वह साहित्य में जितना चर्चित है। नेट पाठकों में भी उतना ही चर्चित है। वह व्यक्ति नहीं फिनोमिना है। वह आलोचक है,शिक्षक है,श्रेष्ठतम वक्ता है,हिन्दी का प्रतीक पुरूष है, वह जितना जनप्रिय है उतना ही अलोकप्रिय भी है,वह सत्ता के साथ है तो प्रतिवादी ताकतों के भी साथ है। उसे सभी चाहते हैं,वह सबके यहां जाता है। सभी रंगत के प्रकाशकों,लेखकों से लेकर राजनेताओं तक उसकी साख है।
वह बोलता है तो उसके शब्द काफी देर तक गूंजते हैं। वह जिंदादिल, अनौपचारिक,सहज और विलक्षण है। उसके व्यक्तित्व में विलक्षणता और सामान्य का निराला मिश्रण है । उसे हम सब नामवर सिंह के नाम से जानते हैं। वह व्यक्ति नहीं फिनोमिना है। उसमें एक नहीं अनेक आलोचकों ,शिक्षकों ,अकादमिक प्रशासकों और लेखकों के गुण और अवगुण एक ही साथ देख सकते हैं। वह हमेशा अनेकरूप में होता है।
नामवरजी के व्यक्तित्व का निरालापन उन्हें एक रंग में नहीं रहने देता। वे आपको कभी कुछ दिखते हैं कभी उससे भिन्न लगते हैं। कभी लगता है वे अप्रासंगिक हो गए,कुछ दिनों बाद लगता है उन्हें ही बुला लेते हैं कुछ नयी बातें, नया रास्ता शायद वे ही बताएं। उनकी कमजोरी है कि वे अपनी प्रशंसा और भक्ति से खुश होते हैं और जिसने सेवा की है उसका भला भी करते हैं। उनके यहां जो भक्त है वो महान है। जो उनकी सेवा करता है उसकी वे केयर भी करते हैं। कोई उनका भला करे ,सेवा करे, प्रशंसा करे, उनके खिलाफ न जाए,इस चीज को वे बहुत बारीकी से पहचानते हैं। उसका ख्याल भी रखते हैं। इसके बावजूद वे सबके बने रहते हैं।
हम नामवर को व्यक्ति के रूप में नहीं फिनोमिना के रूप में देखें तो बेहतर होगा। सवाल उठता है उन्होंने कभी राजनीतिक लेखन क्यों नहीं किया। उन्होंने साहित्य की 'थ्योरी' का निर्माण क्यों नहीं किया ? परिवर्तनकामी विचारधारा में विश्वास करने वाले नामवर जैसे लेखक सामयिक राजनीतिक सवालों पर लिखने से कन्नी क्यों काटते हें। सामयिक राजनीतिक सवालों पर न लिखने का प्रधान कारण है अपने को किसी न किसी रूप में नैतिक रूप से श्रेष्ठ बनाए रखना। आलोचक अथवा साहित्यकार के रूप में जब आप सिर्फ साहित्यिक सवालों पर ही विचार करेंगे तो आपको अनेक किस्म के नैतिक कष्टों से नहीं गुजरना पड़ता,उन तमाम चुनौतियों का सामना नहीं करना पडता है जो एक राजनीतिक टीकाकार या सिद्धान्तकार करता है। विशिष्ट यूटोपिया में कैद रहते हें।
संस्कृति और साहित्य के सवालों में व्यस्त रहने वाले नामवरजी को सभी रंगत की विचारधारा के राजनीतिक दल सम्मान देते हैं ,प्यार करते हैं। उनके लेखे असल संघर्ष राजनीति में नहीं संस्कृति में चल रहा है। यही हमारे अन्य परिवर्तनकामी लेखकों की भी राय है। संस्कृति में संघर्ष के कारण मौजूदा लोकतंत्र के बारे में तमाम रंगत के क्रांतिकारी लेखक मौजूदा लोकतंत्र और पूंजीवाद पर सवालिया निशान लगाते रहते हैं। आज जिस तरह लोग ग्लोबलाईजेशन के मानवीय आयाम की हिमायत कर रहे हैं। उसी तरह नामवरी फिनोमिना समाजवाद के मानवीय चेहरे की मांग करता रहा है।
