामुकता को कानून के सहारे नियंत्रित नहीं किया जा सकता। शरीर और आनंद की अर्थव्यवस्था अलग-अलग है। इसी प्रसंग में विलियम रीख की धारणा का जिक्र करना समीचीन होगा। रीख का मानना था कि सामाजिक राजनीतिक सुधार बगैर कामुक मुक्ति के असंभव है। स्त्रतंत्रता और कामुक स्वास्थ्य एक ही चीज है।हम जब औरतों के लिए समान अधिकार की बात करें तो हमें बच्चों और तरूणों के कामुक अधिकारों के बारे में भी सोचना चाहिए।
फूको ने 'बायो पावर' (शारीरिक शक्ति) को एक गतिशील तत्व के रूप में व्याख्यायित किया है। यह एक तरह से अनिवार्य श्रमशक्ति है। समाज में अनिवार्य श्रमशक्ति को जब प्रत्यक्ष नियंत्रण के बाहर ले जाते हैं तो कामुकता का अनंत क्षेत्रों में विस्तार होता है।फलत: कामुकता कम से कम प्रतिगामी बन जाती है। अन्तोनी गिदेन का मानना है कि 'वायो पावर' जैसी कोई चीज नहीं होती। आधुनिक सामाजिक संरचनाओं के विकास को फूको जिस तरह विश्लेषित करते हैं, हमें उस तरह विश्लेषित नहीं करना चाहिए। आधुनिक सामाजिक संरचनाओं और संस्थानों का प्रकृति के समाजीकरण और पुनरूत्पादन के साथ कोई सबंध नहीं है। बुनियादी प्रक्रियाएं प्रत्यक्षत: कामुकता से जुड़ी हैं। किन्तु उन्हें वैसे नहीं देखना चाहिए जैसे फूको देखता है। जहां तक आधुनिक काल में निगरानी का सवाल है , उसके बारे में फूको की धारणा से सहमत हुआ जा सकता है। गिदेन कहता है कि व्यक्तिगत जीवन के अनेक पहलुओं की तरह कामुकता को भी घेर लिया गया है। इसके बारे में सत्ता केन्द्रों के निर्देश भी हैं। आधुनिक संरचनाएं, जिसमें आधुनिक राज्य भी शामिल है, यह स्थानीय स्तर तक इस कदर घुस चुके हैं ,जिनको हमने पूर्व-आधुनिक संस्कृति में कभी नहीं देखा।
पृथक्कृत प्रकृति और कामुकता जटिल रूप में पुनर्रूत्पादन के समाजीकरण से जुड़े हैं। कामुकता का तब तक स्वायत्त अस्तित्व संभव नहीं है जब तक वह कामुक व्यवहार से जुड़ी है। कामुक व्यवहार या कामुक गतिविधि प्रजनन से जुड़ी है। इसका पुनर्रूत्पादन और श्रृंगारी साहित्य या कला रूपों में वर्गीकरण किया गया है। इसके फलस्वरूप औरत का शुध्द और अशुध्द में वर्गीकरण किया गया। अनुभव का पृथक्करण आधुनिकतावादी संस्थानों को परंपरा से अलग करता है। नियंत्रण के संस्थानों का व्यापक रूप में विकास का नैतिक और एथिकल मान्यताओं पर सीधा असर हुआ, पुनर्रूत्पादन पर असर हुआ। यह एक तरह का विनिमय है जो आधुनिक सामाजिक जीवन सुरक्षा के नाम पर करता है। इसी तरह हमें दमनात्मकता को देखना चाहिए , दमनात्मकता का अर्थ है 'भूल जाओ' किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आप कुण्ठा के बोझ में दब जाएं। शर्म के तंत्र को इसने आत्माभिव्यक्ति में बदल दिया। अकेले की शर्म को इसने प्रभावहीन बना दिया। अकेले का जीवन अर्थहीन या खोखला बना दिया। अकेला जीवन,एक शरीर ,अधूरा उपकरण बन गया।
व्यक्ति जब आत्माभिव्यक्ति करता है तो अपने आन्तरिक संदर्भों को खोलता है।जिसमें जबर्दस्त ऊर्जा भरी हुई है। इसे व्यक्तिगत या सामूहिक व्यस्तता के रूपों में देख सकते हैं। इसके कारण कामुक क्षेत्र का बड़े पैमाने पर बदलाव हो जाता है। स्वायत्तता और प्रसन्नता पैदा होती है। आधुनिक संस्कृति पर विचार करते समय यह सवाल भी पैदा होता है कि आखिरकार कामुकता के प्रति इतना आग्रह क्यों है ? मार्कूज के अनुसार आधुनिक संस्कृति में वस्तुकरण का वर्चस्व है। इसके कारण कामुकता का वस्तुकरण हुआ है। कामुकता से आनंद और सिर्फ आनंद की सृष्टि होती है। अथवा हम यह कह सकते हैं कि वह आनंद का वायदा करती है।इससे पूंजीवादी समाज में मालों के लिए बाजार का रास्ता खुलता है। माल की बिक्री के संदर्भ में कामुक इमेजों का व्यापक उपयोग किया जाता है और वे सब जगह नजर आती हैं। इस क्रम में सेक्स का वस्तुकरण होता है। इसका अर्थ है कि वह जनता का उसकी वास्तविक जरूरतों से ध्यान हटाता है। इस नजरिए से देखें तो कामुकता असल में पूंजीवादी व्यवस्था के उपकरण के रूप में दाखिल होती है। जो श्रम ,अनुशासन और आत्म-अस्वीकार पर निर्भर है। इसके कारण ही समाज में उपभोक्तावाद और पुंसवाद का प्रसार होता है। इस तरह के तर्क की सीमा यह है कि उससे इस बात का ज्ञान नहीं होता कि आखिरकार पूंजीवाद में कामुकता को इतनी महत्ता क्यों दी जाती है ,यदि उपभोक्तावाद का सेक्स शक्तिशाली संचालक शक्ति है तो इसका अर्थ यह भी है कि संचालक शक्ति के रूप में वह पहले से मौजूद है। इसके अनेक प्रमाण दिए जा सकते हैं कि कामुकता के प्रभाववश चिन्ताएं ,परेशानियां और तनाव पैदा होता है। उपभोक्तावादी समाज में कामुकता का आनंद अनेक अन्तर्विरोधी चीजों को जन्म देता है।
( लेखक-जगदीश्वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह)
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