मंगलवार, 3 नवंबर 2009

इरोम शर्मि‍ला : सेना नहीं जनतंत्र चाहि‍ए

                         
       वह लोकतंत्र की तलाश में दस सालों से भूखी प्‍यासी कैद में है। उसे सेना नहीं लोकतंत्र चाहि‍ए। दमन नहीं सम्‍मान चाहि‍ए। हमने लोकतंत्र की तलाश में जान कुर्बान करने वाले नहीं देखे । लोकतंत्र के जुनूनी नहीं देखे। क्रांति‍ ,राष्‍ट्रवाद और राष्‍ट्र से अलग स्‍वतंत्र देश की मांग के लि‍ए जोखि‍म उठाने वाले सुने हैं।लेकि‍न लोकतंत्र और मनुष्‍यों के अधि‍कारों के लि‍ए जान की कुर्बानी देने वाले नहीं सुने।  
     हमने ऐसी औरतें देखी हैं जो सुखी संसार खोजती हैं।गहने खोजती हैं। मकान खोजती हैं। अच्‍छा वर खोजती हैं। कॉस्‍मेटि‍क्‍स खोजती हैं। सजने संवरने में अनंत समय खर्च करती हैं। आत्‍ममुग्‍ध नायि‍का की तरह स्‍वयं के सम्‍मोहन में कैद रहती हें।  लेकि‍न एक ऐसी औरत भी है जो न सजती है ,न संवरती है ,उसका एकमात्र साज-श्रृंगार है लोकतंत्र। 
        अगर कोई पूछे औरत को क्‍या चाहि‍ए मैं कहूँगा लोकतंत्र । आदि‍वासी को क्‍या चाहि‍ए ? लोकतंत्र। गरीबों को क्‍या चाहि‍ए ?लोकतंत्र । देश में लोकतंत्र है या नहीं यह इस बात से तय होगा कि‍ आदि‍वासि‍यों ,औरतों और अति‍गरीबों के जीवन में लोकतंत्र वहुँचा है कि‍ नहीं। इनके जीवन में लोकतंत्र का वातावरण बना है या नहीं। लोकतंत्र की पहचान का मानक वोट नहीं है। चुनी हुई सरकार नहीं है। लोकतंत्र का अर्थ है आदि‍वासी ,औरत और अल्‍पसंख्‍यकों के लि‍ए लोकतंत्र की गारंटी। लोकतांत्रि‍क वातावरण की सृष्‍टि‍। मानवाधि‍कारों की अबाधि‍त गारंटी। इस पैमाने पर केन्‍द्र सरकार वि‍गत साठ सालों में बुरी तरह वि‍फल रही है।
      आदि‍वासी,औरत और अल्‍पसंख्‍यक हमारे समाज की धुरी हैं। बहुसंख्‍यक आबादी इन्‍हीं तीन समूहों में नि‍वास करती है और इनमें लोकतंत्र के दर्शन दूर-दूर तक नहीं होते। इन तीनों समूहों के जीवन में लोकतंत्र और मानवाधि‍कारों के अभाव और हनन को आए दि‍न अपनी आंखों के सामने देखते हैं और चुप रहते हैं।
     आप शहर में रहते हैं या गांवों में ,गरीब हैं या अमीर हैं,महानगर में रहते हैं या आदि‍वासी जंगलों में। कुछ देर के लि‍ए वि‍चार कीजि‍ए क्‍या हम अपने समाज में आदि‍वासी, औरत और अल्‍पसंख्‍यकों को दैनन्‍दि‍न जीवन में लोकतांत्रि‍क ढंग से जीने देते हैं ? क्‍या इन समूहों को इनकी शर्तों पर जीने देते हैं। जी नहीं। इसके वि‍परीत इनके लोकतांत्रि‍क हकों का हनन करते रहते हैं। हम अभी भी अंदर से अलोकतांत्रि‍क बने हुए हैं।
       हमारे  देश में लोकतंत्र का प्रहसन चल रहा है। इसमें हम सब मजा ले रहे हैं। दर्शक की तरह तालि‍यां बजा रहे हैं। लोकतंत्र हमारे लि‍ए देखने की चीज है। हम इसमें हि‍स्‍सा नहीं लेते सि‍र्फ दर्शक की तरह देखते हैं। जय हो जय हो करते हैं।