इसके बावजूद नामवर फिनोमिना का सत्ता में रूतबा बरकरार है। वे स्वभावत- लेनिनपंथी हैं,लेनिन की मान्यता थी कि हर हालत में सत्ता मिलनी चाहिए उसके लिए हाथ कितने ही गंदे क्यों न हो जाएं। नामवरजी का क्रांति के प्रति नैतिकतावादी नजरिया कभी नहीं रहा। क्रांतिकारी कार्यकलापों को सत्ता के साथ जोडकर देखने के कारण ही वे विभ्रम पैदा करते हैं। उन्होंने कभी भी अपने परिवर्तनकामी नजरिए पर तथाकथित क्रांतिकारी नैतिकता को हावी नहीं होने दिया। क्रांति को नैतिकता के नजरिए से देखने वाले आए दिन नामवरजी की सत्ताकेन्द्रित भूमिका की निंदा करते हैं। नामवरजी इन सबकी अनदेखी करते हैं। क्योंकि उनके लिए नैतिकतावदी नजरिए का कोई अर्थ नहीं है। इस अर्थ में वे पूर्ण लिबरल हैं। क्रांति के प्रति नैतिकतापंथी रूझान वाले लोग मूलत: कंजरवेटिव होते हैं। इस तरह के लोग 'असली' क्रांतिकारी नजरिए की मांग करते हैं लेकिन स्वयं व्यवहार में बहुरूपी चोले में सत्ता का काम करते हैं। नामवरजी इस अर्थ में पारदर्शी है कि वे क्या हैं और क्या कर रहे हैं,इसे सब जानते हैं। उनका बहुरूपी नजरिया नहीं है। नामवरजी जहां हैं वहां पर लोग जानते हैं वे क्या करेंगे। नामवर के बारे में दुविधा नहीं होती।
नामवरजी के सत्ताप्रेम को हमारे क्रातिकारी,प्रगतिशील,जनवादी सभी किस्म के लोग आलोचनात्मक नजरों से देखते हैं, इसके बावजूद नामवरजी सत्ता का साथ छोडने को तैयार नहीं होते तो इसका प्रधान कारण है सत्ता के साथ रहने पर ही जनता के पक्ष में कुछ किया जा सकता है। पूंजीवाद से लेकर समाजवाद तक सारी जंग सत्ता पाने की है। हर हाल में सत्ता पाना लेनिनवादी उसूल है। नामवरजी ने बडे ही कौशल के साथ इसे समूचे व्यवहार में ढाल लिया है। इसके कारण हजारों नौजवानों की नौकरी उनके हाथों लगी है। इनमें भक्त भी हैं,योग्य भी हैं। नामवरजी यदि सत्ता के खेल से अपने को बाहर कर लेते तो क्या वे हजारों नौजवानों की मदद कर पाते। अनेक किस्म के संस्थानों से जुडे रहकर वे वही काम करते हैं जो उन्हें सही लगता है। वे सत्ता के गलियारे में रहते हैं, वहां पहुँचने की प्रक्रियाओं में भी रहते हैं लेकिन करते वही हैं जो उन्हें सही लगता है। उनके विवेक के द्वारा लिए गए फैसले के बारे में किसी की भिन्न राय हो सकती है लेकिन वे सत्ता में बैठकर अपने मन की करते हैं। यह काम वे प्रच्छन्न भाव से करते हैं।
नामवरजी इस अर्थ में बडे हैं क्योंकि उनके पास हमेशा वैकल्पिक प्रस्ताव होते हैं। वैकल्पिक प्रस्तावों को वैकल्पिक नजरिए से ही बनाते हैं। वे न तो किसी दल और न किसी मंत्री,और न किसी कुलपति के इशारे पर सोचते हैं। नामवरजी की कमजोरी यह है कि उन्हें 'सैद्धान्तिकी' या थ्योरी से नफरत है। वह अच्छी तरह जानते हैं 'थ्योरी' के बिना सब बेकार है। प्रयोजनमूलकता के आधार पर साहित्य,कला,संस्कृति ,राजनीति आदि का दर्जा ऊँचा नहीं बनाया जा सकता। प्रयोजनमूलक नजरिया कामचलाऊ होता है। व्यवहारवाद को इसमें पर्यापत मौका मिलता है। नामवरजी अच्छी तरह जानते हैं कि हिन्दी में 'थ्योरी' सबसे दुर्लभ चीज है,आज हिन्दीभाषी समाज ,साहित्य और संस्कृति जिस तरह की जटिलतम समस्याओं में फंस गए हैं उनके समाधान का रास्ता 'थ्योरी' के बिना संभव नहीं है और 'थ्योरी' से हिन्दी के अन्य लेखक- आलोचकों की तरह नामवर जी को भी नफरत है।
नामवरजी उन तमाम कठमुल्ले मार्क्सवादियों से भिन्न हैं जो 'विचारधारा' के किताबी फार्मूले जीवन में लागू करते रहते हैं। ये लोग विचारधारा को 'अधिरचना' के अर्थ में पकडे रहते हैं और उसे यांत्रिक तौर पर नामवरजी पर लागू करते हैं। विचारधारा को अधिरचना मानना विचारधारा का सरलीकरण है। वस्तुओं के प्रति जडपूजाभाव असल में विचारधारा है। नामवरजी मार्क्सवादी के नाते देवपूजावाद का साहित्य में हमेशा से निषेध करते रहे हैं। उनके प्रत्येक व्याख्यान की धुरी है देवपूजावाद का खंडन। देवत्व बनाने वाली साहित्यदृष्टि का निषेध। इस क्रम में हर बार नामवर के हाथों कोई न कोई मूर्ति टूटी है। जो लोग मार्क्सवाद पढ़ना चाहते हैं वे गौर से 'पूंजी' नामक ग्रंथ में विवेचित वस्तु जडपूजावाद की आलोचना को गौर से पढें तो पाएंगे कि मार्क्स असल में किस अर्थ में विचारधारा की बात करते हैं।
नामवरजी के नजरिए में असहमति का स्वर प्रमुख है। वे सहमत कम और असहमत ज्यादा होते हैं। हमेशा हमारे अंदर बैठे 'साहित्यपूजा' भाव को खंडित करते हैं। हम उन्हें बुलाते हैं अपनी बात के समर्थन के लिए लेकिन वे हमेशा भिन्न बातें करते हैं। नामवरजी की इस भिन्नता का स्रोत है 'विचारधारा' के खिलाफ अहर्निश जंग।
विचारधारा के प्रभाववश अनेक लोग अनेक किस्म की साहित्यिक मूर्खताएं भी करते रहते हैं, साहित्यिक मूर्खताओं को ध्वस्त करने में नामवरजी बेजोड़ हैं। हमारे अधिकांश साहित्यिक आयोजन साहित्यिक मूर्खता के जीते जागते नमूने होते हैं और हम उनमें नामवरजी को बुलाते हैं और वे जाते हैं और मूर्खताओं को नंगा करते हैं इसके बाद हम पश्चाताप करते हैं कि अरे उन्हें क्यों बुलाया। नामवर के भाषणों के निशाने पर साहित्यिक एटीट्यूट ,अनैतिहासिक रूझान और संकीर्णताएं रही हैं। एक समस्या भी है कि वे जब भी बोलते हैं तो गहरे में जाकर चोट करते हैं। वे विचारधारा को निशाना बनाते हैं। वे विचारधारा के बडे शिकारी हैं।