      आदि‍वासी,औरत और अल्‍पसंख्‍यकों के प्रतीक या आइकॉन के रूप में हमारे बीच में एक औरत है जो लोकतंत्र के इस प्रहसन में ताली बजाने को तैयार नहीं है। वह लोकतंत्र में हि‍स्‍सा लेना चाहती है। वह दर्शक बने रहना नहीं चाहती। उसके लि‍ए मानवाधि‍कार कागजी चीजें नहीं हैं। वह एक लेखि‍का है उसने सैंकड़ों कवि‍ताएं लि‍खी हैं। उसे अपनी कवि‍ता के लि‍ए लोकतंत्र की तलाश है। वह लोकतंत्र और मानवाधि‍कारों के बि‍ना जिंदा नहीं रहना चाहती। इसके लि‍ए वह दस साल से भूख हडताल पर है। वह शांति‍पूर्ण प्रति‍वाद कर रही है।
       उसने कभी हिंसा नहीं की। उसके खि‍लाफ राज्‍य की संपत्‍ति‍ नष्‍ट करने का भी आरोप नहीं है। वह केन्‍द्र सरकार के खि‍लाफ राजद्रोह में भी शामि‍ल नहीं रही।उसके खि‍लाफ कि‍सी भी कि‍स्‍म के अपराध का मामला सरकार नहीं बना पायी है। इसके बावजूद वह मणि‍पुर में कैद है । वह लोकतंत्र की देवी है उसका नाम है इरोम चानू शर्मि‍ला।
      आज से ठीक दस साल पहले 2 नबम्‍बर 2000 को उसने भूख हडताल आरंभ की थी, उसकी मांग है कि‍ मणि‍पुर से '' आर्म्‍स फोर्सेज स्‍पेशल पावर एक्‍ट 1958'' को तुरंत हटाया जाए। इस कानून के बहाने इस इलाके में सेना को उत्‍पीड़न करने के अबाध अधि‍कार मि‍ल गए हैं। इरोम का भारत के लोकतंत्र में गहरा वि‍श्‍वास है और वह चाहती है कि‍ मणि‍पुर के नागरि‍कों के मानवाधि‍कारों की रक्षा की जाए। इस इलाके के लोगों को मानवाधि‍कारों का उपभोग करने का मौका दि‍या जाए। इरोम दस साल से भूख हडताल पर है पुलि‍स के लोग उसे नलि‍यों के जरि‍ए जबर्दस्ती खाना -पानी देते रहे हैं।  
     इरोम को सेना ,सत्‍ता,यश,दौलत,पद,पुरस्‍कार नहीं चाहि‍ए । वह शांति‍ से रहना चाहती है। अपने ही लोगों की सुरक्षा के साए में रहना चाहती है। इरोम आज उत्‍तरपूर्वी राज्‍यों की ही नहीं बल्‍कि‍ सारे देश के आदि‍वासि‍यों,औरतों और अल्‍पसंख्‍यकों के लोकतांत्रि‍क अधि‍कारों के जंग की प्रतीक बन गयी है। वह मानवाधि‍कारों के लि‍ए धीरे धीरे गल रही है। उसकी मांग है कि‍ मणि‍पुर से ''सैन्‍यबल वि‍शेषाधि‍कार कानून'' हटाया जाए। पुलि‍स उसे दस साल से जबर्दस्‍ती खाने खि‍ला रही है। उसने अपने हाथ से न तो खाना खाया है और एक बूंद पानी ही पीया है। आज वह भारत की सत्‍ता के खि‍लाफ प्रति‍वाद प्रतीक बन गयी है।
   उसने वि‍शेष सैन्‍य कानून को 'नो' बोल दि‍या है। उसका 'नो' या 'नहीं' अनेकार्थी है। उसके 'नहीं' में वि‍भ्रम नहीं है। अस्‍थि‍रता नहीं है। अति‍रि‍क्‍त अर्थ अथवा अति‍रंजना भी नहीं है। उसके 'नहीं' में मणि‍पुरी जनता के जानोमाल,सम्‍मान और स्‍वाभि‍मान की रक्षा का भाव व्‍यक्‍त हुआ है। वह 'नो' के जरि‍ए भारतीय सत्‍ता की वि‍भेदकारी दृष्‍टि‍ को सामने ला रही है।