नामवरजी के पूरे नजरिए में 'सामंजस्य' की धारणा नजर नहीं आती। वे हमेशा 'भिन्न' नजरिए पर जोर देते हैं और तर्क को खुला रखते हैं। हिन्दी में 'सामंजस्य' की धारणा का वैभव चरमोत्कर्ष पर है। वे हमेशा 'सामंजस्य' की कोटि में शामिल होने इंकार करते रहे हैं। व्यवहारिक जीवन में वे सामंजस्यवादी' हैं लेकिन आलोचना में उसके मुखर विरोधी हैं। 'सामंजस्य' को उन्होंने व्यवहारवाद में तब्दील करने में महारत हासिल कर ली है। साहित्य में 'सामंजस्य' की धारणा का निषेघ करने के कारण ही वे विचारधारात्मक मुठभेड़ों में सबसे ज्यादा असहिष्णुभाव से पेश आते हैं। मूर्त्तिभंजक नजर आते हैं। यहीं पर उनके वैदुष्य का चरमोत्कर्ष नजर आता है।
विचारणीय बात यह है कि नामवरी फिनोमिना ऐसे समय में अप्रासंगिक नहीं बना जब सारी दुनिया में मार्क्सवाद पर हमले हो रहे थे,मार्क्सवाद को अप्रासंगिक घोषित किया जा रहा था। हिन्दी में मार्क्सवाद की जनप्रियता का ग्राफ बनाए और बचाए रखने में नामवरजी को समाजवाद के पतन के दौर में भी सफलता मिली। मार्क्सवाद के संकट के दौर में लाखों प्रगतिशीलों के कंठहार बने, मार्क्सवादी भावों और विचारों को उन्होंने जनप्रियता के नए मानक दिए।
नामवरजी ने मार्क्सवाद की कठिन परीक्षा की घड़ी में भी राष्ट्रवाद का पल्लू नहीं पकडा। संभवत: वे आजादी के बाद के ऐसे एकमात्र आलोचक हैं जिनके यहां राष्ट्रवाद एकदम नजर नहीं आता। हिन्दी का लेखक सबसे पहले राष्ट्रवादी होता है बाद में कुछ और होता है। हिन्दी में राष्ट्रवादरहित आलोचक की पहचान के वे आदर्श पुरूष हैं। उल्लेखनीय है उनके गुरूवर हजारीप्रसाद द्विवेदी और मार्क्सवादी रामविलास शर्मा में भी राष्ट्रवाद है। नामवरजी ने राष्ट्रवाद को अपने नजरिए से कैसे निकाल दिया यह स्वयं में अध्ययन का रोचक विषय है।
नामवर फिनोमिना की दूसरी महत्वपूर्ण बात है साहित्यिक आलोचना और व्याख्यानों में पूंजीवादी तर्कों का एकसिरे से अस्वीकार। पूंजीवादी तर्कशास्त्र के बिना हिन्दी की आलोचना नहीं चलती,प्रत्येक समीक्षक पूंजीवादी तर्कशास्त्र के किसी न किसी पहलू का अपने आलोचनात्मक दृष्टिकोण में इस्तेमाल करता रहा है। मुक्तिबोध के बाद नामवरजी दूसरे बडे आलोचक हैं जो पूंजीवाद के तर्कशास्त्र के बाहर जाकर अपने तर्कशास्त्र का विकास करने में सफल रहे हैं।
मजेदार बात यह है कि उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना न्यूनतम भी नहीं लिखी है,जबकि मुक्तिबोध ने पूंजीवाद की आलोचना के बाद उसके तर्कशास्त्र को आलोचना और कविता में अस्वीकार किया। नामवरजी के तर्कशास्त्र का पैराडाइम मार्क्सवाद पर आधारित है।
गैर पूंजीवादी पैराडाइम में तर्कशास्त्र विकसित करते समय कई बार उनसे बेवकूफियां भी हुईं हैं, लेकिन पूंजीवादी तर्कशास्त्र के परे प्रतिवादी पैराडाइम में रहने के कारण उनकी ये बेवकूफियां आंखों से कुछ ही दिनों के बाद ओझल हो जाती हैं।
नामवरजी का असल तनाव है 'व्यक्ति नामवर' और 'सार्वजनिक नामवर' के बीच में। नामवरजी के पास इस तनाव से मुक्ति का कोई रास्ता नहीं है। 'व्यक्ति नामवर' का जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण और भावात्मक कष्टों से भरा रहा है। आप ज्योंही 'व्यक्ति नामवर' को देखेंगे इनके 'सार्वजनिक नामवर' का जादू गायब हो जाएगा। नामवर के जीवन की सबसे बडी त्रासदी यह है कि उनके निजी और पारिवारिक कष्टों में किसी की दिलचस्पी नहीं है। इस अर्थ में वे ग्रीक त्रासदी के महानायकों की तरह हैं जिनके निजी कष्टों में दर्शकों की दिलचस्पी कम होती थी। ऐसा नहीं है कि नामवरजी के जीवन में कोई तकलीफ नहीं रही हे। अनेक तकलीफें रही हैं। नामवरजी हमेशा अपनी इन दो इमेजों के बीच में संघर्ष करते रहे हैं। उनकी सार्वजनिक इमेज एक प्रतिवादी नायक आलोचक की है। जो पावर के बिना रह नहीं सकता। बाहर उसकी इमेज का जादू चलता है घर में वह उतना जादू नहीं कर पाता। इस प्रतिवादी नायक के अनेक रूप लोगों ने देखे हैं ,इनमें जो भी रूप स्थिर होने की कोशिश करता है वे तुरंत दूसरा रूप धारण कर लेते हैं। फलत: लोगों को वे हमेशा बदले हुए नजर आते हैं।
आजादी के बाद साहित्य और दर्शन के बीच संवाद,संपर्क और विनिमय बंद हो गया है। इस दौर में साहित्य का राजनीतिक आंदोलनों से आदान प्रदान,संपर्क और संवाद ज्यादा हुआ है। राजनीतिक तात्कालिकता और साहित्यिक विमर्शों के बीच गहरा अन्तस्संबंध है। शीतयुध्द, नेहरूयुग,अंग्रेजी हटाओ-हिन्दी लाओ,आपात्काल, लोकतंत्र ,स्त्री आंदोलन,दलित आंदोलन के साथ अन्तस्संबंधों को रेखांकित करते हुए आलोचना विकसित हुई है। इस क्रम में साहित्य की आलोचना कम और राजनीतिक संवृत्तियों और आंदोलनों की व्याख्या ज्यादा हुई है। आलोचना की इस पद्धति से नामवर सिंह अपने को अलगाते हैं। उल्लेखनीय है उपरोक्त सभी विवाद साहित्येतर विवाद हैं और वहीं पर पैदा हुए हैं। इस क्रम में साहित्य और आंदोलन के अन्तस्संबंध का सरलीकृत फार्मूला बना लिया गया है। नामवरजी ने इस सरलीकृत फार्मूले को हमेशा अस्वीकार किया है। वे तात्कालिक राजनीतिक कार्यभारों को साहित्य के कार्यभार नहीं मानते। व्यवहार में तात्कालिक राजनीतिक कार्यभारों के आधार पर ही साहित्य की व्याख्या और पुनर्व्याख्या हो रही है। साहित्य में 'खोज' और 'मूल्यांकन' के काम की जगह 'प्रयोजनमूलक साहित्य' 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' और 'प्रयोजनमूलक आलोचना' का पठन-पाठन और लेखन हो रहा है।
अब साहित्य की शिक्षा का लक्ष्य है प्रतियोगिता परीक्षाओं में पास होने में मदद करना। फैलोशिप प्राप्त करने में मदद करना। साहित्य के अध्ययन -अध्यापन का लक्ष्य आलोचनात्मक विवेक अथवा आलोचनात्मक मूल्यांकन का नजरिया पैदा करना नहीं है। फलत: हमारे विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से पास हो जाते हैं,स्कॉलरशिप पा जाते हैं, नौकरी पा जाते हैं किंतु साहित्यिक विचारों और अवधारणाओं से अनभिज्ञ होते हैं।