     उत्‍तर-पूर्व के आदि‍वासि‍यों और पर्वतीय जाति‍यों के प्रति‍ केन्‍द्र सरकार की असफल और भेदभावपूर्ण राजनीति‍ पर पर्दा डालने के लि‍ए वि‍शेष सेन्‍य कानून का इस्‍तेमाल कि‍या जा रहा है। उत्‍तर-पूर्व के राज्‍यों में यह कानून एक दशक से भी ज्‍यादा समय से लागू है। इरोम ने जब इस बर्बर कानून के प्रति‍ 'नो' कहा । उसका 'नो'  शौकि‍या नहीं है। स्‍वत:स्‍फूर्त्‍त नहीं है। बल्‍कि‍ सुचिंति‍त है।  इरोम ने जब 'नो' बोला था तो यह सि‍र्फ सैन्‍य कानून के प्रति‍ इंकार नहीं था बल्‍कि‍ भारत की राजसत्‍ता का भी अस्‍वीकार था।
      इरोम जब सैन्‍य कानून को 'नो' बोल रही थी तो वह भारतीय सत्‍ता के शोषक उत्‍पीडक शासन को भी 'नो' कह रही थी,वह उन तमाम कानूनों को भी 'नो' कह रही थी जो मणि‍पुरी जनता के मानवाधि‍‍कारों का हनन करते हैं। वह उन तमाम जाति‍यों और सामाजि‍क समूहों के प्रवि‍लेज को भी 'नो' कह रही है जो केन्‍द्र की नीति‍यों के कारण इन्‍हें मि‍ले हैं। वह हमारे संवि‍धान में नि‍हि‍त मानवाधि‍कार वि‍रोधी कानूनों को भी 'नो' कह रही है। आज उसके 'नो' में एक नहीं अनेक 'नो' शामि‍ल हैं। वह पूंजीवादी वि‍कास की कल्‍याणकारी नीति‍यों को भी 'नो' कह रही है। उसका 'नो' मानवाधि‍कार से वंचि‍त आदि‍वासि‍यों की आवाज है।
    इरोम का 'नो' एक स्‍त्री का 'नो' नहीं है। वह अपने 'नो' के जरि‍ए बता रही है कि‍ उत्‍तर पूर्व में सब कुछ सामान्‍य नहीं है। उसका 'नो' उत्‍तरपूर्व के आर्थि‍क वि‍कास की पोल खोलता है।  केन्‍द्र सरकार का उत्‍तर पूर्व के राज्‍यों को लेकर जि‍स तरह का दमनात्‍मक और उपेक्षापूर्ण रवैयया रहा है उस सबको वह 'नो' कह रही है।
     इरोम का 'नो' एक औरत का 'नो' है। औरत जब कि‍सी बात पर 'नो' कहती है तो बागी कहलाती है। उसने सचमुच में मानवाधि‍कारों के लि‍ए बगावत कर दी है। उसने औरत और आदि‍वासी जाति‍यों के स्‍वाभि‍मान के लि‍ए बगावत कर दी है उसकी बगावत खाली नहीं जाएगी। यह ऐसी बगावत है जि‍सने केन्‍द्र की नींद हराम कर दी है। यह ऐसी बगावत है जि‍से सेना रोक नहीं पा रही है,यह ऐसी बगावत है जि‍समें जनता की बजाय सत्‍ता हिंसा पर उतर आयी है।   
      हमारे देश की तमाम प्रमुख राजनीति‍क पार्टियां ,मध्‍यवर्ग -उच्‍चमध्‍यवर्ग और मीडि‍या कल्‍याणकारी राज्‍य के फल खाने में मशगूल हैं। उन्‍हें उत्‍तर पूर्व का संकट समझ में नहीं आता।  उनकी इसमें कोई दि‍लचस्‍पी नहीं है।वे इरोम की भूख हडताल पर उद्वेलि‍त नहीं होते।
    बौद्धि‍कों का समाज परजीवि‍यों और चंचल लोगों के रूप में इधर उधर के मसलों पर मीडि‍या से लेकर सेमीनारों में तलवार भांजता रहता है। लेकि‍न उसे आदि‍वासि‍यों के मसले,उपेक्षा और अपमान परेशान नहीं करते। आदि‍वासी यदि‍ अपनी कि‍सी समस्‍या पर समाधान के लि‍ए राजनीति‍क प्रति‍क्रि‍या व्‍यक्त करते हैं तो तुरंत हिंसा हिंसा का हाहाकार शुरू हो जाता है।