साहित्य की आलोचनात्मक जांच-पड़ताल तकरीबन बंद है। फलत: पाठ के प्रासंगिक अर्थ की व्याख्या का लोप हो गया है। अब विद्यार्थी को रेडीमेड उत्तर और व्याख्याओं को पढ़ाने पर ज्यादा जोर है। रेडीमेड उत्तर इस युग का साहित्यिक अधिनायकवाद है। इसने साहित्य के विकास और आलोचनात्मक प्रसार को बाधित किया है। इसने पाठ के अर्थ को सीमित किया है। फलत: पाठ के साथ जुड़े सामयिक राजनीतिक एटीट्यूट और अर्थभेदों के अध्ययन और मूल्यांकन को पढ़ने-पढ़ाने की पध्दति का लोप हो गया है। अब अच्छा शिक्षक वही है जो पाठ के स्थिर अर्थ को पढ़ा दे। इसने साहित्य की व्याख्या में आने वाले भेदों को खत्म कर दिया है। आलोचना के विकास की विवरणात्मक व्याख्याएं ज्यादा हो रही हैं। इन सबके प्रति नामवरजी हमेशा से प्रतिवाद करते रहे हैं।
हिन्दी आलोचना में नामवर सिंह की आलोचना मूलत: मौलिक और खुली आलोचना है। इसमें मनवाने अथवा फुसलाने का भाव नहीं है और न यह अंतिम व्याख्या है। यह आलोचना का आरंभ है समापन नहीं है। यह आलोचना बहस के लिए मजबूर करती है। असहमति के लिए मजबूर करती है। इसमें सबको संतुष्ट करने का भाव नहीं है, यह आलोचना का खुला पाठ है आप जहां से भी चाहें दाखिल हो सकते हैं।
नामवरसिंह अपनी आलोचनात्मक पध्दति को खुला रखते हैं। उनकी आलोचना में 'पाठ के अधिकार' और 'व्याख्याकार के अधिकार' का समावेश है। इस पध्दति का उन्होंने व्यापक प्रचार किया है और इस क्रम में 'पाठ का अधिकार' गायब हो गया और 'व्याख्याकार का अधिकार' प्रतिष्ठित हो गया। व्याख्याकार के अधिकार की महत्ता स्थापित होने का परिणाम यह निकला है कि बगैर किसी क्राइटेरिया के व्याख्या होने लगी है। प्रत्येक व्याख्या का सुखद अंत होता है। व्याख्या के सुखद अंत का अर्थ है प्रशंसा,गुणचर्चा,हल्की आलोचना आदि।
नामवरजी ने मार्क्सवाद की कठिन परीक्षा की घड़ी में भी राष्ट्रवाद का पल्लू नहीं पकडा।nice
जवाब देंहटाएंयह तो नामवर नामा हो गया। पर इस की जरूरत भी थी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित लेख जो उनके साहित्यिक पक्ष को उजागर करता है। उन्होंने कभी राजनीति में भी कदम रखा था...उस पर भी कुछ चर्चा हो जाती तो एक संक्षिप्त जीवनी ही कही जा सकती थी।
जवाब देंहटाएंनामवर जी पर यह एक अच्छा आलेख है और ज़रूरी भी । कृपया एक आलेख यहाँ भी देखे " आलोचक"
जवाब देंहटाएंhttp://sharadkokaas.blogspot.com
उसके व्य़क्तित्व में विलक्षणता और सामान्य का निराला मिश्रण है- सही है।
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