    इरोम शर्मीला के 'नो' ने भारत के बहुसांस्‍कृति‍कवाद की भी पोल खोल दी है। हमारी सत्‍ता प्रचार में बहुसांस्‍कृति‍कवाद का जि‍तना ही ढोल पीटे व्‍यवहार में उसने बहुसांस्‍कृति‍क सहि‍ष्‍णुता को न्‍यूनतम स्‍पेस तक नहीं दि‍या है। आज अधि‍कांश आदि‍वासी इलाके सेना के हवाले हैं अथवा साम्‍प्रदायि‍क और पृथकतावादि‍यों के कब्‍जे में हैं। इन राज्‍यों से लोकतांत्रि‍क ताकतें एकसि‍रे से गायब कर दी गयी हैं अथवा हाशि‍ए पर पहुँचा दी गयी हैं।  इन राज्‍यों में लोकतंत्र और मानवाधकारों के अभाव में वि‍भि‍न्‍न जनजाति‍यों के बीच में वि‍द्वेष और टकराव चरर्मोत्‍कर्ष पर पहुँच गया है।
इरोम शर्मीला का प्रति‍वाद कि‍सी भी तरह पृथकतावादी नहीं है। उसकी कोई मांग भी पृथकतावादी नहीं है। इन इलाकों में वि‍शेष सैन्‍य कानून और जनता के प्रति‍नि‍धि‍यों का शासन एक साथ चल रहा है। इन दोनों में गहरा अन्‍तर्विरोघ है। सेना के शासन और मानवाधि‍कारों के अभाव में लोकतंत्र का शासन मूलत: अधि‍नायकवादी तंत्र है।
मणि‍पुर में सेना को वि‍शेष अधि‍कार देने के बाद सामाजि‍क जीवन में शांति‍ नहीं लौटी है,अपराध नहीं घटे हैं। अपराध और उत्‍पीड़न का ग्राफ नि‍रंतर बढा है। उत्‍तर औपनि‍वेशक समाजों की यह ठोस सच्‍चाई है जि‍तना ज्‍यादा पुलि‍स और सैन्‍यबलों का इस्‍तेमाल समाज के नि‍यमन के लि‍ए कि‍या गया है उतना ही अराजकता और अव्‍यवस्‍था बढ़ी है। उत्‍तर औपनि‍वेशि‍क परि‍स्‍थि‍ति‍यों और समस्‍याओं के समाधान सेना और पुलि‍स के हाथ में देने से समस्‍या और भी उलझी है। उत्‍तर पूर्व के राज्‍यों से लेकर जम्‍मू-कश्‍मीर तक और इधर लालगढ में सेना और पुलि‍स की जि‍तनी नि‍गरानी और हस्‍तक्षेप बढा है उससे समाज और भी ज्‍यादा अनि‍यंत्रि‍त हुआ है।
     इस युग में जि‍तनी सेना उतनी ही अराजकता। जि‍तनी पुलि‍स की नि‍गरानी उतना ही ज्‍यादा अपराधी हिंसाचार। मणि‍पुर भी इस फि‍नोमि‍ना से बचा नहीं है। सरकार ने सेना को वि‍शेष अधि‍कार समाज को अनुशासि‍त करने और दंडि‍त करने के लि‍ए दि‍ए हैं लेकि‍न इसके परि‍णाम उल्‍टे नि‍कले हैं । उत्‍तर पूर्व के राज्‍यों में पहले की तुलना में आज ज्‍यादा अराजकता और असुरक्षा है। जि‍नके हाथ में सत्‍ता है वे लोकतंत्र और आजादी का नाटक कर रहे हैं। मानवाधि‍कारों के अभाव में उत्‍तर पूर्व के राज्‍यों में राष्‍ट्र-राज्‍य की पकड़ कमजोर हुई है। राष्‍ट्र-राज्‍य की कमजोरि‍यों को छि‍पाने के लि‍ए सेना को वि‍शेष अधि‍कार देने के बहाने केन्‍द्र अपना इन राज्‍यों में वर्चस्‍व बनाए रखना चाहता है।
    आयरनी यह है कि‍ इन इलाकों में भारत सरकार का शासन है लेकि‍न आम लोगों के साथ सरकार का संबंध पूरी तरह कट चुका है। आम लोग भारत में रहते हुए भी उन तमाम अधि‍कारों से अपने को वंचि‍त हैं जो दि‍ल्‍ली-मुंबई-चेन्‍नई आदि‍ के नागरि‍क उपभोग कर रहे हैं। इन राज्‍यों के नागरि‍कों का दैनन्‍दि‍न अनुभव भारत सरकार और उसके तंत्र के प्रति‍ आस्‍थाएं कमजोर करता है। भारत सरकार ने अपने इन इलाकों में आतंक का हौव्‍वा खड़ा कि‍या और बाद में उसके दमन के लि‍ए सेना को वि‍शेषाधि‍कार देकर दमन चक्र आरंभ कर दि‍या।
        उत्‍तरपूर्व को लेकर सत्‍ता का शानदार मीडि‍या प्रबंधन है ।  भारत में ज्‍यादातर पत्र-पत्रि‍काएं पढने वाले तक इन राज्‍यों में क्‍या हो रहा है,सेना क्‍या कर रही है, माफि‍या गि‍रोह क्‍या कर रहे हैं, भूमि‍गत संगठन कैसे अपराधी गति‍वि‍धि‍यों में लि‍प्‍त हैं,इरोम शर्मीला कौन है और वह कि‍स बात के लि‍ए दस साल से भूख हडताल पर है इत्‍यादि‍ सवालों के बारे में आम लोग एकदम नहीं जानते। मीडि‍या में उत्‍तरपूर्व एकसि‍‍रे से गायब है।
     मीडि‍या में केन्‍द्र के प्रधान राजनीति‍क दलों,सैलीब्रेटी ,फि‍ल्‍मी गाने और क्रि‍केट की खबरों के बहाने लोकतंत्र के समूचे सारवान खबरों के संसार को अपदस्‍थ कर दि‍या गया है। मीडि‍या ने लोकतंत्र और मानवाधि‍कारों को क्रि‍केट और सैलीब्रेटी के जरि‍ए अपदस्‍थ कर दि‍या है। राजनीति‍ में भी मीडि‍या सि‍र्फ केन्‍द्र के प्रधानदल और वि‍पक्ष की राजनीति‍ के सतही सवालों मशगूल रहता है। उसकी क्षेत्रीय राजनीति‍ खासकर उत्‍तर पूर्वी राज्‍यों की राजनीति‍ को एजेंडा बनाने में दि‍लचस्‍पी नहीं होती। वह मानवाधि‍कारहनन के बडे सवालों में नि‍रंतर दि‍लचस्‍पी नहीं लेता।
       मणि‍पुर की पुलि‍स व्‍यवस्‍था कुछ इस तरह की है कि‍ आए दि‍न थाने में बंदी मार दि‍ए जाते हैं अथवा एनकाउंटर करके लोग मार दि‍ए जाते हैं। जो लोग अपराध कर रहे हैं उन्‍हें पुलि‍स पकड़ नहीं पाती है इसके वि‍परीत नि‍र्दोष नागरि‍क मार दि‍ए जाते हैं। औरतों के साथ बलात्‍कार की घटनाएं इस दौरान बढी हैं। ह्यूमन राइटस वाच गुप ने मांग की है कि‍ भारत सरकार तुरंत एक्‍शन ले। क्‍योंकि‍ मणि‍पुर में  सुरक्षाबलों और हथि‍यारबंद गि‍रोहों के द्वारा रोज र्नि‍दोष लोगों की हत्‍याएं की जा रही हैं। अपहरण कि‍या जा रहा है। यह भी मांग की है भारत सरकार तुरंत 'सैन्‍य बल (वि‍शेषाधि‍कार) कानून ' को खत्‍म करे। उल्‍लेखनीय है इस कानून को खत्‍म करने के बारे में केन्‍द्र सरकार के द्वारा बि‍ठाई गयी कमेटी सि‍फारि‍श सन् 2004 में कर चुकी है। इसके बावजूद केन्‍द्र सरकार ने इस जनवि‍रोधी कानून को अभी तक खत्‍म नहीं कि‍या है।



2 टिप्‍पणियां:

  1. हमारे जनतांत्रिक मूल्यों और उत्तर-पूर्व के बदतरीन हालात पर सोचने-विचारने के लिये प्रेरित करता बेहतरीन लेख .

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  2. अरे, कहां हो मकबूल फिदा हुसैन की हिंदुस्तान वापसी पर खिलखिलाने वाले प्रगतिशीलों अब कुछ इन मुद्दे पर भी तो कहो-बोलो।

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